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किसानों और उपभोक्ताओं को एक साथ निचोड़ने की तैयारी में सरकार!

उम्मीद थी कि सरकार किसानों को वास्तव में कुछ राहत पहुंचाने की कोशिश करेगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो सका।
किसान
प्रतीकात्मक तस्वीर फोटो साभार : द इकोलॉजिस्ट

कोरोनावायरस संकट से निपटने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तथाकथित 20 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की तीसरी किस्त में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कृषि और उससे संबंधित लघु उद्योगों के बारे में कुछ घोषणाएं की। आइए समझते हैं कि इन घोषणाओं की ज़मीनी हक़ीक़त क्या है।

वित्त मंत्री ने अपने पूरे संबोधन में कुल 11 बिंदुओं पर घोषणाएं की, जिनमें से 8 कृषि क्षेत्र के आधारभूत ढांचे से संबंधित हैं। इनका उद्देश्य देश की कृषि अवसंरचना या बुनियादी ढांचागत सुविधाओं को बेहतर बनाना हैं। इनमें से अधिकांश योजनाएं पहले से ही चल रही हैं। सीतारमण ने कहा कि 3 उपाय प्रशासनिक सुधारों के लिए हैं। जिनमें आवश्यक वस्तु अधिनियम में अनाज, दालें, खाद्य तेल, तिलहन, आलू और प्याज जैसी कृषि उपजों की स्टॉक सीमा पर से प्रतिबंध हटाना भी शामिल है।

किसानों को इन सभी घोषणाओं से शायद ही कुछ हासिल हुआ है। इस पूरे पैकेज में किसानों को केवल एक चीज देने की बात की गई है और वह है- कर्ज। कर्ज में तो किसान पहले ही गले तक डूबा हुआ है। उस कर्ज को और बढ़ाकर आखिरकार सरकार क्या हासिल करना चाहती है? पूरे देश में केवल एक महीने पहले जिस तरह से ओले और भारी बारिश से रबी की फसलों को नुकसान हुआ है, उससे तो साधारण किसान अभी उबर भी नहीं पाया था। तभी कोरोनावायरस लॉकडाउन उससे सिर पर आ गया। लॉकडाउन ने उसकी दैनिक आमदनी के छोटे-छोटे रास्तों को बंद कर दिया। दूध, सब्जियां, अंडे और फल बेच कर किसान कुछ रोजी-रोटी कमा रहे थे, उस पर भी संकट के बादल आ गए। लॉकडाउन के कारण किसानों को तो गेहूं की फसल बेचने में कई तरह की मुश्किलें हो रही हैं।

उम्मीद थी कि सरकार किसानों को वास्तव में कुछ राहत पहुंचाने की कोशिश करेगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो सका। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शुक्रवार को जो भी घोषणाएं की, उनमें से अधिकांश बजट में घोषित की जा चुकी हैं। उन्हीं को बार-बार दोहराने से किसानों को कोई लाभ नहीं पहुंचने वाला नहीं है। सरकार ने टोमैटो, ओनियन और पोटैटो  के लिए 2018 में घोषित टॉप योजना का फिर से टॉप टू बॉटम नाम से उल्लेख किया है। टॉप योजना में उत्तर प्रदेश सहित आठ राज्यों में प्याज, टमाटर और आलू के 23 उत्पादन क्लस्टर बनाए जाने वाले थे। अब तक इसमें कितना काम हुआ है, इसकी किसी को कोई जानकारी नहीं है।

इस पूरी योजना को ऑपरेशन ग्रीन नाम दिया गया था और इसके लिए 2018 में ही 500 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। इन क्लस्टर के आसपास कोल्ड स्टोर और आपूर्ति सुविधाओं की एक पूरी चेन बनाने का प्रावधान किया गया था। लेकिन यह टॉप योजना जमीन पर नहीं उतर पाई। अब फिर टॉप योजना को बॉटम पर लाने की घोषणा किस हद तक अपने अंजाम तक पहुंचेगी, इसे तो भविष्य ही बतायेगा। टॉप योजना का उद्देश्य पूरे साल भर आलू, प्याज और टमाटर के दामों को उतार-चढ़ाव से बचाना था। क्योंकि यह उपभोक्ताओं की मूलभूत जरूरतों में शामिल हैं।

लेकिन इस साल ही देखा गया कि टॉप योजना पूरी तरह विफल रही। उपभोक्ताओं को प्याज की कीमतों ने काफी रुलाया। रबी में बेमौसम बरसात से इस बार आलू भी आम उपभोक्ता की थाली से बहुत दूर चला जाने वाला है। आलू की कीमतें 25 रुपये किलो से नीचे नहीं जा रही हैं। मानसून की पहली बरसात के बाद ही लोगों की थाली से आलू गायब होने की पूरी संभावना है। ऊपर से अगर फूड प्रोसेसिंग के नाम पर आलू की जमाखोरी व्यापारियों ने कर ली तो प्याज की तरह आलू भी बहुत महंगा ही बिकेगा।

