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ग़ुलाम नबी आज़ाद का इस्तीफा: बीजेपी के लिए संयोग या सहयोग?

ग़ुलाम नबी आज़ाद कांग्रेस में तमाम पदों पर रहे। उन्होंने यूथ कांग्रेस से लेकर सांसद, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष तक के महत्वपूर्ण पद को संभाला है। ऐसे में अब उनका पार्टी से अलग होना एक साथ कई संदेश देता है।
Ghulam Nabi Azad

“...पहले संसद में मोदी के आंसू, फिर पद्म भूषण, फिर मकान का एक्सटेंशन। यह संयोग नहीं सहयोग है!”

ये ट्वीट कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने ग़ुलाम नबी आज़ाद के इस्तीफे की खबर के बाद किया। राज्यसभा में ग़ुलाम नबी आजाद के विदाई संबोधन में पीएम नरेंद्र मोदी भावुक हो गए थे, इसी का ज़िक्र जयराम रमेश ने अपने ट्वीट में किया है।

बाद में मोदी सरकार ने आज़ाद को पद्म भूषण भी दिया था। जयराम रमेश ने इसे संयोग नहीं सहयोग कहा है। कई राजनीतिक विश्लेषक भी इसे बीजेपी को फायदा पहुंचाने वाला फैसला मानते हुए, जम्मू-कश्मीर के आगामी चुनावों में इसका व्यापक असर देख रहे हैं। आज़ाद की भले ही अलग पार्टी बनाने की बात सामने आ रही हो लेकिन कई जानकार उनके बीजेपी की ओर से कश्मीर के मुख्यमंत्री पद की दावेदारी की अटकलें भी लगा रहे हैं।

बता दें कि शुक्रवार, 26 अगस्त को ग़ुलाम नबी आज़ाद ने कांग्रेस पार्टी की प्राथमिक सदस्यता समेत सभी पदों से इस्तीफ़ा दे दिया। आज़ाद के समर्थन में जम्मू-कश्मीर के पांच और कांग्रेसी नेताओं के भी इस्तीफा सामने आए। अपने पाँच पन्नों के इस्तीफ़ा पत्र में ग़ुलाम नबी आज़ाद ने कांग्रेस के साथ अपने लंबे संबंधों का ज़िक्र किया है, साथ ही पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से अपने रिश्तों को भी याद किया है। आज़ाद ने पत्र में लिखा है कि कांग्रेस पार्टी में ऐसी स्थिति पैदा हो गई है, जहाँ से वापस लौटना मुश्किल है।

राहुल गांधी से नाराज़गी

राहुल गांधी का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि कांग्रेस पार्टी की ये हालत इसलिए हुई है क्योंकि पिछले आठ वर्षों से नेतृत्व ने एक ऐसे व्यक्ति को आगे किया, जो कभी गंभीर ही नहीं था। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी की राजनीति में एंट्री और ख़ासकर जब वर्ष 2013 में जब उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया, उसके बाद पार्टी के अंदर की सलाह लेने की प्रक्रिया को उन्होंने पूरी तरह ख़त्म कर दिया।

हालांकि ग़ुलाम नबी आज़ाद के पार्टी से नाराज़गी की खबरें पहले ही सुर्खियों में थीं। साल 2020 के अगस्त महीने में हुई कांग्रेस पार्टी की वर्किंग कमेटी की मीटिंग से पहले ही कुछ कांग्रेसी नेताओं ने सोनिया को चिट्ठी लिखकर पार्टी में बदलाव की मांग उठाई थी, इन कुछ नेताओं जिन्हें G-23 का नाम दिया गया, उनमें ग़ुलाम नबी आज़ाद भी शामिल थे। ये उन नेताओं का ग्रुप था, जो कांग्रेस आलाकमान और उसकी नीतियों से पिछले लंबे समय से नाराज चल रहा था।

जम्मू-कश्मीर प्रदेश कांग्रेस में उथल-पुथल

बीते साल सितंबर आते-आते पार्टी ने गुलाम नबी आजाद को पार्टी महासचिव पद से हटा दिया। फिर राज्यसभा चुनाव में भी पार्टी ने टिकट नहीं दिया। बीते लंबे समय से जम्मू-कश्मीर प्रदेश कांग्रेस में एक तरह की उथल-पुथल सी मची हुई थी। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी में अपने पदों से इस्तीफ़ा देकर पार्टी के मौजूदा प्रदेश नेतृत्व के ख़िलाफ़ खुलकर बग़ावत की। ऐसे में ग़ुलाम नबी आज़ाद के करीबी नेताओं के इस्तीफ़ों के बाद राज्य में उन्हें लेकर भी कई तरह की अटकलें सामने आ रही थीं, जिसे उन्होंने खुद ख़ारिज किया था। लेकिन जम्मू-कश्मीर प्रदेश कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व से उनकी नाराज़गी और फिर से राज्यसभा जाने की उनकी महत्वकांक्षा किसी से छिपी नहीं थी। शायद इसलिए इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, और फिर राहुल गांधी, मतलब चार पीढ़ी के साथ राजनीतिक सीढ़ी चढ़ने वाले ग़ुलाम नबी आज़ाद ने कांग्रेस से अपना 50 साल पुराना रिश्ता तोड़ लिया।

