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मजबूत मोदी सरकार पर क्या किसान आंदोलनों से कुछ फर्क पड़ता है?

मोदी सरकार के आने के बाद किसान विरोध प्रदर्शनों में 700 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ लेकिन मोदी सरकार पहले के मुकाबले सत्ता के लिहाज से और अधिक ताकतवर होती गई। ऐसे में सवाल बनता है कि क्या किसान आंदोलन का कुछ फर्क पड़ता है?
मजबूत मोदी सरकार पर क्या किसान आंदोलनों से कुछ फर्क पड़ता है?

साल 2000 से लेकर 2016 के बीच का अध्ययन बताता है कि किसानों को हर साल तकरीबन 2.64 लाख करोड़ रुपए का नुकसान होता है। यह अनुमान भी अभी कम ही है। इसमें केवल उन्हीं फसलों की कीमत को जोड़ा गया है जिन्हें एमएसपी के तहत शामिल किया जाता है। यानी सालाना किसानों को 2.50 लाख करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान होता है। यह तो भी कीमत की बात। जैसा कि आप सब जानते हैं कि मिनिमम सपोर्ट प्राइस का मतलब यह नहीं होता है कि किसानों को अपनी उपज का वाजिब दाम मिल रहा है। इसका मतलब यह होता कि  अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम पैसा दिया गया तो किसानों के साथ सरासर शोषण होगा।

किसानों की सारी लड़ाई यहीं पर है। किसान कह रहे हैं कि सरकार कानून में लिख दे कि किसी भी किसान की उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर नहीं खरीदी जाएगी। जबकि सरकार ने पूरी तरह से मन बना लिया है कि सरकारी हस्तक्षेप और सरकारी मदद को किसानी क्षेत्र से बाहर निकाल लिया जाए। सब कुछ बाजार के हवाले कर दिया जाए।

नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि एमएसपी का खात्मा हो जाना चाहिए। निर्मला सीतारमण एक इंटरव्यू में साफ-साफ कहती हैं कि सभी राज्यों को चाहिए कि वह अपने यहां से एपीएमसी की मंडियों की व्यवस्था को रिजेक्ट कर दें।

शायद इसीलिए कृषि विश्लेषक देवेंद्र शर्मा अपने कई सारे इंटरव्यू और लेखों में यह कहते हैं कि किसानों की परेशानियों की सबसे बड़ी वजह सरकारों द्वारा खेती किसान के लिए बनाई गई नीतियां है। इन नीतियों की वजह से ही भारत के अधिकतर किसान नहीं चाहते कि उनके बच्चे खेती किसानी के पेशे से जुड़े। पंजाब के किसानों ने भी नए कृषि कानून के वापसी के लिए खुद को सड़कों पर सरकारी वाटर कैनन, पुलिसिया लाठी-डंडे और टियर गैस के गोले के सामने झोंक दिया है।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो गैर कानूनी सभा के आंकड़े प्रस्तुत करती है। इन आंकड़ों के अध्ययन से पता चलता है कि 2014 से लेकर 2016 के बीच यानी मोदी सरकार के पहले 2 साल के कार्यकाल के बीच किसानों का विरोध प्रदर्शन 428 से बढ़कर 4837 के आंकड़े तक पहुंच गया। मोदी सरकार ने किसानों की आय तो दोगुनी नहीं की लेकिन किसानों ने मोदी सरकार के खिलाफ अपने विरोध प्रदर्शन में 700 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा कर दिया। इसके बाद अगर आप न्यूज क्लिक जैसी जनवादी डिजिटल साइट फॉलो करते हैं तो आंख बंद करके सोचिए आपको दिखेगा की हर एक दो महीने में किसानों ने मोदी सरकार के खिलाफ जमकर जमावड़ा किया है। इन आंदोलनों को देखकर कहीं ना कहीं आपके मन में यह सवाल उठता होगा कि क्या इन आंदोलन से कोई फर्क पड़ता है? तो चलिए इसकी छानबीन करते हैं।

चंपारण के दौनाहा गांव में कृषि सहायक के पद पर तैनात अरविंद कुमार कहते हैं कि खेती किसानी की सबसे मूलभूत समस्या मिनिमम सपोर्ट प्राइस यानी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से शुरू नहीं होती है। यह तो वह परेशानी है जिनका उल्लेख हम टीवी और अखबारों में पुरजोर तरीके से देखते हैं। खेती किसानी की असली समस्या भूमि सुधार से जुड़ी हुई है। तकरीबन 86 फ़ीसदी किसानों के पास दो हेक्टेयर से भी कम की जमीन है। इतनी कम जोत में कोई किसानी करके जिंदगी नहीं गुजार सकता है।

