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गुजरात चुनाव: 'नज़रअंदाज़' और 'दरकिनार' कर दिए गए मुस्लिम, संघर्ष से जिंदगी बेहतर बनाने का प्रयास कर रहे

जनसंख्या प्रतिशत के आधार पर 182 सदस्यों वाली विधानसभा में मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व काफ़ी कम है।
गुजरात चुनाव: 'नज़रअंदाज़' और 'दरकिनार' कर दिए गए मुस्लिम, संघर्ष से जिंदगी बेहतर बनाने का प्रयास कर रहे
50 वर्षीय इम्तियाज़ अहमद हुसैन क़ुरैशी जिन्होंने आर्थिक रूप से बेहतर होने के लिए हर तरह की परेशानियों का मुक़ाबला किया।

अहमदाबाद: जारी विधानसभा चुनाव प्रचार के बीच केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 2002 के गुजरात दंगों का मुद्दा उठाया, जिस पर सभी हलक़ों से तीखी प्रतिक्रिया सामने आई। लेकिन, इस हिंसा के शिकार मुसलमानों ने काफ़ी हद तक ख़ामोशी अख्तियार की है। ऐसा लगता है कि उन्होंने 'नए भारत के राजनीतिक भाषा' के साथ सामंजस्य स्थापित कर लिया है, यहां तक कि वर्षों से या कहें दशकों से सांप्रदायिक हिंसा के कड़वे अनुभवों ने उन्हें डरा रखा है, लेकिन उन्हें राज्य में उनकी "राजनीतिक रूप से कमज़ोर स्थिति" का एहसास तो कराया है।

उनकी क़ानूनी लड़ाई में कई पीड़ितों का पक्ष रखने वाले एडवोकेट ओवेस मलिक ने कहा कि उन्हें सामाजिक रूप से अलग थलग कर दिया गया है, राजनीतिक रूप से त्याग दिया गया है और आर्थिक रूप से दरकिनार कर दिया गया है।

उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया, “मुसलमानों ने साफ तौर से इस सच्चाई के साथ सामंजस्य स्थापित किया है कि उन्हें राजनीति के बहुसंख्यक ढांचे में राजनीतिक रूप से महत्वहीन बना दिया गया है, लेकिन वे अपनी बुनियादी ज़रूरतों को आसानी से अनदेखा नहीं कर सकते हैं। इसलिए वे प्रयास कर रहे हैं और उनमें से कुछ संपन्न भी हो रहे हैं।"

ऐसे ही एक व्यक्ति हैं 50 वर्षीय इम्तियाज़ अहमद हुसैन कुरैशी हैं जिन्होंने आर्थिक रूप से बेहतर होने के लिए सभी परेशानियों का मुक़ाबला किया। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद 1993 की हिंसा में और फिर 2002के सांप्रदायिक दंगों में जिनका कारोबार तबाह हो गया था, उन्होंने बेहतर होने के लिए बार-बार उल्लेखनीय साहस और दृढ़ विश्वास दिखाया है।

ऐसा नहीं है कि कुरैशी यहां से निकल गए हैं और उन सभी परेशानियों को भूल गए हैं जिनसे वे और उनके क़रीबी लोग गुज़रे थे। लेकिन उनका कहना है कि वह "दंगों के दंश" के साथ नहीं जी सकते। सभी बाधाओं से लड़ते हुए, वह बार-बार अपना क़िस्मत बनाने के लिए तबाहियों से उपर उठे।

घटनाओं को याद करते हुए कुरैशी ने अपनी आपबीती सुनाई।

वह न्यूज़क्लिक से बताते हैं, “मेरे पिता की नरोदागम (हमारे मूल स्थान) से 12 किलोमीटर दूर नारोल में एक मैनुअल कपड़ा छपाई का कारखाना था। 13 जनवरी, 1992 को अयोध्या (उत्तर प्रदेश) में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद तनाव बढ़ने पर हमारे क्षेत्र में कर्फ्यू लगा दिया गया था। यह लगभग 7:30-8:00 बजे शाम का समय था। पुलिस इलाक़े में गश्त कर रही थी। उनके जाते ही हमारे इलाक़े में एक भीड़ जमा हो गई और एक मस्जिद पर पथराव शुरू कर दिया। इससे पहले कि मामला भड़कता, छह पुलिसकर्मी वहां पहुंच गए और स्थिति को नियंत्रित किया। बदमाशों का पीछा किया गया।"

