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किसान आंदोलन: सात साल में पहली बार सकारात्मक एजेंडा के साथ जनता आक्रामक है

देश के साथ ही किसान आंदोलन का तापमान बढ़ता जा रहा है। मई आते आते इसके और बढ़ने के आसार हैं। टकराव की लगातार खबरें आने लगी हैं। 
किसान आंदोलन
Image courtesy : Navbharat Times

गुजरात, उड़ीसा में राकेश टिकैत के खिलाफ भाजपा कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किए, राजस्थान के अलवर में उनके ऊपर हमला हुआ, उनकी गाड़ी क्षतिग्रस्त हुई। हमले के बाद राकेश टिकैत ने शांति बनाये रखने की अपील करते हुए कहा कि हम इस संघी षड्यंत्र से डरने वाले नहीं है और हमारे कार्यक्रम बदस्तूर जारी रहेंगे। उन्होंने बीजेपी को चेतावनी देते हुए कहा कि अगर संयुक्त मोर्चा के नेताओं के साथ सड़कों पर इस तरह की घटनाएं की गईं तो भाजपा के सांसद विधायक भी सड़क पर नहीं चल पाएंगे।

देश के साथ ही किसान आंदोलन का तापमान बढ़ता जा रहा है। मई आते आते इसके और बढ़ने के आसार हैं। टकराव की लगातार खबरें आने लगी हैं। 

तीन अप्रैल को खट्टर के विरोध में उतरे बुजुर्ग किसान की रक्तरंजित फोटो सोशल मीडिया पर  वायरल होती रही।

मेधा पाटकर के नेतृत्व में दांडी से चलकर मिट्टी सत्याग्रह यात्रा के सिरसा चौक पहुंचने पर किसानों ने जो शहीद चौक बनाया था, हरियाणा सरकार के प्रशासन और पार्टी ने उसे उजाड़ दिया। 

हरियाणा में खट्टर सरकार अपनी अथॉरिटी reassert करने का desperate attempt कर रही है। किसानों की निगाह में वह शासन का नैतिक प्राधिकार खो चुकी है, अब वे उसे बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं। आये दिन खट्टर-चौटाला के कार्यक्रमों का किसानों द्वारा जुझारू विरोध और सरकार तथा किसानों के बीच बढ़ते टकराव की जड़ यही है।

दरअसल, 2 मई को आने जा रहे 5 विधान सभाओं, विशेषकर पश्चिम बंगाल के नतीजे तथा उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव परिणाम इस दृष्टि से निर्णायक होंगे कि वे किसान-आंदोलन के प्रति सरकार का रुख तय कर देंगे।

कृषि कानूनों पर सर्वोच्च न्यायालय की 11 जनवरी को बनी कमेटी ने भी 3 महीने बाद अब अपनी संस्तुति सौंप दी है।

इसी पृष्ठभूमि में किसानों ने भी पेशबन्दी करते हुए मई के पहले पखवाड़े में संसद मार्च का ऐलान कर आंदोलन को और ऊंचाई पर ले जाने के अपने लौह-संकल्प का ऐलान कर दिया है।

विकल्प दो ही बचे हैं। या तो चुनाव परिणाम ऐसे आएं कि उसके बाद राजनैतिक फैसला लेते हुए सरकार पीछे हटने के लिए बाध्य हो जाये और किसानों से समझौता करे, अन्यथा किसान आंदोलन और सरकार के बीच बड़े स्तर का टकराव अपरिहार्य हो जाएगा। मुद्दा-आधारित आंदोलन से आगे बढ़ते हुए किसान आंदोलन अधिकाधिक राजनीतिक स्वरूप ग्रहण करता जाएगा और भाजपा के ख़िलाफ़ राष्ट्रव्यापी राजनैतिक अभियान में तब्दील होता जाएगा। 

