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आत्महत्या करते किसान... उपलब्धियां गिनवाती सरकार और भ्रमजाल में फंसती जनता

सच को टटोलने की कोशिश करती यह रिपोर्ट हमें यह बताती है कि किसान मरता नहीं बल्कि उसके सामने पैदा हुईं विकट परिस्थितियां उसे मार देती हैं। रायबरेली जिले के अमरेंद्र और शिवकुमार की जिंदगी भी इन्हीं मुश्किल हालात के भेंट चढ़ गईं। आइए मिलते हैं आत्महत्या करने वाले इन दो किसानों के परिवारों से जो पूरे देश की तस्वीर पेश करते हैं-
आत्महत्या करने वाले किसान शिवकुमार और अमरेंद्र के परिवारजन
आत्महत्या करने वाले किसान शिवकुमार और अमरेंद्र के परिवारजन

" यूपी के किसान सरकार से मिल रहे सहयोग से खुश हैं, उनके हितों का पूरा ख्याल रखा जा रहा है। उनके उत्पादों को सरकार एमएसपी पर खरीद रही है और रुपए सीधे उनके खातों में जा रहे हैं। चार साल में हमारी सरकार ने पूरे प्रदेश की तस्वीर बदल कर रख दी..."

ये बातें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक कार्यक्रम के दौरान कहीं। सरकार की उपलब्धियां गिनवाने के लिए उनके पास बहुत कुछ था इन्हीं उपलब्धियों में एक जिक्र प्रदेश के किसानों का भी था, वे प्रदेश की जनता को बताना चाहते थे कि अब कोई किसान संकटग्रस्त नहीं, क्योंकि भाजपा सरकार उनके लिए इस स्तर तक संकल्पबद्ध कि जहां वे अपने जीवन को सुरक्षित महसूस कर सके... सचमुच इस तरह की बातें मन को हल्का करती हैं लेकिन जब हम तस्वीर का दूसरा रुख देखते हैं तो यह सवाल उठ खड़ा होता है कि आखिर हमें किस भ्रमजाल में फंसाया जा रहा है, एक तरफ सुखद तस्वीर पेश करती सरकार की रिपोर्ट तो दूसरी तरफ एक ऐसी भयावह तस्वीर जिसे छुपाने की भरसक कोशिश होती रही हैं और वह है कर्ज के बोझ से परेशान किसानों द्वारा आत्महत्या करना और इस सच्चाई से उतर प्रदेश भी अछूता नहीं।

इसी सच को टटोलने की कोशिश करती यह रिपोर्ट हमें यह बताती है कि किसान मरता नहीं बल्कि उसके सामने पैदा हुईं विकट परिस्थितियां उसे मार देती हैं। रायबरेली जिले के अमरेंद्र और शिवकुमार की जिंदगी भी इन्हीं मुश्किल हालात के भेंट चढ़ गईं। आइए मिलते हैं आत्महत्या करने वाले इन दो किसानों के परिवारों से जो पूरे देश की तस्वीर पेश करते हैं-

वे जानते हैं उनके पापा नहीं रहे

दस साल की रीना, आठ साल का अभय और सात साल का आलोक जानते हैं कि अब उनके पिता उनके बीच नहीं रहे, वे जानते हैं कि उनके पिता ने आम के पेड़ से लटककर फांसी लगा ली लेकिन ऐसा उन्होंने क्यों किया, क्यों वे उन सब को छोड़ कर चले गए इस बात से अनजान वे तीनों कभी पिता को याद कर उदास हो जाते हैं तो पलभर में ही उनकी उदासी खेलकूद में बदल जाती है। वे खेलना चाहते हैं लेकिन मां, बुआ और दादी को हर समय रोता देख शायद उनकी खेलने की जिज्ञासा कहीं थम सी जाती है। वे पढ़ना चाहते हैं, उनके हाथ किताबें तो थामती हैं लेकिन मन पढ़ाई में नहीं लग पाता। लगे भी कैसे जब घर का खुशनुमा माहौल गम और चीत्कार में बदल गया हो तो पढ़ाई भला कैसे हो। वे नन्हे हाथ कभी दादी को संभालते हैं तो कभी मां को। यह परिवार उन्हीं किसान अमरेंद्र प्रताप यादव का है जिन्होंने कर्ज के बोझ के कारण कुछ दिन पहले यानी पांच मार्च को आत्महत्या कर ली थी। कुछ समय बाद बुआ की शादी होने वाली थी, बच्चों ने तय किया था की हुआ शादी में पापा से अच्छा अच्छा कपड़ा मंगवाएंगे लेकिन आज वे अपनी इच्छाओं को लेकर खामोश हैं क्योंकि उन्हें पता है उनके पापा अब कभी नहीं आएंगे। 

