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किसान अपने वर्तमान आंदोलन में भारत के लोकतंत्र के भविष्य की लड़ाई भी लड़ रहे हैं

सच्चाई यह है कि किसानों तथा मेहनतकशों की लड़ाई तो सत्ता परिवर्तन के भी आगे जाने वाली है, क्योंकि वित्तीय पूँजी के dictate और कारपोरेट हितों से संचालित जिस नव-उदारवादी अर्थतंत्र और उसकी अधिनायकवादी राजनीति से वे लड़ रहे हैं, वह लड़ाई तो इस अर्थतंत्र और polity में रेडिकल बदलाव के बाद ही अपने अंजाम तक पहुंचेगी।
Kisan morcha
फोटो किसान एकता मोर्चा के ट्विटर हैंडल से साभार

पंजाब के खेत-खलिहानों से शुरू हुआ किसानों का आंदोलन अब भाजपा विरोधी राष्ट्रीय राजनीतिक जनांदोलन में तब्दील होता जा रहा है। 

श्चिम बंगाल के चुनाव से जो शुरुआत हो रही है,  2024 आते आते उसके एक बड़े राजनैतिक तूफान में बदल जाने के पूरे आसार हैं। 

उधरआंदोलन की अनुगूंज, 110वें दिन 15 मार्च कोदेश की सीमाओं को पार कर  संयुक्त राष्ट्रसंघ में पहुंच गई।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UN Council for Human Rights) के 46वें सत्र को संबोधित करते हुएसंयुक्त किसान मोर्चा के नेता डॉ. दर्शन पाल ने कहा कि किसान जिन केंद्रीय कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैवे कानून संयुक्त राष्ट्र के "किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों के अन्य कामगारों के अधिकारों की घोषणा" ( UN Declaration on Peasant and other Working people in rural areas ) का उल्लंघन करते हैं। जबकिभारत इस अंतर्राष्ट्रीय घोषणा पत्र का एक हस्ताक्षरकर्ता है।

उन्होंने संयुक्त राष्ट्रसंघ से अपील की कि वह भारत सरकार से कहे कि वह UN घोषणापत्र का पालन करे तथा मौजूद कानूनों को रद्द कर कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए नया एजेंडा लेकर आये जिससे किसानों के हितों तथा पर्यावरण की रक्षा सुनिश्चित हो।

यह देखना रोचक होगा कि किसान आंदोलन को विदेशों के नागरिकपर्यावरणमानवाधिकार आंदोलन की शख़्सियतों तथा अनेक लोकतंत्रवादी राजनेताओं से मिल रहे समर्थन पर हाय-तौबा मचानेवाली और इसे विदेशी साजिश करार देने वाली मोदी सरकार किसान नेता को मंच देने की संयुक्त राष्ट्र संघ की इस  'गुस्ताखीपर कैसे react करती है।

एक ओर आंदोलन global impact पैदा कर रहा है और देश के अंदर राजनैतिक आयाम ग्रहण कर रहा हैदूसरी ओर इसके पांव मजबूती से जमीन में गड़े हुए हैं। किसान महापंचायतें देश के तमाम राज्यों में फैलती जा रही हैंजगह-जगह किसान यात्राएं और MSP दिलाओ अभियान जारी हैउधर आंदोलन के विरोधियों को किसान सबक भी सिखा रहे हैंपूरे हरियाणा में BJP-JJP के नेताओं के खिलाफ किसान सामाजिक-राजनैतिक बहिष्कार का अभियान चला रहे हैं। 15 मार्च को जींद के उँचाना में उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला की JJP के कार्यालय पर किसानों के भारी विरोध के चलते उनके नेताओं को पीछे के गेट से भागना पड़ा ।

बैंक और बीमा कर्मियों की कुल दिवसीय राष्ट्रव्यापी हड़ताल के साथ समन्वय कायम करते हुए किसानों ने 15 मार्च को कॉरपोरेट विरोधी व निजीकरण विरोधी दिवस मनाया। पेट्रोलडीजल व रसोई गैस में बढ़ रही कीमतों के खिलाफ ट्रेड यूनियनछात्र संगठन व अन्य जन अधिकार संगठनों के साथ मिलकर किसानों ने प्रदर्शन कर प्रधानमंत्री को सम्बोधित मांग पत्र सौपें।

