किसान आंदोलन: नई उभरती चुनौतियां और संभावनाएं
किसान-आंदोलन के मोर्चे पर बढ़ती गहमागहमी से समर्थकों से लेकर विरोधियों तक के बीच आंदोलन के पुनर्जीवन की चर्चा जोर पकड़ने लगी है।
संयुक्त किसान मोर्चा ने लखीमपुर में 18 से 20 अगस्त तक पक्का मोर्चा लगाया तो 22 अगस्त को किसानों ने MSP की कानूनी गारंटी के सवाल पर जंतर-मंतर पर जोरदार दस्तक दी। उसी दिन GPF में आंदोलन के एक प्रमुख नेता, AIKS के राष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक धवले की किसान आंदोलन पर लिखी किताब " When farmers Stood Up " पर बातचीत के लिए तमाम नेता जुटे।
इन कार्यक्रमों ने मिलकर एक बार फिर दिल्ली के ऐतिहासिक किसान आंदोलन की याद ताजा कर दी। लखीमपुर महापड़ाव के बाद तो एक अखबार ने यही heading लगाई "दिल्ली आंदोलन की झलक दिखाकर लौटे किसान"। जाहिर है इस नई हलचल से समर्थकों में जहां उत्साह का संचार हुआ है, वहीं सत्ताधारियों और गोदी मीडिया में दहशत दिखी और आंदोलन की नई लहर का भूत उन्हें सताता दिखा।
यह अनायास नहीं है कि उसी दिन, 22 अगस्त को सरकार द्वारा MSP को प्रभावी बनाने के नाम पर बनाई गई कमेटी की भी दिल्ली में बैठक हुई, लेकिन किसान आंदोलन की हलचल के बीच वह बैठक चर्चा से बाहर ही रही। जाहिर है यह कमेटी और इसकी कार्यवाहियां किसान आंदोलन तेज होने के आसन्न खतरे की पेशबंदी है जिसका सीधा सा मकसद किसानों की आंख में धूल झोंकना है।
यह साफ है कि मोदी सरकार की वायदाखिलाफी तथा फ़र्ज़ी MSP कमेटी के गठन जैसी धूर्तता के खिलाफ किसानों का गुस्सा और बेचैनी बढ़ती जा रही है। ऐसा लगता है कि मोदी सरकार आने वाले दिनों में किसानों के साथ एक बड़े टकराव को आमंत्रण दे रही है। किसान आंदोलन के पुनर्जीवन और 2024 के पूर्व सरकार के साथ एक निर्णायक showdown की जमीन तैयार हो रही है।
हाल के घटनाक्रम से यह भी स्पष्ट है कि जैसे जैसे 2024 नजदीक आ रहा है, किसान आंदोलन पर राजनीति की छाया गहराती जा रही है, उसका नया चरण देश की विकासमान राजनीतिक प्रक्रिया के तनाव और दबावों के बीच से गुजरते हुए आकार ग्रहण करेगा। GPF के कार्यक्रम में राकेश टिकैत ने आंदोलन की भावी दिशा की ओर इशारा करते हुए कहा कि, " हम मिशन 2024 की योजना बना रहे हैं। इसके लिए हम विपक्ष के साथ मिलकर काम करेंगे, आखिर उन्हें भी हमारी जरूरत है। "
वहीं दूसरी ओर RSS के किसान संगठन से कभी जुड़े रहे शिव कुमार कक्का के नेतृत्व में कुछ किसान संगठनों ने संयुक्त किसान मोर्चे पर राजनीतिक होने का आरोप लगाते हुए तथा कम्युनिस्टों पर आंदोलन को हड़पने की तोहमत मढ़ते हुए अपनी राह अलग कर ली है और संयुक्त किसान मोर्चा ( अराजनीतिक ) का गठन किया है।