कथनी और करनी में फ़र्क़

किसानों के पक्ष में बहुत कुछ बेहतर करने का दावा करने वाली योगी सरकार वास्तविकता के धरातल में  किसानों के प्रति कितनी संवेदनशील है, यह सच तभी जान सकते हैं जब हम यह देखें कि एक किसान की आत्महत्या के बाद प्रशासन उनके परिवार के लिए कितना हितैषी नजर आता है। 35 वर्षीय किसान अमरेन्द्र यादव के परिवार से मिलने जब यह रिपोर्टर उनके घर पहुंची तो कथनी और करनी का फर्क नजर आया।

रायबरेली जिले के खीरो थाना क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले कसौली गांव के रहने वाले थे अमरेन्द्र यादव। अमरेन्द्र एक गरीब किसान थे। बमुश्किल दो बीघा जमीन थी उनके पास। उसी जमीन की बदौलत वे अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे थे। परिवार में  पत्नी,  तीन बच्चे, मां और बहन हैं। परिवार में बंटवारे के बाद दो बीघा जमीन अमरेन्द्र के हिस्से आई तो इतनी ही जमीन छोटे भाई और मां के हिस्से बंटी। अपनी जमीन को बन्धक बनाकर जुलाई 2016 में अमरेन्द्र ने ग्रामीण बैंक से साठ हजार का कर्ज लिया था जिसका ब्याज बढ़ते बढ़ते एक लाख से अधिक हो गया।  सहकारी बैंक से  भी 51 हजार का कर्जा अमरेन्द्र पर था। उधर बिजली का बिल भी न चुका पाने के चलते कनेक्शन काट दिया गया था।

किसी तरह अपने को संभालते हुए अमरेन्द्र की मां कृष्णावती कहती हैं, “मेरे बेटे ने खेती किसानी के लिए कर्जा लिया था, हमारे पास थोड़ी सी जमीन के अलावा और कोई संपति नहीं जिसे गिरवी रखा जा सकता था सो जमीन को ही गिरवी रखना पड़ा, कभी फसल खराब हो जाने के चलते अभी अन्य खर्चों के कारण कर्जा चुका पाना मुश्किल होता जा रहा था और उधर कर्ज वापसी का दबाव बढ़ता जा रहा था उस पर बिजली का कनेक्शन भी काट दिया गया जिसे लेकर अमरेन्द्र बहुत परेशान थे और इसी मानसिक परेशानी के चलते उसने अपनी जान दे दी।”

वे बताती हैं आत्महत्या वाले दिन परिवार को बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं था कि अमरेन्द्र ऐसा कोई कदम भी उठा सकते हैं जब दोपहर में कुछ लोगों ने उन्हें घर से दूर बाग़ में एक पेड़ पर लटका देखा तो उन्हें खबर की गई, अस्पताल भी ले जाया गया लेकिन जान न बचाई जा सकी।

कृष्णावती कहती हैं इसी मई में बहन की भी शादी होनी तय थी लेकिन बहन को विदा करने से पहले बेटे ने ही विदाई ले ली। तो वहीं अमरेन्द्र के चाचा जगदीश यादव कहते हैं इस घटना के बाद पत्रकार पूरी खबर जानने के लिए तो जरूर आए लेकिन प्रशासन की ओर से कोई अधिकारी आज तक नहीं आया। उन्हें चिंता अब अमरेन्द्र के तीन नाबालिग बच्चों के भविष्य की है। वे कहते हैं कम से कम बच्चो का भविष्य सुरक्षित रहे इतना भर ही मुआवजा मिल जाए। जगदीश यादव बताते हैं पन्द्रह साल पहले उनके भाई यानी अमरेंद्र के पिता का देहांत हो गया था तब से परिवार की जिम्मेदारी अमरेंद्र ही उठा रहे थे लेकिन कर्ज के बोझ ने उसकी भी जान ले ली। 

