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ग्राउंड रिपोर्टः जिस मुसहर बस्ती में 42 दिन पहले मना था मोदी के जन्मदिन का जश्न, उस पर ही चलवा दिया बुलडोज़र

"सबसे पहले हमारे बच्चों की पाठशाला पर बुलडोज़र गरजा। फिर झोपड़ी ढहाई जाने लगी। हमारे घरों का सारा सामान निकालकर बाहर फेंका जाने लगा। ठंड के बावजूद बस्ती के 62 लोग खुले आसमान के नीचे आ गए हैं।"
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बनारस की करसड़ा मुसहर बस्ती में बबूल के पेड़ नीचे जमीन पर लकड़ी के सहारे एक श्यामपट (ब्लैकबोर्ड) रखा है। उसके आगे मकानों के मलबे का ढेर पड़ा है। यह मलबा मुसहर समुदाय की उन झुग्गी-झोपड़ियों का है, जिन्हें ‘बनारस की सरकार’ ने 29 अक्टूबर 2021 को बुलडोज़र से ढहवा दिया था। अब उसी मलबे पर बैठकर मुसहरों के बच्चे क...ख....ग....पढ़ रहे हैं। कुछ रोज पहले तक यहां एक सामुदायिक पाठशाला चला करती थी।

मुसहर समुदाय के लोगों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए स्वयंसेवी संस्थाओं के लोग इनके बच्चों को पढ़ाया करते थे। राजातालाब की तहसीलदार मीनाक्षी पांडेय भारी पुलिस फोर्स लेकर पहुंचीं और मुसहरों की कई झोपड़ियों के साथ इस पाठशाला को भी ज़मींदोज़ करा दिया। जिस जमीन पर मुसहरों की बस्ती थी, वह सरकारी अभिलेखों में उनके कुनबे के तीन लोगों-अशोक, पिंटू और चमेली देवी के नाम दर्ज है। वाराणसी जिला प्रशासन ने यहां अटल आवासीय विद्यालय खोलने का निर्णय लिया है।

झोपड़ियों से बेदखल के जाने के बाद से लाल-पीली साड़ी पहने लालमनी की भूरी आंखों में एक सख़्त उदासी है। वह कहती हैं, " हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र में रहते हैं। हम सभी ने अपने बच्चों के साथ मिलकर इसी साल 17 सितंबर (42 दिन पहले) को अपनी बस्ती में पीएम मोदी का 71वां जन्मदिन धूमधाम से मनाया था। उत्सव में रोहनिया (वाराणसी) के विधायक सुरेंद्र नारायण सिंह भी आए थे। बड़ा जलसा आयोजित किया गया था। हमारे बच्चों को फल और मिठाइयां भी बांटी गईं। उस समय हमारी आंखों में चमक उभरी थी और सपना भी दिखा था कि हमारा कुनबा भी शायद समाज की मुख्य धारा में शामिल हो जाएगा, मगर सब कुछ स्वाहा हो गया। ‘बनारस की सरकार’ ने अरमानों और आशियानों पर बुलडोज़र चलाकर हमारे सपनों को चकनाचूर कर दिया।"

लालमनी बताती है, "जिस समय हमारी बस्ती में सामुदायिक पाठशाला खोली जा रही थी, उस वक्त फीता काटने खुद भाजपा विधायक सुरेंद्र नारायण सिंह आए थे। मकान दिलाने तक का वादा करके गए थे। मुसीबत जब हमारे गले पड़ी तो वो गायब हो गए। अब उनका मोबाइल फोन भी नहीं उठ रहा है।"

मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट के लिए चला बुलडोज़र

बनारस से चुनाव (मिर्जापुर) की ओर जाने वाली सड़क से करीब एक फर्लांग दूर मुसहरों की बस्ती में बच्चे और बूढ़े ढहाई गई झुग्गियों के मलबे पर उदास बैठे थे। भूखे बच्चों के लिए रोटी बैंक के लोग भोजन और कुछ अनाज लेकर आए थे। कुछ महिलाएं कड़ाही में चावल उबाल रही थीं। गुमसुम बैठे बस्ती के बच्चों की अतड़ियां भूख से सूख रही थीं। इन बच्चों को कड़ाही में पक रहे चावल का इंतजार था।

