गांधी का ‘रामराज्य’ हिंदू राज नहीं था
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की तैयारियों के साथ यह प्रचार तेजी से चल रहा है कि रामराज्य की स्थापना होने जा रही है। इसी से जोड़कर यह भी कहा जा रहा है कि महात्मा गांधी भी तो रामराज्य की ही स्थापना चाहते थे। दूसरी ओर वामपंथी और आंबेडकरवादी गांधी की रामराज्य की अवधारणा को हिंदूवादी और सवर्णवादी अवधारणा मानकर चलते हैं। इसीलिए वे कहते हैं कि मूल रूप से गांधी तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के विरुद्ध थे। ऐसे में यह चर्चा जरूरी हो जाती है कि आखिर में गांधी का रामराज्य क्या था? क्या वह अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र राम के राज्य जैसा था या वह कुछ और था? क्या उसमें वर्णव्यवस्था और ऊंच नीच के लिए स्थान था या फिर वह बराबरी पर आधारित एक लोकतांत्रिक राज्य था जहां राजा सचमुच अपनी प्रजा का सेवक था और संप्रभुता राज्य नहीं समाज के पास थी।
गांधी के राम दरअसल सिर्फ दशरथ के पुत्र और अयोध्या के राजा राम नहीं थे। वे एक दैवीय अवधारणा थे। गांधी ने अपनी विशिष्ट संचार शैली के चलते रामराज्य का रूपक जनता के समक्ष प्रस्तुत किया था। इसका उद्देश्य आम आदमी के हृदय में एक स्वप्न जागृत करना था लेकिन उनका इरादा किसी प्राचीन राज्य की स्थापना करना नहीं था। वे प्राचीन नाम से लोगों की कल्पना में उतरना चाहते थे और फिर उसमें एक लोकतांत्रिक राज्य की संस्थाएं गढ़ना चाहते थे। उनके लिए ईश्वर का अर्थ पहले भले ही सत्य रहा हो लेकिन बाद में उनके लिए सत्य ही ईश्वर हो गया था। इसलिए वे राम के नाम पर ईश्वर यानी सत्य का राज्य कायम करना चाहते थे। संभवतः एक पारदर्शी और जवाबदेह लोकतंत्र वही होता है जिसकी स्थापना सत्य पर आधारित हो। जहां न तो राजा झूठ बोले और न ही प्रजा झूठ सहे। जहां झूठ सबसे निंदनीय कार्य समझा जाए।
भावनगर में 8 जनवरी 1925 को काठियावाड़ राजनीतिक सम्मेलन आयोजित हुआ। उस सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए गांधी ने रामराज्य की जो व्याख्या की वह ध्यान देने लायक हैः------
`राम ने एक कुत्ते के साथ भी न्याय किया। राम ने सत्य के लिए अपना राजपाट छोड़कर वन गमन किया जो कि सारी दुनिया के राजाओं के लिए मर्यादा का पाठ है। उन्होंने एक पत्नीव्रत का पालन करते हुए यह दर्शाया कि राजवंश से संबद्ध होने के बावजूद कोई गृहस्थ व्यक्ति पूर्ण आत्मसंयम का पालन कर सकता है। राम को जनमत जानने के लिए आज की तरह मतदान की आवश्यकता नहीं थी बल्कि वे अंतरज्ञान के माध्यम से ही लोगों के हृदय की बात जान लेते थे। राम की प्रजा बहुत प्रसन्न थी। इस तरह का रामराज्य आज भी कायम किया जा सकता है। राम के वंशज समाप्त नहीं हुए हैं।’
राम के बारे में इस वर्णन से लगता है कि वे हिंदुओं के आराध्य राम की बात कर रहे हैं और शायद वे वही राम हैं जिसके मंदिर निर्माण के लिए हिंदुत्ववादियों ने जमीन आसमान एक कर दिया। लेकिन इसी व्याख्यान का अंतिम हिस्सा सुनने के बाद लगता है कि गांधी के राम तो कोई और ही थे जिसे आज के हिंदुत्ववादी समझ ही नहीं सकते। वे आगे कहते हैः---
`आधुनिक युग के संदर्भ में कहा जा सकता है कि पहले खलीफा ने रामराज्य स्थापित किया। अबू बकर और हजरत उमर ने करोड़ों के राजस्व इकट्ठा किए फिर भी निजी तौर पर वे फकीर की तरह ही रहते थे।‘
गांधी की यह पंक्तियां उनके रामराज्य के सांप्रदायीकरण की सारी संभावना को समाप्त कर देती हैं। इससे आगे वे `हरिजन’ अखबार में अपने राम की व्याख्या करते हुए कहते हैः—
`मेरे राम यानी जिसका जाप हम अपनी प्रार्थना में करते हैं वे ऐतिहासिक राम नहीं हैं। वे राजा दशरथ के पुत्र और अयोध्या के राजा नहीं हैं। वे सनातन हैं, वे अजन्मा हैं और वे अद्वितीय हैं।’
