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विश्लेषण: गुजरात में साफ़ दिख रही है भाजपा की घबराहट

भाजपा द्वारा चुनावी रणनीति का जो पूरा खेल राज्य में चलाया जा रहा है उस लड़ाई का नेतृत्व ख़ुद पीएम मोदी कर रहे हैं।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : पीटीआई

10 नवंबर को, जब गुजरात विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा उम्मीदवारों की पहली सूची की घोषणा नई दिल्ली में की गई, तो राजनीतिक पर्यवेक्षकों के बीच आश्चर्य की एक स्पष्ट भावना दिखी, और गुजरात में जो होने वाला है उसका अनुमान लगाया जाने लगा। खबरों के मुताबिक, 182 सदस्यीय विधानसभा के लिए घोषित 160 उम्मीदवारों के नामों में से 38 कांग्रेस के दलबदलू हैं और इतनी ही संख्या में निवर्तमान विधानसभा में भाजपा के मौजूदा विधायकों को टिकट नहीं दिया गया है। कई पूर्व मंत्रियों और पूर्व मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने पहले ही 'स्वेच्छा से' आगामी चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया है, यह कदम कथित तौर पर दिल्ली में आलाकमान के सलाह दिए जाने के बाद उठाया गया लगता है।

इससे पहले, 11 सितंबर, 2017 के चुनाव में भाजपा का नेतृत्व करने वाले विजय रूपानी को अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ सत्ता छोड़ने को कहा गया था और उनकी जगह एक अप्रत्याशित व्यक्ति यानि भूपेंद्र पटेल को मंत्रियों की एक नई टीम के साथ सत्ता सौंप दी गई थी। 

जाहिर है, भाजपा के शीर्ष नेताओं को लग रहा है कि गुजरात में यह चुनाव आसान नहीं होने जा रहा है। मौजूदा मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को बदलना लंबे समय से भाजपा के चुनावी खेल का हिस्सा रहा है। हाल ही में, इसने पूर्वोत्तर राज्य में अपने चुनावी प्रदर्शन को दोहराने करने के लिए त्रिपुरा के मुख्यमंत्री को में बदल दिया है, जिस राज्य को पार्टी ने 2018 में पहली बार जीता था। जब मुसीबतें सामने आई तो इसी तरह कई अन्य राज्यों में भी, भाजपा ने  आंतरिक 'शासन परिवर्तन' किए हैं। यही नहीं, पीएम मोदी के नेतृत्व वाले केंद्रीय मंत्रिमंडल का  भी जुलाई 2021 में पूरी तरह शुद्धिकरण कर दिया गया था, जब कई वरिष्ठ और जाने-माने चेहरों को सरसरी तौर पर बर्खास्त कर दिया गया था, शायद कोविड-19 महामारी से निपटने और अन्य मुद्दों पर विफलता की आलोचना को बेअसर करने के लिए ऐसा किया गया था।

लेकिन राज्य सरकार में शीर्ष नेताओं को बदलना ही एकमात्र संकेत नहीं है कि भाजपा घबराई हुई है और राज्य को जीतने के लिए सभी तरह की तिकड़मों का सहारा ले रही है, जिस पर उसने 1995 से लगातार शासन किया है, केवल 1996 में लगभग डेढ़ साल की संक्षिप्त अवधि को छोड़कर-जब1998 में शंकरसिंह वाघेला के नेतृत्व में अलग हुए समूह ने कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सत्ता संभाली थी।

मोदी के दौरे और वादे

मार्च 2022 से, पीएम मोदी 12 बार अपने गृह राज्य का दौरा कर चुके हैं, जिनमें से 10 दौरे पिछले छह महीनों (जून से) में हुए हैं। उनकी पहली यात्रा 11-12 मार्च को हुई थी, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित होने के ठीक एक दिन बाद जब भाजपा फिर से सत्ता में आ गई थी। मोदी ने इस यात्रा के दौरान अहमदाबाद और आस-पास के गांधीनगर में जोरदार रोड शो किया, व्यावहारिक रूप से यह गुजरात के लिए चुनाव अभियान के उदघाटन की घोषणा थी। यह यूपी में जीत को भुनाने का साफ मामला था।