शोर-शराबे के बीच उनके पिता जो उस समय 60 की उम्र पार कर चुके थे, वे घबरा गए और उन्हें दमा का दौरा पड़ा जो इतना गंभीर था कि उनका इन्हेलर भी उन्हें आराम नहीं पहुंचा रहा था। चूंकि इलाक़े में कर्फ्यू लगा हुआ था, इसलिए उन्हें अस्पताल ले जाना मुश्किल था।

क़ुरैशी ने कहा कि वह किसी तरह अपने पिता को अपने परिवार के डॉक्टर के पास ले गए, लेकिन इससे कोई फ़ायदा नहीं हुआ क्योंकि उन्हें लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर रखने के लिए अस्पताल में भर्ती करने की ज़रूरत थी।

उन्होंने कहा, “हमने रात 11:30 बजे एंबुलेंस को फोन किया, लेकिन यह सुबह क़रीब 4 बजे पहुंचा। जब तक उन्हें भर्ती कराया गया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वह पहले ही कोमा में चले गए थे और 16 जनवरी को (अस्पताल में भर्ती होने के तीन दिन बाद) उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।

इस तरह छह लोगों के परिवार ने अपना एकमात्र कमाने वाला व्यक्ति खो दिया। क़ुरैशी उस समय बीए द्वितीय वर्ष के छात्र थे। उनके बड़े भाई ग्रेजुएशन के अंतिम वर्ष में थे। उनके दो छोटे भाई और एक बहन 10वीं और 12वीं कक्षा में थे।

वे कहते हैं, “कर्फ्यू लागू था क्योंकि स्थिति तनावपूर्ण बनी हुई थी। यह परीक्षा का समय था, लेकिन मैं पेपर नहीं लिख सका क्योंकि मेरी मां ने मुझे नरोदागाम से 17 किलोमीटर दूर कांकरिया में परीक्षा केंद्र में जाने नहीं दिया।”

उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और परिवार को फिर से खड़ा करने की चुनौती को स्वीकार किया। लेकिन न तो उन्हें और न ही उनके भाई को फैब्रिक प्रिंटिंग की कुछ जानकारी थी। विचार-विमर्श के बाद, उन्होंने एक आधुनिक स्टेशनरी प्रिंटिंग प्लांट स्थापित किया। दो साल में उनका कारोबार ख़ूब फला-फूला।

वे बेहद मायूसी से बताते हैं, "लेकिन ये सफलता थोड़े समय के लिए थी। 2002 के दंगों ने हम पर और गहरा ज़ख़्म दिया- मेरी फ़ैक्ट्री राख में तब्दील हो गई और हमारा घर मलबे में तब्दील हो गया।”

डरावनी, बेबसी की कहानी

हिंसा के फैलने की बात करते हुए क़ुरैशी कहते हैं, वह काम से घर लौटे थे और अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ खाना खा रहे थे।

उन्होंने कहा, “मेरी बेटी छह साल की थी और बेटा चार साल का था। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं उन्हें उनके नाना के घर ले जाऊं क्योंकि अगले दिन के लिए पूरी तरह बंद का आह्वान किया गया था। मुझे इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी, लेकिन मैंने उन्हें आश्वासन दिया कि मैं ले जाउंगा। रात के खाने के बाद, मैं बंद के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए निकला। यह बंद वीएचपी (विश्व हिंदू परिषद) द्वारा बुलाया गया था।”

गोधरा ट्रेन आगजनी की घटना के विरोध में लोगों से एक दिन के लिए अपने व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद रखने के लिए कहा गया और इसके पोस्टर व बैनर हर जगह देखे जा सकते थे।