कई झोपड़ियों के साथ मुसहरों के बच्चों के स्कूल का कमरा भी इसलिए गिरा दिया गया, क्योंकि वहां अटल आवासीय विद्यालय बनाया जाना है। यह विद्यालय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट में शामिल है।

करसड़ा मुसहर बस्ती में 13 परिवारों के कुल 62 लोग रहते हैं। बस्ती के ज्यादातर पुरुष और महिलाएं मजदूरी करते हैं। कुछ महिलाएं कपड़ों की सिलाई और सूअर पालन करके अपनी आजीविका चलाया करती हैं। मुसहर बस्ती से कुछ कदम के फासले पर प्लास्टिक की कुर्सी लगाकर बैठे थे राजातालाब के एसडीएम उदयभान सिंह। इनके आसपास कई लेखपालों का घेरा था। कुछ कोलोनाइजर भी यहां जमे हुए थे। उन सभी लोगों पर नजर रखी जा रही थी, जो लोग करसड़ा मुसहर बस्ती की ओर आ-जा रहे थे। नायब तहसीलदार और कानूनगो भी आसपास टहल रहे थे। सरकारी मशीनरी इस कवायद में जुटी थी कि किसी भी तरह से मुसहरों को यहां से खदेड़ दिया जाए।

करसड़ा मुसहर बस्ती उत्तर प्रदेश के बनारस शहर से 15.3 किमी दूर है। इस बस्ती के पास है सनसिटी स्कूल और कई अन्य शिक्षण संस्थाएं। समाजसेवी वीरभद्र सिंह बताते हैं, "एक शिक्षण संस्था ने सरसड़ा में सरकार की खासी जमीन अवैध तरीके हथिया रखी है, लेकिन वाराणसी जिला प्रशासन उस पर हाथ डालने से दहल रहा है। अफसरों की नजर सबसे कमजोर तबके के उस मुसहर बस्ती पर टिकी हुई है जो राजस्व खतौनी में मट्ठल मुसहर के कुनबे के अशोक, पिंटू और चमेली के नाम दर्ज है। भूखंड का अराजी नंबर-821 और रकबा 1.0100 हेक्टेयर है। यहां एक पुराना कुआं भी है, जिससे पता चलता है कि मुसहर समुदाय के लोग लंबे समय से यहां रहते आ रहे हैं।

बबूल के झुरमुटों में चली गई जिंदगियां

मुसहर बस्ती में पहुंचने के लिए एक कच्ची पगडंडी है। बांस और सूखी घास से बनी अपनी झोपड़ी के सामने परिवार के एक छोटे से बच्चे को गोद में लिए 50 साल की सीता देवी के चेहरे से ही झलकता है कि उनका जीवन कितना मुश्किल भरा है। बबूल के पेड़ों के झुरमुटों के बीच मुसहर समुदाय के लोग यहां सालों से रहते आ रहे हैं। इनके घरों में आज तक कोई सरकारी सुविधा नहीं पहुंची है। इनके पास न इंदिरा आवास पहुंचा, न ही प्रधानमंत्री आवास। गरीबों के घरों तक राशन पहुंचाने का ढोल पीट रही भाजपा सरकार आज तक इन्हें मुफ्त में एक दाना अनाज तक नहीं दे सकी है।

कार्तिक और बलदेव बताते हैं, "हमारे पास न राशन कार्ड है और न ही वोटर कार्ड। प्रधान के पास जाते हैं तो भगा देते हैं। राजस्व और पंचायत विभाग का कोई कर्मचारी भी यहां नहीं आता। ग्राम पंचायत के अभिलेखों से भी हमारा नाम गायब है। हमारे बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिला तक नहीं मिलता। बच्चे सराकारी स्कूल में जाते हैं तो टीचर भगा देते हैं। पहली मर्तबा हमारे गांव में प्रधानमंत्री के जन्मदिन के नाम पर कोई जलसा हुआ। अब से पहले तो हम दूसरों के घरों का जूठन ही बटोरा करते थे।"

निष्ठुर निकली ‘बनारस की सरकार’