यह भी याद रखना होगा कि यह संसदीय जनतंत्र की एक ही वर्ग की दो ताकतों के बीच की सामान्य राजनैतिक प्रतिद्वन्द्विता नहीं है, वरन दो विरोधी वर्गों- कॉरपोरेट बनाम किसान-के बीच जीवन-मरण की लड़ाई है। मोदी-शाह हुकूमत जब संसदीय विरोधियों से भी दुश्मन की तरह बर्ताव करती है और उन्हें कुचलने में कुछ भी उठा नहीं रखती, तो यह लड़ाई तो उससे उच्चतर स्तर की वर्गीय लड़ाई है, इसलिए अंतर्विरोध शत्रुतापूर्ण होते जाएंगे। 

प्रो. प्रभात पटनायक ने इस तथ्य को नोट किया है कि 3 कृषि कानूनों पर मोदी सरकार के अड़ियल रुख का कारण ही यह है कि इन्हें repeal करने का मतलब है नव-उदारवादी सुधारों से पीछे हटना, जो वित्तीय पूँजी और कॉरपोरेट के हित में लागू किये जा रहे हैं, भले ही वह एक सेक्टर -कृषि-में ही हो। इन कानूनों के सूत्रधार अशोक गुलाटी तो यहां तक कह चुके हैं कि यदि इन्हें रिपील किया गया तो सभी नव-उदारवादी सुधारों की वापसी के लिए दबाव बन जायेगा। इसलिए सरकार अनगिनत संशोधनों को तो तैयार है, पर कानूनों को repeal नहीं करना चाहती।

जाहिर है, अंततः, यदि सरकार  समग्र वर्गीय हित मे, राजनैतिक लाभ-हानि के मद्देनजर फिलहाल Tactical retreat नहीं करती, अपने कदम पीछे नहीं खींचती तो टकराव बढ़ना तय है। 

दरअसल, मोदी शासन के शुरुआती 7 वर्षों में सरकार एक से एक विनाशकारी नीतियां, काले कानून देश पर थोपती रही, नए नए विध्वंसकारी कदम उठाती रही, पर जनता उनके खिलाफ बस React करती रही, बेशक कई बार बेहद तीखे ढंग से और बहादुरी के साथ जैसे CAA-NRC पर, भूमि अधिग्रहण (Land Acquisition) जैसे मुद्दों पर सरकार को पीछे भी धकेलती रही, पर कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि वे defensive लड़ाईयां थीं। यह पहली बार है कि जनता अब offensive पर है, एक सकारात्मक एजेंडा के साथ, और मोदी सरकार पहली बार defensive है। किसान अब कृषि क्षेत्र में नव उदारवादी सुधारों की वापसी के साथ अपने फसल की वाजिब कीमत, MSP की कानूनी गारंटी के सकारात्मक एजेंडा के साथ आक्रामक हैं।

यह अच्छा है, शायद, एक ऐतिहासिक अनिवार्यता की पैदाइश कि शासक खेमे के लिए भी कृषि क्षेत्र का पुनर्गठन अपरिहार्य हो गया है और किसान समुदाय के लिए भी। शासक रणनीति का प्रतिनिधित्व मोदी सरकार कर रही है, 3 कानूनों के माध्यम से। वे बार बार कह रहे हैं कि कृषि क्षेत्र के लिए नए विकल्पों की तलाश होनी चाहिये। पहले तो वे 2022 तक आय दोगुना करने का बड़बोला दावा करते रहे। अब जब 2022 आने में महज 1 साल बचा है और आय दोगुना करने के उनके दावे की पोल खुल चुकी है, तब नीति आयोग के उनके सलाहकार डॉ. रमेश चन्द फरमा रहे हैं कि 3 कानून लागू न हुए तो किसानों की आय दोगुनी नहीं हो पाएगी!

