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क्या महंगाई का असर कारोबारियों पर भी पड़ता है?

मज़बूत कंपनियों के बैलेंस शीट पर भी असर पड़ता है मगर उनका पहले का प्रॉफिट इतना ज़्यादा होता है कि उन्हें ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन छोटी कंपनियां और अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियों का दिवाला निकल जाता है।
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फ़ोटो साभार: The Geopolitics

महंगाई यानी जीवन जीने की लागत का बढ़ना। इस बात पर तक़रीबन सबकी सहमति है कि जब जीवन जीने की लागत बढ़ती है तो सबसे अधिक असर आम लोगों पर पड़ता है। लेकिन इस पर कम सहमति है कि महंगाई का असर उद्यमी, कारोबारियों और कंपनियों पर पड़ता है या नहीं?

चूंकि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक बार कहा था कि महंगाई का असर ग़रीबों से ज़्यादा अमीरों पर पड़ता है। इस पर पहले एक लेख भी लिखा जा चुका है। इसलिए यहां पर हल्के में इस बात को समझकर आगे बढ़ते हैं। यह कोई रॉकेट साइंस की बात नहीं है। जिसकी आमदनी अधिक होती है उस पर महंगाई की मार कम पड़ती है और जिसकी आमदनी कम होती है उसे महंगाई का बोझ ज़्यादा सहना पड़ता है। उसके महीने का पूरा हिसाब किताब बिगड़ जाता है।

हक़ीक़त यह है कि भारत जैसे देश में जहां पर 90% लोगों की आमदनी 25,000 रुपये प्रति महीने से कम है। नाबार्ड की साल 2018 की रिपोर्ट बताती है कि भारत के तक़रीबन 70% ग्रामीण परिवारों की आमदनी महीने में 8,333 रुपये से कम की होती है। कहने का मतलब यह है कि महंगाई बहुत लंबे समय से भारतीय अर्थव्यवस्था में बनी हुई है और बहुत लंबे समय से भारत की बहुत बड़ी आबादी महंगाई की मार से जूझ रही है। चूंकि अर्थव्यवस्था की गतिविधियों को आम आदमी नहीं समझता इसलिए आप यह भी कह सकते हैं कि भारत का आम आदमी महंगाई में जीने के लिए अभिशप्त है। उसे पता भी नहीं चल रहा है और सरकार की ग़लत नीतियों का परिणाम उसकी पीठ पर हर दिन कोड़े बरसा रहा है।

यह बात जगज़ाहिर है। मगर इसके बावजूद ढेर सारे लोगों के मन में यह धारणा बनी रहती है कि महंगाई की मार कंपनियों पर नहीं पड़ती होगी। तो चलिए इसी धारणा की जांच पड़ताल करते हैं कि क्या वाकई महंगाई की मार कंपनियों पर पड़ती है या नहीं?

फ्रंटलाइन के वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार वी श्रीधर कहते हैं कि जब हम कंपनी की बात करते हैं तो हमारे दिमाग में सीधे अंबानी-अडानी का ख़्याल आता है। यह धारणा इतनी मज़बूत है कि कंपनी की पहचान केवल बड़ी कंपनियों से बनने लगती है। अर्थव्यवस्था में बड़ी कंपनियां भी हैं, मझोली कंपनियां भी हैं, छोटी कंपनियां भी हैं और शुरुआती दौर की कंपनियां भी हैं। इसके अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि भारत का तक़रीबन 80 फ़ीसदी से अधिक कामगार अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं। इस तरह के खांचों में बांटकर देखें तो बात अच्छे से समझ में आयेगी।

