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चुनाव 2021 : सीएए, किसान आंदोलन से घिरी बीजेपी को केवल हिंदुत्व और दल-बदलुओं का सहारा!

चुनावी राज्यों में आसान नहीं बीजेपी की राह। जहाँ चुनाव के शुरुआत में बीजेपी में सब सही दिख रहा था वहीं अब उनके कार्यकर्ताओ में भी असंतोष दिख रहा है।
BJP

देश में अभी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव का प्रचार अपने चरम पर है। कोई भी पार्टी इस चुनाव को जीतने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) जो देश की सत्ता पर बहुमत से काबिज़ है और इन चुनावी राज्यों में पूरी आक्रामकता से प्रचार कर रही है। लेकिन उसके लिए इन राज्यों में सत्ता का रास्ता इतना आसान नहीं दिख रहा है। वो एक तरफ जहाँ चुनावी राज्यों में सत्ता विरोधी लहरबेरोज़गारी के साथ ही नागरिकता संशोधन काननू (सीएए) और नए कृषि कानूनों के खिलाफ लोगों के विरोध को लेकर घेरी जा रही है तो दूसरी तरफ पार्टी हिंदुत्व और दूसरे दलों से आए नेताओं के सहारे खुद का बेड़ा पार लगने की उम्मीद जता रही है। 

ऐसे में बीजेपी चुनावी राज्यों में जनता के सामने साम्प्रदायिकता और जय श्री राम जैसे भावनात्मक मुद्दे को उछालकर उनकी आँच पर वोट की रोटी सेंकने की कवायद में जुटी हुई है।

पार्टी को लगता है कि बंगाल में वह सत्तारूढ़ तृणमूल पर भारी पड़ने जा रही है। हालांकि अन्य राज्यों असमकेरल और तमिलनाडु के अलावा पुडुचेरी में उसे गठबंधन सहयोगियों से समस्या का सामना करना पड़ रहा है। हालांकि पश्चिम बंगाल में भी बीजेपी के लिए सत्ता का राह बेहद कठिन है। 

पश्चिम बंगाल में कांग्रेस गठबंधन सहयोगियोंइंडियन सेक्युलर फ्रंट और वाम दलों के बीच तालमेल है और तृणमूल ममता के चेहरे के साथ मैदान में है जबकि बीजेपी यहां पूरी तरह से तृणमूलकांग्रेस और वाम से आए नेताओ और अपने हार्ड-कोर हिन्दुत्वादी ऐजेंडे के सहारे है। हालाँकि इसी फार्मूले ने उसे लोकसभा चुनावों में बढ़त भी दिलाई थी लेकिन इसबार भी ऐसा ही होगा ऐसा कहना बहुत मुश्किल है क्योंकि यहाँ इसबार जहाँ रोजगार एक बड़ा सवाल है वहीं दूसरी तरफ बीजेपी को अपने पुराने वादों का भी जवाब देना है। बीजेपी के लिए सबसे बड़ी समस्या पार्टी में ऐसे नेता का अभाव है जो सभी को मान्य हो। जिस तरह चुनाव से पहले बीजेपी ने थोक के भाव से दूसरे दलों के बड़े-बड़े दागी नेताओ को पार्टी में शामिल किया है उसका भी नुकसान हो सकता है। 

असम

असम में बीजेपी अपने गठबंधन की प्रमुख सहयोगी को भी साथ नहीं रख सकी है। असम में कांग्रेस की अगुवाई वाला छह दलों का विपक्षी महागठबंधन है। गठबंधन में बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) भी शामिल हो गए जिससे असम में तीन चरणों के विधानसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ उसकी स्थिति और मजबूत होती दिख रही है। बीपीएफ वर्तमान में भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार में शामिल है। उसका इस तरह से चुनाव से ठीक पहले साथ छोड़ना बीजेपी के लिए बड़ा नुकसान बताया जा रहा है जबकि सूत्रों की माने तो जो सहयोगी अभी बीजेपी के साथ हैं भी वो भी कई बार बीजेपी की नीतियों के ख़िलाफ़ अपना गुस्सा दिखाते रहे हैं। ऐसे माहौल में बीजेपी की स्थति जितनी कमजोर हो रही है उतना ही विपक्षी महागठबंधन मजबूत हो रहा है। 

बीजेपी असम गण परिषद (एजीपी) और यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल (यूपीपीएल) के साथ असम चुनाव में उतरी है। लेकिन कई सवाल को लेकर एजीपी भी बीजेपी का मुखर विरोध करती रही है। ऐसे में देखना होगा इन दोनों के बीच कैसा चुनावी तालमेल होता है। 

असम में बीजेपी सत्तासीन हैऐसे में उसे सत्ता विरोधी लहर का भी सामना करना पड़ रहा है। इससे निपटने के लिए उसने सिटिंग सीएम होने के बाद भी बिना चेहरे के चुनाव में उतरने का फैसला किया जो दिखाता है कि बीजेपी को भी लग रहा है की ये लड़ाई इतनी आसान नहीं है।

