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मौजूदा अघोषित आपातकाल का अंत किसान करेंगे

Emergency Day पर "खेती बचाओ, लोकतंत्र बचाओ" हुंकार के साथ किसान-आंदोलन अधिनायकवादी शासन से देश को निजात दिलाने की लड़ाई में अपनी ऐतिहासिक भूमिका में डट कर खड़ा है।
मौजूदा अघोषित आपातकाल का अंत किसान करेंगे
फ़ोटो किसान एकता मोर्चा के ट्विटर हैंडल से साभार

संयुक्त किसान मोर्चा ने आज 26 जून को " खेती बचाओ, लोकतंत्र बचाओ " दिवस के रूप में मनाने का आह्वान किया है। किसान पूरे देश मे राजभवनों पर प्रदर्शन कर राज्यपालों के माध्यम से राष्ट्रपति को रोषपत्र भेजेंगे। इसी के साथ आंदोलन फिर जोर पकड़ने लगा है।

आज के दिन उनके ऐतिहासिक आंदोलन के 7 महीने और 1975 में देश में लगे आपातकाल के 46 वर्ष पूरे हो रहे हैं। इसकी पूर्वसंध्या पर आंदोलन के प्रमुख नेता राकेश टिकैत ने कल, शुक्रवार को गाजीपुर बॉर्डर पर कहा कि अगर देश को बचाना है तो वोट की चोट से BJP को सत्ता से हटाना पड़ेगा। उन्होंने एलान किया कि सितंबर में मुजफ्फरनगर में बड़ी मीटिंग करके "भाजपा हराओ, मिशन UP "का आगाज किया जाएगा तथा पूरे प्रदेश में रैलियाँ आयोजित कर किसानों से भाजपा को हराने की अपील की जाएगी, इन रैलियों में आंदोलन के सभी शीर्ष नेता भाग लेंगे।

आज का अघोषित आपातकाल आधी सदी पहले के घोषित आपातकाल से गुणात्मक रूप से भिन्न है। आज यह महज एक तानाशाह और उसके गुट के संकीर्ण हितों को बचाने का उपक्रम नहीं है। नवउदारवाद के संकट के मौजूदा दौर में यह वैश्विक वित्तीय पूँजी व कॉरपोरेट घरानों तथा हिंदुत्व की ताकतों के सामूहिक हितों की रक्षा का औजार है, इसके निशाने पर मजदूर-किसान-आम मेहनतकश, समाज के हाशिये के तबके अल्पसंख्यक, दलित-आदिवासी-महिलाएं-पिछड़े हैं। इसका लक्ष्य प्रभु वर्गों के हाथ सारी राष्ट्रीय-सार्वजनिक सम्पदा, जल-जंगल-जमीन का हस्तांतरण तथा बहुसंख्यकवादी हिन्दू राष्ट्र का निर्माण है। जाहिर है, इस प्रोजेक्ट के रास्ते में बाधक सारी राजनीतिक ताकतें, विचारधारा-संगठन-व्यक्ति, नागरिक समाज सब इनके निशाने पर हैं।

इस आपातकाल की विशेषता यह है कि इसने  संविधान द्वारा प्रदत्त लोकतांत्रिक अधिकारों और नागरिक स्वतन्त्रताओं को औपचारिक रूप से खत्म नहीं किया है, पर व्यवहार में उन्हें निष्प्रभावी बना दिया है। मोदी-शाह की सत्ता अपने कॉरपोरेटपरस्त, विभाजनकारी एजेंडा के अनुरूप सरकारी मशीनरी ( और गैरकानूनी vigilante समूहों ) द्वारा असहमति के स्वरों का दमन करती है और संविधान व कानूनी प्रावधानों की मनमानी व्याख्या द्वारा उस दमन को कानूनी जामा पहनाती है। साम्प्रदायिक, अंधराष्ट्रवादी माहौल बनाकर समाज में उस दमन को स्वीकार्य बनाती है। मीडिया तथा सारी संस्थाएं सरकार की जेब में हैं, इसलिए सरकार द्वारा कानून-संविधान की मनमानी व्याख्या पर सवाल खड़े करने और रोकने की तो बात दूर, उल्टे वे सरकार की निरंकुशता में सहभागी और सह-अपराधी बन गयी हैं।

