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किसान आंदोलन; 11वें दौर की बातचीत: फेस सेविंग मैकेनिज़्म की तलाश में सरकार

सरकार भारी दबाव के बीच फिलहाल tactical retreat के लिए मजबूर है, वह आंदोलन के नागपाश से निकलने के लिए छटपटा रही है और face saving मैकेनिज़्म की तलाश में है।
किसान आंदोलन

20 जनवरी की वार्ता में लंबे समय से पूछे जा रहे सवाल, " Who blinks first ? " का जवाब मिल गया। सरकार ने अंततः किसान आंदोलन के आगे झुकते हुए डेढ़ से दो साल के लिए कानूनों को hold पर रखने तथा किसानों और सरकारी प्रतिनिधियों की कमेटी में MSP समेत  सारे मामलों पर विचार करने का प्रस्ताव रखा है।

यह प्रस्ताव आने के बाद, आज  किसान नेताओं और सरकार के बीच 11वें राउंड की crucial मीटिंग हो रही है ।

पर, इस बीच सम्पन्न अपनी बैठक में किसान नेताओं ने सरकार के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है। आंदोलन के 58 वें दिन, 21 जनवरी 2021 को जारी किसान आंदोलन की प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है,  " संयुक्त किसान मोर्चा की आम सभा ने सरकार द्वारा कल रखे गए प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।  तीन केंद्रीय कृषि कानूनों को पूरी तरह रद्द करने और सभी किसानों के लिए सभी फसलों पर लाभदायक एमएसपी के लिए एक कानून बनाने की बात, इस आंदोलन की मुख्य मांगो के रूप में, दोहराई गयी।

सयुंक्त किसान मोर्चा इस आंदोलन में अब तक शहीद हुए 147 किसानों को श्रद्धाजंलि अर्पित करता है। पुलिस प्रशासन के साथ हुई बैठक में पुलिस ने दिल्ली में प्रवेश न करने की बात कही वहीं किसानों ने दिल्ली की रिंग रोड पर परेड करने की बात दृढ़ता और ज़ोर से रखी। 

शांतिपूर्ण चल रहा यह आंदोलन अब देशव्यापी हो चुका है।

सरकार पर दबाव इस समय चरम पर है। 26 जनवरी के कार्यक्रम को लेकर किसानों में जैसा उत्साह है और जिस तरह की तैयारी चल रही है, उससे लगता है कि यह एक अविस्मरणीय अवसर बनने जा रहा है। किसानों के प्रचंड शक्ति-प्रदर्शन (show of strength) से सरकार की किरकिरी होना तय है। इसके प्रतीकात्मक अर्थ बेहद गहरे हैं। यह गणतन्त्र  में गण की supremacy का, किसानों की दावेदारी का ऐलान तथा सत्ता के अहंकार और निरंकुशता को खुली नैतिक और व्यवहारिक चुनौती है। किसानों को लंबे समय से यह सवाल साल रहा था कि समय बीतने के साथ देश की जीडीपी में कृषि का हिस्सा ही नहीं गिरा, सत्ता की निगाह में उनकी हैसियत, समाज में उनका सम्मान भी गिरता गया। यह आंदोलन अपनी ताकत का एहसास कराने तथा अपने सम्मान को पुनः बहाल करने का भी अवसर है उनके लिए। इस प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी हस्तक्षेप न करना ही बेहतर समझा। 

सरकार पर राजनीतिक दबाव भी बढ़ता जा रहा है, संसद का बजट सत्र अगले सप्ताह ही शुरू हो रहा है, जिसमें सरकार के राजनीतिक तौर पर बिल्कुल अलग-थलग पड़ने के पूरे आसार हैं। इसी के साथ वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण की पहल पर 23-24 जनवरी को सिंघु बॉर्डर पर समांतर किसान संसद आयोजित है, जिसके माध्यम से जनप्रतिनिधियों व नागरिक समाज की ओर से किसान आंदोलन के पक्ष में जबरदस्त गोलबन्दी का नया मोर्चा खुलने जा रहा है। 