26 मार्च को किसान-आंदोलन और ट्रेड यूनियनों ने  संयुक्त रूप से भारत बंद का आह्वान किया है।

बहरहालइन सब हलचलों के बीचअर्जुन की तरह  किसानों की निगाह मछली की आंख अर्थात पश्चिम बंगाल के चुनाव पर केंद्रित है। 

अपने आंदोलन के भविष्य के लिए इन चुनावों के निर्णायक महत्व को वे बखूबी समझ रहे हैं। इसीलिएकिसान आंदोलन के शीर्ष नेताओं की पूरी फौज बंगाल में उतर पड़ी है।

संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं ने 12 फरवरी को कोलकाता के प्रेस-क्लब में पश्चिम बंगाल के किसानों के नाम खुला पत्र जारी कर उनसे भाजपा को वोट न देने की अपील की है, " भाजपा को वोट देना पूरे देश के किसानों के लिए  बेहद घातक होगाक्योंकि भाजपा किसान विरोधी पार्टी है...चुनावों में हार के बाद भाजपा काले कृषि-कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर होगी।" इसलिए इसे वोट में चोट देना जरूरी है।

किसान-नेताओं ने यह पत्र 294 किसान दूतों को सौंपाजो इसके सन्देश को प्रदेश की सभी 294 विधानसभाओं तक ले जाएंगे।

आंदोलन के शीर्ष नेता बलबीर सिंह राजेवाल ने पत्र जारी करते हुए कहा, " सरकार सारी सार्वजनिक कम्पनियों को बेच रही है। इस सरकार का लक्ष्य पूरे देश का कारपोरेटीकरण हैइसे कारपोरेट के हाथों सौंपना है। हमने भाजपा का विरोध करने का फैसला किया है क्योंकि मोदी की नीतियाँ देश को बर्बाद कर देंगी। BJP को वोट न देंऔर चाहे जिसे देंपर BJP को नहीं। BJP को सबक सिखाइये।" 

भावनात्मक रिश्ता जोड़ते हुए उन्होंने यह भी कहा, " बंगाल और पंजाब का रिश्ता बहुत पुराना है। आज़ादी की लड़ाई में हम साथ साथ लड़े थे। आज हम जनविरोधी-किसानविरोधी भाजपा के खिलाफ आपकी लड़ाई में मदद के लिए आये हैं।"

कोलकाता से नन्दीग्राम तक पंचायत कर रहे किसान नेता राकेश टिकैत ने  प्रतीकात्मक भाषा मे कहा, " 22 जनवरी से सरकार गायब हैलोगों ने बताया कि बंगाल गयी है तो हम भी उसका पीछा करते यहां आ गए। ...देश मे कोई सरकार है कहाँये तो लुटेरे, व्यापारी दिल्ली में कब्जा करके राज कर रहे हैं।" टिकैत ने एलान किया है कि वे ट्रैक्टर यात्रा लेकर कोलकाता जाएंगे और अप्रैल से वहां कैम्प करेंगे।

किसान आंदोलन के इस हस्तक्षेप ने वहां छात्र-युवा-अध्यापक-डॉक्टर व अन्य नागरिक समाज तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा पहले से चलाये जा रहे No vote to BJP अभियान को नई ऊर्जा दे दिया है। प्रदेश के सुदूर इलाकों तक चलाये जा रहे इस अभियान की ओर से 10 मार्च को सेंट्रल कोलकाता के मौलाली से एस्प्लेनेड तक प्रभावशाली मार्च निकाला गया। इसके संयोजक कुशल देबनाथ ने कहा, " श्चिम बंगाल में इस चुनाव में भाजपा को रोकना आज निर्णायक महत्व का प्रश्न हैवरना यहां की जीत से फासीवादी आक्रामकता को पूरे देश मे   जबरदस्त आवेग मिल जाएगा।" "पश्चिम बंगाल का जनादेश या तो फासीवाद के रथ को रोक देगाअथवा इसकी बहुसंख्यकवादी राजनीति की विजय के लिए रास्ता साफ कर देगा।"