अमरेन्द्र से पहले शिव कुमार की भी यही दास्तान

कसौली में मृतक किसान अमरेंद्र के परिवार से मिलने के बाद यह तय हुआ कि मोहनपुर गांव भी जाया जाए। मोहनपुर गांव जाने का मकसद भी वही था जो कसौली जाने का था। मोहनपुर गांव रायबरेली जिले के ही खीरो थाना क्षेत्र के अंतर्गत आने वाला गांव है। करीब 6 महीने पहले इस गांव के चालीस वर्षीय किसान शिव कुमार ने भी कर्ज के बोझ के कारण आत्महत्या कर ली थी। लेकिन छह माह बीत जाने के बाद भी न तो प्रशासन का व्यक्ति उनसे मिला न मुआवजा ही मिला। शिवकुमार को गुजरे छह महीने बीत गए लेकिन उनकी पत्नी कमलेश कुमारी के आंसू आज भी नहीं थमे हैं। शिवकुमार के चार बच्चें हैं। तीन बेटियां और एक बेटा। एक बेटी की शादी हो चुकी है बाकी तीन बच्चें गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं। मात्र  18 बिस्वा यानी एक बीघे से भी कम जमीन के मालिक थे शिव कुमार।

कमलेश कुमारी ने बताया कि उनके  पति ने किसान क्रेडिट कार्ड की मदद से बैंक से बत्तीस हजार का कर्ज लिया था, बाकी कर्जा महाजनों से लिया था। सब का ब्याज मिलाकर कर्जे की रकम करीब ढाई लाख पहुंच गई थी। वे कहती हैं कर्जा लेने के कारण जमीन भी गिरवी रखनी पड़ी लेकिन फसल खराब होने के बाद समय से कर्जा न चुका पाने से उनके पति बेहद परेशान थे और कर्ज वापसी का दबाव बढ़ता जा रहा था साथ ही बिजली का बिल भी  17 हजार पहुंच गया था, इन सब के चलते वे इतने तनाव में थे कि आत्महत्या जैसा कदम उठा लिया।

अपने बच्चों की तरफ देखकर वह कहती हैं अब मेरे बच्चों का भविष्य क्या होगा कुछ नहीं पता। उनके मुताबिक अभी भी कर्ज वसूली के लिए दबाव बना हुआ है और रही सही जमीन भी बंधक बनी हुई है।

कमलेश कुमारी से बातचीत के दौरान वहां मौजूद गांव के एक अन्य किसान ने बताया कि हम किसानों के लिए केवल प्राकृतिक आपदाएं ही चिंता का विषय नहीं बल्कि आए दिन खेतों में घुसकर आवारा पशुओं द्वारा खड़ी फसल को नुकसान पहुंचाना हमारे लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बना हुआ है। वे कहते हैं प्राकृतिक आपदा में तो सरकार फिर भी कभी किसानों के लिए कुछ घोषणा कर देती है लेकिन आवारा पशुओं से पहुंचे नुकसान में कुछ नहीं मिलता। 

महापंचायत की तैयारी में किसान महासभा

अखिल भारतीय किसान महासभा के रायबरेली जिले के नेता अफरोज आलम कहते हैं कि एक तरफ किसान लगातार महंगी होती खेती से परेशान है तो दूसरी तरफ आए दिन आवारा पशु उनकी खड़ी फसलों को नष्ट कर रहे हैं। उचित मूल्य न मिलने की वजह से किसान घाटे में जा रहे हैं जिस कारण उनके लिए  कर्जा चुका पाना मुश्किल होता जा रहा है।

वे कहते हैं महंगाई बढ़ती जा रही है और किसान का मुनाफा घटता जा रहा है। कभी मौसम की मार तो कभी आवारा पशुओं द्वारा फसल को नुकसान पहुंचाने का ख़ामियाजा किसान उठा रहा है।

अफरोज आलम से कहते हैं आत्महत्या करने वाले किसानों की मेहनत में कोई कमी नहीं , अमरेंद्र ने भी अपनी फसल की पैदावार बढ़ाने में पूरी मेहनत की, जहां वे दो क्विंटल अनाज पैदा करता था उसने सवा दो क्विंटल पैदा किया लेकिन उचित दाम न मिल पाने के कारण किसान आज किसान बेहद संकट में हैं।