पर, कक्का जी यह नहीं बता पाते कि जिस SKM के सर्वोच्च निकाय में वे स्वयं और उनके साथी जगजीत सिंह डल्लेवाल पूरे आंदोलन के दौरान शामिल थे, उसके आखिर किस कदम को वे मानते हैं कि वह 'राजनीति-प्रेरित' था जिससे किसान-आंदोलन को क्षति हुई। वे यह भी नहीं बता पाते कि कम्युनिस्टों द्वारा किसान-आंदोलन हड़पे जाने से उनका क्या अभिप्राय है और कैसे कम्युनिस्टों ने किसान आंदोलन अथवा किसानों के हितों को नुकसान पहुंचाया। जिस किसान सभा के नेताओं पर कक्का जी आंदोलन को हड़पने का आरोप लगाते हैं, राकेश टिकैत GPF के कार्यक्रम में यह कहते हुए उनकी तारीफ करते हैं कि तमाम बिखरे और संकीर्ण दायरों में फंसे किसान संगठनों को संयुक्त किसान मोर्चा के राष्ट्रीय मंच पर ले आने में उन लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
यह शक होना लाजमी है कि शिव कुमार शर्मा उर्फ कक्का जी का SKM पर राजनीतिक होने का आरोप कहीं किसान आंदोलन के हमले से भाजपा को बचाने की राजनीति से प्रेरित तो नहीं? क्योंकि यह तय है कि 2024 की ओर बढ़ते हुए SKM की लड़ाई की धार किसानों से वायदाखिलाफी करने वाली तथा देश और लोकतन्त्र के लिये खतरा बन चुकी मोदी सरकार के ख़िलाफ़ अधिकाधिक तीखी होती जाएगी, मिशन बंगाल और UP की तर्ज़ पर टिकैत ने मिशन 2024 की चर्चा करके इसी का संकेत दिया है।
यह देखना दिलचस्प है कि पंजाब में SKM की नीति के विरुद्ध चुनाव लड़ने वाले जो किसान संगठन अब अपनी गलती का एहसास कर वापस आ रहे हैं, अपने को अराजनीतिक कहने वाला कक्का-डल्लेवाल गुट उन्हें मोर्चे में वापस लेने का विरोध कर रहा है। यह समझ से परे है। एक ओर वे SKM पर राजनीतिक होने की तोहमत मढ़ रहे हैं, दूसरी ओर जो संगठन चुनावी राजनीति छोड़कर SKM के आंदोलन में वापस आ रहे हैं, उनके भी वे ख़िलाफ़ हैं !
कहीं यह पंजाब की किसान राजनीति की गुटीय प्रतिद्वंद्विता से प्रेरित तो नहीं है ?
कक्का गुट द्वारा SKM के राजनीतिक होने तथा आंदोलन को कम्युनिस्टों द्वारा हड़पे जाने का आरोप प्रधानमंत्री मोदी द्वारा आंदोलनजीवियों और कम्युनिस्टों पर हमले की याद दिलाता है।
मंशा जो भी हो, इस तरह की अनर्गल बयानबाजी और अलग मोर्चेबन्दी किसान आंदोलन के हितों के विरुद्ध है और सत्ताधारियों के हाथ में खेलने के समतुल्य है।
दरअसल, पूरे समाज में तीखे हो रहे राजनीतिक विभाजन, ध्रुवीकरण और पुनर्विन्यास के अनुरूप ही किसान आंदोलन को भी अपनी राजनीतिक दिशा को लेकर realignment और ध्रुवीकरण की प्रक्रिया से गुजरना होगा। वह इससे बच नहीं सकता है।
जहां तक संयुक्त किसान मोर्चा की दिशा की बात है, उसकी नीति में एक एक निरंतरता और consistency है। तमाम किसान संगठन अलग अलग विचारधारा और राजनीतिक समझ के बावजूद किसान हित के मुद्दों एक common प्लेटफार्म पर आए थे। SKM इस अर्थ में शुरू से ही राजनीतिक था कि नीति निर्माण के प्रश्न पर वह सत्ता से टकरा रहा था, लेकिन वह न तो स्वयं चुनावी राजनीति का मंच था, न उसने राजनीतिक दलों को अपने प्लेटफार्म को इस्तेमाल करने दिया। बेशक अपने विकास के खास चरण में मोदी सरकार पर दबाव बनाने के लिए उसने बंगाल से लेकर UP तक भाजपा सरकारों को सत्ता से बेदखल करने का किसानों से आह्वान किया। पर यह आंदोलन के हित में उसकी रणनीति का हिस्सा था।
