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सत्याग्रही किसान आपके लिए रूठे हुए फूफा हैं? ओह, कम ऑन मिस्टर प्राइम मिनिस्टर!!

इस भाषण में लोकतंत्र में या लोकतंत्र के लिए आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका को लेकर बहुत गैर-जिम्मेदाराना ढंग से बोला गया। तरस उन सांसदों पर आता है जो इस तमाशे पर तालियाँ पीटते रहे।
Modi

नरेंद्र दामोदर दास मोदी ने कल, सोमवार, 8 फरवरी को बतौर प्रधानमंत्री संसद के उच्च सदन, राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद भाषण दिया। इस भाषण में बीते दिनों संसद में हुई चर्चाओं का अंशमात्र भी असर नहीं दिखलाई दिया बल्कि पहले से लिखे गए भाषण को मखौल भरे और लगभग मसखरे अंदाज़ में दिया गया। उनके भाषण की उन बातों पर चर्चा ज़रूरी है जो आंदोलनजीवी और परजीवी के पर्दे में छिप गईं लेकिन जो सभी के लिए कही गईं।

इस भाषण में लोकतंत्र में या लोकतंत्र के लिए आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका को लेकर बहुत गैर-जिम्मेदाराना ढंग से बोला गया। तरस उन सांसदों पर आता है जो इस तमाशे पर तालियाँ पीटते रहे। आंदोलनकारियों का उपहास बनाने की प्रवृत्ति नरेंद्र मोदी में नयी नहीं है लेकिन कुछ और बातें हैं जिन पर इसलिए ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि इस बात को फिर-फिर ठीक से कहा और समझा जा सके कि बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न तो देश के विशालता, विविधतता और इसके आयतन का अंदाज़ा है और न ही जनतान्त्रिक देश का नेतृत्व करने की क्षमता ही है। मौजूदा प्रधानमंत्री घनघोर रूप से पितृसत्तात्मक समाज के तथाकथित संस्कारों में ही रचे बसे हैं और जिन लोगों तक इक्कीसवीं सदी का प्रकाश नहीं पहुंचा है।

कृषि से जुड़े तीन क़ानूनों को लेकर जिस तरह उन्होंने आलोचना करने वालों को शादी-ब्याहों में फूफा का रूठना बताया वह किसान आंदोलन और उसके समर्थकों के साथ साथ इन क़ानूनों की आलोचना कर रहे विद्वानों, विशेषज्ञों को एक फूहड़ उपहास में बदलने की कवायद ही थी बल्कि उन्होंने यह स्पष्ट किया कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को समझने की सलाहियत उनके पास नहीं है। किसान क़ानूनों की आलोचना शादी में आए फूफा का रूठना है। यही कहा गया। वाकई?

किसी शादी के मुहावरे में इस जनतान्त्रिक लड़ाई को समझा जा सकता है क्या? देश के कितने समुदायों में फूफा शादियों में रूठते हैं? ऐसे कितने समुदाय हैं जिनमें रिशतेदारों में इस तरह रूठने-मनाने की कोई परंपरा नहीं है? एक पितृसत्तात्मक समाज में पिता के बहनोई का खास रुतबा होता है लेकिन क्या ठीक यही रुतबा समाज के हर हिस्से में मौजूद है?आप दो बातों की तुलना कैसे कर सकते हैं श्रीमान प्रधानमंत्री? किसान या इन क़ानूनों के आलोचक आपके रिश्तेदार हैं? वो आपके बहनोई हैं? यह संबोधन और शब्द गाली की तरह इस्तेमाल होता है लेकिन जिस मुहावरे में प्रधानमंत्री ने अपनी बात कही उसके अनुसार यह पूछा ही जा सकता है कि क्या देश के प्रधानमंत्री उन सभी आंदोलनकारियों, विद्वानों, विशेषज्ञों के साले हैं? कोई आपसे रूठकर आंदोलन का रास्ता चुन रहा है? आप उन्हें मिठाई खिला दोगे या जैसा शादी ब्याह के अवसरों पर कुछ हिस्सों में होता है कि आप रूठे या नाराज़ बहनोई को कोई मंहगा गिफ्ट दे देंगे या उनकी इज्जत -अफजाई कर देंगे और वो अंतत: इसलिए मान जाएँगे क्यों कि आप उनके रिश्तेदार हैं, उनकी पत्नी के भाई हैं। एक दूसरे के सुख -दुख में काम आना है? समाज है, परम्पराएँ हैं,लोकाचार है।

