विशेष: केंद्रीय बजट 2023-24 से क्या उम्मीद करें
आगामी केंद्रीय बजट 2023-24 कई कारणों से कुछ खास है:
• 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले शायद यह आखिरी पूर्ण बजट है। 2024 में चुनावों से पहले, बस एक वोट-ऑन-अकाउंट हो सकता है, या यहां तक कि अगले बजट की प्रस्तुति से कुछ महीने पहले चुनाव भी हो सकते हैं।
• इस बार कोविड-19 का उतना भारी बोझ नहीं है जितना पहले के तीन बजटों में था।
• यह यूक्रेन में युद्ध के तत्कालिक तबाह करने वाले प्रभाव से लगभग एक वर्ष दूर है।
• यह भारत में एक ऐसे वर्ष का केंद्रीय बजट होगा जब वैश्विक अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे मंदी की ओर बढ़ रही है।
• यह बजट उस समय प्रस्तुत किया जा रहा होगा जब भारतीय अर्थव्यवस्था में लगातार दूसरे वर्ष मंदी का अनुमान लगाया जा रहा है। इतना ही नहीं। 2023-24 के बाद 2024-25 में मंदी का एक और वर्ष होगा जो रेटिंग एजेंसियों द्वारा की गई भविष्यवाणी के अनुसार और भी बुरा होगा।
• यह उस समय आने वाला बजट भी होगा जब मुद्रास्फीति अभी भी उच्च स्तर पर बनी हुई है।
• यह उस एक साल के अंत में पेश किया जाने वाला बजट होगा जब, 2022 में, रुपये का मूल्य 10% गिर गया। सुश्री निर्मला सीतारमण को गर्व हो सकता है कि अन्य प्रमुख मुद्राओं का प्रदर्शन और भी खराब रहा। पर यह कोई सांत्वना नहीं है क्योंकि भारतीय निर्माताओं और सेवा प्रदाताओं (service providers) को समान मात्रा में विदेशी मुद्रा अर्जित करने के लिए दस प्रतिशत अधिक निर्यात करना होगा और उनके आयात के लिए दस प्रतिशत अधिक भुगतान करना होगा।
• 2023-24 का केंद्रीय बजट ऐसा बजट भी होगा, जिसे भारत में बेरोजगारी के संकट से जूझना होगा, जो 2022 में रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया था।
भारतीय अर्थव्यवस्था का कोई भी पर्यवेक्षक उत्सुकता से इस बात पर नज़र रखेगा कि क्या आने वाला बजट इन सभी शर्तों के अनुरूप होगा और इन सभी चुनौतियों से निपटेगा या कि ऐसा करने में बुरी तरह विफल रहेगा। आइए इन कारकों पर विस्तार से चर्चा करें।
मैक्रो-इकोनॉमिक प्राथमिकताएं
किसी भी सामान्य बजट से पहले विकास को बनाए रखना और राजकोषीय मजबूती (fiscal consolidation) को प्राथमिकता देना होगा। वर्तमान समय में, दोनों ही जटिल कठिनाइयाँ खड़ी करते हैं। असाधारण महामारी की स्थिति को देखते हुए 2020-21 और 2021-22 के दौरान राजकोषीय लक्ष्य (fiscal target) से समझौता करना अपरिहार्य हो गया था। दो वर्षों के लिए राजकोषीय समेकन पर एक दौर के समझौते के बाद, विकास को अधिक प्रोत्साहन देने हेतु उदार खर्च की ओर जाने के लिए अगले वर्ष राजकोषीय समझौते के एक और दौर का विकल्प लगभग बंद हो गया है। आरबीआई (RBI) के बार-बार ब्याज दरों में बढ़ोतरी के बावजूद महंगाई आसमान छू रही है। ऐसी पृष्ठभूमि में ही प्रधानमंत्री ने “रेवड़ी” (मुफ्त उपहार) की संस्कृति के खिलाफ राजनीतिक वर्ग को उपदेश देना सही समझा। 2022-23 के लिए 6.4% के राजकोषीय घाटे के लक्ष्य के मुकाबले, यह अनुमान लगाया गया है कि यह वित्तीय वर्ष 6.8% के राजकोषीय घाटे के साथ समाप्त होगा। इससे सुश्री सीतारमन के हाथ और बंध जाते हैं। वह पहले से ही 2023-24 में राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को 5.8% तक लाने के लिए दबाव में है और मध्यम अवधि का लक्ष्य है वित्त वर्ष ‘26 तक इसे 4.5% तक कम करना।
बटुए की डोर जितनी ढीली होगी महंगाई उतनी और बढ़ेगी। चुनाव पूर्व वर्ष में तेज़ी से बढ़ रही मुद्रास्फीति राजनीतिक रूप से महंगी साबित होगी। एक अप्रिय विकल्प के रूप में सही, विकास पर समझौता करने से आय और रोजगार के अवसर कम होंगे। इसलिए, यह सुश्री निर्मला सीतारमण के लिए एक कठिन रास्ता है, जो एक ‘हॉब्सन्स चॉयस’ (जो मिले सो ले लो वरना कुछ नहीं )का सामना कर रही हैं। बजट दिखाएगा कि वह किस तरफ लुढ़कता है!