जाहिर है किसान आंदोलन के इस अप्रत्याशित मोड़ से सरकार समर्थक और उनका भोंपू मीडिया भौंचक रह गए हैं। महीने पहले कहां उन्हें लग रहा था कि कोरोना की आपदा को अवसर में बदलते हुए उनके बेमिसाल नेता के नेतृत्व में उनका हिंदुत्व का रथ बंगालयूपी फतह करता हुआ  बेरोकटोक 2024 के पार निकल जाएगाकहाँ अचानक देखते-देखते किसान-आंदोलन के तेज होते तूफान ने और अब उसकी भाजपा हराओ की रणनीति ने न सिर्फ रथ का चक्का रोक दिया हैबल्कि उसे उल्टी दिशा में मोड़ दिया है। अब उन्हें विदायी के दुःस्वप्न आने लगे हैं। इसलिए वे किसान नेताओं की लानत-मलामत के लिए टूट पड़े हैं। आरोप लगा रहे हैं कि किसान नेता राजनीति शुरू कर दिएजैसे उन्होंने कोई भयानक अपराध कर दिया हो! यह या तो चरम भोलापन है या परले दर्जे की धूर्तता है। अरे राजनीति तो वे पहले दिन से कर रहे हैंजब उन्होंने मोदी जी की कारपोरेटपरस्त नीति को मानने से इनकार कर दिया और उसे बदलने की मांग उठायी।

राजनीति केवल चुनाव लड़ना थोड़े ही होता हैराज्य की नीति में हस्तक्षेप भी तो राजनीति ही है।

दरअसलकिसानों को राजनीति करने के लिए गाली देने वाले इस मुगालते में थे कि मोदी-भाजपा-संघ कारपोरेट हित मे खुले आम राजनीति करते रहेंगेसरकार चलाते रहेंगे और किसान अपने जीवनजमीनजीविका को तबाह करती राज की इस नीति अर्थात राजनीति को स्वीकार करते रहेंगेउसे समर्थन देते रहेंगे। पर किसानों ने पहले दिन से हीजब उन्होंने यह शिनाख्त किया कि कृषि कानून मोदी सरकार कारपोरेट के हित मे ले आयी हैकिसानों के हित में नहींतभी उन्होंने यह साफ कर दिया कि वे सरकार की इस राजनीति को समझ गए हैं और उसी के विरोध में वे दिल्ली आए हैं। सरकार को उन्होंने भरपूर समय दिया कि वह किसानों की कीमत पर कारपोरेट के हित में अपनी राजनीति से बाज आयेपर जब सरकार किसानों व जनता के विरुद्ध कारपोरेट हित की राजनीति पर अड़ी हुई हैतब किसानों के पास उसकी राजनीति के विरुद्ध जनता से अपील करने के अतिरिक्त और विकल्प ही क्या बचा है?

बेशकअभी भी वे यह दबाव बनाने के लिए ही कर रहे हैं कि भाजपा अपने चुनावी नुकसान से सबक लेकर इन कानूनों को वापस ले और भविष्य की कोई भी सरकार इनको लागू करने की जुर्रत न करे। इस अर्थ में यह  आंदोलन अभी भी एक दबाव समूह ही हैकोई दलगत राजनीतिक मंच नहीं है। 

वैसे आंदोलन के कुछ शुभचिंतक चिंतित हैं कि किसान नेताओं ने भाजपा को हराने की जो  रणनीति घोषित की हैइससे आंदोलन कमजोर होगाउन्हें अपनी political neutrality बरकरार रखनी चाहिए क्योंकि मांगें तो आखिर सरकार से ही मनवानी हैंउन्हें विपक्ष की राजनीति द्वारा इस्तेमाल होने से बचना चाहिए। पर ऐसा कहने वाले यह नहीं बताते कि किसानों को अपने आंदोलन को मजबूत करने के लिए राजनैतिक प्रक्रिया का इस्तेमाल क्यों नहीं करना चाहिएदरअसलइसमें एक हिस्सा आंदोलन के छद्म हितैषियों का हैकिसान आन्दोलन को मजबूत करना उनकी चिंता है ही नहींउसका वे महज दिखावा कर रहे हैंउनकी एकमात्र चिंता किसान आंदोलन की नई रणनीति के फलस्वरूप भाजपा और NDA  को होने वाले नुकसान है।