ऐसा लगता है कि सरकार के तरकश के सारे तीर चुक गए हैं। वे न आंदोलन को बदनाम करने और बांटने में सफल हुए, न आंदोलन को फैलने से रोक पाए। सर्वोच्च न्यायालय को ढाल बनाना न तो कारगर हुआ, न NIA,  ED जैसी जेबी एजेंसियां कुछ काम आईं। उनका किसानों को चौपाल लगाकर समझाने का कार्यक्रम धरा रह गया। किसानों द्वारा हरियाणा में मुख्यमंत्री की विधानसभा में ही उनका मंच उखाड़े जाने के बाद अमित शाह ने ' जनता को समझाने ' के सभी कार्यक्रमों पर रोक लगाने का निर्देश दे दिया।

दरअसल सरकार को यह भी एहसास होगा कि आंदोलन को लम्बा खींचने की रणनीति counter-productive साबित हो रही है। वह कमजोर होने की बजाय निरन्तर मजबूत होता जा रहा है, और समाज में व्यापक वैधता तथा सहानुभूति हासिल करता जा रहा है तथा जो एक विशुद्ध तबकायी, आर्थिक मुद्दे को लेकर आंदोलन था, वह  वैचारिक-राजनैतिक आयाम ग्रहण करता जा रहा है और उसमें सरकार विरोधी स्वर मजबूत होता जा रहा है। आंदोलन हरियाणा सरकार की करीब करीब राजनीतिक बलि ले चुका है और अनेक दूसरे इलाकों में राजनीतिक समीकरणों को प्रभावित करने का potential इसके अंदर मौजूद है।

सच तो यह है कि आंदोलन अगर इसी तरह टिका रह गया तो न सिर्फ ये कृषि कानून वापस होंगे, बल्कि मोदी सरकार की दूसरी विनाशकारी नीतियों के खिलाफ छात्रों-युवाओं, मेहनतकशों तमाम तबकों के आंदोलनों की झड़ी लग जायेगी और सरकार की वापसी की भी उल्टी गिनती शुरू हो जाएगी।

इसीलिए सरकार भारी दबाव के बीच फिलहाल tactical retreat के लिए मजबूर है, वह आंदोलन के नागपाश से निकलने के लिए छटपटा रही है और face saving मैकेनिज्म की तलाश में है। पर अभी भी "रस्सी जल गई, ऐंठन नही गयी " की तर्ज पर वह जोर जोर से चिल्ला  रही है कि क़ानूनों को रद्द नहीं किया जाएगा, मात्र होल्ड पर रखा जाएगा। यद्यपि डेढ़-दो साल होल्ड पर रखने का मतलब यह है कि effectively मोदी सरकार के बचे कार्यकाल में अब यह अपने मौजूदा स्वरूप में लागू नही होगा, 3 ही साल बचे हैं और आखिरी साल चुनावी साल होगा जिसमें जाहिर है सरकार ऐसे अलोकप्रिय कानून को लागू करने के बारे में सोच भी नहीं सकती। 

पर किसान अपने मूल प्रस्ताव पर अडिग हैं क्योंकि उनके मन में सरकार के वायदों को लेकर जायज अविश्वास है। उन्हें लगता है कि आंदोलन के दबाव में सरकार भले  होल्ड पर रखने की बात कर रही है, पर आंदोलन खत्म होने के बाद वह फिर किसी न किसी रूप में इन कानूनों को लागू करने का रास्ता खोज निकालेगी। वे यह भी अच्छी तरह समझते है कि ऐसे आंदोलन रोज-रोज खड़े नहीं होते।

किसान इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि लड़ाई बेहद fundamental nature की है, क्योंकि किसानों और कारपोरेट के हित असमाधेय (Irrecocilable ) हैं और कारपोरेट हितों के रक्षक के बतौर मोदी सरकार का जितना बड़ा दांव इन कानूनों पर लगा हुआ है और जिस तरह उसने इसे नाक का सवाल बनाया हुआ है,  अब  इनसे पीछे हटना सरकार के लिए सियासी हाराकीरी से कम नहीं है। उन्हें मालूम है कि इन कानूनों का वापस होना मोदी-शाह की अपराजेय छवि के लिए ऐतिहासिक पराजय का क्षण होगा। इसीलिए सरकार के लिए इन कानूनों को पूरी तरह रद्द करना करीब करीब असम्भव है। मोदी जी द्वारा नियुक्त नीति-आयोग के पहले पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया कह चुके हैं कि इस आंदोलन से नवउदारवादी सुधारों की destiny जुड़ी हुई है। उन्होंने चिंता जाहिर की थी कि अगर सरकार मौजूदा सुधारों को वापस लेती है तो इससे 'निहितस्वार्थी तत्व ' सभी सुधारों को वापस कराने के लिए प्रोत्साहित होंगे !