27 फरवरी 2002 की सुबह अयोध्या से लौट रहे 59 हिंदू तीर्थयात्रियों और कारसेवकों (स्वयंसेवकों) की गोधरा रेलवे स्टेशन के पास साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन में आग लगने से मौत हो गई थी।

1 मार्च 2011 को अहमदाबाद की एक विशेष अदालत ने 31 मुसलमानों को हत्या और अपराध की साजिश रचने के लिए दोषी ठहराया, जबकि मुख्य आरोपी मौलवी उमरजी सहित 63 को बरी कर दिया।

गुजरात उच्च न्यायालय ने सज़ा को बरक़रार रखा, लेकिन उनमें से 11 को दी गई मौत की सज़ा को 9 अक्टूबर, 2017 को आजीवन कारावास में बदल दिया।

गोधरा की घटना को बाद में हुए गुजरात में सांप्रदायिक दंगों के शुरुआती कड़ी के रूप में माना जाता है, जिसके परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में लोगों की जान चली गई, संपत्ति का नुक़सान हुआ और लोगों को बेघर होना पड़ा। हताहतों की संख्या आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़ 790 मुसलमान और 254 हिंदू से लेकर 2,000 तक है।

क़ुरैशी अगले दिन हुई घटनाओं का ज़िक्र करते हुए कहते हैं, “मैं हालात का जायज़ा लेने के लिए सुबह निकला था। मैं आश्चर्य में पड़ गया, हमारे मोहल्ले (नरोदागाम के मुस्लिम मोहल्ले) के बाहर भीड़ जमा हो गई थी, मानो वे हम पर हमला करने के लिए आगे बढ़ने का इंतज़ार कर रहे हों।”

उन्होंने कहा, "हर जगह अराजकता थी"। उन्होंने आगे कहा कि पुरुष और महिलाएं अपने बच्चों के साथ सुरक्षित स्थान की तलाश कर रहे थे।

उन्होंने कहा कि सुबह क़रीब 10 बजे भीड़ बढ़ गई थी और फिर उग्र हो गई और पथराव शुरू हो गया। उन्होंने कहा, “दंगाइयों को प्रवेश न करने देने के लिए युवा क्षेत्र के सभी इंट्री गेट को रोक कर खड़े थे। उन्होंने अपना बचाव के लिए जवाब में ईंट फेंके।'

इसके बाद आगजनी और मारपीट शुरू हो गया।

क़ुरैशी ने कहा, “वे गुंडे, जिन्हें कोई डर नहीं था, मोहल्ले की सीमा पर मुसलमानों के घरों में घुसने लगे थे और उनमें आग लगा रहे थे। अंदर पाए गए लोगों को मार डाला गया, काट दिया गया और जलाकर मार डाला गया।”

उन्होंने आगे कहा, “मैं डर गया था और लोगों के बचने के लिए एक वैकल्पिक मार्ग की तलाश शुरू कर दी थी क्योंकि इलाक़े के मुख्य प्रवेश द्वार उनके नियंत्रण में थे। मुस्लिम मोहल्ले की महिलाओं ने मुहल्ले के बीचों-बीच स्थित कुंभार वास के एक घर में शरण ली थी। मुझे नहीं पता था कि उस घर में मेरी पत्नी और बच्चे भी हैं।'

पलायन

क़ुरैशी ने कहा कि बचाव के लिए नरोदा पुलिस स्टेशन तक ले जाने वाले सुरक्षित रास्ते की तलाश में वह उस घर तक पहुंचने में कामयाब रहे जहां महिलाएं छिपी हुई थीं। ये पुलिस स्टेशन उनके घर से ज़्यादा दूर नहीं था।

उन्होंने कहा, “मैंने 70-80 लोगों के एक समूह को अपनी ओर बढ़ते हुए देखा, हम (मैं और तीन अन्य लोग) छिप गए। जब वे उस घर के पास रुके जहां महिलाओं ने शरण ली थी, तो मैंने उनका रास्ता रोक दिया था।" उन्होंने कहा, "अनुमान लगाएं कौन उनका नेतृत्व कर रहा था?"

