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शिक्षित मुस्लिम महिलाओं ने हिजाब फ़ैसले को “न्यायिक अतिक्रमण’ क़रार दिया है 

महिलाओं का कहना है कि धर्म में क्या ज़रूरी और ग़ैर-ज़रूरी है, यह अदालतों के अधिकार क्षेत्र से बाहर का मसला है।
Hijab
प्रतीकात्मक चित्र। 

नई दिल्ली: अनेकों शिक्षित मुस्लिम महिलाओं ने हिजाब पहनने के मसले पर कर्नाटक उच्च न्यायालय (एचसी) के फैसले को “न्यायिक अतिक्रमण” और “व्यक्तिगत आजादी के खिलाफ” करार दिया है।

अमेरिका स्थित एक आईटी उद्यमी और कार्यकर्ता अमीना कौसर ने न्यूज़क्लिक से अपनी बातचीत में कहा, “धर्म में क्या जरुरी और गैर-जरुरी है यह अदालतों के अधिकार क्षेत्र से बाहर का मसला है। अदालत का फैसला न्यायिक अतिरेक का एक जीता-जागता उदाहरण है। संविधान प्रत्येक व्यक्ति को जो वह चाहे उसे पहनने का अधिकार देता है। यह फैसला अनुच्छेद 14, 15, 19, 21 और 25 के विपरीत है।”

अनुच्छेद 14 में जहाँ इस बात को कहा गया है कि सरकार किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या कानूनों के समान संरक्षण के अधिकार से वंचित नहीं करेगी, वहीँ अनुच्छेद 15 धर्म, संप्रदाय, जाति, लिंग, जन्म के स्थान या इनमें से किसी के भी आधार पर भेदभावपूर्ण व्यवहार को प्रतिबंधित करता है। अनुच्छेद 19 जहाँ भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है वहीं अनुच्छेद 21 कहता है कि कानून द्वारा स्थपित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीने या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित नहीं किया जायेगा, और अनुच्छेद 25 अन्तःकरण की आजादी और अपनी मर्जी से व्यवसाय, काम करने और धर्म का प्रचार करने के अधिकार की गारंटी प्रदान करता है।

हिजाब विवाद 1 जनवरी को तब उभरा जब कर्नाटक के उडुपी में गवर्नमेंट प्री यूनिवर्सिटी कॉलेज फॉर गर्ल्स की छह मुस्लिम छात्राओं को कथित तौर पर सिर पर स्कार्फ पहनकर प्रवेश करने से वंचित कर दिया गया था। इस पर उन्होंने कालेज के सामने अपना धरना दिया और प्रवेश की मांग की। जल्द ही, अन्य मुस्लिम लड़कियां भी उनके साथ मुहिम में शामिल हो गईं और अगले कुछ दिनों में पूरे राज्य में हिजाब पर प्रतिबंध के खिलाफ विरोध फ़ैल गया।

इस आंदोलन के विरोधस्वरुप, हिंदू पुरुष एवं महिला विद्यार्थियों ने भगवा झंडा लहराते हुए और दुपट्टा/गमछा पहनकर प्रदर्शनों का आयोजन शुरू कर दिया। फरवरी में मांड्या में पीईएस कालेज ऑफ़ आर्ट्स, साइंस एंड कॉमर्स में नक़ाब पहने हुए एक मुस्लिम छात्रा को भगवा गमछा पहने युवाओं के द्वारा की गई हूटिंग और ‘जय श्री राम’ के नारे लगाये गये। उसने पलटकर जवाब दिया “अल्लाहु अकबर।”

आंदोलन का मुकाबला करने के लिए, हिंदू पुरुष और महिला छात्रों ने भगवा झंडा लहराते और स्कार्फ पहनकर प्रदर्शन शुरू किया। फरवरी में मांड्या में PES कॉलेज ऑफ आर्ट्स, साइंस एंड कॉमर्स में नकाब पहने एक मुस्लिम छात्र को भगवा स्कार्फ पहने और 'जय श्री राम' के नारे लगाने वाले युवकों ने घेर लिया था। उसने पलट कर कहा, "अल्लाहु अकबर।"

उडुपी कालेज के द्वारा अपने फैसले पर पुनर्विचार से इंकार कर देने के बाद, 31 जनवरी को उच्च न्यायालय में कई याचिकाओं को दायर कर दिया गया था, जिसमें मुस्लिम विद्यार्थियों ने दलील दी थी कि कक्षाओं के भीतर हिजाब पहनने के उनके संवैधानिक रूप से गारंटीकृत अधिकार को बहाल किया जाये। मामले की पहली सुनवाई 8 फरवरी को हुई, जिसमें राज्य सरकार ने कर्नाटक शिक्षा अधिनियम, 1983 का हवाला देते हुए कक्षाओं के भीतर हिजाब पर प्रतिबंध के फैसले का बचाव किया। 