एक हिस्सा बेशक ऐसा हैजिसे लगता है कि अराजनीतिक होना किसान आंदोलन का सबसे बड़ा रक्षा-कवच है और भाजपा विरोधी partisan दिशा से किसान-आंदोलन की नैतिक आभा धूमिल होगी और आंदोलन कमजोर होगा।

वहीं किसान आंदोलन के कुछ अन्य शुभचिंतक यह मांग कर रहे हैं कि आंदोलन के हित मेंउसे मजबूत करने के लिए किसान आंदोलन को खुलकर राजनीतिक स्वरूप में सामने आ जाना चाहिए और विपक्ष के साथ जुड़कर साझा राजनीतिक मंच पर खड़ा हो जाना चाहिए अथवा स्वयं ही एक राजनैतिक मंच के निर्माण का एलान कर देना चाहिए।

ये दोनों  विचार गलत हैं क्योंकि ये ठोस परिस्थिति की मांग के अनुरूप नहीं हैं। दरअसलआंदोलन का नए चरणों में स्वाभाविक विकास हो रहा है। हर विकासमान चरण की जरूरत के अनुरूप नई टैक्टिस ही आंदोलन को मजबूत करेगी,  न कि उस पर यान्त्रिक ढंग से आरोपित कोई पुराना मॉडल या कोई अमूर्त, आदर्शीकृत समझ। भविष्य की इसकी दिशा क्या होगीयह घटनाक्रमों और परिस्थितियों के ठोस विकास पर निर्भर है। वास्तविक जीवन मे आंदोलन और राजनीति के बीच कोई चीनी दीवाल नहीं होती।

किसान नेताओं का यह तर्क बिल्कुल सही है कि जब सरकार गुजरात के शहरी निकाय तक की अपनी चुनावी जीत को कृषि कानूनों पर जनता की मुहर बता रही हैऔर इन जीतों के कारण वह किसान-आंदोलन से बेपरवाह हैतबउसे चुनावों में भी हराना यह साबित करने के लिए जरूरी हो जाता है कि जनता इन काले कानूनों के साथ नहीं हैचुनावों की हार से उस पर दबाव बनेगा।

दरअसलभाजपा चुनावों में सारे भ्रष्टअनैतिकलोकतन्त्रविरोधी तरीके इस्तेमाल करकेयेन केन प्रकारेण जीत हासिल करनेयहां  तक कि हारने पर भी तमाम गर्हित तरीके इस्तेमाल कर सरकार बना लेने और फिर उस "चुनी" सरकार की आड़ में लोकतंत्र को अंदर से खोखला करने और एक अधिनायकवादीफासीवादी निज़ाम कायम करने के रास्ते पर बढ़ रही है। किसान-आंदोलन ने उसके इस लोकतंत्र-विरोधी चेहरे को पूरी दुनिया के सामने बिल्कुल convincing ढंग से बेपर्दा कर दिया है।

Sweden-based संस्था V-Dem Institute ने अपनी ताजा रिपोर्ट में मोदी राज की इसी तल्ख हकीकत को आईना दिखायाजब उसने यह चर्चित बयान दिया कि भारत अब "इलेक्टोरल डेमोक्रेसी" से पतित होकर "electoral autocracy" बन गया है। अर्थात चुनाव हो रहे हैंलेकिन अब यह लोकतंत्र नहीं निरंकुश एकतंत्र है। 

इसी आशय का आंकलन US-based फ्रीडम हाउस ने अपनी सालाना रिपोर्ट में किया है जिसके अनुसार भारत अब एक "free democracy" की बजाय "partially free democracy " रह गया है। उसने यह नोट किया है कि 2014 में मोदी के शासन में आने के बाद से नागरिक आज़ादी में लगातार गिरावट आ रही है।