उन्होंने कहा कि यह कोई और नहीं बल्कि उनका बचपन का दोस्त (बकुल व्यास) था, जिसके एक हाथ में पेट्रोल का डिब्बा और दूसरे हाथ में तलवार थी।

अपनी आंखों पर विश्वास न करते हुए, मैंने पूछा, ‘बकुल यार, तू सु करे छे (बकुल, मेरे दोस्त, तुम क्या कर रहे हो)?’”

क़ुरैशी ने कहाउसका जवाब था, "कोई मिया नी चोरवाना नाथी (किसी भी मुस्लिम को बख्शा नहीं जाएगा)"

उन्होंने उस ख़ौफ़ का ज़िक्र करते हुए कहा, “मैं हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ा हो गया, हम उससे बख्शने की गुहार लगा रहे थे। मैं उनके पैरों पर गिर पड़ा। मेरा उद्देश्य उन्हें घर (जहां महिलाएं छिपी हुई थीं) से विचलित करना था। मेरे आंसुओं ने शायद मेरे लिए कुछ काम किया, क्योंकि बकुल ने अपने आदमियों को दूर जाने के लिए कहा और वे सभी दूसरी गली में चले गए। हालात का फ़ायदा उठाते हुए, मैंने महिलाओं को बाहर आने और भागने के लिए गुप्त रास्ते से अपने साथ चलने के लिए कहा। जब महिलाओं ने मुझे पहचान लिया तो वे बाहर निकलीं और हम सभी पुलिस स्टेशन पहुंचे, जहां से हमें अहमदाबाद शहर के शाह आलम राहत शिविर (जिसे अब सिटीजन नगर के रूप में जाना जाता है) भेजा गया था।”

क़ुरैशी ने कहा कि, जब वे थाने की तरफ़ जा रहे थे तो उन्होंने एक युवती (मदीना) को देखा, जो दंगाइयों के घर में घुसने के बाद वह ऊपर की मंज़िल पर चली गई थी और इन दंगाइयों ने उसके परिवार में सभी (उसके पति, उसके दो भाइयों और उनकी बीमार मां) को मार डाला और घर में आग लगा दी थी।

वे कहते हैं, “तीन आदमियों द्वारा पीछा किए जाने के बाद वह एक छत से दूसरी छत पर कूद कर भाग रही थी। वह तब पकड़ी गई जब वह लोहे के चदरे वाली छत पर कूद गई। उन्होंने उसे तीन बार चाकू मारा। हमने उसे बचाया और पुलिस स्टेशन ले गए जहां से उसे अस्पताल भेजा गया।” उन्होंने आगे कहा कि अब उसकी दूसरी शादी हो गई है।

उन्होंने कहा कि उन्होंने इधर उधर कई जलती हुई लाशें बिखरी हुई देखीं। उनमें से दो बाप-बेटे थे, जिन्हें एक ट्रक की रबर ट्यूब में बांधकर जला दिया गया था।

राहत शिविर से व्यापारिक प्रतिष्ठान तक

क़ुरैशी ने कहा कि जब वह राहत शिविर में अपने परिवार से मिले तो वह एक बच्चे की तरह रोए। उनकी पत्नी ने उन्हें ढ़ाढ़स दिया और उसे उम्मीद रखने के लिए कहा।

आज क़ुरैशी के पास अहमदाबाद के मध्य में एक बड़ा प्रिंटिंग हाउस है जहां परिवार का अपना आवासीय और व्यावसायिक जगह है। वह बड़े व्यवसायी हैं। उनके ग्राहक सभी राजनीतिक दलों से हैं।

ये कैसे हुआ? क़ुरैशी ने कहा कि आमदनी के लिए कुछ काम शुरू करने के लिए एक एनजीओ से 10,000 रुपये की वित्तीय सहायता मिली थी। उन्होंने राहत शिविर के क़रीब एक पान की दुकान खोली और कुछ ही महीनों में कुल पूंजी को बढ़ाकर 70,000 रुपये कर दिया।