वे कहते हैं, जब से राज्य और केंद्र में भाजपा आई है तब से हम सरकार के ओर से यही सुनते आ रहे हैं कि वे किसान हितैषी हैं चाहे बात योगी जी की हो या मोदी जी की लेकिन उत्तर प्रदेश में हालात ऐसे हैं की दो बीघा वाले काश्तकारों पर भी कर्ज वसूली के लिए दबाव बनाया जा रहा है। अफरोज ने बताया कि मृतक किसान अमरेंद्र यादव के परिवार को दस लाख मुआवजे और कर्ज माफी की मांग को लेकर डीएम के कार्यालय के समक्ष किसान महासभा ने प्रदर्शन भी किया है और मांगपत्र भी सौंपा है लेकिन प्रशासन की ओर से कोई आश्वासन नहीं मिला। वे कहते हैं इन्हीं मांगों को लेकर छह माह पूर्व मृतक किसान शिव कुमार के मामले में भी किसान महासभा सक्रिय हुआ था लेकिन आज तक प्रशासन की नींद नहीं टूटी है, लेकिन अब समय आ गया है कि सरकार और प्रशासन को चेताया जाए ताकि किसानों की आत्महत्या के सिलसिले को थामा जा सके और इसके लिए अखिल भारतीय किसान महासभा 20 मार्च को कसौली में किसान महापंचायत करने जा रही है। उन्होंने बताया इस महापंचायत में मृतक किसानों के परिवार भी शामिल होकर अपनी बात रखेंगे। 

क़र्ज़ में जन्म लेता किसान क़र्ज़ में मरता

अमरेंद्र और शिवकुमार के परिवार से मिलने के बाद यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भले सरकार किसानों के पक्ष में कितना भी करने का दावा कर ले लेकिन वास्तविकता यही है जो हम सदैव से सुनते आ रहे हैं कि एक किसान कर्ज में जन्म लेता है और कर्ज में ही मर जाता है। दोनों का ही परिवार इस बात से चिंतित है कि आखिर उनका कर्ज जैसे चुकता होगा और ब्याज का बोझ है कि बढ़ता ही जा रहा है। जिस जमीन पर अपना खून पसीना बहाकर अनाज पैदा कर रहे हैं वह भी तो बंधक है यानी भविष्य में वह जमीन भी उनकी रहेगी या नहीं कुछ पता नहीं।

वे कहते हैं कि आज तो हम अपनी ज़मीन पर अनाज पैदा कर रहे हैं, जितना भी हमारे हिस्से में आए कम से कम इस बात का तो सुकून है कि जितना भी है, जो कुछ भी है अपना है लेकिन जब रही सही जमीन भी चली जाएगी तो उनके बच्चे आखिर क्या करेंगे? सचमुच यह प्रश्न इस ओर इशारा करता है कि कैसे एक किसान अपनी जमीन पर मालिकाना हक़ गंवा कर दूसरों के खेतों में मजदूरी करने वाला एक बंधुआ मजदूर बन जाता है। इन परिवारों की चिंता इसी ओर संकेत है कि क्या इनके बच्चे खेतिहर किसान से खेतिहर मजदूर बन जाएंगे।

इस पूरे क्रम में हम इस बात को भी समझ सकते हैं कि जब धीरे धीरे एक किसान अपनी ही भूमि से बेदखल होने लगता है तो अंत में  उसके पास सिवाय एक विकल्प से कुछ नहीं बचता कि वह परिवार के जीवन यापन के लिए खेतिहर मजदूर बन जाए यानी दूसरों की खेतों में दिहाड़ी पर काम करने वाला मजदूर। 

देशभर में होने वाली किसानों की आत्महत्या के पीछे एक सबसे बड़ा कारण जो समान रूप से देखा गया है वह है खेती संबंधी कामों के लिए बैंकों और महाजनों से लिया गया कर्ज। कर्ज तो एक संकटग्रस्त किसान ले लेता है इस उम्मीद पर कि जब उसकी फसल अच्छी होगी और बाजार में उसका उचित मूल्य मिलेगा तो वह कर्ज का भुगतान कर देगा लेकिन प्राकृतिक और मानवजनित आपदाएं उसके लिए ऐसी चुनौतियां पैदा कर देती हैं जिस पर उसका बस नहीं। ये आपदायें किसान की फसल को ही बर्बाद नहीं करती बल्कि उसके जीवन चक्र को ही उल्ट कर रख देती हैं। जिस फसल के आधार पर किसान कर्ज लेता है, जब वे ही नहीं बचती तो कर्ज का भुगतान आखिर कैसे हो? उसकी यह चिंता आखिरकार एक दिन उसकी आत्महत्या का कारण बन जाती है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि हर साल देश में होने वाली किसानों की आत्महत्याओं में 72 प्रतिशत  छोटे और सीमांत किसान होते हैं, इसका कारण जुताई वाली भूमि का आकार लगातार छोटा होना है जिससे किसानों की आमदनी में भी लगातार कमी हो रही है जबकि खेती की लागत बढ़ती जा रही है। किसान मानते हैं कि अब दिन प्रतिदिन कृषि उनके लिए घाटे का सौदा साबित हो रही है।

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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