किसान आज देश की संसद का एजेंडा तय कर रहे हैं, कल देश की राजनीति की तक़दीर तय करेंगे
आज 26 जुलाई को राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर किसानों की ऐतिहासिक मोर्चेबंदी के 8 महीने पूरे हो रहे हैं। 8 महीने के अभूतपूर्व कुर्बानी भरे सफर के बाद, जिसमें साढ़े पांच सौ से ऊपर किसानों की शहादत हो चुकी है, किसान आंदोलन ने आखिर देश की संसद में अपना वाज़िब space हासिल कर लिया है। अब वहां किसानों के पक्ष में नारे गूंजने लगे हैं।
इस खास मौके पर जंतर-मंतर पर आज की किसान-संसद की कमान संयुक्त किसान मोर्चा ने महिलाओं को सौंपी है।
इस अभूतपूर्व आंदोलन में महिलाओं ने अप्रतिम भूमिका निभाई है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि महिलाओं की इस अग्रगामी भूमिका के बिना किसान-आंदोलन का वह चेहरा देश-दुनिया के सामने न होता, जो आज है।
इसे ही मान्यता देते हुए मोर्चा के बयान में कहा गया है, " 26 जुलाई और 9 अगस्त को महिला किसान नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा विशेष संसद-मार्च निकाला जायेगा। महिलाएं किसानों की आजीविका और भविष्य के लिए इस लंबे और ऐतिहासिक संघर्ष में सबसे आगे रहीं हैं और इन दो दिनों के विशेष मार्च में महिलाओं की अद्वितीय और यादगार भूमिका को याद किया जाएगा। "
इस बात का गहरा प्रतीकात्मक महत्व है कि 8 महीने तक जिन किसानों को दिल्ली में प्रवेश नहीं करने दिया गया, साम-दाम-दंड- भेद से उन्हें राजधानी की सीमाओं से ही उनके गांव खदेड़ देने की हर चाल चली गई, वे अंततः जंतर मंतर पहुंचने और अपनी संसद लगाने में कामयाब रहे।
किसान देश के राजनीतिक भविष्य के लिए अपने आंदोलन की अपार संभावनाओं को लेकर आत्मविश्वास से भरे हुए हैं। किसान नेता राकेश टिकैत ने कहा कि अब हम संसद से महज कुछ मीटर दूर हैं। इस वक्तव्य का निहितार्थ गहरा है-किसान आज संसद की बहस का एजेंडा तय कर रहे हैं, कल देश की राजनीति की तकदीर तय करेंगे।
पहले दिन किसान-संसद को सम्बोधित करते हुए टिकैत ने बेहद पीड़ा और तंज के साथ कहा कि चलो अब हमको कम से कम किसान तो मान लिया। सचमुच, किसानों के इस अभूतपूर्व आंदोलन के साथ सरकार ने पिछले 8 महीने में जिस तरह का बर्ताव किया है, वह यही दिखाता है कि मोदी सरकार जनता के हितों की कुर्बानी देकर कारपोरेट और बड़ी पूंजी की सेवा के लिए तो प्रतिबद्ध है ही, उसके नेताओं के अंदर किसानों और मेहनतकशों के लिए गहरी नफरत भरी हुई है।
जिस समय संसद में किसानों के पक्ष में नारे गूंज रहे थे, संसद के बाहर किसान-संसद चल रही थी, मोदी जी की नई नवेली मंत्री मीनाक्षी लेखी भाजपा के राष्ट्रीय मुख्यालय में बैठकर किसानों को मवाली घोषित कर रही थीं। किसानों की आक्रोशपूर्ण प्रतिक्रिया के बाद उन्होंने अपने शब्द वापस लेने का औपचारिक बयान जरूर दिया, पर एक बार फिर किसान आंदोलन के प्रति मोदी सरकार का शत्रुतापूर्ण रुख सामने आ गया। इसमें किसानों को बर्बर दमन और साजिशों के बावजूद झुका न पाने की खीझ और हताशा साफ देखी जा सकती है।