उन्होंने तीन साल बाद कारोबार बंद कर दिया और नौकरी की तलाश शुरू कर दी।

उन्होंने कहा, “दंगों के बाद बाज़ार दो साल तक बर्बाद रहा। नौकरी नहीं थी। इसके अलावा दोनों समुदायों के बीच दुश्मनी भी थी। किसी तरह मुझे एक प्रिंटिंग प्रेस में नौकरी मिल गई। मैं महेंद्रभाई सूर्यवल्ली रघुवंशी के स्वामित्व वाली एक फोटोस्टेट की दुकान से रंगीन फोटोकॉपी निकालता था। वे आज मेरे बिजनेस पार्टनर हैं। हमने कुछ बड़ा प्लान किया और आख़िरकार बड़े पैमाने पर प्रिंटिंग प्रेस बैठाने का फ़ैसला किया।

क़ुरैशी ने क़रीब 1.5 लाख रुपये का निवेश किया। बाक़ी कुल 7 लाख रुपये का निवेश उनके पार्टनर ने किया। उन्होंने शुरूआती पैसा लगाया और बैंक ऋण हासिल किया। इस तरह 2008 में प्रिंटिंग प्रेस लगाया गया। आज वह शहर के प्रमुख व्यवसायियों में से एक हैं।

पूरी बातचीत के दौरान क़ुरैशी शांत दिखने की कोशिश कर रहे थे और भावनाओं को अपने ऊपर हावी नहीं होने दे रहे थे। लेकिन जब उन्होंने पाटिया से अपने माता-पिता के साथ राहत शिविर में लाई गई एक छोटी बच्ची रुबीना के बारे में बात की, तो वह अपनी भावनाओं को रोक नहीं पाए और फूट-फूट कर रोने लगे।

उन्होंने कहा, “जब मैं राहत शिविर में था, तो मैं बच्चों की काउंसलिंग करता था क्योंकि उन्होंने अपनी ज़िंदगी के सबसे बुरे दौर को देखा था। मैं उन्हें पढ़ाता था और उन्हें कुछ अन्य कार्य देता था, जैसे पेंटिंग, ड्राइंग और गाना गाने आदि के लिए कहता था। मेरे काम से प्रेरित होकर, एक एनजीओ ने मुझसे संपर्क किया और मुझे बच्चों के लिए किताबें, नोटबुक, रंग आदि दिए। एक दिन मैंने बच्चों के समूह से कुछ पेंटिंग बनाने को कहा। विभिन्न आकृतियों, रेखाओं और रंगों के मिश्रण से सही घटना का इस्तेमाल करते हुए, रुबीना ने एक सुंदर पेंटिंग बनाया जो उस नरसंहार का चित्रण था जिसे उसने देखा था।” उन्होंने कहा, उसकी पेंटिंग ने उन्हें भीतर तक प्रभावित किया।

क़ुरैशी इस मामले के कुल 84 आरोपियों में से 17 के ख़िलाफ़ गवाह है। यह मामला अंतिम फ़ैसले के लिए अहमदाबाद की एक विशेष एसआईटी अदालत में चार साल से लंबित है।

यह पूछे जाने पर कि क्या वह सब कुछ भूल कर आगे बढ़ गए हैं, तो उन्होंने कहा कि जनसंहार के दौरान हुए चोट को कोई नहीं भूल सकता।

उन्होंने कहा, “लेकिन, यह भी सच है कि पूरा जीवन उन यादों के साथ नहीं गुज़ारा जा सकता है। हमारे पास आगे बढ़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। और ऐसा ही कई दंगा पीड़ित कर रहे हैं।”

राजनीति में हाशिए पर

हालांकि अस्तित्व के मुद्दे लोगों को जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं, ऐसे में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि राज्य में मुस्लिम आवाज़ ख़ामोश कर दी गई है और उनका प्रतिनिधित्व नहीं हैं।

