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चुनाव 2022: सामाजिक शक्तियों का संतुलन ही उत्तर प्रदेश में लोकतंत्र की नई इबारत लिखेगा

सामाजिक शक्तियों का संतुलन निर्णायक तौर पर विनाशकारी योगी-राज के ख़िलाफ़ होता जा रहा है। ज़ाहिर है सरकारी मशीनरी और गुंडा-वाहिनी के बल पर जनता के मताधिकार और जनादेश का अपहरण कर पाना आसान नहीं होगा, उत्तर प्रदेश 2022 में लोकतंत्र की नई इबारत लिखेगा।
चुनाव 2022: सामाजिक शक्तियों का संतुलन ही उत्तर प्रदेश में लोकतंत्र की नई इबारत लिखेगा
Image courtesy : The Statesman

उत्तर प्रदेश अब पूरी तरह चुनावी मोड में है, यद्यपि चुनाव में अभी 6 महीने से ऊपर का समय बाकी है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 जुलाई को BHU ग्राउंड में 6000 लोगों के सम्मेलन को सम्बोधित कर 1475 करोड़ की सौगात देते हुए चुनाव का बिगुल बजा दिया, यह तीसरी लहर की आशंकाओं के बीच उत्तर प्रदेश में कोरोना काल का सम्भवतः सबसे बड़ा आयोजन था।

अपने भाषण में योगी जी की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्होंने दावा किया कि उत्तर प्रदेश में 'कानून के राज ' की स्थापना ही चुकी है और  'आतंकवाद तथा माफिया-राज' का खात्मा हो चुका है। यह अलग बात है कि उनके इस दावे के 3 दिन पूर्व ही उसी सरकार ने अलकायदा के कथित  'आतंकवादी ' प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पकड़ने की घोषणा की थी। उन्होंने यह भी शेखी बघार दी कि महिलाओं, बेटियों को शिकार बनाने वाले यहां कानून के हाथ से बच नहीं सकते, जबकि यह प्रदेश हाथरस और उन्नाव जैसी बर्बरता का साक्षी रहा है। नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़ों के हिसाब से महिलाओं और बच्चियों के खिलाफ यौन हिंसा के मामलों में उत्तर प्रदेश सबसे ऊपर है।

लोग यह देख कर दंग रह गए कि जिस प्रदेश में कोविड कुप्रबन्धन को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में जनसंहार करार दिया था, जिस बनारस में  उनके चुनाव के प्रस्तावक प्रसिद्ध संगीतकार छन्नू मिश्र की बेटी समुचित इलाज के अभाव में मर गईं, दूसरे बड़े संगीतकार राजन मिश्र की वेंटिलेटर न मिल पाने से मौत हो गयी, जहाँ गंगा में बहती लाशें पूरी दुनिया मे चर्चा का विषय बन गईं, उस बनारस में खड़े होकर उन्होंने कोरोना नियंत्रण में योगी जी की सफलता को अभूतपूर्व घोषित कर दिया और मृतकों के लिए संवेदना के दो शब्द भी उनके मुंह से नहीं निकले !

दरअसल, उत्तर प्रदेश के इस चुनाव में stakes बहुत हाई हैं, स्वयं मोदी जी के लिए भी। आज दाव पर जो लगा हुआ है, वह आर या पार (do or die ) जैसा है, पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए,  उससे बढ़कर जनता के लिए, इस महादेश के लिए, सर्वोपरि हमारे लोकतंत्र के लिए। अर्थशास्त्री कौशिक बसु के शब्दों में " प्रायः सभी भारतीय जिन्हें भारत की चिंता है, 2024 का उसी तरह इंतज़ार कर रहे हैं, जैसे कभी भारतीयों ने 1947 का किया था ।" इसी की corollary है कि देश और प्रदेशवासी उतनी ही शिद्दत से 2022 का इंतज़ार कर रहे हैं क्योंकि उसी से 2024 की तकदीर तय होनी है।

भाजपा इस समय एजेंडा बदलने की जीतोड़ कोशिश में लगी हुई है। पिछले महीने तक वह कोविड के भयानक कुप्रबंधन, पंचायत सदस्य चुनावों में हुई दुर्गति, किसान और छात्र-युवा आंदोलन के हमलों, महंगाई के खिलाफ बढ़ते विक्षोभ, पार्टी में शीर्ष स्तर पर तनातनी की खबरों से घिरी हुई थी।