गांधी जिस रामराज्य की बात करते थे वह न्याय पर आधारित एक मुकम्मल समाज की अवधारणा थी। वह पृथ्वी पर धर्म का राज्य था। वह स्वराज से भी आगे बढ़कर राजनीतिक रूप से आत्मनिर्भर व्यवस्था थी। हालांकि गांधी अपनी अवधारणा को बार बार स्पष्ट कर रहे थे लेकिन उनके मुस्लिम समर्थकों में एक प्रकार की गलतफहमी पैदा हो रही थी कि कहीं वे हिंदू राष्ट्र की स्थापना तो नहीं करना चाहते। इस भ्रम का निवारण करते हुए उन्होंने 1929 में `यंग इंडिया’ में लिखाः----
`मैं अपने मुस्लिम मित्रों को सचेत करता हूं कि मेरे रामराज्य शब्द के प्रयोग पर वे किसी प्रकार की गलतफहमी में न आएं। मेरे लिए रामराज्य का अर्थ हिंदू राज नहीं है। मेरे लिए रामराज्य का अर्थ दैवीय शासन है। एक प्रकार से ईश्वर का राज्य है। मेरे लिए राम और रहीम एक ही हैं। मैं सत्य के अलावा और किसी को ईश्वर नहीं मानता। मेरी कल्पना के राम कभी इस धरती पर आए थे या नहीं लेकिन रामराज्य का प्राचीन आदर्श निस्संदेह एक प्रकार से सच्चे लोकतंत्र का नमूना है। वह ऐसी शासनव्यवस्था है जहां पर सबसे सामान्य नागरिक को भी लंबी और महंगी प्रक्रिया से गुजरे बिना त्वरित न्याय की उम्मीद बनी रहती है।’
हालांकि गांधी, कांग्रेस और उनकी रामराज्य की अवधारणा को हिंदूवादी बताने वाले निरंतर सक्रिय रहे और वे गांधी की सफाई से शांत होने वाले नहीं थे। इसीलिए गांधी जी अपने जीवन की पूर्णाहुति के क्षणों में भी इस अवधारणा को स्पष्ट करते रहे। गांधी ने 1946 में हरिजन में लिखाः----
`( मैं रामराज्य शब्द का प्रयोग इसलिए करता हूं) क्योंकि यह एक सुविधाजनक और सार्थक अभिव्यक्ति वाला मुहावरा है। इसके विकल्प में कोई दूसरा शब्द नहीं है जो लाखों लोगों तक मेरी बात को इतने प्रभावशाली ढंग से पहुंचा दे। जब मैं सीमांत प्रांत का दौरा करता हूं या मुस्लिम बहुल सभा को संबोधित करता हूं तो मैं अपने भाव को व्यक्त करने के लिए खुदाई राज शब्द का प्रयोग करता हूं। जब मैं ईसाई जनता को संबोधित करता हूं कि तब मैं धरती पर परमात्मा के राज की बात करता हूं।’
गांधी ने 1937 में अपने रामराज्य की व्याख्या करते हुए कहा कि यह नैतिक शक्ति पर आधारित लोक संप्रभुता है। यह अंग्रजों के साम्राज्य या सोवियत संघ की शासन प्रणाली या नाजियों की शासनप्रणाली से अलग है।
बाद में 1946 में गांधी ने रामराज्य का ठोस स्वरूप स्पष्ट किया। `हरिजन’ अखबार में स्वतंत्रता की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखाः----
`मित्रों ने अक्सर मुझसे स्वतंत्रता की व्याख्या करने को कहा है। ........मैं कहना चाहता हूं कि मेरे सपनों की स्वतंत्रता का अर्थ रामराज्य है। यानी धरती पर ईश्वर का राज्य। मुझे नहीं मालूम की वह स्वर्ग में कैसा होगा। मेरी इच्छा भी उतनी दूर की व्यवस्था को जानने की नहीं है। अगर वर्तमान आकर्षक है तो भविष्य उससे बहुत अलग नहीं होगा। मेरे लिए ठोस रूप से स्वतंत्रता के आयाम राजनीतिक, आर्थिक और नैतिक हैं। राजनीतिक का अर्थ है कि अंग्रेजी सेना को हर रूप में यहां से हटा दिया जाए। आर्थिक का अर्थ है अंग्रेज पूंजीपतियों से पूरी तरह आजादी और भारतीय पूंजीपतियों से भी स्वतंत्रता। दूसरे शब्दों में सबसे छोटा व्यक्ति भी सबसे बड़े के बराबर महसूस करे। यह तभी हो सकता है जब पूंजी और पूंजीपति अपने कौशल और पूंजी को सबसे कमजोर तबके के साथ बांटें। नैतिक का मतलब है सेना और रक्षा बलों से स्वतंत्रता। मेरी रामराज्य की अवधारणा में अंग्रेजी सेना को हटाकर भारतीय सेना को उसकी जगह स्थापित कर देना नहीं है। जिस देश का शासन उसकी राष्ट्रीय सेना से संचालित होता है नैतिक रूप से कभी स्वतंत्र नहीं हो सकता। इसलिए उस देश का सबसे कमजोर व्यक्ति पूरी नैतिक ऊंचाई तक कभी नहीं पहुंच सकता।’
गांधी की रामराज्य की इस अवधारणा को वे भला क्या समझ सकेंगे जो बात बात पर पुलिस और नए नए दमनकारी कानूनों का प्रयोग करते हैं। इसीलिए गांधी के रामराज्य का चित्र हर किसी के रामराज्य में देखना अनुचित है। पहले उनकी व्याख्या को समझिए फिर उसे धरती पर उतारने की कोशिश कीजिए।
(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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