जब महंगाई बढ़ती है तो सामान और सेवाओं की क़ीमत बढ़ती है। सामान और सेवाओं की क़ीमत बढ़ती है तो इसका मतलब है कि किसी कंपनी के लिए कच्चे माल की लागत बढ़ती है। कंपनी में काम करने वाले कर्मचारी और मज़दूर के लिए उसके जीवन की लागत बढ़ती है। महंगाई बढ़ने के दौर में ऐसा तो होता नहीं कि कर्मचारियों और मज़दूरों का वेतन बढ़े। वेतन और मज़दूरी तो जस की तस रहती है। सामान्य शब्दों में कहा जाए तो आम लोगों की ख़रीदारी की क्षमता नहीं बढ़ती है। इसलिए बहुत लंबे समय की महंगाई की वजह से सामान और सेवाएं भी कम बिकने लगती है। भारत की अर्थव्यवस्था में हाल-फिलहाल यही हो रहा है। इस तरह की स्थिति का मतलब है कि चाहे बड़ी कंपनी हो या छोटी कंपनी अगर बहुत लंबे समय तक महंगाई बनी रहेगी तो उनके प्रॉफिट मार्जिन में पहले के वित्त वर्ष के मुक़ाबले कमी आती है।

हालांकि यह बात सही है कि एक कंपनी के पास एक व्यक्ति के मुक़ाबले अथाह पैसा होता है। कंपनी के पास इतने अधिकार होते हैं कि वह अपना मुनाफ़ा बनाए रखने के लिए अपने कर्मचारियों की छंटनी कर सकती है। वेतन और मज़दूरी कम कर सकती है। मगर यह सब हथकंडे महज़ एक सीमा तक अपनाए जा सकते हैं। उसके बाद कंपनी के मुनाफ़े में कमी होने लगती है। कहने का मतलब यह है कि बहुत लंबे समय तक की महंगाई का असर कंपनियों पर पड़ता है।

तकरीबन 1940 कंपनियों पर किए गए एक विश्लेषण के मुताबिक़ महंगाई की वजह से वित्त वर्ष 2022 - 23 के जून तिमाही में हुए कंपनियों का प्रॉफिट मार्जिन वित्त वर्ष 2021-22 के जून तिमाही के मुक़ाबले घट गया। प्रॉफिट मार्जिन 7.9% से घटकर 6% पर पहुंच गया। मोटे तौर पर कहा जाए तो लंबे समय की महंगाई की वजह से कंपनियों पर असर पड़ता है। मज़बूत कंपनियों के बैलेंस शीट पर भी असर पड़ता है मगर उनका पहले का प्रॉफिट इतना ज़्यादा होता है कि उन्हें ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता। लेकिन छोटी कंपनियां और अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियों का दिवाला निकल जाता है।

मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से जुड़े कल- कारखाने के बुक ऑर्डर और इन्वेंट्री का सर्वे कर रिज़र्व बैंक ने जो आंकड़ा पेश किया है उस पर भी ग़ौर करना चाहिए। यह आंकड़ा बताता है मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की कितनी क्षमता का दोहन हो रहा है? इस आंकड़े के मुताबिक़ मार्च 2022 तक कंपनियों ने अपनी कुल क्षमता का महज 75 प्रतिशत इस्तेमाल किया। मतलब पहले से ही 25 प्रतिशत सामान बिक नहीं रहे हैं। इसका मतलब है कि लोगों की जेब में पैसा नहीं है। लोग ख़रीदारी नहीं कर रहे हैं। ऊपर से महंगाई है। इसीलिए भले यह लगेगी कंपनियों के पास अपने मुनाफ़े को बनाए रखने के कई तरीक़े हैं मगर फिर भी उनका मुनाफ़ा सामान बिकने पर ही होता है। महंगाई और कम कमाई की वजह से जब सामान नहीं बिकेगा तो कंपनियों पर असर पड़ेगा ही पड़ेगा। हालात तो अब ऐसे हो गए है कि ढेर सारे कारोबारी कुछ नया शुरू करने से इसलिए घबरा रहे हैं कि उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं कि आगे महंगाई कितनी होगी? सामान के लिए वह कौन सा क़ीमत तय करेंगे ताकि उन्हें मुनाफ़ा मिल पाए। इन सबके अलावा अगर आर्थिक उद्यमों में काम करने वाले मज़दूरों को ध्यान में रखकर सोचें तो यह दिखता है कि ज़्यादातर आर्थिक उद्यम शहरी क्षेत्रों में मौजूद हैं। महंगाई बढ़ने की वजह से जब जीवन की लागत बढ़ती है तो लेबर भी शहरी क्षेत्रों में आने से कतराता है। इसका असर यह पड़ता है कि मज़दूरों की आमदनी नहीं होती है और अर्थव्यवस्था में डिमांड की कमी बनी रहती है।