पर, अब forged election के माध्यम से पंचायत जिला-अध्यक्षों व ब्लॉक प्रमुखों के पदों पर कब्ज़ा करने के बाद वह गोदी मीडिया की मदद से यह नैरेटिव सेट करने में लगी है कि उसने प्रचण्ड जीत हासिल कर ली है और यही विधानसभा चुनाव में होगा। ' जो जीता वही सिकन्दर ' की तर्ज़ पर उसके समर्थक उत्साहित है कि जैसे भी हो, हमने चुनाव जीत लिया है, इसी तरह हम विधानसभा भी जीतेंगे। आम लोग जो  साफ देख रहे हैं कि उसकी यह जीत फ़र्ज़ी है, वे भयभीत हो उठे हैं कि कहीं विधानसभा चुनाव भी इसी तरह न हो।

पूरे देश मे लोकतांत्रिक जनमत को इस चुनाव ने डरा दिया है, खास तौर से जिस धृष्टता से शीर्ष नेतृत्व ने दिन दहाड़े लोकतंत्र की हत्या कर हासिल की गई जीत को hail किया है, उस पर जश्न मनाया है, उसे देखकर। पुलिस संरक्षण में गुंडों द्वारा महिलाओं तक के साथ बर्बरता की तमाम तस्वीरें देश-दुनिया में वायरल होने के बावजूद उसको acknowledge तक नहीं किया गया । जो पुलिस अधिकारी इसमें शरीक नहीं हुए और बाधक बने, वे भी हमले का शिकार हुए।

स्वयं प्रधानमन्त्री मोदी के लिए एक राज्य के पंचायत चुनाव की यह जीत कितनी महत्वपूर्ण थी, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने दोनों बार, पहले जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव और फिर ब्लॉक प्रमुख के चुनाव के बाद बयान जारी कर बधाई दिया, यहां तक कि चुनाव आयोग द्वारा नतीजों की औपचारिक घोषणा होने तक इंतज़ार का सब्र भी वे नहीं रख सके। पर औपचारिकता के लिए भी उन्होंने चुनाव में हुई अभूतपूर्व हिंसा का कोई जिक्र तक नहीं किया।

यही हाल मुख्यमंत्री योगी का था, उन्होंने तो एक कदम आगे बढ़कर, चुनाव को पूरी तरह शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक घोषित कर दिया और लोकतंत्र के इस पूरे अपहरण में पूरी तरह संलिप्त पुलिस और अफसरों की पीठ भी ठोंक दिया।  

मोदी जी ने योगी की पीठ थपथपाई और योगी ने उनकी शान में कसीदे काढ़े और इसे उनके नेतृत्व और नीतियों की जीत बता दिया।

इन चुनावों की तुलना कुछ लोग 2015 के पंचायत चुनावों से कर रहे हैं, तो कुछ को 80 दशक के चुनाव आयुक्त शेषन के जमाने के पहले के चुनावों की, विशेषकर बिहार के बूथ-कब्ज़ा वाले चुनावों की याद आ रही है, कई विश्लेषकों ने कालजयी उपन्यास राग दरबारी में वर्णित चुनावी डाकाज़नी को भी याद किया है। पर ये comparisons आज के सच और आगामी चुनाव में इससे भी भयावह मंजर की संभावनाओं को सटीक ढंग से व्यक्त ( capture ) करने में असमर्थ हैं, क्योंकि अतीत के इन सारे मामलों में हमारा जिस सत्ताधारी पार्टी से पाला पड़ा था, आज की सत्तारूढ़ पार्टी अपने पूरे चरित्र में-अपनी वैचारिक प्रेरणा, लोकतंत्र के प्रति अपने नजरिये, अपने गोलबंदी के तरीकों, अपनी सांगठनिक मशीनरी की दृष्टि से-उन सबसे गुणात्मक रूप से भिन्न है ।

इस बार उत्तर प्रदेश में जो कुछ हुआ है, quality और scale के लिहाज से उसकी तुलना अगर अतीत की किसी परिघटना से की जा सकती है तो वह 2002 में गोधरा कांड के बाद दंगाई भीड़ का पुलिस और नौकरशाही के साथ मिलकर काम करने का जो modus operandi था, उससे ही हो सकती है। बेशक दोनों का निशाना अलग था- उस समय जान -माल पर हमला, इस बार चुनाव की लूट, पर नामांकन पत्र और वोट लूटने वाली हिंसक भीड़ को शासन-प्रशासन की ओर से बिल्कुल वैसा ही संरक्षण मिला और joint operation हुआ। ऐसा लग रहा था जैसे इस सब के लिए उन्हें सदर मुकाम से निर्देश मिल रहा हो। इसी की परिणति लखीमपुर के पसगवां ब्लॉक में मानवता को शर्मसार करने वाली  वीभत्स घटना में हुई जिसमें प्रत्याशी ऋतु सिंह और उनकी प्रस्तावक विनीता यादव का पुलिस की उपस्थिति में चीरहरण हुआ।