इसीलिये किसान किसी भी हाल में इन कानूनों की पूर्ण वापसी से कम पर कत्तई मानने को तैयार नहीं हैं।

कृषि कानूनों के साथ दूसरा प्रमुख मुद्दा MSP का है। यह किसी भी तरह किसानों के लिए कानूनों की वापसी से कम महत्व का विषय नहीं है, दरअसल, MSP ही तो उनकी मूल मांग थी जिस पर दशकों से, विशेषकर पिछले 6 साल से वे लड़े रहे थे। पर अचानक 3 नए क़ानून लाकर सरकार ने पूरे मामले को और उलझा दिया। 

किसान बिल्कुल उचित ही यह मांग कर रहे हैं कि सरकार MSP को कानूनी दर्जा दे। इसकी बिल्कुल गलत और शरारतपूर्ण व्याख्या द्वारा कारपोरेटपरस्त बुद्धिजीवी और सरकार व भाजपा के प्रवक्ता यह अफवाह फैला रहे हैं कि किसान बिल्कुल बेतुकी मांग कर रहे हैं, सरकार सारा उत्पादन खरीद कर करेगी क्या, उसे रखेगी कहाँ और ऐसा करने से सरकार के ऊपर 17 लाख करोड़ का बोझ पड़ेगा जो हमारे कुल बजट का आधा है! इस तरह वे लोगों में खौफ पैदाकर उन्हें किसान आंदोलन के खिलाफ भड़का रहे हैं। सच्चाई यह है कि किसान यह मांग कर ही नहीं रहे हैं कि सरकार पूरी फसल MSP पर खुद खरीदे। वे तो बस यह मांग कर रहे हैं कि सरकार MSP को कानूनी बना दे ताकि बाजार में कोई भी खरीदे उन्हें वह न्यूनतम दाम मिल जाय। बहरहाल, योगेन्द्र यादव और किरण कुमार विस्सा द्वारा 2017-18 के लिए की गई गणना के अनुसार यदि सरकार द्वारा घोषित MSP और बाजार भाव के बीच जो अंतर है, उसकी क्षतिपूर्ति सरकार करे तो सभी 23 फसलों की खरीद पर कुल 50 हजार करोड़ का बोझ सरकार पर आएगा, जो मनरेगा के सालाना बजट से भी कम है। अगर MSP की गणना स्वामीनाथन आयोग की संस्तुति के अनुरूप C2 plus 50% के आधार पर की जाय, तो भी यह राशि 2 लाख 28 हजार करोड़ पहुंचेगी जो GDP का 1.3% और बजट का 8% है ।( The Tribune, 21 Jan) सरकार अगर हर साल  कारपोरेट का लाखों करोड़ कर्ज और टैक्स माफ कर सकती है, तो कृषि जो हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, उसके लिए यह कोई बड़ी राशि नहीं है।

दरअसल, किसान आंदोलन अपने रास्ते की सारी बाधाओं को धैर्य और सूझबूझ से पार करते हुए जिस तरह लगातार आगे बढ़ रहा है, व्यापकता और गहराई दोनों दृष्टि से, सरकार के रणनीतिकारों को उसकी उम्मीद नही थी। उसमें नए नए आयाम जुड़ते जा रहे हैं। 18 जनवरी को महिला किसान दिवस में महिलाओं की जबर्दस्त भागेदारी और दावेदारी ने आन्दोलन को एक नया चेहरा दिया है। आंदोलन नए मूल्यों का भी सृजन कर रहा है, स्थापित मान्यताओं को चुनौती दे रहा है, उसने इन गहरे सामन्ती मूल्यों को चुनौती दिया है कि किसान मतलब पुरुष और आंदोलनकारी मतलब पुरुष! जाहिर है, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को अपने इस सुझाव के लिए आलोचना का शिकार होना पड़ा कि महिलाएं आंदोलन से घर वापस लौट जाएं। 

सरकार  लाख कोशिशों के बावजूद आंदोलन को गलती करने और अपने चक्रव्यूह में फंसाने में कामयाब नहीं हो पा रही है।