फ़रवरी में ही ग़ुलाम नबी आज़ाद ने राज्यसभा से विदाई के दौरान अपने भाषण में पीएम मोदी से अच्छे संबंधों के कई वाक़ये सुनाए थे। पीएम मोदी और ग़ुलाम नबी आज़ाद ने दोनों-एक दूसरे की ख़ूब तारीफ़ भी की थी। तभी से राजनीतिक हलकों में यह खबर उड़ने लगी थी कि जल्द ही आज़ाद कांग्रेस से आज़ाद होकर बीजेपी के साथ अपनी नई पारी की शुरुआता कर सकते हैं। इसके पीछे एक बड़ा कारण था कि बीजेपी के पास अभी तक जम्मू कश्मीर में कोई बड़ा चेहरा नहीं है और अब ग़ुलाम नबी आज़ाद के पास कांग्रेस में भविष्य के लिए कुछ बचा नहीं है। ऐसे में दोनों को एक-दूसरे के फायदे की बातें समझ में आ रही थीं।

पार्टी के प्रतिभाशाली लोग इसे छोड़ कर क्यों जा रहे हैं?

वैसे अंदरूनी फूट से जूझ रही कांग्रेस का संकट ख़त्म होता नज़र नहीं आ रहा है। पांच राज्यों में चुनाव से पहले पार्टी में जिस एकता की ज़रूरत महसूस की जा रही थी, वह दूर की कौड़ी नज़र आने लगी है। कांग्रेस को इस बात की चिंता करनी होगी पार्टी के प्रतिभाशाली लोग इसे छोड़ कर क्यों जा रहे हैं। कांग्रेस से हाल के दिनों में कई नेता निकल गए। कपिल सिब्बल, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अश्विनी कुमार, आरपीएन सिंह, सुनील जाखड़, हार्दिक पटेल। 2017 में हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकुर और जिग्नेश मेवाणी की तिकड़ी की बदौलत ही कांग्रेस ने बीजेपी को 100 से कम सीटों पर कामयाबी हासिल की थी'।

राजनीतिक विश्लेषक हाल में इन नेताओं के पार्टी से जाने के बाद भले ही कांग्रेस के भविष्य के प्रति चिंता ज़ाहिर कर रहे हों लेकिन लगता है कि पार्टी को इससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता है। बहरहाल, ग़ुलाम नबी आज़ाद के कांग्रेस से जाने से दो बातें दिखती हैं। पहला मैसेजिंग पॉलिटिक्स, जैसा की जाते-जाते आज़ाद ने अपने इस्तीफे में राहुल गांधी को डैमेज करने की कोशिश की है, इससे साफ है कि उन्होंने विरोधियों को मौका दे दिया है। इसके अलावा पहले से कमजोर कांग्रेस में भगदड़ मची है ये मैसेज और पुख्ता हुआ है। क्योंकि जैसा कि खुद आजाद ने कहा है कि वो कांग्रेस के सबसे वफादारों में से एक हैं।

गुलाम नबी आजाद के इस्तीफे का असर

वहीं अगर जमीनी राजनीति की बात करें तो हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुडा को छोड़कर जी-23 के नेताओं की जमीनी राजनीति पर पकड़ नहीं है। हालांकि गुलाम नबी आजाद, जी-23 के दूसरे नेताओं से थोड़ा अलग हैं। जम्मू और कश्मीर के एक पूर्व मुख्यमंत्री होने के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर कांग्रेस में उनके वफादारों की टीम भी है। उनके साथ उनके कुछ समर्थकों ने भी इस्तीफा दिया है। ऐसे समय में आर्टिकल 370 हटने के बाद अब जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक पार्टियां फिर से एक्टिव हो पा रही हैं, तो ऐसे समय में गुलाम नबी आजाद के जाने से कांग्रेस को जम्मू-कश्मीर में कुछ नुकसान हो सकता है। कश्मीर में पार्टी के पास बड़े चेहरे की कमी है।

हालांकि नेशनल लेवल की राजनीति पर गुलाम नबी आजाद के इस्तीफे से मैसेंजिग के अलावा कोई खास असर नहीं दिख रहा है। जाहिर है गुलाम नबी का इस्तीफा कोई रातों रात नहीं हुआ है। इसके संकेत पहले से ही समझ में आ रहे थे। पार्टी नेतृत्व को अंदाजा था कि वो खफा हैं लेकिन पार्टी ने उन्हें रोकने की कोशिश की हो, ऐसा नहीं लगता। साफ है कि पार्टी भी अपने नेताओं को संदेश देना चाहती है कि कोई भी नेता क्यों न नाराज़ हो जाए, या पार्टी छोड़ जाए उसे कोई फर्क नहीं पड़ता।

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