कहने का मतलब यह है कि खेती किसानी में लगी एक बहुत बड़ी आबादी केवल खेती किसानी करके नहीं बल्कि दूसरे काम करके अपनी जिंदगी चलाती है। यह वह आबादी है जो मजबूरन खेती किसानी में जुड़ी हुई है। उससे बाहर निकलना चाहती है। इस आबादी का बहुत छोटा हिस्सा किसी कृषि आंदोलन में शामिल होता है। अब बिहार को ही देख लीजिए। यहां पर तो 90 फ़ीसदी से अधिक किसानों के पास 2 हेक्टेयर से कम की जमीन है। मंडिया पहले से नहीं हैं। इन्हें मंडियों का फायदा तक नहीं पता है। चुनावी सभाओं में यह मुद्दे भी नहीं उठते। यह लोग पहले से ही प्राइवेट खरीददारों को अपनी उपज बेच रहे हैं। इसलिए कई किसान आंदोलन में इनकी मौजूदगी नदारद रहती है।

इन्हें तब तक खेती किसानी के आंदोलन में शामिल नहीं किया जा सकता जब तक पुरजोर तरीके से भूमि सुधार का आंदोलन नहीं होता। मेरे कहने का मतलब कहीं से भी हम मत समझिए कि तीन कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब के किसान जो लड़ाई लड़ रहे हैं, वह कमजोर है। बल्कि मैं तो यह कहूंगा कि पंजाब के किसान खेती किसानी को बाजार के हवाले करने की सरकार की मंशा पर सबसे बड़ा हमला कर रहे हैं। जरूरी हमला कर रहे हैं। ऐसी लड़ाईयों के दम पर ही खेती किसानी में अब भी किसानी का पेशा बचा हुआ है। नहीं तो अब तक सभी सरकारों ने मिलकर पूरे कृषि क्षेत्र का कॉरपोरेटाइजेशन कर दिया होता।

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के राहुल वर्मा कहते हैं कि पहले के किसान आंदोलन का एक बड़ा संगठन होता था। वह दिल्ली आते थे तो लंबे समय तक रहते थे। ग्लोबलाइजेशन और दूसरी तमाम तरह के कारणों की वजह से अब ऐसे किसान आंदोलनों को देखना नामुमकिन सा हो गया है। पहले के जमाने में लेफ्ट का दबदबा हुआ करता था। मजदूर और किसान संगठनों से जुड़े लोग भी सांसद और विधायक बनते थे। अब ऐसा देखने को नहीं मिलता। अब हमारी संसद बिल्डरों, पूंजीपतियों, व्यापारियों और बड़े-बड़े ठेकेदारों से भरी हुई दिखती हैं।

किसानों के साथ गठजोड़ करने वाला कोई रास्ता बनता हुआ नजर नहीं आता है। इसलिए किसान संघर्ष अपनी बात को रखने के लिए सड़क पर पिछले कुछ सालों में बहुत अधिक दिखाई दिए हैं। भाजपा मौजूदा समय में पूरे हिंदुस्तान में डोमिनेंट पार्टी है। सत्ता पर इसकी पकड़ बहुत अधिक मजबूत दिखती है। यह आसानी से नहीं झुकने वाली। ऐसी लड़ाइयां असर डालती हैं लेकिन ऐसी लड़ाईयों को लंबे समय तक काम करने के इरादे से मैदान में मौजूद रहना होगा। नहीं तो आज के दौर में सारी लड़ाइयां सोशल मीडिया के प्रपंच में फंस कर छिटपुट बन कर रह जाती हैं। इन संघर्षों को लंबे दौर तक जारी रखे रहना बहुत जरूरी है। यही इनका असर है। जब यह समाज पर बहुत मजबूती से पकड़ बना लेंगी। तभी चुनावी सभाओं में दूसरी मुद्दों की तरह यह लड़ाई या भी पुरजोर तरह से बहस का हिस्सा बनेंगे। इसलिए इन लड़ाइयों को बहुत अहम मायने हैं।

बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के शोधार्थी सिद्धार्थ यादव कहते हैं कि पिछले कुछ समय से हम देख रहे हैं कि जिन आंदोलनों ने पूरे देश में एक मजबूत विपक्ष की तरह काम किया है वहां चुनावी राजनीति में मौजूद विपक्ष के बड़े चेहरे मौजूद नहीं है। सीएए एनआरसी का विरोध प्रदर्शन ले लीजिए या किसान और मजदूरों का आंदोलन ले लीजिए। इसकी अगुवाई में ज्यादातर वह लोग शामिल हैं जो भाजपा के कामकाज से बहुत अधिक नाराज हैं। यह लाठी डंडा टियर गैस सब कुछ सहन करते हैं लेकिन इनके साथ वह धड़ा नहीं होता है जो चुनाव में इन के दम पर कुछ वोट हासिल कर रहा है। यह धड़ा चुनावी मुद्दों में भी सड़क के इन मुद्दों को शामिल नहीं करता। कभी कभार तो ऐसा भी महसूस होता है कि जिन लोगों को चेहरा बनाकर विपक्ष अपनी लड़ाई लड़ने की चाहत रखता है। वह सारे चेहरे खोखले हैं। इस वजह से आंदोलन सत्ता के प्रति जो गुस्से की असीम संभावना पैदा कर रहे हैं उन्हें वोटों में तब्दील करने वाला कोई क्रेडिबल चेहरा नहीं मिलता। और यह सड़क की सारी मजबूती धरी की धरी रह जाती है।