हाल ही में दिल्ली हिंसा में षड्यंत्र के आरोप में UAPA के तहत बंद जेएनयू-जामिया के छात्रों नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और आसिफ इकबाल तन्हा के चर्चित केस में, सरकार के इस typical modus operandi को बेनकाब करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने यह सटीक टिप्पणी की,  "असहमति को दबाने की बेचैनी में, सरकार की निगाह में, संविधान प्रदत्त विरोध के अधिकार तथा आतंकवादी गतिविधि के बीच की विभाजन रेखा मिट सी जा रही है।"..." अगर इस जेहनियत को महत्व मिलता रहा, तो यह हमारे लोकतंत्र के लिए शोक का दिन होगा। "

दरअसल, पिछले 7 वर्ष से मोदी-शाह का अघोषित आपातकाल बिल्कुल इसी पैटर्न पर काम कर रहा है। भारत को एक कॉरपोरेट, हिन्दू राष्ट्र बनाने के उनके प्रोजेक्ट के रास्ते में जो भी आया उसे आतंकवाद और राष्ट्रद्रोह से जोड़कर उसका बर्बर दमन किया गया-वे चाहे छात्र हों, मानवाधिकार कार्यकर्ता हों, दलितों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों-महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाले हों, भूमि-जंगल-जल, खान-खदानों पर कब्जे के खिलाफ लड़ने वाले हों, राष्ट्रीय सम्पदा, सार्वजनिक उद्यमों को कॉरपोरेट को लुटाए जाने के खिलाफ आवाज उठाने वाले हों या मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाये जाने के खिलाफ बोलने वाले हों।

किसान आंदोलन ने इस रणनीति को कामयाब नहीं होने दिया, एक ओर उन्होंने right to protest को non-negotiable बना दिया और लाख दमन के बावजूद आजीविका और हक की अपनी लड़ाई से एक इंच भी पीछे हटने से इनकार कर दिया, दूसरी ओर अपनी सधी हुई रणनीति से आंदोलन को हिंसा, साम्प्रदायिकता, अंधराष्ट्रवाद, जाति-क्षेत्रवाद से जोड़ने की सरकार की साजिश को कामयाब नहीं होने दिया।

किसान आंदोलन की ऐतिहासिक भूमिका आज इस बात में निहित है कि मौजूदा आपातकाल का जहां नाभि केंद्र है- कम्पनी-राज और विभाजनकारी हिंदुत्व- वहां इसने प्रहार किया है। इसकी दीर्घजीविता का रहस्य यही है कि इस रणनीतिक लक्ष्य पर इसकी निगाहें पूरी स्पष्टता व मजबूती से टिकी हुई हैं। मोदी-शाह के फासिस्ट दमन और साजिशों का मुंहतोड़ जवाब देते हुए पूरी गरिमा और शान से आंदोलन के टिके रहने के पीछे राज यह है की इसने हिंदुत्व की विभाजनकारी, अंधराष्ट्रवादी राजनीति के चक्रव्यूह को चकनाचूर कर दिया और धर्म-सम्प्रदाय-जाति-लिंग-क्षेत्र-राज्य की सीमा के पार जनता की विराट राष्ट्रीय एकता कायम की है।

आज यह दुनिया का सबसे लंबे समय तक चलने वाला, सबसे बड़ा आंदोलन ही नहीं है, बल्कि इकलौता आंदोलन है जो सीधे कॉरपोरेट हितों के खिलाफ चल रहा है और लोकतंत्र की रक्षा के सवाल पर पूरी मुखरता के साथ खड़ा है।