याचिकाकर्ताओं और राज्य सरकार का पक्ष सुनने के बाद, 15 मार्च को मुख्य न्यायाधीश ऋतु राज अवस्थी की अध्यक्षता वाली उच्च न्यायालय की एक पूर्ण पीठ ने अपने फैसले में कहा कि, “हिजाब पहनना इस्लामी आस्था में आवश्यक धार्मिक प्रथा के हिस्से के तौर पर नहीं है और इस प्रकार, संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत संरक्षित नहीं है।” तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि राज्य द्वारा निर्दिष्ट स्कूल यूनिफार्म में प्रविष्ठि और हिजाब पहनने पर लगाये गए प्रतिबंध “उचित” हैं और संवैधानिक रूप से मुनासिब हैं, जिस पर छात्र आपत्ति नहीं कर सकते हैं।

इसके बाद, इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, जिसने 24 मार्च को इस मामले में तत्काल सुनवाई की मांग करने वाली याचिकारों को ख़ारिज कर दिया। उच्च न्यायालय के फैसले के बाद, फौरन कर्नाटक सरकार ने कक्षा 10 की बोर्ड परीक्षा में लेते समय निर्दिष्ट यूनिफ़ॉर्म को अनिवार्य करने का आदेश दे दिया। नतीजतन, बड़ी संख्या में मुस्लिम लड़कियों ने परीक्षा का बहिष्कार किया।  

कौशर के अनुसार हालाँकि “इस्लाम में हिजाब एक अनिवार्य प्रथा है, लेकिन इस बारे में अलग-अलग समझ है।” उन्होंने कहा, “लेकिन धर्म के मामले में अदालत कैसे हस्तक्षेप कर सकती है और आस्था में इसकी अनिवार्यता या गैर-अनिवार्यता को कैसे व्यख्यायित कर सकती है? इसे सिर्फ गुण-दोष के आधार पर मामले पर अपना निर्णय लेना चाहिए था।”

कौशर का आरोप था कि इस प्रकार के विवाद “जब-तब” उभरते रहते हैं क्योंकि आबादी का एक बड़ा हिस्सा मुसलमानों, विशेषकर महिलाओं की बढ़ती भागीदारी और लगातार अग्रणी होने से परेशान है।

कौशर ने कहा, “ये लड़कियां न तो किसी कानून को तोड़ रही हैं और न ही ड्रेस कोड का ही उल्लंघन कर रही हैं। मुस्लिम लड़कियों के सिर ढकने पर आपत्ति जताकर भगवा ताकतों का यह राज्य मशीनरी का इस्तेमाल करके समुदाय को और अधिक अपमानित करने का एक और कदम है। वहीँ कुछ लोगों का तर्क है कि हिजाब पहनना जुल्म की निशानी है। उन्हें समझना चाहिए कि आस्था, आधुनिकता और प्रगतिशीलता साथ-साथ चल सकती है।”

राष्ट्रीय राजधानी में हाल ही में एक प्रेस वार्ता के दौरान अपनी मुट्ठियों को हवा में लहराते हुए जामिया मिलिया इस्लामिया से आधुनिक इतिहास में हिजाब पहने हुए एमए की छात्रा, नाबिया खान ने कहा कि यह “न्यायपालिका नहीं बल्कि धर्मशास्त्र को इस बात को तय करना है कि इस्लाम के क्या आवश्यक है।” उन्होंने कहा कि मुस्लिम महिलाएं उच्च न्यायालय के फैसले को शीर्ष अदालत में चुनौती देंगी और राजनीतिक तौर पर सड़कों पर लड़ेंगी।

खान ने आगे कहा, “सबसे पहली बात तो यह है कि किसी भी धर्म में क्या जरुरी और क्या गैर-जरुरी है, यह बताना अदालत के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। यह व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन है। कोई भी सभ्य देश व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं करता है। यह न्यायपालिका को तय करना है कि क्या यह ‘आजादी’ दूसरों की भावनाओं को आहत कर रही है या सार्वजनिक जीवन में व्यवधान उत्पन्न करने का कारण बन रही है। और आखिरी बात, यह संविधान के खिलाफ है, जो किसी को भी अपने विश्वास का पालन करने और प्रचार की गारंटी प्रदान करता है। लड़कियां तो सिर्फ अपने स्कूल यूनिफ़ॉर्म के साथ हेडस्कार्फ पहनती हैं - जो किसी भी तरह से किसी को आहत या भड़काता नहीं है।”