मीडिया रिपोर्ट्स पर आधारित एक अनुमान बताता है कि रोड शो, जनसभाओं, सम्मेलनों आदि के अलावा, प्रधानमंत्री ने अपने गृह राज्य की इन यात्राओं के दौरान 1.18 लाख करोड़ रुपये की परियोजनाओं की घोषणाएं की हैं। यह कोई नई बात नहीं है- उन्होंने इस तरह की घोषणाओं को भाजपा की चुनावी प्लेबुक का एक मानक हिस्सा बना दिया है। यह काम करता है या नहीं यह अनिश्चित है क्योंकि कई राज्यों में जहां इस तरह की घोषणाएं और शिलान्यास की झड़ी लगाई गई थी, वहां भाजपा ने बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था (जैसे, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु आदि) लेकिन कई अन्य राज्यों में भाजपा जीत गई थी। भाजपा की रणनीति में चुनाव जीतने की शायद यह एक जरूरी लेकिन पर्याप्त शर्त नहीं है।

हालाँकि, इन आयोजनों का प्रमुख उद्देश्य प्रधानमंत्री द्वारा खुद को सार्वजनिक रूप से पेश करना था। आखिरकार, मोदी भाजपा में अकेले सबसे बड़े वोट बटोरने वाले नेता हैं। जैसा कि उन्होंने हाल ही में हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान कहा कि, जब आप अपना वोट देने जाएं तो "आपको भाजपा उम्मीदवार को याद करने की जरूरत नहीं है, केवल 'कमल' के निशान को याद रखें, जिसका मतलब है कि आपके पास खुद मोदी और भाजपा आई है।' दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी होने का दावा करने वाली पार्टी के लिए यह विचित्र किन्तु सत्य है कि उसके नेता और देश के प्रधानमंत्री को मतदाताओं से यह कहना पड़ रहा है कि उनके अलावा कोई और मायने नहीं रखता है।

5 और 8 दिसंबर के मतदान में 3-4 सप्ताह रह गए हैं और मोदी निश्चित रूप से गुजरात में अधिक प्रचार करेंगे, हालांकि विभिन्न परियोजनाओं की घोषणाएं अब रुक जाएंगी क्योंकि चुनाव की तारीखों की घोषणा के बाद चुनाव आयोग की तरफ से आदर्श आचार संहिता लागू हो गई है। 

हिंदुत्व कार्ड

गुजरात वह प्रयोगशाला थी, जिसमें भाजपा के हिंदुत्व शासन मॉडल को गढ़ा और विकसित किया गया था। यह उल्लेखनीय है कि राज्य में मुस्लिम विरोधी हिंसा की घातक लहर के दो दशक बाद, जब चुनाव नजदीक आ जाता है, तो सत्तारूढ़ पार्टी को समय-समय पर अपनी सांप्रदायिक रणनीति की ओर मुड़ने की जरूरत होती है। इस बार चुनावों की तैयारियों में 2002 के चर्चित बिलकिस बानो मामले में सामूहिक बलात्कार और हत्या के लिए दोषी ठहराए गए 11 लोगों की राज्य सरकार द्वारा इस साल अगस्त में रिहाई शामिल थी। बाद में, यह बताया गया कि केंद्र ने उनकी रिहाई के लिए हामी भर दी थी। यह अत्यधिक हिंदुत्व भावनाओं को बढ़ावा देने के लिए एक कदम लगता है, हालांकि इस कदम पर काफी नाराजगी थी।

बाद में, गुजरात सरकार ने घोषणा की कि वह राज्य में समान नागरिक संहिता को "लागू करने के लिए" एक समिति का गठन कर रही है। यह भाजपा/आरएसएस के नेतृत्व वाले हिंदुत्व समर्थकों के पसंदीदा मुद्दों में से एक है। इसे अल्पसंख्यकों को यंत्रणा के नारे में बदल दिया गया है और हाल के महीनों में कुछ भाजपा शासित राज्यों ने भी इसी तरह की घोषणाएं की हैं, हालांकि किसी एक राज्य में इस तरह का कार्यान्वयन कानूनी रूप से जायज़ नहीं है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने हाल ही में घोषणा कर एक और कदम नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के तहत नागरिकता प्रदान करने के लिए गुजरात में आणंद और मेहसाणा जिलों के कलेक्टरों को सशक्त बनाने वाली अधिसूचना जारी की है। इस कानून के ज़रिए नागरिकता प्रदान करने में मुसलमानों के खिलाफ भेदभावपूर्ण निति के मद्देनजर, देशव्यापी विरोध हुआ था क्योंकि यह केवल गैर-मुस्लिम धर्मों के आवेदकों को नागरिकता प्रदान करने को तवज्जो देता था।

