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चुनाव 2022: ‘हमारा वोट सबको चाहिए उन्हें भी जो हमसे भेदभाव करते हैं’

‘हमारा वोट मांगने तो हर पार्टी के लोग हमारे पास आते हैं। कथित उच्च जाति के लिए हम दलित और अछूत होते हैं। हम से छूआछूत और भेदभाव करते हैं। पर चुनाव के समय वे यह भूल जाते हैं। क्योंकि हमारे वोट की तो कोई जाति नहीं होती।...’  हमारा वोट तो सबको चाहिए।
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'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

‘हमारा वोट मांगने तो हर पार्टी के लोग हमारे पास आते हैं। कथित उच्च जाति के लिए हम दलित और अछूत होते हैं। हम से छूआछूत और भेदभाव करते हैं। पर चुनाव के समय वे यह भूल जाते हैं। क्योंकि हमारे वोट की तो कोई जाति नहीं होती।...’

आजकल हमारे देश में चुनाव का माहौल है। पांच राज्यों (उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर) में चुनाव हो रहे हैं। इसलिए मौसम चुनावी है। राजनीतिक दलों का सत्ता-संग्राम शुरू हो गया है। अंगरेजी कहावत ‘एवरी थिंग इस फेयर इन लव एंड वार’ की तरह चुनाव में भी ‘एवरी थिंग फेयर’ है। इसलिए मतदाताओं का मत पाने के लिए और सत्ता को हथियाने के लिए राजनेता चाहे वे किसी भी राजनीतिक पार्टी के हों साम, दाम, दंड, भेद सब अपना रहे हैं। एक दूसरे पर जम कर कीचड उछाल रहे हैं, एक दूसरे को आईना दिखा रहे हैं, जैसे वे खुद दूध के धुले हों! जाति कार्ड, सम्प्रदाय कार्ड, किसान कार्ड सब खेले जा रहे हैं।

वैसे तो चुनाव लोकतान्त्रिक देश का पावन पर्व होता है। चुनाव आयोग निष्पक्ष चुनाव कराने का दावा करता है। चुनाव में ही आम नागरिकों को एहसास होता है कि वे इस देश के नागरिक हैं। उन्हें अपनी सरकार चुनने का हक़ है। साथ ही कुछ समय के लिए ही सही उन्हें अपनी शक्ति का एहसास होता है। जो बड़े-बड़े नेता उन्हें कुछ भी नहीं समझते, चुनाव के समय उनके आगे हाथ जोड़े नजर आते हैं।

मुद्दे हैं मुद्दों का क्या

पांचो राज्यों में महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मूल मुद्दे हैं। पर राजनीतिक दल इन पर बात करने से कतरा रहे हैं। उनके पास इस तरह के आश्वासन जरूर हैं कि हम इतने युवाओं को रोजगार देंगे। पर सत्ता में आने के बाद कितने लोगों को रोजगार मिलता है ये सब जानते हैं। राजनीतिक दल दूसरे दलों के शासन के समय क्या-क्या कमियां रहीं इसी बात पर जुबानी जंग लड़ते रहते हैं। और इस बात पर जोर देते हैं की जनता उन्हें सबक सिखाएगी। उनका असल मकसद मतदाताओं को लुभाना होता है। उन्हें इन्फुलेंस करने का होता है। जिससे कि वह अपना कीमती वोट उन्हें दे दे।

मतदाताओं का वोट हथियाने के लिए वे उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन देते हैं। इसमें बिजली मुफ्त देने का भी प्रलोभन दिया जाता है। युवाओं को कम्पूटर, लैपटॉप, स्कूटी मुफ्त देने की बात कही जाती है। गरीबों को सस्ता भोजन देने का आश्वासन दिया जाता है। भीख सरीखा मुफ्त राशन दिया जाता है। ऐन चुनाव के वक्त तो मुर्गा और दारु मुफ्त बांटी जाती है। यानी मुद्दों को छोड़ो ये तात्कालिक लाभ लो और मुझे वोट दो। जो मतदाता जागरूक नहीं हैं। जिन्हें अपने वोट की कीमत पता नहीं हैं वो उनके झांसे में आ भी जाते हैं।  