खान को इस बात की आशंका बनी हुई थी कि इस फैसले ने हिजाब और बुर्का पहनने वाली मुस्लिम महिलाओं को खतरे में डाल दिया है क्योंकि उन्हें सार्वजनिक स्थलों पर बढ़ते भेदभावपूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ सकता है। उन्होंने आरोप लगाते हुए कहा, “हिजाब पहनने वाली मुस्लिम महिलाओं के साथ भेदभाव होने की बात कोई नई नहीं है। लेकिन अदालत के फैसले ने अब उत्पीड़कों को ऐसा करने की क़ानूनी मान्यता दे दी है।”

एक छात्रा होने के साथ-साथ एक कार्यकर्त्ता हुमा मसीह, जो उस प्रेस सम्मेलन में मौजूद थीं, ने कहा कि इस फैसले से अन्य हाशिये के समूहों, धार्मिक अल्पसंख्यकों और जातीय समूहों पर भी असर पड़ेगा। महिला अधिकार समूहों को उनके “दोहरे मानदंडों” के लिए कोसते हुए उन्होंने कहा, राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा रेखा शर्मा ने इस फैसले का स्वागत किया था, लेकिन जब मुस्लिम महिलाओं को सार्वजनिक तौर पर अपने-अपने हिजाब हटाने के लिए मजबूर किया जा रहा था, तो उस समय वे खामोश बनी रहीं। क्या यह पाखंड नहीं है?”

यह पूछे जाने पर कि क्या यह धार्मिक या संवैधानिक लड़ाई है, मसीह ने कहा कि “यह दोनों है.” उन्होंने कहा, “जब अदालत कहती है कि इस्लाम में हिजाब अनिवार्य प्रथा नहीं है, तो यह एक धार्मिक लड़ाई बन जाती है। और जब यह कहता है कि लड़कियां हिजाब बैन पर आपत्ति नहीं जता सकतीं हैं, तो यह एक संवैधानिक मुद्दा बन जाता है क्योंकि संविधान किसी भी व्यक्ति की व्यक्तिगत आजादी, कानून के समक्ष समानता और धर्म का पालन और प्रचारित करने के अधिकार की गारंटी प्रदान करता है।”

यह पूछे जाने पर कि इस फैसले ने उन्हें व्यक्तिगत तौर पर कैसे प्रभावित किया है, पर मसीह ने कहा कि इस फैसले का उनके जीवन पर “बहुआयामी प्रभाव” पड़ा है। “इसने मुझे सार्वजनिक स्थलों पर दयनीय और असुरक्षित बना दिया है क्योंकि इसने एक प्रकार से सभी प्रकार की धौंस-पट्टी को सही ठहराया है।”

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली के जराचिकित्सा मेडिसिन विभाग की एक फिजियोथेरेपिस्ट, सोबिया फातिमा ने न्यूज़क्लिक को बताया कि हिजाब, “उनकी पोशाक का एक स्वाभाविक हिस्सा” है, और उन्हें कभी इसे खुद से दूर करने की जरूरत महसूस नहीं हुई। उन्होंने आगे बताया, “मैंने पंजाब और दिल्ली से अपनी पढ़ाई की है, लेकिन आज तक किसी ने भी मेरे हिजाब पहनने के चुनाव पर सवाल नहीं उठाया। जो लोग इस पर आपत्ति कर रहे हैं, वे शायद एक लोकतांत्रिक देश में बुनियादी अधिकारों से अनजान हैं। हम अपने सिर पर क्या पहनने को चुनते हैं इस बारे में हमसे सवाल करने का किसी को अधिकार नहीं है।”

कुछ महिलाएं इस प्रतिबंध को मुस्लिम पहचान के उपर हमले के तौर पर देखती हैं क्योंकि अन्य धर्मों में भी महिलाएं अपने धार्मिक प्रतीकों को धारण करती हैं। एरिक्सन में कॉर्पोरेट फाइनेंस विशेषज्ञ के तौर पर कार्यरत एराम खान का इस बारे में कहना है कि, “हिजाब इस्लामी आस्था और संस्कृति का एक अभिन्न अंग है- हमें इसे पहनने का हक है। लोगों और सरकार को तिलक या पगड़ी जैसे धार्मिक प्रतीकों से कोई समस्या क्यों नहीं है?” अपनी बात में आगे जोड़ते हुए उनका कहना था, “धर्मनिरपेक्षता का मतलब किसी विशेष धर्म को नकारना नहीं है बल्कि सभी धर्मों का सम्मान करना है।”

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Educated Muslim Women Term Hijab Verdict ‘Judicial Overreach’

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