पिछले दिनों किसानों ने भीमा कोरेगांव मामले में बंद नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों की रिहाई की मांग बुलंद किया, श्रम-कानूनों में बदलाव का विरोध किया, सार्वजनिक उपक्रमों की कॉरपोरेट लूट के खिलाफ ट्रेड यूनियनों की लड़ाई का समर्थन किया, न्यूज़क्लिक जैसे स्वतन्त्र मीडिया पोर्टल और पत्रकारों पर हमले का विरोध किया, छात्रों-युवाओं का समर्थन किया।

हाल ही में उन्होंने गांव की जमीन के अधिग्रहण का विरोध कर रहे छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को समर्थन दिया, उनके ऊपर फायरिंग की निंदा की तथा आदिवासियों के ऊपर दमन के प्रतिवाद का एलान किया।

संयुक्त किसान मोर्चा के वक्तव्य में कहा गया है, " हम सुकमा और बीजापुर जिलों की सीमा पर स्थित गांव सेलेगर के आदिवासियों को अपना पूरा समर्थन देते हैं, जो क्षेत्र में सीआरपीएफ शिविर स्थापित करने के सरकार के फैसले के खिलाफ लड़ रहे हैं। यह भूमि संविधान की पांचवी अनुसूची के अंतर्गत आती है और भूमि को ग्राम सभा के किसी रेफरल/निर्णय के बिना लिया जा रहा है। किसान मोर्चा 17 मई को विरोध प्रदर्शन करने वाले आदिवासियों पर पुलिस फायरिंग की जोरदार निंदा करता है जिसमें तीन आदिवासियों की मौके पर ही मौत हो गई, एक घायल गर्भवती आदिवासी की मौत बाद में हो गई, 18 अन्य घायल हो गए और अभी तक 10 लापता हैं।"

संयुक्त किसान मोर्चा ने 30 जून को दिल्ली बॉर्डर के सभी मोर्चों पर 'हूल क्रांति दिवस' मनाने का निर्णय लिया है। उस दिन आदिवासी क्षेत्रों के नेताओं-कार्यकर्ताओं को धरना स्थलों पर आमंत्रित किया जाएगा।

मोदी सरकार किसान आंदोलन के खिलाफ अपने शत्रुतापूर्ण रुख पर बदस्तूर कायम है । चुनाव सन्निकट हैं और बंगाल चुनाव-नतीजों तथा कोरोना कुप्रबंधन के बाद सरकार बेतरह घिरी हुई और रक्षात्मक है, इसलिए कोई बड़ा दुस्साहस शायद न करे, पर वह आंदोलन को बदनाम करने और डिस्टर्ब करने की कोशिश में लगातार लगी हुई है, शायद किसी उचित मौके की तलाश में है।

सरकार के इस रुख का ही प्रमाण है कि दिल्ली पुलिस ने अपने पहले के आरोप पर कायम रहते हुए कि 26 जनवरी की घटनाएं "लाल किले पर कब्जा करने की साजिश" का हिस्सा थीं , 17 जून को पूरक आरोप पत्र दाखिल किया। दिल्ली के मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत ने 19 जून को इस पूरक आरोपपत्र पर संज्ञान लिया। संयुक्त किसान मोर्चा ने इसका आक्रामक प्रतिवाद किया है, " हम पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि लाल किले की घटनाएं स्पष्ट रूप से किसानों के आंदोलन को बदनाम करने के लिए खुद भाजपा सरकार द्वारा प्रायोजित साजिश का हिस्सा थीं। हमें विश्वास है कि किसानों के शांतिपूर्ण, लोकतांत्रिक विरोध के अधिकार को अदालत द्वारा मान्यता दी जाएगी और असहमति का अपराधीकरण करने की शैतानी मंशा का पर्दाफाश किया जाएगा।"

