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गुजरात चुनाव: ‘जो जीता वही सिकंदर’ के बरक्स कुछ ज़रूरी सवाल और सबक़

गुजरात की 182 विधानसभा सीटों को जीतने के लिए जिस तरह का चुनाव प्रचार किया गया, उन पर बात होनी बेहद ज़रूरी है।
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Image courtesy : Moneycontrol

बात बोलेगी

भारतीय लोकतंत्र में एक बड़े सच के तौर पर यह तथ्य स्थापित हो गया है कि कोई पार्टी-कोई भी नेता कितना बड़ा भी गुनाह किए रहे, जनविरोधी फैसला कर ले, लेकिन अगर वह चुनावी जीत हासिल कर लेता है तो सब कुछ माफ। इसे बहुत ही खतरनाक ढंग से नए भारत का नया नॉर्मल बनाने का काम किया गया है। दिल्ली में नगर निगम चुनावों के नतीजों पर मैं यहां बात नहीं कर रही, लेकिन यह नया नॉर्मल देश के तमाम चुनावों पर लागू होता है। यही वजह है कि दिल्ली में एमसीडी चुनावों को जीतने के लिए भाजपा ने सारे घोड़े दौड़ा दिये और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही प्रचार का सबसे बड़ा चेहरा बना दिया। और इसका असर भी दिखाई दिया। एमसीडी में आम आदमी पार्टी (आप) ने  जीत हासिल की, लेकिन भाजपा 15 साल के शासन के बाद भी बहुत खराब स्थिति में नहीं रही।

वहीं, अगर बात सिर्फ गुजरात विधानसभा के लिए हुए चुनावों के प्रचार-प्रसार और उछाले गये मुद्दों पर हो तो पता चलता है कि किस तरह से मतदाताओं के सॉफ्टवेयर को प्रभावित किया जा रहा है। गुजरात की 182 विधानसभा सीटों को जीतने के लिए जिस तरह का चुनाव प्रचार किया गया, उन पर बात होनी बेहद ज़रूरी है।

गुजरात चुनावों के दौरान मैं जिन-जिन इलाकों में जा पाई, जितने लोगों से मिल पाई, उससे मुझे इस बात पर लगातार हैरानी ही होती रही कि आखिर 1994 से भारतीय जनता पार्टी के एकाधिपत्य में बैठे इस राज्य में आज भी इतने तीखे विरोध वाले स्वर कैसे जिंदा है। वे कौन लोग हैं जो 2002 के मुसलमानों के कत्लेआम के बाद भी, 2007,2012, 2017 के विधानसभा चुनावों में गैर भाजपा खाते में मतदान करते रहे। वे क्या मुद्दे थे, जिन्होंने इन्हें भारतीय जनता पार्टी के नफ़रती मोहपाश से दूर रखा। दरअसल, इन मुद्दों और उस जज्बे की तलाश से कई बातें पता चल सकती हैं। ऐसा मुझे इसलिए लगा क्योंकि जो लोग गुजरात से बाहर हैं, जो लोग पूरी तरह से टीवी न्यूज़ चैनलों-राष्ट्रीय अखबारों की खबरों पर ही निर्भर हैं, उनके लिए गुजरात मतलब मोदी और भाजपा है। उनके दिमाग में यह छवि जड़ दी गई है कि गुजरात के तथाकथित विकास के मॉडल पर ही सवारी करके नरेंद्र भाई दामोदर मोदी ने राज्य के मुख्यमंत्री से देश के प्रधानमंत्री तक का सफर तय किया है।

मेरा मानना है कि ऐसे तमाम लोगों को कुछ दिन गुजरात में गुजारने चाहिए। यहां भक्तों की तो निश्चित तौर पर कमी नहीं है, लेकिन साथ ही भक्ति पर सवाल उठाने वाले लोग भी जिंदा हैं। इससे भी बड़ी बात यह कि गुजरात जाकर ही आपको अंदाजा होगा कि आखिर जब देश में धर्मनिरपेक्षता का ऐलान करने वाला संविधान लागू है, तब उसके नाक के नीचे कैसे हिंदू राष्ट्र पल्लवित-पुष्पित होता है, कैसे 2002 में हजारों मुसलमानों का कत्ल करके सत्ता की सीमेंट इतनी मजबूत होती है कि आगे के कई दशक सेट हो जाते हैं। यहां आकर पता चलता है कि 2014 के बाद से भारत का जो नया नॉर्मल बना है—उसके लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कितनी गहरी मशक्कत है। किस तरह से नफरत को इस तरह से सींचा गया कि वही नया नॉर्मल बन गया। कैसे हर समय एक सीना ताने गौरव की दम घोटूं छांव में भी बेरोजगार, अर्ध शिक्षित नौजवानों की फौज डांडिया पर थिरकने के साथ-साथ मुसलमानों को चुन-चुन कर पीटने में उत्तेजना के चरम को महसूस करती है।