मुसहर बस्ती के बुद्धूराम और सदानंद बस्ती में बुलडोज़र चलाए जाने की घटना का जिक्र करते हुए रो पड़ते हैं। अपनी बेचारगी का इजहार करते हुए कहते हैं, " ‘बनारस की सरकार’ बहुत निष्ठुर निकली। हमारे लिए छत का कोई इंतजाम किया नहीं और तहसीलदार मीनाक्षी पांडेय को भेजकर हमारी झोपड़ियों पर बुलडोज़र चलवा दिया। हम रोते-बिलखते रहे। अफसरों के पैरों पर गिरकर गुहार लगाते रहे, मगर उनका दिल नहीं पसीजा। इलाकाई लेखपाल अवधेश सिंह के साथ आए करीब दर्जन भर लोगों ने हमारे घरों को ढहाना और तोड़फोड़ करना शुरू कर दिया। लाचारी में हमें अपनी झुग्गियों से सामान बाहर निकालना पड़ा। बारी-बारी से पांच घरों को जमींदोज कर दिया गया। उस पाठशाला पर भी बुलडोज़र चलावा दिया गया, जहां हमारे बच्चे पढ़ाई किया करते थे। अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए हम सभी ने मेहनत-मजदूरी करके पाठशाला के लिए एक कमरा बनाया था।"

मुसहर बस्ती के कार्तिक, बल्देव, बुद्धूराम, सदानंद और विजय कहते हैं, "सबसे पहले हमारे बच्चों की पाठशाला पर बुलडोज़र गरजा। फिर झोपड़ी ढहाई जाने लगी। हमारे घरों का सारा सामान निकालकर बाहर फेंका जाने लगा। ठंड के बावजूद बस्ती के 62 लोग खुले आसमान के नीचे आ गए हैं। हम अब कांटे वाले बबूल के पेड़ों के झुरमुटों में रहने को विवश हैं। समझ में यह नहीं आ रहा है आखिर हम क्या करें?"

बल्देव बताते हैं, " घटना के दिन न्याय मांगने के लिए बस्ती के लोग पैदल लंबा रास्ता नापते हुए रात 11 बजे डीएम कौशलराज शर्मा के कैंप कार्यालय के समीप पहुंचे। तभी एसडीएम उदयभान सिंह और उनके लोगों ने हमें रास्ते में जबरिया रोक लिया। लाठीचार्ज करने की धमकी दी। हमारे साथ जोर-जबरदस्ती की गई। हम सभी को जबरिया तीन टैम्पो में भरकर लौटा दिया गया। टैम्पो वाले हमें बीच रास्ते में ही उतारकर भाग निकले। आधी रात के बाद हम रोते-बिलखते बस्ती में  पहुंचे। चौबीस घंटे तक हमारे बच्चों को भोजन तक नसीब नहीं हुआ।"

मुसहर बस्ती में बच्चों को सिलाई सिखाने वाली मुनीब की पत्नी लालमनी हमें अपने घर के पास ले गईं। इनके पास सिलाई की दो मशीनें हैं जिसे झोपड़ी से निकालकर बाहर फेंक दिया गया है। अपने बक्से के टूटे हुए ताले के दिखाते हुए लालमनी कहती हैं, "बच्चे के इलाज के लिए हमने दस हजार रुपये रखे थे। ताला तोड़कर बक्से से पैसा निकाल लिया गया। हमारे कई सुअरों पीटकर अधमरा कर दिया गया। बुलडोज़र लेकर आए लोग हमारी एक बकरी भी उठा ले गए। हमारी झोपड़ियों को ढहाने से पहले बस्ती की लाइन काट दी गई। सारा सामान फेंक दिया गया। कुछ लोगों ने तोड़फोड़ की कार्रवाई का वीडियो बनाने की कोशिश की तो उन्हें पीटा गया।" पास खड़ी लक्षमीना, और नीलम ने बताया, "हमारे छह सुअर गायब हैं। हमारी बस्ती के बगल में पटेल, मौर्य, बिंद आदि समुदाय के लोग रहते हैं। इनकी बस्तियों में सरकारी जमीनें हैं, लेकिन हमारे कुनबे की जमीनें हमसे जबरिया छीनी जा रही हैं।" 

झनझनाते हाईटेंशन तारों के नीचे दी जमीन

मुसहरों की बस्ती पर बुलडोज़र चलाए जाने के मामले ने तूल पकड़ा तो प्रशासन ने उनके लिए करीब एक फर्लांग दूर करीब 20 फीट गड्ढे में 13 बिस्वा जमीन आवंटित करने की बात कही। जिस जगह जमीन का आवंटन किया गया है उसके ऊपर से बिजली की ट्रांसमिशन लाइनें गुजर रही हैं।