प्रोफेसर अरुण कुमार का कहना है कि यह कारोबार और कारोबारी के उत्पाद पर निर्भर करता है कि उस पर महंगाई का असर कैसे पड़ेगा? मान लीजिये कि कारोबारी ऐसा प्रोडक्ट या उत्पाद बेचता है, जिस पर उसका एकाधिकार या मोनोपॉली है तब वह महंगाई बढ़ने पर भी अपने उत्पादों की क़ीमत कम करने को तैयार नहीं होता है। लेकिन ऐसा उत्पाद है जिसके कई कारोबारी है जिसे बेचने वाले ज़्यादा है तब वहां पर महंगाई के दौर में प्रतिस्पर्धा होने लगती है। इसलिए कारोबारी माल बिकवाने के लिए डिस्काउंट देने लगते हैं। बड़े कारोबारियों के द्वारा डिस्काउंट देने के बाद भी उन पर असर कम पड़ता है लेकिन छोटे कारोबारियों पर इसका असर ज़्यादा पड़ता है। उनका प्रॉफिट मार्जिन बहुत कम हो जाता है, अधिकतर छोटे कारोबारियों पर इसका बहुत बुरा असर पड़ता है। कई बार कारोबार पूरी तरह से ढ़ह जाता है।

अरुण कुमार कहते हैं कि महंगाई से जब कच्चे माल की लागत बढ़ती है तो कंपनियां उसे अपने लागत में जोड़ लेती है। लागत में जोड़ने के बाद ही अपने सामान की क़ीमत तय करती हैं। आने वाले समय का अनुमान लगाकर ही क़ीमत तय करती हैं। इसलिए महंगाई के दौर में कंपनियों को ज़्यादातर नुक़सान इसलिए नहीं होता क्योंकि उनकी लागत बढ़ गयी है बल्कि इसलिए होती है क्योंकि महंगाई बढ़ने से लोग सामान ख़रीद नहीं रहे हैं। लोगों की ख़रीदारी कम हो गयी है।

अब कुछ आंकड़े देखिये। फ़ास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स को लीजिये। इनसे जुड़े रोज़ाना के सामानों का इस्तेमाल सभी करते हैं। इससे जुड़ी कंपनियों के मुनाफ़े में अप्रैल से जून की तिमाही में कमी दर्ज की गयी है। महंगे होते सामानों की वजह से डाबर, हिंदुस्तान लिवर, आईटीसी जैसी कंपनियों के प्रॉफिट मार्जिन पर असर पड़ा है। ब्रिटानिया के प्रॉफिट मार्जिन में अप्रैल से जून की तिमाही में महंगाई की वजह से तक़रीबन 13 फ़ीसदी की कमी हुई। गोदरेज के प्रॉफिट मार्जिन में तक़रीबन 16 फ़ीसदी की कमी। ऑटो सेक्टर को देखिए। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में इसका हिस्सा तक़रीबन 49 फ़ीसदी का है। साल 2021 - 22 में केवल 1 करोड़ 75 लाख कार बिकी। यह साल 2012 -13 के बाद अब तक बिकी सबसे कम कारों की संख्या है। छोटे और मझोले उद्योगों को दिया गया 6 में से 1 क़र्ज़ एनपीए बन गया है। इसमें ज़्यादातर वह शामिल है जिनका कारोबार 20 लाख से कम का था। वह इकाइयां जहां 5 या 5 से कम लोग काम करते हैं, जिनकी संख्या तक़रीबन 98 फ़ीसदी के आसपास है। कहने का मतलब यह है कि महंगाई की वजह से उद्यमों और कारोबारों पर असर पड़ता है लेकिन सबसे ज़्यादा उनपर जो छोटे कारोबार हैं। वे ऐसे काम करते हैं जो जीवन में रोज़मर्रा के तौर पर इस्तेमाल करने वाले सामानों को बनाने में लगी हैं।

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