गुजरात किस तरह से पूरे मुल्क में पसर रहा है, पसर गया है—इसे ज़रूर देखना-समझना चाहिए। नहीं तो हम अपने वर्तमान की धड़कती नब्ज को नहीं पकड़ पाएंगे।

हम नहीं समझ पाएंगे कि आखिर किस तरह से गुजरात से 900 किलोमीटर दूर देश की राजधानी दिल्ली में हुई अपराध की बर्बर घटना श्रद्धा-आफताब कांड को बेहद सुनियोजित ढंग से चुनावी मुद्दा बनाया गया। इसे जिस तरह से असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वासरमा ने लगातार मुद्दा बनाया और ऐलान किया कि अगर मोदी जी नहीं आए तो हर शहर में आफताब पैदा होगा। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गुजरात में तमाम सभाओं में बुल्डोजर लेकर अल्पसंख्यकों पर तो नफरत उगली ही, साथ ही दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को आतंकवादियों से जोड़ा...और भी न जाने क्या-क्या। भाजपा सांसद-सिने अभिनेता परेश रावल ने आप पर हमला बोलते हुए कहा कि अगर ये आ गये तो बांग्लादेशी -रोहिंग्या आ जाएंगे और बगल में मछली बनाएंगे—फिर क्या होगा। अब आप सोचिए कि ऐसी क्यों नफ़रत क्यों परोसी गई!

नफरत का राष्ट्रीय स्तर पर एजेंडा, गुजरात 2022 के चुनावों में देश के गृहमंत्री अमित शाह ने वर्ष 2002 में हुए मुसलमानों के कत्लेआम को एक मुद्दा बनाया और इसे एक बड़ी विजय के तौर पर स्थापित किया—ऐलान किया कि इसके बाद गुजरात में स्थायी शांति हो गई।

मैं यहां विस्तार में इन तमाम नफ़रती प्रचार को इस लिए रख रही हूं क्योंकि इससे यह पता चलता है कि किस तरह से पूरे चुनाव के मूड को निर्धारित किया गया। ये सारी चीजें जमीन पर कैसे उतरीं—इसे भी समझना बहुत दिलचस्प है। अहमदाबाद हो-गांधीनगर हो, या फिर सूरत-डांग-व्यारा-बनासकाठां जिले में मुद्दे आफताब, कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाना, 2002 में मुसलमानों को सिखाया गया ‘सबक’, विश्वगुरू की भूमिका में देश को पहुंचाने में मोदीजी की भूमिका, गुजराती गौरव आदि ही प्रमुख बने हुए थे। उन तमाम इलाकों में जहां आप का दबदबा था, वहां असल विकास, शिक्षा, फ्री बिजली-पानी-अस्पताल आदि मुद्दे के रूप में दर्ज हुए। आदिवासी-ग्रामीण बहुल विधानसभाओं में जन-जंगल-जमीन, बड़ी परियोजनाओं के खिलाफ गुस्सा आदि मुखर स्वर में दर्ज हुए।

बड़े पैमाने पर दिखाई दिया कि जिन सवालों को भाजपा नेता अपनी सभा में उठाते रहे, वे पहले से जमीन तक पहुंचे हुए थे। इस मामले में गुजरात सहित पूरे देश की ‘वॉट्सअप यूनिवर्सिटी’ का जो योगदान है, वह अलग अध्ययन का विषय है। यह जो सीधा कनेक्ट है, वह चुनावों की दशा-दिशा निर्धारित करता है। ऐसे में जो जमीनी सवाल हैं—चाहे वह मोरबी पुल हादसे से जुड़ा भ्रष्टाचार का पर्दाफाश हो, गैस सिलेंडर की कीमत में लगी आग हो, महंगा पेट्रोल-डीजल हो, बेरोजगारी का सवाल हो या फिर जल-जंगल-जमीन के मुद्दे –वे सब नेपथ्य में चले जाते हैं। मतदाताओं के सॉफ्टवेयर को कैसे बदला जा सकता है—इसका सबक गुजरात चुनाव से मिलता है। 

(भाषा सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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