इस पूरे प्रकरण में सबसे निराशाजनक भूमिका चुनाव आयोग की रही, लग रहा था कि उसका अस्तित्व ही नहीं है । दरअसल, यह चुनाव राज्य निर्वाचन आयोग करवाता है जिसमें राज्य के ही अधिकारी रहते हैं।

वैसे तो राष्ट्रीय चुनाव आयोग भी प्रायः सरकार की एजेंसी जैसा व्यवहार  करने लगा है, जैसा बंगाल में भी दिखा, पर शायद विधानसभा चुनाव में वे थोड़ा अलग दिखने के लिए मजबूर हों, वैसे भी उत्तरप्रदेश के चुनाव पर इस बार पूरे देश-दुनिया की निगाह होगी क्योंकि यह चुनाव  भारत में लोकतंत्र के लिए निर्णायक होगा।

यह भी अफसोसनाक है कि न्यायपालिका, महिला आयोग, मानवाधिकार आयोग समेत किसी संवैधानिक संस्थान ने इसका गंभीरता से संज्ञान नहीं लिया।

बहरहाल, जहां तक इस आशंका का सवाल है कि क्या विधानसभा चुनाव भी भाजपा इसी तरह जीत लेगी, यह याद रखना होगा कि दोनों चुनावों के बीच बुनियादी फर्क हैं। जहां जिला-अध्यक्षों और ब्लॉक प्रमुखों का चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से होता है अर्थात इसमें मतदाता आम जनसमुदाय नहीं होता, बल्कि चंद चुने प्रतिनिधि होते हैं जिनकी संख्या अधिकतम सैकड़ा में होती है, जिन्हें खरीद लेना, डरा देना और पूरे चुनाव को हाईजैक कर लेना तुलनात्मक रूप से आसान होता है।

पर विधानसभा चुनाव में जहां पूरी जनता मतदान में प्रत्यक्ष भागेदारी करती है, वहां चुनाव परिणाम का फैसला व्यापक सामाजिक शक्तियों के संतुलन से होता है। यहां तक कि राज्य की पुलिस मशीनरी और प्रशासन की भूमिका भी इसी सामाजिक संतुलन से तय होती है, खास तौर से तब, जब सरकार बदलने की वास्तविक सम्भावना साफ दिख रही हो।

ऐसी स्थिति में अगर सामाजिक संतुलन स्पष्ट तौर पर भाजपा के खिलाफ हुआ तो वह चुनाव को एक ही स्थिति में लूट सकती है जब वह देश मे खुली सैनिक तानाशाही लागू कर दे, जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन के मौजूदा बिंदु पर सम्भव नहीं लगता।

आज लाख टके का सवाल यही है कि क्या सामाजिक शक्तियों का संतुलन भाजपा के खिलाफ है और चुनाव के समय भी रहेगा?

सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल कर हासिल जीत के बल पर योगी जी भले ऐलान कर रहे हैं कि जनता हम से खुश है और हम विधानसभा चुनाव जीतने जा रहे हैं, पर जो जमीनी हकीकत है, उसको योगी जी से बेहतर और कोई नहीं समझता। इसीलिए 'आल इज वेल' का नैरेटिव सेट करने के बाद बिना समय गंवाए अब वे ध्रुवीकरण के अपने आजमाए खेल पर उतर आए हैं।  11 जुलाई विश्व जनसंख्या दिवस के दिन उन्होंने Population ( Control, Stabilization and Welfare ) Bill से नया एजेंडा छेड़ दिया है ।

जनसँख्या बिल का उद्देश्य समदायों के बीच संतुलन कायम करना तथा TFR घटाना बताया गया है।

भारत जिसका क्षेत्रफल दुनिया का मात्र 2.4% है लेकिन पूरे विश्व की कुल जनसंख्या के 18 से 20% लोग जहां रहते हैं, वहां जनसंख्या की एक सुचिंतित राष्ट्रीय नीति तो होनी ही चाहिए। पर, चुनावी जरूरत के हिसाब से कभी डेमोग्राफिक डिविडेंड का ढोल पीटना और कभी जनसँख्या नियंत्रण के नाम पर उन्हीं युवाओं को बोझ बताकर नौकरी और सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित करना शुद्ध पाखण्ड है और यह दिखाता है कि मोदी-योगी सरकार इस प्रश्न को लेकर कत्तई sincere नहीं है, बल्कि यह पूरा प्रोजेक्ट किसी ulterior motive से प्रेरित है।