जाहिर है यह एक नया जुमला तो है ही, उनकी 7 साल से लागू अपनी मौजूदा नीतियों की विफलता की आत्मस्वीकृति (confession) भी है।

सरकार यह कहना और समझाना चाह रही है कि बिना बाजार की शक्तियों और कारपोरेट पूँजी के प्रवेश के कृषि का विकास नहीं हो सकता, बहरहाल ऐसी कृषि का जो मक्का/सर्वोच्च मॉडल है, अमेरिका, उसके कृषि मंत्री टॉम विलसैक ने इसी सप्ताह यह माना है कि अमेरिका के 90% किसानों की आमदनी का मुख्य हिस्सा कृषि से नहीं आता। उन्होंने कहा है कि समय आ गया है कि खाद्यान्न व कृषि व्यवस्था को बदला जाए। विलसैक की यह चेतावनी अमेरिका से ज्यादा भारत के लिए सच है

बहरहाल, किसानों ने पूरे समुद्र मंथन के बाद अब यह बात अच्छी तरह समझ ली है कि असली मामला यह है कि उन्हें अपनी फसल का वाजिब दाम, यहां तक कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP ) भी नहीं मिल पा रहा है। इसलिए अब वे MSP की कानूनी गारंटी के सवाल पर एक इंच भी पीछे हटने को तैयार नहीं है।

यह दरअसल ऐसा एजेंडा है, जो पूरी तरह unfold होने पर सरकार की कृषि विषयक नीतियों के समग्र दायरे को प्रभावित करने वाला है- WTO, IMF वित्तीय पूँजी, कॉरपोरेट सबको।

किसान आंदोलन ने इस वृहत्तर एजेंडा को गम्भीरता के साथ address करना शुरू कर दिया है।

5 अप्रैल को FCI दफ्तरों के घेराव के बाद जारी अपनी विज्ञप्ति में संयुक्त किसान मोर्चा ने कहा है,

" संयुक्त किसान मोर्चा और प्रदर्शनकारी किसान भी इस संकट के बारे में गहराई से जानते हैं कि भारत ने अपने उपभोक्ताओं और उत्पादकों को इस स्थिति में विश्व व्यापार संगठन के कठोर ढांचे के भीतर अपनी प्रतिबद्धताओं और कृषि पर अपने समझौते के कारण उतारा है।  सरकार द्वारा WTO से बातचीत में रखे गए प्रस्ताव में भोजन के अधिकार, संप्रभुता, खाद्य और पोषण सुरक्षा के ठोस तर्क व प्रस्ताव नहीं है। भारत के खाद्य भंडार कार्यक्रम को विश्व व्यापार संगठन में एक स्थायी समाधान के बिना खींचा गया है। विश्व व्यापार संगठन के समझौते में कृषि मॉडल को एक ऐसे रूप में बनाया गया है जो आम नागरिकों के हित के खिलाफ है और जो कृषि-व्यवसाय में कॉरपोरेट द्वारा मुनाफाखोरी को जगह देता है।"

दरअसल, WTO के माध्यम से अमेरिका और यूरोपीय देशों ने अपनी कृषि के लिए ब्लू, ग्रीन बॉक्स के शातिर mechaniam की मदद से इतनी अधिक सब्सिडी का प्रावधान कर रखा है, भारत जैसे देशों के बाजार में अबाध प्रवेश का अधिकार हासिल कर रखा है तथा लगातार सब्सिडी घटाने का दबाव बना रखा है कि  उसकी प्रतियोगिता में अपने ही बाजार में हमारे किसानों का उत्पाद टिक पाने में असमर्थ है।

मोदी ने अपने 3 कृषि कानूनों की मदद से भारत के कृषि व्यापार को बाजार की शक्तियों अर्थात देशी-विदेशी कारपोरेट कम्पनियों के हवाले करने का फैसला करके रही सही कसर भी पूरी कर दी है और साम्राज्यवादी देशों तथा WTO जैसी एजेंसियों के सामने पूरी तरह से समर्पण कर दिया है। अपनी विराट आबादी के लिए खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक खाद्यान्न भंडारण खत्म करने का WTO का दबाव पहले से था, अब सरकार ने नए कानून द्वारा खाद्यान्न को Essential commodity से बाहर करके खुद ही उसे तिलांजलि दे दी है।