वित्त मंत्री सीतारमण ने अपनी अनेक घोषणाओं में पोल्ट्री और मीट उद्योग की पूरी तरह अनदेखी कर दी। जबकि कोरोनावायरस की चपेट में सबसे ज्यादा पोल्ट्री और मीट उद्योग ही आए हैं। लोगों के अंदर इस बात की आशंका पैदा हो गई है कि अंडा, चिकन और मीट के खाने से भी कोरोनावायरस फैल सकता है। इसलिए इनका धंधा पूरी तरह चौपट हो चुका है। कोरानावायरस फैलने के शुरुआती दौर में ही पोल्ट्री उद्योग को जो झटका लगा, उससे उनका काम धंधा पूरी तरह बंद है। पोल्ट्री उद्योग को कोई भी सुविधा इस पूरे राहत पैकेज में नहीं मिली। जबकि पोल्ट्री उद्योग खासकर छोटे और मझोले किसानों की आय का एक बड़ा सहारा है।

वित्त मंत्री ने पशुओं के टीकाकरण की योजना को बजट प्रावधान में ही घोषित किया था। इसी के साथ ही मछली पालन, मधुमक्खी पालन, जैविक खेती जैसे तमाम योजनाएं बजट में घोषित की गईं थीं। वित्त मंत्री ने खुद स्वीकार किया कि लॉकडाउन के दौरान दूध की मांग 20-25% कम हो गई। इसके बावजूद डेयरी किसानों को तत्काल राहत देने के लिये कोई उपाय नहीं किया गया। वित्त मंत्री ने डेयरी कोऑपरेटिव के लिए ब्याज में दो फीसदी छूट वाली स्कीम लाने की घोषणा की है। दूध बिके या नहीं बिके, पैसे मिले या नहीं मिले, किसान को मवेशी को चारा तो रोजाना देना ही है।  

वित्त मंत्री ने एक लाख करोड़ रुपये  के कृषि के आधारभूत संरचना कोष की स्थापना की बात कही है। इससे किसानों को क्या लाभ होगा, यह शायद किसी से छुपा नहीं है। यह सारा पैसा तो कंस्ट्रक्शन फर्मों के पास जाने वाला है। इसके अलावा फूड प्रोसेसिंग इकाइयों के लिए जिस 10,000 करोड़ रुपये के प्रावधान का ऐलान किया गया है, उससे वास्तव में किसानों को क्या लाभ हो सकता है?

वित्त मंत्री ने प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना (पीएमएमएसवाई) के माध्यम से मछुआरों के लिए 20,000 करोड़ रुपये देने की घोषणा की है। बजट में सरकार ने नीली अर्थव्यवस्था के विकास के लिये पहले ही महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय कर चुकी है। समुद्री, अंतर्देशीय मछली पालन और एक्वाकल्चर से जुड़ी गतिविधियों के लिए 11,000 करोड़ रुपये तथा आधारभूत ढांचा–फिशिंग हार्बर्स, शीत भंडार, बाजार आदि के लिए 9,000 करोड़ रुपये की धनराशि उपलब्ध कराई जाएगी। इसके तहत केज कल्चर, समुद्री शैवाल की खेती, सजावटी मछलियों के साथ नए मछली पकड़ने के जहाज, ट्रेसेलिबिलिटी (पता लगाने), प्रयोगशाला नेटवर्क आदि को बढ़ावा दिया जाएगा। यानी इसका आधा पैसा ऐसी गतिविधियों के लिए दिया जाएगा, जिनका सीधे-सीधे मछली पालन से कोई संबंध नहीं है। इससे मछली पकड़ने वाले बड़े मशीनीकृत जहाजों और ट्रॉलर संचालकों को लाभ होगा। वित्तमंत्री की कृषि के राहत पैकेज से जुड़ी  पूरी घोषणा में ऐसा ही घालमेल है।  

वित्त मंत्री ने जड़ी-बूटियों की खेती को बढ़ावा देने के लिए 4,000 करोड़ रुपये की योजना भी घोषित की। बताने की जरूरत नहीं है कि इसे भी बजट में घोषित किया जा चुका है। सरकार की असली मंशा भारत में केवल आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों की खेती को बढ़ावा देकर किसानों को फल, दूध और पोल्ट्री उद्योग से पूरी तरह बाहर करना है। जिससे कि सस्ते अमेरिकी पोल्ट्री, डेयरी और कृषि उत्पादों को भारत में प्रवेश दिया जा सके। आयुर्वेदिक उत्पादों में भारतीय किसान कुछ हद तक जरूर सफल होंगे, लेकिन अपनी खाद्य सुरक्षा और आत्म-निर्भरता को छोड़कर किसी की मनमानी सनक का शिकार होने के खतरे बहुत ज्यादा हैं।  

इसी तरह जीरो बजट फार्मिंग का भी बहुत ज्यादा हल्ला मचाया गया था। लेकिन कोई भी साधारण किसान बता सकता है कि जीरो बजट फार्मिंग जैसी कोई चीज इस धरती पर संभव ही नहीं है। अगर हम केवल जंगलों से अपनी आवश्यकता की चीजें इकट्ठी करने जाएं तो क्या हमारे श्रम की कोई कीमत नहीं होती है? फिर कैसे कल्पना की जा सकती है कि इतनी सघन आबादी वाले देश में जीरो बजट फार्मिंग का जुमला किसी के काम आने वाला है। भारत में जहां कृषि भूमि पर इतना दबाव है, सभी की जरूरत का भोजन उपलब्ध कराना जीरो बजट फार्मिंग से कैसे संभव हो पाएगा?