जीडीपी (GDP) ग्रोथ की चुनौतियां
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने दूसरे दिन अपनी पीठ थपथपाते हुए कहा कि भारत ने विकास दर के मामले में अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है। यह ठीक है, भारत ने चालू वर्ष में अन्य देशों को पीछे छोड़ दिया। लेकिन यह सरकार भारत में ही अपनी पूर्ववर्ती यूपीए सरकार से बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाई है। कम वृद्धि एक अभिशाप है। लेकिन एक दशक और उससे अधिक समय तक उच्च विकास दर के बाद कम वृद्धि उससे बड़ा अभिशाप है।
यह भी सच है कि भारत के लिए अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की विकास दर 6-प्लस प्रतिशत संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, यूरोपीय संघ और अन्य ब्रिक्स देशों की अर्थव्यवस्थाओं की विकास दर से अधिक है। एक व्यापक दृष्टिकोण यह भी है कि 6% से ऊपर की वृद्धि कोई मामूली उपलब्धि नहीं है। लेकिन जो लोग इसका जश्न मना रहे हैं वे इस तथ्य को भूल जाते हैं कि छह-प्लस प्रतिशत नहीं, बल्कि केवल नौ से ऊपर प्रतिशत की विकास दर ही कोविड-19 आपदा और पूर्ववर्ती 2019 मंदी के कारण अर्थव्यवस्था के कई मापदंडों में गिरावट की भरपाई कर सकती है। दूसरे शब्दों में, केवल इतनी उच्च वृद्धि ही उच्च आय उत्पन्न कर सकती है, जो महामारी की अवधि में भारी नुकसान की भरपाई कर सकती है और व्यवसायों के साथ-साथ घरों के वित्तीय स्वास्थ्य को बहाल कर सकती है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि केवल इतनी ऊंची वृद्धि ही काफी हद तक बेरोजगारी के बैकलॉग को खत्म कर सकती है।
धूमिल निवेश परिदृश्य
सामान्य समय में, विकास निवेश पर निर्भर है। भारत में निवेश परिदृश्य क्या है?
2019 के बाद से पिछले कुछ बजटों में लाखों करोड़ रुपये की उदार कॉरपोरेट टैक्स कटौती और 14 क्षेत्रों में 2.34 लाख करोड़ रुपये के प्रोडक्शन-लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) जैसे अन्य प्रोत्साहनों के बावजूद, अर्थव्यवस्था में सकल निश्चित पूंजी निवेश 2022-23 में वर्ष की तुलना में 31.7% कम रहने की उम्मीद है।
15 नवंबर 2022 को बिजनेस स्टैंडर्ड में रिपोर्ट की गई 2725 सूचीबद्ध कंपनियों के एक हालिया सर्वेक्षण से पता चला है कि 2022 में अक्टूबर तक कॉर्पोरेट आय में 2.06 ट्रिलियन रुपये की गिरावट आई है, जो एक साल पहले इसी अवधि में 2.20 ट्रिलियन रुपये थी। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि 2021-22 में कॉर्पोरेट मुनाफे में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई क्योंकि यह महामारी से उबरने का वर्ष था। विरोधाभासी रूप से, भले ही कॉर्पोरेट मुनाफे में वृद्धि हुई हो, विकास में गिरावट आई है। लेकिन कॉर्पोरेट मुनाफे में वृद्धि भी क्षणिक और अल्पकालिक रही और उसमें महामारी के बाद का बूम समाप्त हो गया है। यह 2022-23 के अगले साल ही नीचे आ गया। इसलिए कॉरपोरेट निवेश में भी कमी आई है। दूसरे शब्दों में, भारतीय कॉर्पोरेट क्षेत्र ने वित्त मंत्री को उपकृत नहीं किया। निजी कॉर्पोरेट निवेश ने विकास को बनाए नहीं रखा।
एफडीआई (FDI) प्रवाह में वृद्धि भी उच्च वृद्धि को बनाए रखने के लिए पर्याप्त नहीं थी। 2020-21 के चरम महामारी वर्ष में एफडीआई प्रवाह 81.97 अरब डॉलर था। 2021-22 के लिए, यह आंकड़ा $83.6 अरब था, मामूली वृद्धि। हालांकि, 2022-23 की पहली छमाही के दौरान कुल एफडीआई प्रवाह घटकर 39 अरब डॉलर रह गया, जबकि पिछले वर्ष की समान अवधि में यह 42.86 अरब डॉलर था। यह निर्मला सीतारमण के 2022-23 में 100 अरब डॉलर के एफडीआई हासिल करने के लक्ष्य पर एक बड़ा सवालिया निशान खड़ा करता है।