उच्चशक्ति वाले बिजली के तार हर समय झनझनाते रहते हैं। नियामानुसार इन तारों के नीचे न कोई आवास बनाया जा सकता है और न ही बस्ती बसाई जा सकती है। फिर भी प्रशासन मुसहरों को जानलेवा बिजली के तारों के नीचे बसाने पर तुला हुआ है। जिस स्थान पर मुसहरों को जमीन आवंटित की जा रही है उस इलाके में जानलावा सांपों की कालोनियां भी हैं।

अपनी काली करतूतों को छिपाने के लिए सरकारी मशीनरी यह कहकर मुसहरों के घरों का मलबा उठवा ले गई कि पहले ये मुसहर गड्ढे में वहीं रहा करते थे। प्रशासन ने मौके पर जमे बबूल के कई पेड़ों को कटवा दिया है। फिलहाल मुसहर समुदाय के लोगों ने जानलेवा गड्ढे में रहने से साफ मना कर दिया है।

अपनी जमीन पर बसी थी मुहसर बस्ती!

करसड़ा मुसहर बस्ती के पास डेरा जमाए राजातालाब के उप जिलाधिकारी उदयभान सिंह से पूछा गया कि दलितों को उजाड़ने से पहले छत क्यों नहीं दी गई?  जवाब आया, "सब के सब बाहरी हैं। गैर जिलों से आए हैं। इनका कहीं नाम तक नहीं है। अशोक, पिंटू और चमेली की जमीन कहां है? इसकी जांच कराई जा रही है। पता लगाने की कोशिश की जा रही है कि इनका नाम खतौनी में कैसे चढ़ गया?"

मुसहरों के मुताबिक पिछले डेढ़ दशक से वो अपने कुनबे के मट्ठल की जमीन पर रह रहे थे। पहले वो नाले के किनारे रहा करते थे। बारिश के दिनों में नाला फुंफकार मारता था तो उनकी झोपड़ियां पानी में डूब जाया करती थीं। तब उन्हें भागकर किसी पेड़ के नीचे ठौर तलाशना पड़ता था। घर डूब जाता था। मुसहर समुदाय की चमेली देवी की बेटी अमृती देवी को हम सभी का दुख देखा नहीं गया तो उन्होंने अपनी जमीन पर बसा दिया। राजातालाब के उप जिलाधिकारी उदयभान सिंह कई तरह के किस्से-कहानियां सुनाते हैं।

वह दावा करते हैं, "पहले यहां मुसहरों का कोई वजूद नहीं था। अटल आवासीय विद्यालय के लिए जगह छोड़कर चले जाएंगे तो हम इन्हें आवास के साथ-साथ पहचान-पत्र भी देंगे। राशन कार्ड मुहैया कराएंगे। तब इनके बच्चे सरकारी स्कूलों में भी पढ़ सकेंगे। अटल विद्यालय बन जाएगा तो उसमें भी दाखिला दिला देंगे।"

उदयभान यह भी बताते हैं, "हमने राजेश, राहुल, इंदू देवी, बुद्धू, भुलादेव, कार्तिक, विजय, सदानंद, शंकर, राम प्रसाद, मुनीब, नन्हकू और सोमारा देवी के नाम एक-एक बिस्वा जमीन आवंटित कर दी है। मुसहरों को दो महीने पहले ही बता दिया गया था कि जिस जमीन पर वह रह रहे हैं वह भूखंड अटल आवासीय विद्यालय के लिए श्रम विभाग के नाम आवंटित की जा चुकी है। अल्टीमेटम देने के बावजूद मुसहरों ने जमीन खाली नहीं की। लाचारी में हमें बुलडोज़र चलवाना पड़ा।"

उजाड़ने से पहले क्यों नहीं बसाया?