इसके अलावा आवश्यक वस्तु अधिनियम में शामिल कृषि वस्तुओं की स्टॉक सीमा खत्म करने की सरकार की घोषणा के दूरगामी परिणाम होंगे। दरअसल नीति आयोग ने 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले स्ट्रेटेजी फॉर न्यू इंडिया @75 नामक एक दस्तावेज प्रकाशित किया था। जिसमें कृषि उत्पादों को आवश्यक वस्तु अधिनियम से बाहर करने की सिफारिश की गई थी। मोदी सरकार इसे लागू करने पर होने वाले संभावित विरोध से आशंकित थी। अब सरकार ने कोरोनावायरस संकट के दौर में बढ़िया मौका देखकर इसे लागू भी कर दिया। अभी इसका कोई विरोध भी नहीं किया जा रहा है। लोगों ने इस पर अभी तक ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया है।

नीति आयोग और भाजपा की सरकार चाहती है कि खाद्यान्न के बाजार में करगिल और आईटीसी जैसी कुछ बड़ी कंपनियों का दबदबा और एकाधिकार कायम हो जाए। इसके लिए किसानों को लाभदायक मूल्य हासिल  होने के थोथे तर्क के साथ आवश्यक वस्तु अधिनियम से दाल, अनाज, तिलहन, आलू और प्याज जैसे कृषि उत्पादों को बाहर करने की साजिश रची जा रही है। सरकार इस कानून को बदलने से पहले लिए राज्यों और उपभोक्ता मंत्रालय के साथ विचार-विमर्श करने वाली थी। कोरोनावायरस संकट ने उसे बैठे-बिठाए एक मौका दे दिया और उसने अपना असली रंग दिखा दिया।

नीति आयोग का कहना है कि कृषि उत्पादों के भंडारण की सीमा के कारण व्यापारियों को इस क्षेत्र में पूंजी लगाने और निवेश करने में कठिनाई आती है। इसलिए खाद्य प्रसंस्करण कंपनियों को खाद्य पदार्थों की भंडारण सीमा की छूट से मुक्त कर देना चाहिए। वे जितना चाहे अपनी क्षमता के हिसाब से माल खरीदकर इकट्ठा करने के लिये आजाद होने चाहिये। नीति आयोग का मानना है कि इससे कृषि क्षेत्र में भंडारण सुविधाओं और कोल्ड स्टोरेज क्षमताओं में बहुत तेजी से निवेश और वृद्धि होगी।

लेकिन जैसे ही कोरोनावायरस संकट खत्म होगा और व्यापार-व्यवसाय सही तरीके से चलने लगेंगे, बड़े व्यापारियों और खाद्य व्यवसाय में लगी कंपनियों द्वारा कृषि उत्पादों का बहुत बड़ी मात्रा में भंडारण कर लिया जाएगा। इसके बाद खाद्य पदार्थों की जमाखोरी और कालाबाजारी की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है। आम उपभोक्ता को इसकी भारी कीमत चुकानी होगी। कोरोनावायरस से पहले ही परेशान उपभोक्ताओं को सरकार ने भी लगे हाथ झटका देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है।

कई लोगों का मानना है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम को बदलकर कृषि पदार्थों की भंडारण सीमा को खत्म करने का एक छुपा हुआ मंतव्य भी है। जब कृषि उत्पादों को आवश्यक वस्तु अधिनियम से बाहर कर दिया जाएगा तो उनके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की सरकार की बाध्यता भी एक तरह से खत्म हो जाएगी। अब आप ऐसी परिस्थिति की कल्पना खुद कर सकते हैं, जिसमें किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं तय किया जाएगा। उनको अपनी फसलें व्यापारियों द्वारा तय मनमानी कीमत पर बेचने के लिये बाध्य होना पड़ेगा। उपभोक्ताओं के लिए भी यह बहुत ही कष्टदायक होगा। एक बार जब बड़ी कंपनियां ज्यादा से ज्यादा खाद्य पदार्थ भंडारित कर लेंगी तो उसकी अधिक से अधिक कीमत उपभोक्ताओं से वसूल करेंगी। इस तरह से देश की आम जनता को दोहरी मार झेलनी पड़ेगी। किसानों के नाम पर सरकार का यह कदम  पूरी तरह जनविरोधी और बड़ी व्यापारिक संस्थाओं को फायदा पहुंचाने का प्रयास है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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