क्या निर्यात विकास को बनाए रख सकता है? 2021-22 में भारत का निर्यात पुनर्जीवित हुआ और 2022-23 की पहली तिमाही तक निर्यात प्रदर्शन मजबूत रहा, लेकिन तब से इसमें गिरावट शुरू हो गई। ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत के पहले और चौथे सबसे बड़े निर्यात बाजार, अमेरिका और चीन में तीव्र मंदी देखी जा रही है और यूरोपीय संघ के दूसरे सबसे बड़े बाजार का आधे से अधिक पहले से ही मंदी के दौर में है। 2023-24 में भारत द्वारा निर्यात प्रदर्शन में उच्च वृद्धि (high growth) कमज़ोर है। FTAs स्थिति को नहीं बचा रहे हैं।
कैपेक्स (Capex) ग्रोथ टिकाऊ नहीं है
क्या सरकार इस स्थिति में है कि विकास को बनाए रखने के लिए, विशेष रूप से बुनियादी ढांचे में सार्वजनिक निवेश अत्यधिक वृद्धि कर सके, जैसा कि उसने पिछले साल किया था? इस प्रश्न का उत्तर तभी दिया जा सकता है जब हम इस प्रश्न का उत्तर दे सकें कि सार्वजनिक निवेश में इस तरह के विस्तार के लिए धन कहाँ से आएगा? तंग राजकोषीय स्थिति और उच्च ब्याज भुगतान ने पहले ही सरकारी उधार की सीमा तय कर दी है।
और राजस्व परिदृश्य कैसा है? रेटिंग एजेंसी अर्न्स्ट यंग (Ernst & Young) के आंकड़ों के मुताबिक, 2021-22 में सकल कर राजस्व (gross tax revenues) 27.10 लाख करोड़ रुपये था। 2022-23 के लिए बजट अनुमान 27.60 लाख करोड़ रुपये था लेकिन उपलब्धि 3.6 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 31.20 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच सकती है। मंदी के बावजूद 2023-24 की अनुमानित राजस्व वृद्धि 36.00 लाख करोड़ रुपये है। यही एकमात्र आशा है। लेकिन सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में, सकल कर राजस्व वित्त वर्ष 2022 में 10.40% की तुलना में वित्त वर्ष ‘23 में घटकर 10.30% रहने का अनुमान है। किसी भी सूरत में, चुनाव पूर्व वर्ष में राजस्व व्यय के बढ़ते दबाव को देखते हुए पूंजीगत व्यय में यह कितनी वृद्धि कर सकता है, इसपर एक प्रश्न चिह्न है। उदाहरण के लिए, यूक्रेन युद्ध के कारण कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि के प्रभाव के तहत उर्वरक सब्सिडी में अत्यधिक वृद्धि होगी। मुफ्त खाद्यान्न योजना को भी एक और वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया है, जिससे खाद्य सब्सिडी भी अधिक बनी रहेगी। इस तरह के उच्च राजस्व व्यय से पूंजीगत व्यय के लिए कम पैसा बचेगा। हर हाल में, अवसंरचना में सार्वजनिक निवेश का प्रभाव विकास व रोजगार पर एक समय अंतराल के बाद ही हो सकता है।
क्या 2022-23 के लिए 65,000 करोड़ रुपये के विनिवेश (disinvestment) लक्ष्य को पूरा किया जा सकता है? इस लक्ष्य को हासिल करने की उम्मीद IDBI बैंक में विनिवेश पर टिकी थी, जो शुरू नहीं हो सका। 1992 से लगातार सरकारों ने विनिवेश का लक्ष्य 11.6 लाख करोड़ रुपये रखा था, लेकिन उसका आधा भी हासिल न कर सकीं। 17 मई 2020 को, निर्मला ने आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत सभी गैर-रणनीतिक सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की नीति की घोषणा की। 277 पीएसयू (PSUs) में से अब तक सिर्फ 6 का ही निजीकरण हुआ है!