महादलित समुदाय के लोगों को छत देने से पहले क्यों उजाड़ दिया गया? इस सवाल पर उप जिलाधिकारी चुप्पी साध लेते हैं। वह इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं दे सके कि मुसहरों को हाईटेंशन तार के नीचे क्यों और किस नियम के तहत बसाया जा रहा है? उदयभान सिंह ने ‘न्यूजक्लिक’ से कहा, "मुसहरों की कुछ ही झोपड़ियों को नहीं ढहाया गया है। जिस गाटा संख्या 821 में मुसहर रह रहे थे उसमें 25 खतौनियां हैं। हम पता करने की कोशिश कर रहे हैं कि उसमें मुसहरों का नाम कैसे आ गया? "

मुसहर बस्ती में मौजूद दलित फाउंडेशन से जुड़े राजकुमार गुप्ता बताते हैं, " जिस जमीन पर मुसहर समुदाय के लोग रहते हैं, उसे सरकार ने साल 1976 में मट्ठल/मिठाई के नाम जमीन पट्टा किया था। चक बंदबस्त आया तो इनका नाम राजस्व अभिलेखों से गायब कर दिया गया। बाद में साल 1991 में अशोक, पिंटू, चमेली देवी का नाम फिर खतौनी में चढ़ गया। राजस्व विभाग कई दिनों से हेराफेरी करने और उच्चाधिकारियों को भरमाने में जुटा है। कई भू-माफिया भी लगे हैं जो मुसहरों को उजाड़कर भगा देना चाहते हैं। हम ऐसा कतई नहीं होने देंगे। मुसहर बस्ती के लोग कहीं नहीं जाएंगे। बनारस की सरकार अटल आवासीय विद्यालय के लिए कोई दूसरी जमीन ढूंढ ले। मुसहरों के नाम की जमीनें प्रशासन कैसे हथिया सकता है? इस मामले को हम कोर्ट में लेकर जाएंगे।"

दलित फाउंडेशन के फेलो अनिल कुमार कहते हैं, " बनारस के अफसर इतने निष्ठुर हैं कि वो गरीबों को कीड़ा-मकौड़ा समझ बैठे हैं। जहां चाहते हैं बुलडोज़र चलवा देते हैं। मुसहरों को अब सांप-बिच्छुओं की कालोनी में हाईटेंशन तार के नीचे बसाया जा रहा है। इनके कुनबे की निजी जमीनें छीनी जा रही हैं। करसड़ा इलाके में सैकड़ों बीघे सरकार जमीनों पर भूमाफियाओं का कब्जा है। ये जमीनें खुद राजस्व विभाग के अफसरों और लेखपालों की मिलीभगत से हथियाई गई हैं। इन जमीनों को मुक्त कराने में अफसरों की कोई दिलचस्पी नहीं है। बनारस में अब उन जातियों के लोग प्रशासन के निशाने पर हैं जिन्हें यूपी के सीएम योगी आदित्यानाथ भगवान राम का वंशज मानते रहे हैं। पीएम के जन्मदिन का जश्न मनाने आए भाजपा नेताओं ने यहां मुसहरों के लिए पक्का घर बनवाने का वादा किया और कुछ ही दिनों में उनकी बस्ती ही उजड़वा दी।"  

सुलगते सवालों पर प्रशासन निरुत्तर

अनिल अब यह सवाल कर रहे हैं, "अगर मुसहर समुदाय के लोग किसी और दुनिया से आए हैं जो इलाकाई विधायक बार-बार यहां क्यों आते थे? पीएम मोदी का जन्मदिन मनाने के लिए मुसहरों की यही बस्ती क्यों चुनी गई? 

अनिल कहते हैं, “इस बस्ती में रहने वाले लोगों को आज तक कोई सरकारी सुविधा नहीं मिली तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? मुसहरों की झोपड़ियों के साथ उनके बच्चों को पढ़ाने के लिए बनाई गई पाठशाला पर बुलडोज़र क्यों चलाया गया? एक पाठशाला को उजाड़कर दूसरी पाठशाला बनाने का मतलब क्या है? मुसहरों को इंसान न मानने का जुर्म करने वालों के खिलाफ योगी सरकार क्या कोई कार्रवाई करेगी? " 

 करसड़ा की मुसहर बस्ती के लोग बताते हैं कि मट्ठल मुसहर के परिवार की अमृती देवी ने 13 लोगों को रहने के लिए अपनी जमीन दी थी। पहले वह खुद यहीं रहा करती थी और शादी के बाद चंदौली अपने ससुराल चली गईं। तभी से 62 मुसहरों की आबादी यहां जीवन-यापन कर रही थी। मुसहरों की बस्ती पर बुलडोज़र चलाए जाने के मामले के तूल पकड़ने के बाद प्रशासन सकते में है। राजस्व वि भाग के अफसर तरह-तरह की कहानियां गढ़ रहे हैं।