पाटीदार गुजरात की कुल आबादी का 14% हैं, लेकिन भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और कांग्रेस दोनों ने इस समुदाय से कम से कम 40 उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारा है। दूसरी तरफ़, मुसलमान जो कि राज्य की आबादी का 9.6% हैं। इनके केवल छह उम्मीदवार हैं और वह भी सभी कांग्रेस की तरफ़ से हैं।

सत्तारूढ़ भाजपा ने किसी मुसलमान को मैदान में नहीं उतारा है। भगवा पार्टी ने आख़िरी बार 1995 में इस समुदाय को टिकट दिया था। अब्दुल गनी कुरैशी ने भरूच ज़िले में मुस्लिम बहुल वागरा निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस के इक़बाल पटेल को चुनाव मैदान में हराया था। वह 26,439 मतों से हार गए थे।

उनकी जनसंख्या प्रतिशत के हिसाब से राज्य में 182 सदस्यीय विधानसभा में मुस्लिम समुदाय के 16 से अधिक विधायक होने चाहिए।

जबकि 2017 के विधानसभा चुनावों में तीन मुस्लिम विधायक चुने गए थे, जो कि 2012 से एक विधायक ज़्यादा थे। 2007 में पांच और 2002 में तीन थे।

अहमदाबाद के बाहरी इलाक़े में राज्य का सबसे बड़ा निर्वाचन क्षेत्र सरखेज है जहां कुल दस लाख से अधिक आबादी का 25% मुस्लिम हैं। इस विधानसभा क्षेत्र में मुसलमानों की सबसे बड़ी आबादी होने के बावजूद यहां पिछले तीन या उससे अधिक चुनावों से भाजपा के उम्मीदवार जीतते रहे हैं।

2012 में परिसीमन के बाद से सिर्फ़ जनसंख्या के आधार पर मुसलमान 36 सीटों पर विधानसभा चुनाव परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं, जहां पंजीकृत मतदाताओं में उनका लगभग 13-14% हिस्सा है। 34 विधानसभा क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाताओं की आबादी 15% से अधिक है।

गुजरात में 20 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां मुस्लिम मतदाताओं की आबादी 20% से अधिक है। इन 20 सीटों में से चार अहमदाबाद ज़िले में हैं, जबकि तीन-तीन भरूच और कच्छ ज़िले में हैं।

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि परिसीमन और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए निर्वाचन क्षेत्रों को आरक्षित करके इस समुदाय को बाक़ायदा राजनीतिक रूप से महत्वहीन बना दिया गया है।

सामाजिक कार्यकर्ता और वकील केआर कोष्टी ने न्यूज़क्लिक को बताया, "परिसीमन की सभी शर्तों का उल्लंघन करते हुए, मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों को विभाजित किया गया और हिंदू-बहुल क्षेत्रों में जोड़ा गया ताकि उनके वोटों (भले ही ये एक समूह में हों) से कोई फ़र्क़ नहीं पड़े।"

उन्होंने कहा कि जिन निर्वाचन क्षेत्रों में अल्पसंख्यक आबादी अधिक है और जिन्हें परिसीमन के माध्यम से विभाजित नहीं किया जा सकता है, उन्हें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित घोषित किया गया था।

ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो गुजरात की राजनीति में मुस्लिम प्रतिनिधित्व हमेशा कम रहा है। 1985 में जब कांग्रेस ने अपनी सबसे ज़्यादा149 सीटें जीती थीं, तब मुस्लिम विधायकों की संख्या महज़ सात थी। यह तब, जब कांग्रेस ने खाम (KHAM - Khastriya, Harijan, Adivasi and Muslim) समीकरण पर ज़बरदस्त जीत दर्ज की थी।

1977 में भरूच से अहमद पटेल और अहमदाबाद से 2002 के दंगों में बेरहमी से मारे गए एहसान जाफ़री को छोड़कर गुजरात में कभी भी एक समय में दो से अधिक मुस्लिम सांसद नहीं रहे।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Gujarat Elections: 'Abandoned' & 'Sidelined', Muslims are Striving, Some Are Thriving

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