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EWS कोटा : सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला अंतर्विरोधों का पुलिंदा

क्या यह अनायास है कि ठीक उस दौर में जब रोज़गार संकट देश में सबसे बड़े सवाल के रूप में उभर रहा है, सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले ने एक नयी बहस खड़ी कर दी।
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फ़ोटो साभार: पीटीआई

जिस EWS कोटे पर सर्वोच्च न्यायालय ने अभी मुहर लगाई है, उसे मोदी सरकार ने तो 2019 में लागू कर ही दिया था, अब कांग्रेस ने भी दावा किया है कि इसकी जमीन उसने मनमोहन सरकार के कार्यकाल के दौरान तैयार की थी, सच तो यह है कि इसे लागू करने की मंशा का इजहार तो सबसे पहले मंडल मसीहा वीपी सिंह ने ही किया था, जब वे मंडल आयोग की संस्तुतियों को लागू करने के बाद सवर्ण जातियों के बीच चरम अलगाव का सामना कर रहे थे। इसीलिए मंडल धारा की पार्टियां आज जब इसका समर्थन कर रही हैं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये। दरअसल, शासक वर्ग की सभी पार्टियों का उद्देश्य समाज के विभिन्न समुदायों के ताकतवर power-groups के बीच संतुलन बनाते हुए अपने जनाधार को विस्तार देना है। 

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट का पूरा फैसला गहरे अंतर्विरोधों और विरोधाभासों से भरा हुआ है।

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इस फैसले ने उन्हें निराश किया है जिन्हें उम्मीद थी कि EWS कोटा से  आरक्षण नीति की मूलभूत संवैधानिक व्यवस्था पर खड़े हुए सवालों और शंकाओं का सर्वोच्च न्यायालय  समाधान करेगा। लेकिन वह तो नहीं ही हुआ, उल्टे इसने कई नए सवाल खड़े कर दिये। 3-2 के split verdict में मुख्य-न्यायाधीश समेत दोनों dissenting judges ने जो बातें कहीं हैं, वे ही इस फैसले के औचित्य पर प्रश्नचिह्न लगा देती हैं।

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सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जिन आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के नाम पर यह आरक्षण लाया गया है, उन्हें ही इसका लाभ मिलना लगभग असंभव है। सामान्य श्रेणी के गरीब बच्चे जो अच्छी शिक्षा और माहौल से वंचित होंगे, क्या वे सामान्य श्रेणी के उन बच्चों से प्रतियोगिता कर पाएंगे जो EWS की खासी ऊंची आर्थिक सीमा (8 लाख वार्षिक अर्थात लगभग 70 हजार मासिक आय, या 5 एकड़ खेत, या किसी notified municipality में 1000 वर्ग फुट का आवासीय फ्लैट या 100 वर्ग गज का आवासीय प्लाट)  के कारण बेहतर शिक्षा प्राप्त करके परीक्षा में उतरेंगे? जाहिर है यह एक बेहद असमान प्रतियोगिता होगी, गरीब सवर्ण छात्रों के लिए EWS के बावजूद प्रतिस्पर्धा कर पाना और अच्छी शिक्षा तथा नौकरी पाना करीब करीब असम्भव ही रहेगा। ज्ञातव्य है कि हमारे देश में औसत प्रति व्यक्ति आय  मात्र डेढ़ लाख रुपये वार्षिक (2021-22) है और  ढाई लाख के ऊपर की आय पर टैक्स देय है।

यह भी समझ से परे है कि सवर्ण समुदाय के EWS की आय सीमा भी ओबीसी की क्रीमी लेयर  के बराबर ही अर्थात 8 लाख वार्षिक रखी गयी है, जबकि दोनों में बुनियादी फर्क है, आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों की तुलना में OBC समुदाय के लोग दुहरे पिछड़ेपन, आर्थिक के साथ साथ सामाजिक पिछड़ेपन के भी शिकार हैं।

लोग इस बात को भी समझ पाने में असमर्थ हैं कि आर्थिक आधार पर गरीबों के इस कोटे से आदिवासी, दलित, पिछड़ों के बीच के गरीबों को क्यों बाहर कर दिया गया है जबकि आर्थिक रूप से सर्वाधिक विपन्न वे ही हैं? सिन्हो कमीशन के मुताबिक़ देश के 85% से ज़्यादा गरीब SC, ST, OBC हैं। इन्हें EWS गरीब आरक्षण से बाहर रखने का क्या औचित्य है?