जाहिर है लोगों के मन में इस बिल को लेकर गहरी शंकाएं हैं। अगर यह बिल इतने पवित्र उद्देश्यों से प्रेरित है तो अपनी विदायी की बेला में चुनाव के समय वह इसे क्यों ले आयी है? मोदी सरकार ने इस दिशा में 7 साल में कोई पहल क्यों नहीं किया ?

जहां तक प्रजनन दर (TFR ) घटाने की बात है, तो वह तो शिक्षा, विशेषकर महिला शिक्षा में सुधार के साथ, स्वतः ही घटती जा रही है, 10 साल में 3.8 से घटकर UP में भी 2015-16 में वह 2.7 पर पहुंच चुकी है, सरकार ने जो 2030 तक इसे 1.9 तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है, वहां तो यह सम्भवतः अपने आप ही पहुँच जायेगी !

संघ परिवार कैसे इस पर सुनियोजित ढंग से राजनीति कर रहा है यह इसी बात से स्पष्ट है कि वह अलग अलग मुंह से अलग अलग बातें बोल रहा है। जहां सरकार बिल ले आयी है, वहीं उनके ताकतवर संगठन विश्व हिंदू परिषद ने इसका विरोध किया है। उनके अनेक नेता और पूर्व सर संघ चालक तक हिंदुओं से अधिक बच्चे पैदा करने की अपील करते रहे हैं। दरअसल संघ-भाजपा के लिए यह पूरा मामला हमेशा से उनकी विभाजन की राजनीति से प्रेरित रहा है। यह माहौल बनाया गया कि मुसलमान 4 शादियां करते हैं, ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं और हौवा खड़ा किया गया कि वे कालांतर में बहुसंख्यक हो जाएंगे और हिन्दू अल्पसंख्यक! इसी से दो response निकले- पहला यह कि हिन्दू आबादी बढ़ाएं और दूसरा यह कि जनसंख्या नियंत्रित की जाय जिसका सन्देश यह होता है कि मुसलमानों की आबादी नियंत्रित की जाय। इन दोनों नुस्खों को समय समय पर राजनीतिक उपयोगिता के हिसाब से आजमाया जाता है।

सच्चाई यह है कि जनसंख्या वृद्धि दर का सीधा संबंध गरीबी और अशिक्षा से है, इसके लिए एक ही उदाहरण काफी है- तमिलनाडु में मुस्लिम समुदाय में प्रजनन दर (fertility rate ) 1.74 है वहीं बिहार में यह दर 4.1 है । केरल में साक्षरता  91/% और बाल  मृत्युदर (infant mortality rate ) 1% है तो प्रजनन दर भी मात्र 1.8 है, जबकि उत्तर प्रदेश में साक्षरता केवल 73% है  तथा बाल मृत्यु दर 4.7% है तो यहां प्रजनन दर 2.7 है ।

आज असलियत यह है कि 2 से अधिक बच्चे वाले कुल परिवारों में 83% हिन्दू हैं और 17% अन्य हैं। उनमें भी सबसे अधिक पिछड़े, दलित परिवार हैं। सबसे गरीब 60% परिवारों में 2 से अधिक बच्चे हैं जबकि 40% सबसे समृद्ध परिवारों में 2 से कम बच्चे हैं।

जाहिर है ऐसी कोई नीति जो 2 से अधिक बच्चे वालों को नौकरी, सरकारी सुविधाओं और पंचायत चुनावों में भागेदारी से वंचित करती है, उसका सबसे बदतरीन शिकार, गरीब, दलित, पिछड़े होंगे। योगी की प्रस्तावित जनसंख्या नीति गरीब, दलित, पिछड़ा विरोधी है। यह महिला विरोधी भी है और इसके बालिका-भ्रूण हत्या जैसे जघन्य परिणाम भी होंगे।

यह साफ है कि ऐसी कोई भी नीति राजनीतिक रूप से backfire भी कर सकती है। इसलिए अधिक सम्भावना यह है कि इसके communal तथा diversionary potential ( रोजगार-नौकरियों, महंगाई, कोविड कुप्रबन्धन आदि से ) का दोहन कर लेने के बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा।