The Economist Intelligence Unit के अनुसार भारत की "flawed democracy " एक महीने में  डेमोक्रेसी इन्डेक्स में अंक और नीचे लुढ़ककर 53वें स्थानपर पंहुँच गयी।

अंतरराष्ट्रीय जगत में अपनी धूल-धूसरित होती छवि से चिंतित मोदी सरकार चाहे जितनी चिल्ल-पौं करेये रपटें भारत में लोकतंत्र पर कसते शिकंजे की जो कड़वी हकीकत हैउसे ही बयान कर रही हैं।

भारत में चुनावी लोकतंत्र (electoral democracy ) का यह जो चुनावी निरंकुश-तंत्र ( electoral autocracy ) में पतन हुआ हैइसे महज इलेक्शन से फिर पटरी पर नहीं लाया जा सकता। इतिहास गवाह है तानाशाह महज चुनावों द्वारा विदा नहीं होतेजनता को उन्हें अपने जनांदोलनों और प्रतिरोध के बल पर हटाना पड़ता है। उनका संवैधानिक लोकतंत्र की सारी संस्थाओं पर इस तरह टोटल कब्जा हो जाता है किसंवैधानिक संस्थागत ढांचे के अंदर से course correction और लोकतंत्र की पुनर्बहाली सम्भव नहीं रह जाती। उसे जनता को अपने लोकतांत्रिक संघर्षों के बल पर हटाना पड़ता है।

वास्तविकता यह है कि भारत आज इलेक्टोरल डेमोक्रेसी से इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी में संक्रमण की मध्यवर्ती अवस्था (Intermediate stage) में है। लोकतंत्र को पूर्ण (full-fledged) एकतंत्रात्मक शासन में बदलने की खतरनाक मुहिम को रोकने के लिए आज हमारी जनता जनांदोलन और चुनाव के संयुक्त हथियार से जद्दोजहद में लगी है। जनता इस इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी से निपटने के तरीके ईजाद कर रही हैवह इसके औजार गढ़ रही हैहरियाणा में उन किसान विरोधी जनप्रतिनिधियों का बहिष्कार-घेराव हो रहा हैजिन्होंने यह समझा था कि एक बार सत्ता में पहुंच गए तो अब उन्हें साल किसानों को रौंदने का सर्टिफिकेट मिल गया है। प्रतिनिधि वापसी (Right to recall ) की लड़ाई इसका अगला कदम हो सकती है। 

वह आंदोलन और विरोध के अपने संवैधानिक अधिकार को बुलंद करती सत्ता के हर दमन और तिकड़म को शिकस्त देती मजबूती से डटी हुई हैवह भाजपा को हराने की चुनावी लड़ाई को एक जनांदोलन में तब्दील कर रही है। अनायास नहीं है कि इन दिनों डॉ. लोहिया का वह चर्चित उद्घोष फ़िज़ाओं में है, " ज़िंदा कौमें साल इंतज़ार नहीं करतीं।"

आज किसान आंदोलन और उसके भाजपा-विरोधी अभियान की अग्रगति भारत में लोकतंत्र की रक्षा के संघर्ष की ऐतिहासिक जरूरत है। किसान आंदोलन और उस के साथ समन्वित मेहनतकशोंछात्र-युवाओं के आंदोलनों की हुंकार से 2024 तक भारत का राष्ट्रीय क्षितिज गुंजायमान रहने वाला है।

सच्चाई यह है कि किसानों तथा मेहनतकशों की लड़ाई तो सत्ता परिवर्तन के भी आगे जाने वाली हैक्योंकि वित्तीय पूँजी के dictate और कारपोरेट हितों से संचालित जिस नव-उदारवादी अर्थतंत्र और उसकी अधिनायकवादी राजनीति से वे लड़ रहे हैंवह लड़ाई तो इस अर्थतंत्र और polity में रेडिकल बदलाव के बाद ही अपने अंजाम तक पहुंचेगी। किसान वर्तमान आंदोलन में अपने और भारतीय लोकतंत्र के भविष्य की लड़ाई भी लड़ रहे हैं।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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