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सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि अब तक जो संवैधानिक मान्यता थी कि affirmative action के पीछे आधार सामाजिक, शैक्षणिक, ऐतिहासिक पिछड़ापन है, अब मौलिक रूप से उसे ही बदलते हुए आर्थिक आधार पर आरक्षण को मान्यता दे दी गयी है। अनेक विधि-विशेषज्ञों का मानना है कि यह संविधान के मूल ढांचे में बदलाव है। जाहिर है यह सर्वोच्च न्यायालय की बड़ी संविधान पीठ में विचारणीय गम्भीर विषय है।

इस फैसले के साथ ही 1992 के इंद्रा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय कुल आरक्षण की 50% की अधिकतम सीमा भी खत्म हो गयी है। आबादी के आधार पर आरक्षण और उसके लिए जाति जनगणना की जो मांग पहले से उठ रही थी, उसे  50% की सीमा खत्म होने से नया आवेग मिलेगा। हाल ही में झारखंड सरकार ने अब कुल आरक्षण बढाकर 77% करके इसकी शुरुआत कर दी है। (झारखंड राज्य में ओबीसी के लिए 14% से बढ़ाकर 27%, ST 26% से बढ़कर 28%, SC 10%से 12%, EWS 10% )

इसके साथ ही मराठा, गुर्जर, जाट और ऐसे ही अन्य ताकतवर समुदायों की 50% सीमा के आधार पर अब तक अमान्य की जाती रही मांग पर भी आने वाले दिनों में राजनीति और आंदोलन तेज होने के आसार हैं।

वामपंथी पार्टियों और अपवादस्वरूप कुछ क्षेत्रीय दलों को छोड़कर सत्तापक्ष ही नहीं लगभग सम्पूर्ण विपक्ष इसका श्रेय लेने और स्वागत/ समर्थन में उतर पड़ा। कांग्रेस और नीतीश कुमार जैसों ने तो इसका मुखर समर्थन किया ही, अखिलेश, मायावती ने भी इस पर चुप्पी साध ली, यहां तक कि राजद ने भी पलटी मार दी, जिसने 9 जनवरी, 2019 को राज्यसभा में इसके खिलाफ मतदान किया था। जाहिर है इस सबके पीछे मूल consideration चुनावी गणित का ही है,  गरीबों की बेहतरी और न्याय जैसे कोई उदात्त मूल्य नहीं, जैसा दावा किया जा रहा है।

साफ है कि लगभग सम्पूर्ण शासक वर्ग और political class में सामाजिक-शैक्षणिक आधार के साथ-साथ आर्थिक आधार पर आरक्षण के पक्ष में सर्वानुमति कायम हो गयी है, जिस पर न्यायिक व्यवस्था की भी मुहर लग गयी।

जहां तक भाजपा की बात है, वह तो मंडल की शुरुआत से ही उसके खिलाफ उभरी सामाजिक प्रतिक्रिया को हवा देने और उसका राजनीतिक फायदा उठाने में लगी थी। उस समय वीपी सिंह सरकार को गिराकर, मंडल के विरुद्ध कमंडल के माध्यम से हिन्दू ध्रुवीकरण का अभियान चलाकर और अब अंततः EWS कोटा के माध्यम से उसने अपने सबसे स्वाभाविक और कट्टर सामाजिक आधार की गोलबंदी को ठोस रूप दे दिया है।

इस फैसले का इस्तेमाल वह अपनी गरीब हितैषी, सबके लिए न्याय की पक्षधर छवि बनाने तथा बेरोजगारी के महासंकट से जिसे उसने अपनी अमीर और कारपोरेट परस्त नीतियों द्वारा पैदा किया है, से diversion के लिए करेगी।

क्या यह अनायास है कि ठीक उस दौर में जब रोजगार संकट देश में सबसे बड़े सवाल के रूप में उभर रहा है, EWS कोटे पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने एक नयी बहस खड़ी कर दी। बहरहाल खत्म होती सरकारी नौकरियों के दौर में हालात ऐसे हैं कि अब ऐसे सवाल पक्ष या विपक्ष में समाज में कोई बड़ा जातिगत उन्माद और हलचल पैदा नहीं कर रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि छात्र-युवा एकताबद्ध होकर रोजगार और शिक्षा पर हो रहे अभूतपूर्व हमलों के खिलाफ खड़े होंगे और जातिगत आधार पर विभाजन की हर कोशिश को नाकाम करेंगे।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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