यह देश की युवा पीढी के साथ कितना क्रूर मजाक है कि पहले रोजगार का सब्जबाग दिखाकर नौजवानों के वोट लेना था, तो मोदी जी युवा आबादी को वरदान बता रहे थे, डेमोग्राफिक डिविडेंड की जुमलेबाजी कर रहे थे और अब जब बेरोजगारी दर अपने सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई है,  इलाहाबाद जैसे प्रतियोगी छात्रों के सबसे बड़े केंद्र तक में आये दिन हताश नौजवान खुदकशी कर रहे है, तब सरकार रोजगार न दे पाने का ठीकरा जनसँख्या पर फोड़कर उन्हें बरगलाना चाह रही है। उधर योगी जी करोड़ों रोजगार देने की कोरी लफ़्फ़ाज़ी भी कर रहे हैं।

प्रदेश में खाली पड़े लाखों पदों पर भर्ती तथा आरक्षण घोटाले को लेकर प्रतियोगी छात्र लगातार राजधानी लखनऊ, इलाहाबाद तथा अन्य केंद्रों पर आंदोलनरत हैं, जिनके ऊपर सरकार दमनचक्र चला रही है।

प्रदेश में दलित उत्पीड़न की घटनाओं की बाढ़ आ गयी है, जिसमें पुलिस हमलावरों को न सिर्फ संरक्षण दे रही है बल्कि अनेक स्थानों पर खुद ही कमान संभाल रही है। ऐसा लग रहा है कि मनचाहा शासन पाकर दबंग "अभी नहीं तो कभी नहीं " के मूड में हैं और दलितों से सारे score settle कर लेना चाह रहे हैं। दलित महिलाएं लगातार यौन-हिंसा की शिकार बन रही हैं। हाल ही में आजमगढ़ में पुलिस ने दलितों का घर ज़मीदोज़ कर दिया और महिलाओं के साथ उनके अभद्र व्यवहार की वीडियो वायरल होती रही। इसी तरह कानपुर देहात में पेड़ से बांधकर एक दलित युवक के गुप्तांगों पर डंडे से प्रहार की वीडियो भी सोशल मीडिया में छायी रही। शायद ही कोई दिन बीत रहा हो जब प्रदेश के किसी न किसी कोने से दलित उत्पीड़न का कोई मामला न आ रहा हो।

संयुक्त किसान मोर्चा ' मिशन UP ' के साथ उत्तरप्रदेश में भाजपा विरोधी अभियान चलाने का एलान कर चुका है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश तो किसान-आंदोलन के प्रभाव में है ही, हाल ही में किसान नेताओं ने लखनऊ में बैठक करके इसे प्रदेश व्यापी बनाने की रणनीति तैयार की है, जिसके तहत 9 अगस्त भारत छोड़ो दिवस पर प्रदेश भर में "मोदी गद्दी छोड़ो" अभियान चलाने और मऊ जिले के घोषी में एक किसान रैली आयोजित करने का फैसला किया गया है। मुजफ्फरनगर, अवध, पूर्वांचल, मुरादाबाद और बुंदेलखंड क्षेत्रों में किसान रैलियां करते हुए अक्टूबर में लखनऊ में किसानों की एक बड़ी रैली करने का फैसला किया गया है।

आज उत्तर प्रदेश में अतीत के बरक्स नई सामाजिक शक्तियां पुरानी सत्ता संरचना के दायरे का अतिक्रमण करते हुए समाज और राजनीति में अपनी दावेदारी बुलंद कर रही हैं, एक वाइब्रेंट सिविल सोसायटी उठ खड़ी हुई है, जो हर कुर्बानी देकर लोकतंत्र की रक्षा की लड़ाई लड़ रही हैं, एक ऐतिहासिक किसान आंदोलन चल रहा है जिसने अब इस सरकार को हटाना अपना लक्ष्य बना लिया है, छले गए छात्र-युवा, बेरोजगार, मेहनतकश आज बदलाव के लिए बेचैन हैं, विपक्ष की तमाम राजनीतिक ताकतें लड़ाई के लिए कमर कस रही हैं।

सामाजिक शक्तियों का संतुलन निर्णायक तौर पर विनाशकारी योगी-राज के खिलाफ होता जा रहा है। जाहिर है सरकारी मशीनरी और गुंडा-वहिनी के बल पर जनता के मताधिकार और जनादेश का अपहरण कर पाना आसान नहीं होगा, उत्तर प्रदेश 2022 में लोकतंत्र की नई इबारत लिखेगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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