ये सार्वजनिक घोषणाएँ क्या हासिल करना चाहती हैं, वह स्पष्ट है: वे चुनाव से पहले राज्य में हिंदुत्व के चुनावी आधार को मजबूत करने की कोशिश कर रही हैं। यह देखते हुए कि  विडंबना यह है कि 2002 की हिंसा और उसके बाद के वर्षों में उनके साथ हुए भेदभावपूर्ण व्यवहार से गुजरात में मुस्लिम पहले से ही अत्यधिक हाशिए पर चले गए हैं। लेकिन, इससे पता चलता है कि भाजपा यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है कि उसकी हिंदुत्व-आधारित अपील चुनावों के माध्यम से बनी रहे क्योंकि उसे डर है कि अन्यथा जनता का असंतोष उसके आड़े आ सकता है।

गुजरात में असंतोष

पिछले पांच वर्षों में ऐसी घटनाएं घटी हैं जिन्होंने एक बार फिर से 'गुजरात मॉडल' की विफलताओं को उजागर किया है। 2017 में पिछले चुनाव के समय, युवा हार्दिक पटेल के नेतृत्व में पाटीदार आंदोलन पूरे जोरों पर था, जिसे बाद में सरकार ने सलाखों के पीछे डाल दिया था। अपनी रिहाई के बाद वह कांग्रेस में शामिल हुए,  लेकिन अंत में भाजपा में चले गए, इस बार वे भगवा उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन पाटीदार आंदोलन बढ़ती कीमतों और गिरती आय को लेकर किसानों के गहरे असंतोष की अभिव्यक्ति था - ये मुद्दे इन वर्षों में और भी गंभीर हो गए हैं। कम आय किसानों के लिए सिर्फ एक ज्वलंत समस्या नहीं है। राज्य में कृषि श्रमिकों के लिए सबसे कम मजदूरी है और औद्योगिक श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी भी कम है। इस साल की शुरुआत में बजट के साथ पेश की गई गुजरात सरकार की सामाजिक-आर्थिक समीक्षा के अनुसार, 2020-21 में सकल राज्य घरेलू उत्पाद का लगभग 43 प्रतिशत जो सेकंडरी क्षेत्र से आता है वह गुजरात एक अच्छी तरह से औद्योगीकृत राज्य है। फिर भी राज्य के औद्योगिक क्षेत्र में श्रमिकों के लिए कम वेतन, काम करने की कठिन परिस्थितियाँ और नौकरी की असुरक्षा अनसुलझे मुद्दे हैं।

कोविड महामारी से निपटने को लेकर व्यापक असंतोष भी है। हालांकि गुजरात ने आधिकारिक तौर पर दावा किया है कि 17 जनवरी, 2022 तक कोविड के कारण 10,164 मौतें हुईं, बाद में, राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में स्वीकार किया कि 3 फरवरी, 2022 तक, उसे 1,02,203 कोविड मौत के दावे हासिल हुए, जिनमें से उसने 87,045 दावों को स्वीकारा और 82,605 परिवारों को 50,000 रुपये का मुआवजा दिया था। इस त्रासदी के लिए राज्य की जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था और सरकार के अड़ियल रवैये को काफी हद तक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। यह मुख्यमंत्री विजय रूपाणी को हटाने का भी एक महत्वपूर्ण कारक माना जाता है। लेकिन स्वास्थ्य देखभाल के लिए अपर्याप्त धन की बड़ी समस्या लोगों को परेशान करती रहती है, खासकर वंचित तबकों को ये परेशानियां अधिक झेलनी पड़ती है। 

दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों को भी भारी कठिनाइयों और भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। चुनावी पर्यवेक्षकों का मानना है कि ये वर्ग ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस की ओर रुख कर सकते हैं या शायद कुछ शहरी इलाकों में आम आदमी पार्टी को चुन सकते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, गुजरात के शहरी क्षेत्रों में लगभग 43 प्रतिशत आबादी रहती है जो इसे सबसे अत्यधिक शहरीकृत राज्य का दर्जा देती है। जैसा कि मोरबी त्रासदी ने संकेत दिया है, शहरी स्थानीय निकाय भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं और बिना किसी डर के काम कर रहे हैं। इससे राज्य में सत्तारूढ़ दल के खिलाफ काफी आक्रोश है।

असंतोष की ये सभी धाराएं और धागे एक विकल्प की तलाश में हैं। आगामी चुनावों में निश्चित जीत की भव्यता के बावजूद, इसने भाजपा के हलकों में दहशत पैदा कर दी है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

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