मोदी के एक कॉल की दूरी के कुख्यात जुमले और वार्ता के लिए कृषि मंत्री तोमर की चिकनी चुपड़ी बातों के दिखावे के बीच, दरअसल लेखी की जहर बुझी नफरती टिप्पणी ही किसान आंदोलन के प्रति सरकार के असली रुख का प्रतिनिधित्व करती है। और यह रुख वही है जो किसानों के दिल्ली मार्च के पहले दिन से था। मोदी जी द्वारा संसद में उन्हें दिया गया विशेषण "आन्दोलनजीवी" मीनाक्षी लेखी की गाली का ही शातिर sophisticated version था।
मोदी सरकार और भाजपा के सर्वोच्च नेताओं ने किसानों के खिलाफ आम जनमानस में नफरत फैलाने, उन्हें बदनाम करके अलग-थलग करने और अंततः कुचल देने की नीयत से उनके ख़िलाफ़ अपने जहरीले शब्दकोश के सारे जुमले उड़ेल दिए, आतंकवादी, माओवादी, खालिस्तानी, पाकिस्तानी, टुकड़े-टुकड़े गैंग, अराजक तत्व,आढ़तियों के दलाल, गुंडे-माफिया, वामपंथी, कांग्रेसी एजेंट ....और अंततः 26 जनवरी को उन्हें देशद्रोही घोषित करके बर्बरतापूर्वक कुचल देने का भयानक कुचक्र रच डाला, जिसे एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद किसानों की प्रचण्ड प्रतिक्रिया ने चकनाचूर कर दिया।
अभी भी, 22 जुलाई को जब सरकार के साथ सहमति के आधार पर मात्र 200 किसान आइडेंटिटी कार्ड सीने पर लटकाए जंतर-मंतर अपनी प्रतीकात्मक संसद के लिए आ रहे थे, तब सुरक्षा की ऐसी व्यवस्था की गई, जैसी शायद असली संसद में भी न रही हो ! किसानों से कई गुना ज्यादा फोर्स लगाई गई। लग रहा था जैसे जंतर मंतर पर विदेशी या आतंकी हमले का अंदेशा हो ! किसानों से पत्रकारों को बैरिकेड लगाकर isolate कर दिया गया, जिससे उनका कोई coverage न हो सके। बाद में पत्रकार लड़ झगड़कर किसानों के पास पहुंच सके। और इस अफरातफरी में वहां जब दो पत्रकारों के बीच धक्का-धुक्की हो गई, जिससे किसानों का कोई लेना-देना ही नहीं था, तो मोदी जी की मंत्री की किसानों के प्रति घृणा फूट पड़ी। उन्होंने पत्रकारों को समझाया, " उन्हें आप लोग किसान कहना बंद करिये। वे मवाली हैं।"
कारपोरेट हितों की संरक्षक इस चरम दक्षिणपंथी पार्टी के नकचढ़े नेताओं की जैसे घुट्टी में ही किसानों, मेहनतकशों और उनके लड़ाकू नेताओं के लिए घनघोर नफरत (visceral hatred ) छुपी हुई है, क्योंकि वे देश की सारी राष्ट्रीय सम्पदा-जल, जंगल, जमीन, खान-खदान, बैंक, सार्वजनिक उद्यम - चहेते कारपोरेट घरानों को लुटा देने के उनके प्रोजेक्ट के रास्ते दीवाल बन कर खड़े हो गए हैं।
मोदी ने जिस तरह कथित Wealth creators की तारीफ में कसीदे काढ़े और ऐलानिया तौर पर कारपोरेट हित में नीति-निर्माण को ही पिछले 7 साल से अपनी सरकार का प्रस्थान-बिंदु और आधार बना दिया, उसी की natural corollary है, किसानों और मेहनतकशों के खिलाफ यह चरम घृणा।
जाहिर है उन्हें राज-काज और नीति-निर्माण की प्रक्रिया से बहिष्कृत कर दिया गया। उसी का एक तरह से प्रतीक था कि उन्हें 8 महीनों तक अपनी मांगों के साथ दिल्ली में प्रवेश तक नहीं करने दिया गया।