जाति-धर्म का कार्ड

विभिन्न राजनीतिक दलों के उम्मीदवार जाति-धर्म का कार्ड खेलने में माहिर होते हैं। लोगों की धार्मिक भावनाओं से खेलने से भी नहीं चूकते। जैसे कोई हिन्दू उम्मीदवार यह कह सकता है कि अगर आप चाहते हैं कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण जारी रहे तो हमारी पार्टी को फिर से सत्ता में लाओ नहीं तो दूसरी कोई पार्टी राम मंदिर का निर्माण रोक देगी। या दूसरी पार्टी को वोट दिया तो फिर से राज्य में दंगे होने लगेंगे। माफियाओं का वर्चस्व बढ़ जाएगा। दलितों पर और खास कर महिलाओं और बालिकाओं पर अत्याचार बलात्कार बढ़ जायेंगे। जब कि हकीकत यह होती है कि पार्टी कोई भी सत्ता में हो। दलितों, कमजोरों, महिलाओं और विशेषकर दलित महिलाओं और लड़कियों पर अत्याचार बढ़ते ही हैं। बेरोजगारी और महंगाई बढ़ती ही है। गरीबों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव रहता ही है। स्वास्थ्य सेवाओं में कमी होती ही है। कुपोषण की समस्या ज्यादातर राज्यों में होती है। इन मामलों में शासन-प्रशासन की उदासीनता सामान्यतः होती ही है।

अभी हाल ही में कर्नाटक में हिजाब के विवाद को इतना तूल दिया जा रहा है कि उसकी गूंज उत्तर प्रदेश के चुनाव को भी प्रभावित करे। ओवैसी जैसे राजनेता तुरंत इसको कैश करने का मौका नहीं चूक रहे हैं। साथ ही बीजेपी भी इसे भुनाने की कोशिश में है। जिस तरह से हिजाब विवाद उभर रहा है उससे तो लग रहा है कि यह राजनीतिक दलों का प्रायोजित एजेंडा है। इसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की जा रही है ताकि चुनाव में इसका लाभ उठाया जा सके।

जाति के समीकरण भी जगजाहिर है। जिस जाति का उम्मीदवार होता है प्राय उस जाति के वोट उसे मिलते ही मिलते हैं। भले ही उसने जन कल्याणकारी कार्य किए हों या नहीं। आज भी हमारे यहां जाति मायने रखती है। जातिगत आधार पर चुनाव लडे जाते हैं। धर्म-सम्प्रदाय के आधार पर चुनाव लडे जाते हैं।

मायोत्से तुंग ने व्यापक संदर्भों में कहा था कि सत्ता बन्दूक की नाल से निकलती है। हमारे देश में आज के सन्दर्भ में कहें तो सत्ता मंदिर के घंटो और शंखों के नाद से निकलती है।

लेकिन ऐसी सत्ता फासीवाद को ही बढ़ावा देगी जनसत्ता को नहीं।

जनहित के नाम पर स्वहित की भावना

देश में एक दौर ऐसा भी रहा है जब कोई जननेता या जननायक कहलाता था – उसका एक सपना होता था – जनता का हित। जनकल्याण की भावना। जनता के जीवन स्तर को सुधारना। जनहित प्रमुख होता था  - निजहित या स्वहित गौण। तभी जनता उसे नेता या नेताजी संबोधित करती थी। ऐसे नेताओं के अनुयायी लोग स्वेच्छा से बनते थे। ये नेता जनकल्याणकारी कार्यों के लिए जनता का नेतृत्व करते थे। उस समय आमजन यानी जनता में नेताओं का विशेष सम्मान होता था।

अब वक्त  बदल गया है। आज के अधिकांश नेताओं का उद्देश्य ही केवल  जनहित के नाम पर स्वहित करना रह गया है। किसी व्यवसाय में पूँजी की तरह पहले इसमें पैसा लगाते हैं। फिर मुनाफा कमाते हैं। तभी तो वोट के बदले मुर्गा और दारु देने में इन्हें कोई झिझक नहीं होती।