सरकार द्वारा आंदोलन को, उसके मुद्दों को, देशहित के खिलाफ साबित करने की चाल विफल होने के बाद, अब वे आंदोलन में भारतविरोधी, खालिस्तानी तत्वों की घुसपैठ साबित कर confusion create करना और नैरेटिव बदलना चाहते हैं। खालिस्तानी घुसपैठ के साथ यह नैरेटिव जोड़कर कि आंदोलनकारी 26 जनवरी को गणतन्त्र दिवस के कार्यक्रम में खलल डालना चाहते हैं, उनके खिलाफ राष्ट्रवादी उन्माद भड़काना चाहती है।

दरअसल, यह विदेशी हाथ का हौवा आंदोलन को बदनाम करने और कमजोर करने का निरंकुश सरकारों का पुराना आजमाया हुआ नुस्खा है, जिसका हमारे देश में सबसे पहले इस्तेमाल इंदिरा गांधी ने 70 के दशक में अपने खिलाफ़ उठ खड़े हुए लोकप्रिय विक्षोभ, जिसे JP movement कहा गया, के खिलाफ किया था। हालाँकि इससे कमजोर होने की बजाय आंदोलन और भड़कता गया और अंततः इंदिरा गांधी की प्रतापी सत्ता का अंत कर दिया।

बहरहाल, इनका राष्ट्रवाद कितना साजिशाना और राष्ट्रविरोधी है, अर्नबगेट कांड ने इसका सटीक खुलासा कर दिया है। अपने सैनिकों की मौत में जीत की संभावना का उल्लास ! (This attack we have won  like crazy !) 

असली राष्ट्रद्रोह तो यह है कि पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राइक की टॉप सीक्रेट योजना की बेहद संवेदनशील जानकारी, जो केवल भारत सरकार और सेना के 5 सर्वोच्च अधिकारियों के पास थी वह स्ट्राइक से 3 दिन पहले पत्रकार अर्नब गोस्वामी को दे दी जाती है, “Bigger than a normal strike." 

और फिर आंकलन होता है,"It’s good for big man in this season”,.....“He will sweep polls then”, ...." On Pakistan the government is confident of striking in a way that people will be elated. Exact words used.”

दरअसल, जैसा प्रो. प्रभात पटनायक ने नोट किया है, अम्बानी अडानी जैसों को "वेल्थ क्रिएटर्स " के खिताब से महामंडित करके मोदी जी पहले से  कारपोरेट को ही राष्ट्र के बतौर स्थापित कर रहे थे और उनके हित को ही राष्ट्रीय हित साबित करने में लगे थे। पर, किसान आंदोलन ने राष्ट्रवाद के विमर्श को पूरी तरह बदल दिया है।

कृषि कानूनों को न तो वे किसी अमूर्त राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय हित के नाम पर  स्वीकार करने को तैयार हुए, न , कारपोरेट को राष्ट्र मानने को तैयार हुए, अपने जुझारू आंदोलन के माध्यम से किसानों ने काउंटर नैरेटिव पेश कर दिया । उन्होंने यह दावा ठोंक दिया कि कारपोरेट नहीं, किसान-मजदूर, राष्ट्रीय सम्पदा के उत्पादक ही राष्ट्र का मूलाधार हैं, असली राष्ट्र हैं, वे ही अन्नदाता और राष्ट्रनिर्माता हैं। उनका हित ही राष्ट्रहित है, यह कोई रहस्यमय, अमूर्त भावना या निरपेक्ष ढंग से GDP और सेंसेक्स की उछाल से तय होने वाला मूल्य नहीं है। वरन इसकी कसौटी किसानों समेत जनता के जीवन में होने वाली वास्तविक बेहतरी है।

बेहतर हो कि सरकार चालाकियों से बाज आये और बिना समय गंवाए किसानों की दोनों जायज मांगों को स्वीकार करे ताकि किसानों की अकथनीय पीड़ा का अंत हो सके और देश विनाश के रास्ते पर जाने से बच सके।

आंदोलन जितना लम्बा होगा, उतना ही यह फैलता जाएगा और कारपोरेट विकास के रास्ते के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन का स्वरूप ग्रहण करता जाएगा। यह एक सपने के पूरे होने जैसा है कि जनांदोलन तथा जनपक्षीय विकास की पैरोकार सभी धाराएं वामपंथी, सोशलिस्ट,  लोकतांत्रिक उदारवादी गांधीवादी, अम्बेडकर, JP, लोहिया के अनुयायी सब एकमंच पर आते जा रहे हैं और राष्ट्रनिर्माण की एक नई कहानी लिख रहे हैं।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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