इतिहास ने उन्हें सही साबित किया। उनकी रणनीति कामयाब हुई, अहंकारी मोदी-शाह को UP समेत 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के पूर्व अंततः घुटने टेक कर कृषि कानून वापस लेने पड़े।
इसलिये आज जब आंदोलन के नए चरण की तैयारी चल रही है और 2024 का महायुद्ध सामने है, तब संयुक्त किसान मोर्चा को समय की कसौटी पर सही साबित हुए ( time-tested ) अपने अब तक के रास्ते और रणनीति पर डटे रहना होगा। यह तय है कि इस दौर में अराजनीतिक होने के नाम पर जो भी संगठन सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के प्रति नरम रुख अख्तियार करेगा और सांठगांठ करता दिखेगा, किसान उसे बाहर का रास्ता दिखा देंगे।
SKM को अपनी उसूली दिशा पर दृढ़ता से कायम रहते हुए, लचीले रुख के साथ सभी सम्भव संगठनों को जोड़ते हुए और बड़ी एकता कायम करना होगा तथा सबको अपनी decision making प्रक्रिया और democratic functioning में हिस्सेदार बनाना होगा।
यह स्वागत योग्य है कि संयुक्त किसान मोर्चा नए दौर की मांग के अनुरूप अपने आंदोलन को broad-base कर रहा है, मजदूर संगठनों के साथ तो उसका पहले से ही समन्वय था, अब विनाशकारी अग्निपथ योजना के विरोध जैसे मुद्दों को लेकर जवानों तथा पूर्व सैनिकों के साथ हाथ मिला रहा है, सर्वोपरि किसानी और लोकतन्त्र को बचाने के लिए मिशन 2024 लांच करने और इसे अंजाम तक पहुंचाने के लिए विपक्षी राजनीतिक दलों के साथ और घनिष्ठ engagement की ओर बढ़ रहा है।
आज देश की तमाम जनान्दोलन की ताकतों, नागरिक समाज के संगठनों तथा विपक्षी दलों की व्यापकतम सम्भव एकता समय की मांग है जो 2024 में कारपोरेट-फासीवादी गठजोड़ के शिकंजे से देश को मुक्त करा सके, ताकि देश में धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र की पुनर्बहाली हो। इसमें किसान आंदोलन की भूमिका बेहद अहम होगी। राकेश टिकैत के शब्दों में किसान देश के लोकतांत्रिक आंदोलन की रीढ़ हैं।
इस संयुक्त लड़ाई में किसान आंदोलन को हर हाल में अपनी स्वतंत्रता बरकरार रखना होगा तथा तमाम संघर्षशील लोकतान्त्रिक ताकतों की ओर से जनता के जीवन की बेहतरी और राष्ट्रनिर्माण के वैकल्पिक कार्यक्रम एवं जन-एजेंडा पर विपक्षी दलों को कायल करना होगा, तभी इस लड़ाई में व्यापक जनसमुदाय का समर्थन और सहभागिता सुनिश्चित हो सकती है और कारपोरेट- फासीवाद को निर्णायक शिकस्त दी जा सकती है।
उम्मीद है 6 सितंबर को दिल्ली में होने जा रही संयुक्त किसान मोर्चे की बैठक में इस दिशा में अहम फैसले होंगे।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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