हमें बांट कर वोट मांगते नेताओं की चाल देखिए

उत्तर प्रदेश के अलीगढ जिले में कुछ हिन्दू-मुसलमान लोगों से चुनाव के बारे में बात की तो उन्होंने स्पष्ट कहा की यहां आम हिन्दू-मुसलमान तो मिलकर रहते हैं। रोज का उठना बैठना है। हिन्दू मुसलमान तो ये वोट मांगने वाले नेता करते हैं। हमें बांटने की कोशिश करते हैं। पर उनके मंसूबे सफल नहीं होंगे। हम लोगों को राम मंदिर और बाबरी मस्जिद से मतलब नहीं होता। हमारी रोजमर्रा की जरूरतें कैसे पूरी हों। बच्चों को कैसे अच्छी शिक्षा-तालीम दिलवा सकें। हमें इस बात की चिंता होती है। नेता चाहे हिन्दू हों या मुसलमान उन्हें हमारे वोट से मतलब होता है। हम से कोई मतलब नहीं होता। एकबार जब वोट मिल जाता है तो फिर अगले चुनाव तक हमारी कोई खैर-खबर लेने नहीं आता। इसलिए हम इन नेताओं की चाल में नहीं आते जो हमें बांट कर वोट मांगते हैं। हमें जो उम्मीदवार काम का लगेगा यानी काम के आधार पर ही वोट देंगे – हिन्दू-मुसलमान के नाम पर नहीं।

हमारे वोट की जाति नहीं होती

इसी प्रकार उत्तराखंड के हरिद्वार जिले के अनुसूचित जाति के अमर सिंह बताते हैं कि हमारे सारे लोग तो नहीं पर कुछ लोग भाजपा की हिंदूवादी विचारधारा के प्रभाव में हैं। उनका वोट तो भाजपा को ही जाएगा पर कुछ लोग महंगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर वोट करना चाहते हैं। हमारे यहां कांग्रेस इस तरह के मुद्दे उठा रही है तो कुछ वोट कांग्रेस को भी जाएंगे। वैसे  आजाद पार्टी के चन्द्रशेखर जैसे लोग भी अपने प्रत्याशी उतार रहे हैं तो दलितों का कुछ प्रतिशत वोट उनको भी जाएगा।

फर्रुखाबाद से अनुसूचित जाति के  कृष्ण गोपाल का कहना है कि यहां भाजपा और समाजवादी पार्टी में कांटे की टक्कर है। ऐसा लगता है कि हमारे लोगों का फिफ्टी-फिफ्टी परसेंट वोट बंट जाएगा।

कानपुर से अम्बेडकरवादी विचारधारा वाले जोगेंदर परिहार कहते हैं कि कुछ आधे-अधूरे शिक्षित हमारे लोग भाजपा के अंधभक्त हैं वे तो बीजेपी को ही वोट करेंगे। वैसे यहां अशोक कालिया जी बसपा से अनुसूचित जाति के उम्मीदवार हैं। उनके जीतने के चांस हैं।

वे आगे बताते हैं कि ‘हमारा वोट मांगने तो हर पार्टी के लोग हमारे पास आते हैं। कथित उच्च जाति के लिए हम दलित और अछूत होते हैं। हम से छूआछूत और भेदभाव करते हैं। पर चुनाव के समय वे यह भूल जाते हैं। क्योंकि हमारे वोट की तो कोई जाति नहीं होती।...’  हमारा वोट तो सबको चाहिए। इसलिए सब जाति-धर्म के लोग हमारे यहां आ रहे हैं। ये तो हमारे लोगों को अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए कि हमें किसको अपना वोट देना चाहिए और किसको नहीं।  

महिलाओं द्वारा मतदान के एक सवाल के जवाब में अमर सिंह, कृष्ण गोपाल और जोगेंदर कहते हैं कि अब वह समय नहीं है जब महिला मतदाता उन्हीं को वोट देती थीं जिनको उनके परिवार के बड़े-बुजुर्ग और पुरुष देते थे। अब महिला मतदाता अपनी सूझ-बूझ से वोट देती हैं और ज्यादातर काम के आधार उम्मीदवारों का चयन करती हैं।

लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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