माफ कीजिये ये उदाहरण बेहद भद्दा था। अगर कुछ हिस्सों में फूफा का रुतबा इस कदर तुनकमिजाजी का है भी तो उसकी वजह समाज का पितृसत्तात्मक होना है और जिसकी सराहना नहीं की जा सकती। लोक व्यवहार में शायद यह बात कुछ हिस्सों पर लागू होती भी हो पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सर्वोच्च पद के व्यक्ति द्वारा इस उदाहरण से अपने नागरिकों के आंदोलन की तुलना करना बेहद घटिया और फूहड़ कोशिश ही कही जाएगी। इसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। वास्तव में यह बानगी व्हाट्सएप के भद्दे लतीफे से ज़्यादा कुछ नहीं थी। इतने बड़े देश के प्रधानमंत्री को व्हाट्सएप्प के चुटकुलों को संसद में नहीं कहना चाहिए।

क्या वाकई सबसे लोकप्रिय और मजबूत कहे जाने वाले प्रधानमंत्री संविधान प्रदत्त शोषण के खिलाफ अभिव्यक्ति और आंदोलन करने के मौलिक अधिकार को ‘फूफा का रूठना’ मानते हैं। नरेंद्र मोदी जी क्या नहीं जानते कि फूफा का रूठना, गुस्सा हो जाना या मुंह फुला लेना उनका सांवैधानिक अधिकार नहीं है बल्कि एक खास तरह के पितृसत्तात्मक समाज में एक विकृत लोकाचार है जो इस बिना पर आधारित है कि महिलाएं -पुरुषों के सामने कमतर हैं। बहनोई का दर्जा इसलिए ऊपर चला रहा है कि क्योंकि वो बहन का पति है और इसलिए बहन का भाई ताजिंदगी उस व्यक्ति के प्रति आभारी है क्योंकि उसने उसकी बहन से ब्याह के लिए हामी भरी और ब्याह किया।

इसमें बहन के प्रति शुभेच्छा है लेकिन साथ ही यह दबाव भी निहित है कि अगर बहन के मायके में उसके पति को इज़्ज़त नहीं मिली तो इसका असर उसकी बहन की ज़िंदगी पर पड़ सकता है। ऐसे फूफाओं की इज़्ज़त और उनके रूठने को इतना भाव गैर-बराबरी की कोख से निकला है। और इस गैर बराबरी का कोई स्थान भारत के महान संविधान में नहीं है।

एक तरफ नरेंद्र मोदी की सरकार बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की मुहिम चलाती है और दूसरी तरफ बेटियों को वहीं देखना चाहती है जहां से उबरने के लिए उसके पढ़ने और अपने पाँवों पर खड़े होने की ऐतिहासिक ज़रूरत संविधान ने समझी ताकि लिंग भेद के कारण पैदा होने वाली गैर-बराबरी को खत्म किया जा सके। दिलचस्प है कि नरेंद्र मोदी के ठीक पीछे बैठी देश की वित्तीय मंत्री निर्मला सीतारमण भी इस तुलना पर टेबिल थपथपाते नज़र आयीं।

यह समझना और भी दिलचस्प है कि मौजूदा प्रधानमंत्री की राय परिवार नामक संस्था और समाज की बुनियादी इकाई के प्रति क्या है। इसका मुजाहिरा उन्होंने अपने भाषण के अंतिम चरण में किया जब सभी सांसदों को ठीक तरह से संसद चलने के एवज़ में धन्यवाद दिया गया। उन्होंने खुद की आलोचना किए जाने के संबंध में यह कहा कि मुझे गालियां दीजिये, मोदी है तो मौका है। वैसे भी लॉकडाउन और कोरोना के कारण सभी सांसद अपने अपने घरों में ही कैद रहे और घर में जो भी होता रहा (यह बोलते वक़्त उन्होंने दोनों हाथों से नोंक-झोंक का विन्यास रचा) उसका गुस्सा निकालने का मौका आपने लिया और उन पर अपना गुस्सा निकाला। ‘आंतरिक मामले’ की पदावली को लेकर अति संवेदनशील प्रधानमंत्री को इसमें कुछ भी ‘आंतरिक’ नज़र नहीं आया बल्कि उसकी इस कदर कपटपूर्ण सार्वजनिक बयानी की गयी?

यह एक दूसरा चरम था जिसमें उन्होंने और मजबूती से यह बता दिया कि परिवार नामक संस्था और उसमें घटित होने वाले स्वाभाविक दैनंदिन कार्यकलाप के प्रति उनका नज़रिया किस हद तक दूषित है। घरों में पति-पत्नी की नोंक-झोंक, तकरार, मान-मनुहार को इस मसखरे अंदाज़ में रखकर उन्होंने यह बता दिया कि अपने घर से ऊबे हुए ये सांसद (जिनमें पुरुष सांसदों की तरफ़ इशारा ज़्यादा था)  महज़ अपनी ऊब और गुस्सा निकालने के लिए उनकी सरकार की नीतियों, विभिन्न मोर्चों पर सरकार की असफलताओं की आलोचना कर रहे थे। वो सदन में विपक्ष के नेताओं के तौर पर जन सरोकार के मुद्दे नहीं उठा रहे थे बल्कि अपनी -अपनी पत्नी से इस दौरान होती रही नोंक-झोंक का बदला ले रहे थे। ओह कम ऑन मिस्टर पीएम।