भारत सरकार के पूर्व वित्त सचिव एस पी शुक्ला ने, जो GATT वार्ताओं में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं, ने इसे शिद्दत से रेखांकित किया है-

"सरकार WTO की शर्तों को अपने कृषि कानूनों को बढ़ाने के लिए आखिरी तर्क के तौर पर इस्तेमाल करेगी। 

विश्व व्यापार संगठन ने भारत की खेती को वैश्विक बाजार के साथ जोड़ दिया है जिसमें खेती की बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों का दबदबा है। यह प्रक्रिया पूरी तरह अतार्किक, नाइंसाफी भरी और साम्राज्यवादी है। 

कृषि उत्पादों के भूमंडलीय बाज़ार कीमतों की घोर अनिश्चितता के लिए कुख्यात है। हमारे कृषि उत्पादन और विपणन को उस बाज़ार की कीमतों की उथल-पुथल से सीधे बाँध देने के परिणामस्वरूप कृषि पर निर्भर आबादी के बहुत बड़े  तबके पर अनियोजित ढंग से कृषि से बेदखल हो जाने का ख़तरा सदा बना रहेगा। सामाजिक और आर्थिक स्थिरता के लिए यह ज़रूरी है कि हम हमारी कृषि व्यवस्था को ऐसी उथल-पुथल और अव्यवस्था से बचाकर रखने की हरसंभव कोशिश करें। 

अमेरिका और यूरोप की कृषि व्यापार (एग्री-बिजनस ) लॉबी बहुत ताक़तवर और विश्वस्तरीय है। इसी लॉबी ने डब्ल्यूटीओ में शामिल कृषि समझौते (अग्रीमेन्ट ऑन एग्रीकल्चर) के तहत दो महत्त्वपूर्ण कामयाबियां हासिल कीं। एक तो उन्होंने अपने देशों की सरकारों को खेती के क्षेत्र को अंधाधुंध सब्सिडी देना सुनिश्चित कर लिया ताकि उनके देशों के कृषि उत्पाद सस्ते हों। साथ ही साथ उन्होंने विकासशील देशों के बाज़ारों को अपने देशों के सब्सिडी प्राप्त कृषि उत्पादों के निर्यात के लिए खोलने में भी कामयाबी हासिल कर ली। इसके ठीक उलट विकासशील देश अब तक आयातों के हमले के खिलाफ डब्ल्यूटीओ के आकाओं से कुछ न्यूनतम सुरक्षात्मक प्रावधान के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। वे इस बात के लिए अभी लड़ रहे हैं कि अपने देश के ज़रूरतमंद लोगों के लिए सरकारी खर्चे से आवश्यक मात्रा में खाद्यान्न भंडारण करने का उनका अधिकार डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते (Agreement On Agriculture ) में कानूनन शामिल हो।"

उम्मीद है, किसान आंदोलन यह दबाव बढ़ाता जाएगा कि भारत सरकार नवम्बर 2021 में होने जा रही WTO की मंत्रिस्तरीय बैठक में अपनी  सम्प्रभुता assert करे और उनके dictates के आगे समर्पण से बाज आए।

समय आ गया है कि तीन दशक से लागू नव-उदारवादी सुधारों के समूचे जनविरोधी नीतिगत ढांचे को बदलने के लिए देश किसानों के साथ खड़ा हो। इस राजनैतिक जनांदोलन के गर्भ से एक नया राजनैतिक अर्थतंत्र सामने आएगा जो शेखर गुप्ता द्वारा गढ़ी गयी विचाधाराओं के मोर्चेबन्दी की नई binary- मोदी का निजीकरण बनाम राहुल का समाजवाद- के पार जाकर जनता के समग्र हित मे नई policy regime का आगाज़ करेगी तथा जो बड़ी कॉरपोरेट पूँजी के हितों एवं वैश्विक वित्तीय पूँजी के निर्देशों से संचालित नहीं होगी और हमारे लोकतंत्र को नवजीवन देगी।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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