लेकिन सधी रणनीति और अपार धैर्य के साथ विश्व इतिहास के सबसे लंबे आंदोलन को जारी रखते हुए अब किसान बाकायदा संसद के द्वार पर पहुंच गए हैं और उनका मुद्दा संसद में गूंज रहा है।
देश में अचानक जो जासूसी कांड का विस्फोटक खुलासा हुआ है, उसने हमारे लोकतंत्र की बुनियाद ही हिला दिया है। वे सारी संस्थाएं जो देश में लोकतंत्र का आधार हैं, उनकी जासूसी की गई -नेता विपक्ष, चुनाव आयुक्त, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश, एक अत्यंत संवेदनशील मामले से जुड़ी उसकी कर्मचारी, सीबीआई प्रमुख, पत्रकार, एक्टिविस्ट, उद्योगपति, कैबिनेट मिनिस्टर। जाहिर है, यह सब आतंकी और अपराधी पकड़ने के लिए नहीं हुआ, वरन अपने खिलाफ हर विरोध की पहले से जानकारी हासिल कर उसे कुचल देने, सारी संस्थाओं को ब्लैकमेल करने के लिए हुआ है। किसान नेताओं ने आशंका व्यक्त की है कि उनकी भी जासूसी हुई होगी जो 2020-21 के नाम आने पर खुलेगी।
स्वाभाविक रूप से यह मुद्दा आज देश में हर लोकतन्त्र प्रेमी के लिए प्रमुख सवाल बना हुआ है। संसद में विपक्ष के लिए भी उचित ही यह बड़ा सवाल बना हुआ है।
बहरहाल, इसके साथ ही किसानों का सवाल भी पुरजोर ढंग से रोज उठ रहा है। किसानों का यह कहना है कि रोज संसद के बाहर अपनी किसान संसद के माध्यम से वे यह निगरानी भी कर रहे हैं और सुनिश्चित भी कर रहे हैं कि उनका प्रश्न पूरी गम्भीरता से उठे। जब शुरुआत में यह जानकारी मिली कि कांग्रेस के केवल पंजाब के सांसद किसान प्रश्न उठा रहे हैं, तो वरिष्ठ किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल ने उन्हें सार्वजनिक तौर पर कड़ी चेतावनी दी कि किसान सब देख रहे हैं और वे कोई चालाकी बर्दाश्त नहीं करेंगे। उन्होंने तल्ख लहजे में कहा कि, " और सब सवाल तो इतने दिन से आप उठा ही रहे हो क्या कर लिए, बाद में फिर उठाते रहना। इस समय किसानों का सवाल उठाओ, वे यहां 8 महीने से इतने कठिन हालात में अपनी आजीविका और जमीन के लिए लड़ रहे हैं। "
कहना न होगा कि किसान आंदोलन के दबाव का साफ असर दिखने लगा है। प्रमुख विपक्षी दल किसान प्रश्न पर संसद के अंदर और बाहर सक्रिय हैं। अनेक विपक्षी दलों ने संसद परिसर में गाँधी प्रतिमा पर भी धरना दिया। केरल के 20 सांसद अपना समर्थन देने किसान संसद में भी पहुंचे। हालांकि उनका धन्यवाद करते हुए किसानों ने अपनी उसूली स्थिति के अनुरूप उन्हें अपना मंच नहीं दिया।
आज किसानों की तमाम पार्टियों और उनके नेताओं पर पैनी नज़र है, और कोई भी बकवास वे बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। हाल ही में नवजोत सिंह सिद्धू ने अपने राज्यारोहण के गुरूर में यह डायलॉग मारा कि, ' प्यासा कुएँ के पास आता है, कुआं प्यासे के पास नहीं जाता।" अर्थात किसान उनके पास आएं, वे उनके पास नहीं जाएंगे। किसानों ने अगले दिन ही सिद्धू को काले झंडों के साथ घेरा। सिद्धू ने माफी मांगी और वायदा किया कि मैं नंगे पांव किसानों से मिलने जाऊंगा।