ये दोनों बयान उन अर्थों में शायद ‘राजनीतिक’ न भी कहे जाएँ और इनकी तरफ लोगों का ध्यान ना ही जाये लेकिन असल राजनीति यहीं थी। यह मौजूदा सरकार, उसके दल (भाजपा) और दल की पितृ संस्था (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ) की बुनियादी राजनीति है जो हर तरह की गैर- बराबरी को न केवल बनाए रखना चाहती है बल्कि गैर-बराबरी की खाई को और चौड़ा करना चाहती है। लैंगिग आधार पर गैर-बराबरी मनु स्मृति को लागू किए जाने की दिशा में सबसे बुनियादी ज़रूरत है। इसे राजनीतिक जवाबदेही के दौरान सर्वोच्च संस्था के रिकार्ड में दर्ज़ कराना बताता है कि 72 साल के गणतन्त्र में लैंगिग गैर बराबरी की कुप्रथाओं को आधार बनाकर सांवैधानिक हक़-हुकूकों के लिए आन्दोलरत नागरिकों को समझाया जा सकता है। इस परिपक्व होते लोकतंत्र ने बात करने, समझने और समझाने के लिए ऐसी भाषा ईज़ाद नहीं कर पायी है जिसमें ज़रूरी तौर पर महिलाओं के अपमान को माध्यम बनाए बगैर कोई बात हो सके। एक तरफ दुनिया ऐसी भाषा बरतने की कोशिश कर रही है जिसमें लिंग-बोध समाप्त हो जाये या अगर आए भी तो उसमें गैर-बराबरी नहीं बल्कि समानता की ध्वनि सुनाई दे दूसरी तरफ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की मुहिम चलाने वाली सरकार इस लिंग भेद को अपनी बात कहने के लिए उसे पुनर्स्थापित भी कर रही है और उसे बात कहने का माध्यम भी बना रही है।

कृषि क़ानूनों के खिलाफ सत्याग्रह कर रहे किसानों और उनके समर्थकों को प्रधानमंत्री ने नयी शब्दावलियों से नवाजा। उन्हें आन्दोलनजीवी और परजीवी बताया। खैर आंदोलन कारियों को प्रधानमंत्री ने जो कहा वो उन्हें मिली लोकतंत्र की न्यूनतम से भी कम समझ के कारण कहा और सरकार में होने के नाते उन्हें हतोत्साहित करने, उनकी आवाज़ और मुद्दों को बेअसर करने का मौका निकालना प्रधानमंत्री का कौशल भी है और उनकी ज़रूरत भी है। इसे राजनीतिक स्टंट कहा जा सकता है और जो करना उनका काम था। आखिर तो इस सरकार में अन्य कोई सक्षम सांसद या मंत्री नहीं ही है इसलिए बतौर कप्तान प्रधानमंत्री ने दायें-बाएँ शॉट खेलकर किसी तरह टीम की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश की। इसमें बड़ी आपत्ति की कोई खास वजह नहीं है। आखिर तो तमाम सांसद प्रधानमंत्री के चुनावी प्रबंधन की वजह से संसद में बैठे हैं और दिलचस्प ये है कि ‘वो ये जानते हैं’। जब कभी थोड़ी देर के लिए भूलते भी होंगे तो यह याद दिला ही दिया जाता है। जैसे एक समय सरकार में नंबर दो की हैसियत से और पहली बार प्रधानमंत्री की ताजपोशी के दौरान राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे राजनाथ सिंह को गणतंत्र दिवस के दिन कैमरे के ठीक सामने उन्हें उनकी हैसियत याद दिला दी गयी थी।

हमारे लोकप्रिय और मजबूत कहे जाने वाले प्रधानमंत्री यह अच्छी तरह जानते हैं कि पब्लिसिटी हमेशा अच्छी चीज़ है, नाम हो या बदनाम। उन्होंने आंदोलनकारियों को आन्दोलनजीवी और परजीवी  कहकर कई दिनों के लिए चर्चा में बने रहने का रास्ता तलाश कर लिया लेकिन उनके भाषण के जिन दो अंशों का ज़िक्र ऊपर हुआ उस पर चर्चा इसलिए ज़रूरी हो जाती है ताकि लोगों को यह पता लगे कि नरेंद्र मोदी को लोकतंत्र की रत्ती भर समझ नहीं है। इस बात को बार-बार कहे जाने की ज़रूरत है।

(लेखक डेढ़ दशक से जन आंदोलनों से जुड़े हैं। समसामयिक मुद्दों पर टिप्पणी करते हैं। विचार व्यक्तिगत हैं)

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