मुसहरों की बस्ती को उजाड़े जाने के बाद उनके सामने भरण-पोषण का संकट पैदा हो गया है। रीता, राहुल, मुनीब, धर्मू आदि ने जनजाति आयोग से न्याय की गुहार लगाई है। स्वयंसेवी संस्था पीवीसीएचआर के कन्वीनर लेनिन रघुवंशी ने राष्ट्रीय मानवाधिकार  आयोग के चेयरमैन के पास अखबारों की कटिंग के साथ शिकायत भेजकर सख्त एक्शन की मांग की है।

करसड़ा की जिस मुसहर बस्ती में अटल आवासीय विद्यालय का निर्माण किया जाना है, वहां पहले "अपनी पाठशाला" नाम से स्कूल चलाया जा रहा था। मुसहरों के बच्चों को शिक्षित करने का काम कर रही थी दिवि वेलफेयर सोसाइटी।

संस्था के सचिव वीरभद्र सिंह कहते हैं, "मुसहर बस्ती के बच्चों से हम सभी का गहरा रिश्ता जुड़ गया था। 27 बच्चों को पढ़ाया जा रहा था। राधेश्याम नामक एक दिव्यांग टीचर को नियुक्त किया गया था। बरेली के एक विश्वविद्यालय में कुलपति रहे जगदीश राय और झारखंड के प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रदीप कुमार मिश्र भी इन बच्चों के लिए पाठ्य पुस्तकें, बैग वगैरह भेजते थे। पिछले तीन साल से यह विद्यालय लगातार चल रहा था। राजातालाब की तहसीलदार मीनाक्षी पांडेय ने सबसे पहले अपनी पाठशाला पर बुलडोज़र चलवाया। इससे पहले वह कई बार मुसहर बस्ती में पहुंचकर अनपढ़ मुसहरों को धमका चुकी थीं। मुसहरों के लिए जमीन आवंटन का कागज बैकडेट में बनवाया गया है।"

रोटी बैंक दे रहा भोजन

मुसहरों के सामने फिलहाल भुखमरी का संकट है। रोटी बैंक के रोशन पटेल और अनूप कुमार मुसहर परिवारों को दोनों वक्त भोजन मुहैया कर रहे हैं। होप फाउंडेशन ने भी राशन भेजा है। समाजवादी पार्टी ने आंटा, चावल और आलू भेजा है। बड़ा सवाल यह है कि सामाजिक संस्थाएं आखिर कब तक मुसहरों को भोजन मुहैया कराएंगी?

मुसहर बस्ती का दौरा करने के बाद सपा के वरिष्ठ नेता मनोज राय धूपचंडी, सुजीत यादव ने कहा, "मूलतः भूमिहीन रहे इस समुदाय के लोग दशकों से शिक्षा, पोषण और पक्के घरों जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहे हैं। योगी सरकार की यह कैसी नीति है कि एक ओर वनवासियों को रामभक्त कहते हैं और दूसरी ओर उनकी बस्ती पर बुलडोज़र चलवा देते हैं। गुज़रे सात-आठ दशकों में वक़्त का पहिया तो आगे बढ़ गया, लेकिन मुसहर बस्ती की लालमनी, रीता, इंदू की ज़िंदगी वहीं खड़ी है। रोज़ कमाने खाने वाले लोग खुले आसमान के नीचे आखिर कब तक जीवन गुजारेंगे? इन्हें तो सरकारी राशन भी नहीं मिलता। वह राशन भी जिसका ढोल योगी-मोदी सरकार महीनों से पीट रही है।"

मुसहरों ने पूछा-कहां पढ़ेंगे हमारे बच्चे?