सभी विकास चालक इस प्रकार अभावग्रस्त हैं।
सभी मोर्चों पर नीतिगत पक्षाघात (policy paralysis) भी है। डिजिटल इंडिया को बढ़ावा देने के लिए सरकार डिजिटल मनी ट्रांसफर के लिए नए प्रोत्साहन देने पर मजबूर है। स्मार्ट सिटीज़ लॉस्ट सिटीज़ बन गए हैं! 2022 तक कुपोषण को समाप्त करने वाला पोषण अभियान असाध्य रूप से बीमार पड़ गया है। एमएसपी (MSP) पर वादा पूरा नहीं होने से किसान अभी भी आंदोलित हैं। ऐसे कई वादे झूठे साबित हुए हैं।
चूंकि बेरोजगारी का मुद्दा संपूर्ण टिप्पणी की मांग करता है, हम इस अवलोकन तक सीमित रहेंगे कि CMIE के अनुसार मोदी के एक वर्ष में 1 करोड़ नौकरियां पैदा करने के वादे के बावजूद 15% से अधिक युवा बेरोजगार हैं।
महंगाई का परिदृश्य
2023-24 में मुद्रास्फीति के परिदृश्य के बारे में क्या कहा जाए? उच्च मुद्रास्फीति पहले से ही मद्धम होना शुरू हो गई है। 2023 में मुद्रास्फीति के घटकर 5.4% पर आने का अनुमान है। लेकिन एक पेच ज़रूर है। रेटिंग एजेंसी इंडिया रेटिंग्स के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था में सकल मूल्य वर्धित (Gross Value Added or GVA) के 44-45% के लिए जिम्मेदार परिवारों ने वित्त वर्ष ‘17 से वित्त वर्ष ‘21 तक, पाँच वर्षों में, मात्र 1% की वास्तविक वेतन वृद्धि का अनुभव किया। महंगाई की दर करीब 4 से 5 गुना ज्यादा रही है। 2023-24 में 5.4% अनुमानित मुद्रास्फीति वास्तविक मजदूरी में वृद्धि की दर को भी पार कर जाएगी।
इसका मतलब है कि भले ही मुद्रास्फीति का प्रतिशत कम हो जाए, कामकाजी लोगों के लिए रहने की लागत बढ़ सकती है। अगर सरकार वैधानिक न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाकर 1000 रुपये प्रति दिन या लगभग 30,000 रुपये प्रति माह कर देती है और इसे सख्ती से लागू करती है, तो यह लोगों के हाथों में अधिक पैसा ला सकता है, कुल मांग में वृद्धि कर सकता है और इस प्रकार एक गिरती हुई अर्थव्यवस्था के लिए सबसे अच्छा प्रोत्साहन हो सकता है। दिल्ली में वर्तमान समय में न्यूनतम मजदूरी अकुशल श्रमिकों के लिए 16,500 रुपये से लेकर कुशल श्रमिकों के लिए 20,000 रुपये है। सार्वजनिक क्षेत्र के लाखों ठेका मजदूरों, मनरेगा के सभी मजदूरों और संगठित क्षेत्र के सभी असंगठित मजदूरों को अगर पहले दौर में कम से कम इतना (30,000/ प्रति माह ) मिल जाए, तो यह मंदी के वृहद-आर्थिक परिदृश्य में बदलाव ला सकता है। विशाल वेतनभोगी वर्गों को कर राहत एक अतिरिक्त बूस्टर खुराक हो सकती है।
हालांकि यह बजट के दायरे से बाहर है, लेकिन पिछले कुछ समय से बजट दस्तावेजों में न्यूनतम मजदूरी का मुद्दा उभरना शुरू हो गया है। देखते हैं वित्त मंत्री क्या कुछ कर पाती हैं।
(लेखक आर्थिक और श्रम मामलोें के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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