प्रताप भानु मेहता इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि पिछले कुछ सालों से विरोध प्रदर्शन करना बहुत मुश्किल हुआ है। जब पब्लिक जगहों पर विरोध प्रदर्शन होता है तो करके यह गढ़ा जाता है कि लोगों को परेशानी होती है। वैचारिक स्तर पर तर्क यह गढ़ा जाता है कि नेक इरादे से प्रोटेस्ट नहीं किया जा रहा है। जैसे कि ये अर्बन नक्सली हैं, खालिस्तानी हैं, अलगाववादी हैं इत्यादि। दूसरी तरफ सरकार चुपचाप तब तक देखती रहती है जब तक प्रोटेस्ट बड़ा ना हो जाए। इससे दो स्थितियां पैदा हुई हैं। या तो लोग को प्रोटेस्ट करने के लिए तैयार नहीं होते हैं या तैयार होते हैं तो उन्हें नियम कानून तोड़ने वाला बता दिया जाता है। जमकर वाटर कैनन का इस्तेमाल किया जाता है लाठी-डंडे चलते हैं। इसे आम जनता का सपोर्ट भी मिलता है। अगर इन स्थितियों पर सही से काबू नहीं पाया गया तो आने वाले दिनों में बहुत अधिक हिंसक प्रोटेस्ट भी देखने को मिल सकते हैं। भाजपा बहुत ही मजबूत स्थिति में है। अपनी मजबूती दिखा कर भी वह अपने समर्थकों के बीच लोकप्रियता हासिल करती है। हो सकता है कि ऐसे विरोध प्रदर्शनों को सरकार दबा दें। इनकी मांगे ना माने। लेकिन जो गुस्सा है वह कहां जाएगा। इस गुस्से को पचाने वाला कोई मजबूत राजनीतिक विपक्ष भी नहीं है। इन छोटी-छोटी लड़ाइयों में हर बार ऐसा जरूर दिख सकता है कि सरकार जीत रही है। लेकिन लंबे समय से गुस्सा अनिश्चित रूप लेता जा रहा है। यह गुस्सा कोई भी रूप ले सकता है।

समाज विश्लेषक चंदन श्रीवास्तव कहते हैं कि ऐसे आंदोलन लोकतंत्र के जान होते हैं। इन आंदोलनों का बहुत अधिक असर पड़ता है। हम सब कुछ चुनावी हार जीत के तहत देखते हैं इसलिए हमें ऐसे आंदोलन का असर नहीं दिखता। लेकिन जरा सोच कर देखिए किसानी से जुड़ी जो भी परेशानियां हैं वह सारी परेशानियां ऐसे आंदोलनों की वजह से ही मुख्य फलक पर अपनी मौजूदगी दर्शा पाती हैं। पिछले कुछ सालों से एमएसपी को लेकर जिस तरह का शोर शराबा हम सुनते आ रहे हैं वह सब इन्हीं आंदोलनों की देन है। नहीं तो मीडिया अपनी मर्जी से किसानों की परेशानी नहीं दिखाता है। इस समय भी देखिए तो मीडिया का एक धड़ा देशद्रोही अर्बन नक्सली खालिस्तानी जैसे खातों में डालकर इस आंदोलन को डिस्क्रेडिट करने में लगा हुआ है। इसका मतलब है कि सरकार पर इसका असर हो रहा है। सरकार लोगों के बीच बन रही अपनी छवि को लेकर बहुत अधिक सजग होती हैं। नकारात्मक छवि को बचाने की पूरी कोशिश करती हैं। क्योंकि मौजूदा समय में मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा सरकार परस्त है इसलिए सरकार मीडिया के सहारे आंदोलन को डिस्क्रेडिट करने में लगी हुई है।

इसका मतलब है कि सरकार पर असर हो रहा है। सरकार मीडिया से इसे मैनेज कर रही है। लोकतंत्र में हम केवल आगे ही नहीं चलते हैं। बल्कि कभी-कभार पीछे भी चल देते हैं। यह पीछे चलना तब होता है जब जायज विरोध प्रदर्शनों को सरकार कुचलने की कोशिश करती है। साल 2014 के बाद सरकार की तानाशाही रवैया के कारण लोकतंत्र पीछे खिसका है। नहीं तो याद कीजिए राइट टू इनफार्मेशन लागू करवाने के लिए सिविल सोसाइटी की लड़ाई। जिसे सरकार ने मान लिया था।। इस वक्त भारत सरकार खेती किसानी में कंपनी राज लाना चाहती है। जहां उत्पादन तो बढ़ेगा लेकिन उत्पादक को कोई फायदा नहीं मिलेगा। सरकार खुद को किसानी से दूर करना चाहती है। पंजाब का किसान अपने पैसे को बचाने के लिए भरपूर लड़ाई लड़ रहा है। देखिए आने वाले वक्त में क्या होता है?

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