 शहरी बनारस से करसड़ा मुसहर बस्ती की तस्वीर बहुत ज्यादा भयावह और निराशाजनक है। देश-दुनिया में बनारस चर्चा के केंद्र में है इसलिए यहां जिक्र करना जरूरी है। करसड़ा मुसहर बस्ती के पास से जो सड़क गुजरती है वो चुनार (मिर्जापुर) को जोड़ती है। महादलितों की इस बस्ती का रास्ता पूछेंगे तो कुछ लोग इन्हें मूस खाने वाला कहेंगे। कोई रसूखदार मिल जाएगा तो जरूर टोकेगा, कहां जंगल-झाड़ में जा रहे हैं?

जवाब देने से पहले ऐसा भी बोलेगा जरूर मीडिया से होंगे। चुनाव आ रहा है न। ऊबड़खाबड़ रास्ते से इस बस्ती में पहुंचेंगे तो सामने मुसहरों के ढहाए गए घरों का मलबा, उनकी टूटी-फूटी चारपाई, जहां-तहां विखरे टिन व बक्से और जाड़े में रात काटने के लिए गुदड़ियां दिखेंगी। यह सब देखकर खराब लग सकता है, लेकिन ज्यादा आश्चर्य तब होता है जब महज एक किमी की दूरी पर सवर्ण और पिछड़ों की  बस्तियों में साफ-सफाई और पक्के खड़ंजे नजर आते हैं।

पत्तों को तोड़कर पत्तलें बनाने वाले मुसहरों का परंपरागत पेशा ईंट के भट्ठों में काम करना भी है। साल में करीब छह से आठ महीने यह लोग बाहर ही रहते हैं। अभी हम कुछ औरतों से बात कर ही रहे थे कि पीछे से करीब राहुल आकर सवाल करते हैं, "अब हमारे बच्चे कहां पढ़ेंगे? हम भी चाहते थे कि हमारे बच्चे भी सरकारी स्कूलों में जाएं। नए और पुराने प्रधान के यहां कई बार मिन्नते करने गए। हर बार यही जवाब मिलता रहा कि बच्चों को पढ़ाकर क्या कलेक्टर बनाओगे? दोबारा पूछा कि आप लोग सरकारी दफ्तर क्यों नहीं जाते? जवाब प्रत्याशित ही था। साहब, हमारे लिए तो प्रधान ही ‘सरकार’ हैं। यह पूछने पर कि क्या कभी प्रधान इस बस्ती में आते हैं? जवाब मिला, नहीं! वह कैसे हमारे दरवाजे आएंगे? हम जाते हैं। पर कुछ सुनते ही नहीं प्रधान जी।"

अब जो सवाल पूछा शायद वह केवल अपनी तसल्ली के लिए ही पूछा था मैंने, क्योंकि अब तक उनका हाल देखकर अंदाजा हो गया था कि जवाब क्या मिलेगा? आप लोगों को शादी ब्याह में बुलाते हैं आस-पास के लोग। हां, जूठे पत्तल बीनने के लिए जाते हैं। पत्तल तो आप से ही खरीदते होंगे इलाके के लोग? जवाब मिला-हां। तो क्या आप के छुए पत्तल में खाना खाते हैं? जवाब मिला-गांव ही नहीं, पूरा बनारस खाता है। बस हमारा छुआ नहीं खाते...। इतना कहते-कहते आटो रिक्शा चलाने वाले एक लड़के के मुंह से गाली फूटने लगी। गुस्सा, खीझ उसकी आवाज में साफ थी। पास बैठी इंदू देवी ने गुस्से में कहा हमारा छुआ दलित भी नहीं खाते, क्योंकि हम दलित नहीं महादलित हैं।"

बनारस के ज्यादातर गांवों में दलितों की बस्तियों की हालत करीब-करीब ऐसी ही है। अगड़े और पिछड़ों की बस्तियों का यह अंतर गांवों में साफ दिखाई देता है। मीडिया में आ रहीं खबरों से लगा कि सरकारी मशीनरी सिर्फ इसलिए करसड़ा के मुसहर बस्ती के पीछे पड़ी है क्योंकि वहां पीएम नरेंद्र मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट खड़ा किया जाना है। ऐसी स्थिति में विकास बखान करने वाले मोदी के लिए इन महादलितों को विकास की मुख्यधारा से जोड़ना एक चुनौती होगा। देखना होगा कि मोदी के विकास की टॉर्च की रोशनी इन महादलितों पर भी पड़ती है या छिटककर सिर्फ समाज के मजबूत तबकों को ही आबाद करती रहेगी।

(विजय विनीत बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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