आज कोई पार्टी किसान आंदोलन को फ़ॉर ग्रांटेड नहीं ले सकती। वे class conscious भौतिक शक्ति बन चुके हैं।
किसान इस तरह अपने बुनियादी और दूरगामी हितों के लिए सचेत होकर इतिहास में सम्भवतः पहली बार कारपोरेट और उसकी पक्षधर सरकार के खिलाफ लड़ने के लिए कमर कस कर तैयार हैं। अपने को गरीब किसानों के लिए समर्पित बताते हुए सरकार यह प्रचार करती है कि यह धनी किसानों का आंदोलन है और कई लोग जो सतही ढंग से देखते हैं, वे इस प्रचार के शिकार भी हो जाते हैं, पर मूल बात यह है कि आज लड़ रहे किसान भारतीय किसानों का वर्ग सचेत अगुवा दस्ता हैं जो कारपोरेट के खिलाफ इस लड़ाई में समस्त खेतिहर समाज और मेहनतकशों की लड़ाई का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
आज भारतीय कृषि एक dead end पर पहुँच चुकी है। ऐसी स्थिति में जब कृषि विकास अवरुद्ध है और किसानों की औसत आय नगण्य दर से बढ़ रही है ( इस दर से प्रधानमंत्री के वायदे के मुताबिक उनकी आय दोगुना होने में बस 250 साल लगेंगे!), हमारी कृषि और किसानों का भविष्य क्या है ?
सर्वोपरि छोटी और सीमांत जोत वाले उन 90% गरीब किसानों {जिनमें लगभग भूमिहीन, बेहद कम जोत वाले अर्ध किसान-अर्ध मजदूर, दलित-आदिवासी भी शामिल हैं} का क्या होगा जिनके पास न पूँजी है, न कृषि उपकरण, न अन्य संसाधन, न वे बाजार के लिए उत्पादन कर पाते हैं! क्या वे कारपोरेट हमले के दौर में अपनी कृषि को बचा पाएंगे? कृषि नहीं बचेगी तो उससे विस्थापित होने वाली विराट ग्रामीण/किसान आबादी के लिए आजीविका के वैकल्पिक साधन आखिर कहाँ हैं?
आज सच्चाई यह है कि कृषि का चौतरफा विकास करके तथा कृषि आधारित उद्यमों का जाल बिछाकर ही हमारी विराट आबादी के लिए आजीविका और रोजगार की गारंटी की जा सकती है।
भारत की कृषि अगर कारपोरेट के हवाले हो जाती है, जो इन 3 कृषि कानूनों में अंतर्निहित है, तो कृषि पर निर्भर समूचा ग्रामीण समाज तबाह हो जाएगा, खाद्यान्न क्योंकि पूरे समाज के जीवन का आधार है, इसलिए कृषि के इस कारपोरेटीकरण औऱ खाद्यान्न व्यापार के पूरी तरह बाजार के हवाले होने का परिणाम घनघोर महंगाई के रूप में शहरी श्रमिक तबकों और मध्यम वर्ग को भी भुगतना होगा। भुखमरी और अकाल की स्थिति पैदा हो सकती है। यह हमारी खाद्यान्न सुरक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गम्भीर खतरा बन सकता है।
अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों समेत हमारे कृषि सेक्टर पर कारपोरेट कब्जे की हर हाल में गारण्टी के लिए ही आज मोदी सरकार के नेतृत्व में फासीवाद का क्रूर हमला जारी है।
आज कृषि कानूनों पर संसद के अंदर और बाहर चल रहा संग्राम हमारी विराट आबादी की आजीविका और हमारे लोकतंत्र का भविष्य तय करेगा। इस लड़ाई में फासीवाद के विनाश के बीज छुपे हुए हैं।
आम आंदोलनों के विपरीत यह लड़ाई लंबी और फैसलाकुन होगी। इसी से हमारे लोकतंत्र की राह हमवार होगी।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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