तमिलनाडु

वहीं तमिलनाडु में बीजेपी सत्ताधारी अन्नाद्रमुक के साथ छोटे भाई की भूमिका में है लेकिन इसबार के चुनावी गणित को देखकर ऐसा लग रहा है कि यहां भी बीजेपी और उसके सहयोगियों का आत्मविश्वास हिला हुआ है। जबकि कांग्रेस को पूरा भरोसा है कि पुरानी सहयोगी द्रमुक के साथ मिलकर वह अन्नाद्रमुक को सत्ता से बाहर कर पाएगी।

पुडुचेरी में हाल ही में सरकार गिरने के बाद कांग्रेस पार्टी कमजोर होती जरूर दिखी। लेकिन बीजेपी को भी जनता में दलबदलू नेताओ के सहारे अपनी मज़बूत छवि बनाने में इतनी आसानी होती नहीं दिख रही है। हालाँकि बीजेपी को अभी आक्रामकता से वहां कांग्रेस का मुकाबला करना है जोकि जीत का रास्ता बनाने के लिए हरसंभव प्रयास कर रही है।

हालांकि बंगाल के आलावा बाक़ी राज्यों में उसका ये हिंदुत्व का एजेंडा कितना कारगर होगा ये बड़ा सवाल है। जहाँ चुनाव के शुरुआत में बीजेपी में सब सही दिख रहा था वहीं अब उनके कार्यकर्ताओ में भी असंतोष दिख रहा है। वो सड़कों पर आकर पार्टी नेतृत्व के खिलाफ बगावत पर उतर आए हैं क्योंकि पार्टी बड़ी संख्या में दलबदलू और बाहर से आए नेताओं को चुनाव में टिकट दे रही है। जबकि बीजेपी के असंतुष्ट कार्यकर्ताओं का आरोप है की उन्हें दरकिनार किया जा रहा है। 

जबकि बीजेपी पहले से ही किसानों के सौ से अधिक दिनों के प्रदर्शन के बाद से सवालों के घेरे में है। अब जिस तरह से वर्किंग क्लास और कर्मचारी भी बीजेपी के खिलाफ सड़को पर उतरकर उनकी चिंता बढ़ा रहे है इसी तरह देशभर में युवा भी बेरोजगारी के सवाल को लेकर मोदी सरकार से जवाब मांग रहे हैं।

बीजेपी और मोदी के रणनीतिकारों को भरोसा है कि वे बंगाल में सत्ता पर काबिज़ हो सकते हैं क्योंकि यहाँ उनकी पार्टी सत्ता में नहीं रही है ऐसे में वो सत्ता परिवर्तन की उम्मीद लगाए हुए है। उन्हें असम में भी अपनी सत्ता बचाने का भरोसा है।

लेकिन इन सबके बाद भी बीजेपी के चुनाव प्रचार और उनके नेताओ में वो आत्मविश्वास नहीं दिख रहा है। क्योंकि उन्हें पहली बार अपने वादों पर सफ़ाई देनी पड़ रहा है। एक तरफ बीजेपी जहाँ बंगाल में सीएए को लेकर आक्रामक दिखने का प्रयास कर रही है वही वो असम में इस सवाल से बचने का प्रयास कर रही है। हालाँकि वो अपने इस निर्णय का बचाव वहां भी करती है लेकिन उसके सुर काफी नरम दिखते हैं। ऐसे ही बीजेपी जहाँ बंगाल में हिंदुत्व के सवाल को प्रमुखता से उठा रही है वही केरल में उसके नेता अच्छी गुणवत्ता वाले बीफ उपलब्ध कराने का वायदा करते है। इसके साथ ही बीजेपी ने जहाँ ये कहते हुए बड़े-बड़े नेताओ को साइडलाइन किया की उनकी उम्र 70 पार है लेकिन उसने केरल में 70 पार के व्यक्ति श्रीधरन को पार्टी का चेहरा बंनाने का एलान किया। 

विश्लेषकों का मानना है कि बीजेपी के लिए इन पांच राज्यों के चुनावों में जीतना काफ़ी अहम है। क्योंकि लोकसभा के बादराज्यों के चुनाव में बीजेपी के प्रदर्शन में गिरावट आई है। दिल्ली और महाराष्ट्र में उसे जहाँ सत्ता से बाहर रहना पड़ा वहीं हरियाणा और बिहार में लोकसभा में क्लीन स्वीप करने वाली बीजेपी किसी तरह सत्ता की दहलीज़ तक पहुंची। ऐसे में अगर वो इन राज्यों में भी अच्छा प्रदर्शन करने में विफल रही तब उसकी केंद्र की सत्ता पर भी भारी दबाव होगा।

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