इस बीच केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने फिर पुराना राग छेड़ा है कि सरकार किसानों की चिंताओं की एक बिंदुवार सूची को सुनने के लिए तैयार है, पर कृषि कानूनों की वापसी पर बात नहीं होगी। इस पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए किसानों ने कहा है कि, " कृषिमंत्री का तीन केंद्रीय काले कानूनों की निरंतर रक्षा करना आश्चर्यजनक है। किसान नेताओं ने पहले भी जल्दबाजी में पारित अवांछित केंद्रीय कृषि कानूनों में सरकार की मूलभूत खामियों की ओर इशारा किया है। ये ऐसे कानून हैं जो किसानों को उन बाजारों की दया पर छोड़ देते हैं जिन्हें सरकार द्वारा बिना किसी सुरक्षा के बड़ी पूंजी और कॉरपोरेट्स द्वारा संचालित किया जाता है। ये ऐसे कानून हैं जहां सरकार देश के अन्नदाता के प्रति अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है। सरकार को बार-बार ऐसे कानूनों का बचाव क्यों करना चाहिए जिनकी मूलभूत कमियां उनकी नीतिगत दिशा में निहित हैं, जो किसानो के अहित में जाती है और कॉरपोरेट मुनाफाखोरी की रक्षा करने का प्रयास करती है? अपने अस्तित्व के लिए जीवन-मृत्यु की लड़ाई लड़ रहे किसानों को कानूनों को निरस्त न कर अन्य विकल्प पेश करने के लिए कहना सरकार का अनुचित कदम है। सरकार को कानूनों को निरस्त क्यों नहीं करना चाहिए? भाजपा सरकार के अहंकार के अलावा इस बात की कोई तर्कसंगत व्याख्या नहीं हो सकती है कि सरकार आखिर आंदोलन की मांगों पर सहमत क्यों नहीं है।"

46 साल पूर्व के आपातकाल और आज के अघोषित आपातकाल के बीच एक बेहद crucial फर्क किसानों की भूमिका में है। किसानों की उदासीनता और उनका पिछड़ापन जहां निरंकुशता को आधार देता है, वहीं किसान जब राजनीतिक रूप से जागृत हो जाते हैं तो जनवाद की उनकी आकांक्षा निरंकुशता की कब्र खोद देती है और समाज में रेडिकल बदलाव की राह खोल देती है। विश्व इतिहास ऐसे अनगिनत उदाहरणों से भरा पड़ा है।

2014 में स्वयं मोदी के राज्यारोहण में किसानों के समर्थन की भूमिका निर्णायक थी। मीडिया द्वारा गढ़ी गयी उनकी करिश्माई छवि ने किसानों को उनका मुरीद बना दिया था। यहां तक कि नोटबन्दी की विनाशकारी नीति की त्रासदी को भी किसानों ने यह मानकर सह लिया कि मोदी जी बड़े लोगों के खिलाफ, काले धन के खिलाफ गरीबों और राष्ट्रहित में युद्ध लड़ रहे हैं। वह कदम जिसने पूरी अर्थव्यवस्था को दशकों पीछे धकेल दिया, वह भी मोदी जी की मसीहायी छवि को चमकाने का माध्यम बन गया। इसी की अभिव्यक्ति 2017 में UP विधानसभा चुनाव में भाजपा की ऐतिहासिक जीत में हुई थी।

पर आज सब कुछ 180 डिग्री बदल चुका है। ब्राण्ड मोदी खत्म हो चुका है। कल तक मोदी को मसीहा मानने वाले किसान आज " नो वोट टू बीजेपी " और  "मिशन भाजपा हराओ " चला रहे हैं। बंगाल में मोदी की करारी शिकस्त के बाद अब उत्तर प्रदेश में भाजपा राज का अंत उनका अगला निशाना है, क्योंकि वे जानते हैं उत्तर प्रदेश में कमर टूटने के बाद भाजपा का 2024 में दिल्ली पहुंचना असम्भव हो जाएगा।

Emergency Day पर "खेती बचाओ, लोकतंत्र बचाओ" हुंकार के साथ किसान-आंदोलन

अधिनायकवादी शासन से देश को निजात दिलाने की लड़ाई में अपनी ऐतिहासिक भूमिका में डट कर खड़ा है। आने वाले दिनों में इसी से  देश में सच्चे जनतंत्र तथा सबके लिए गरिमामय आजीविका और खुशहाली की राह हमवार होगी।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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