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भारत
राजनीति
नफ़रत का इकोसिस्टम: क्या भाजपा षड्यंत्र हार रही है?
भगवा पार्टी, शासन से संबंधित किसी भी वादे को पूरा करने में असमर्थ होने और साथ ही लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करने के कहीं भी क़रीब न होने की वजह से स्पष्ट रूप से चिंतित नज़र आ रही है। यह स्थिति पार्टी और उसके नेताओं की उन ताक़तों को खुली छूट देने पर मजबूर कर रही है जो सामाजिक स्थिरता को ख़तरे में डालने के लिए हैं।
नीलांजन मुखोपाध्याय
05 Jul 2022
Translated by महेश कुमार
bjp

हाल ही में ट्विटर पर ट्रेंड होने वाले दो हैशटैग - #HinduLivesMatter और #SupremeCourtIsCompromised – इस बात का प्रतीक है कि भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किस खतरनाक रास्ते पर चल रहे हैं। उक्त हैशटैग को न तो औपचारिक रूप से भाजपा ने प्रायोजित किया था, बल्कि इसकी उत्पत्ति इसके पारिस्थितिकी तंत्र के भीतर काम कर रहे लोगों द्वारा की गई थी जिन्होने इसे अंजाम दिया गया था।

वे कट्टरता की लय उत्पाद हैं और निरंतर घृणा में प्रदर्शित होते हैं। भाजपा ने 1980 के दशक के उत्तरार्ध से दशकों तक इस कर्कश असंगति को निभाया है, जबकि नफ़रत का शासन किया है।

नफ़रत के इस तरह के उपकरणों या उपकरण को ऑटो-पायलट मोड में चलाने का जोखिम अब दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। ऐसा बहुत कम होता है जब नेतृत्व इस अंतिम चरण में कुछ कर सकता है, लेकिन उम्मीद है कि इसकी स्क्रिप्ट ke स्व-चालित मोड में गड़बड़ नहीं होगी।

लेकिन पहले, पीछे की कहानी जरूरी है।

"मानव इतिहास की प्रगति," भाजपा के पूर्व नेता लाल कृष्ण आडवाणी, जिन्होंने अपने सबसे कठिन दौर में पार्टी का नेतृत्व किया था, ने अपने संस्मरण, माई कंट्री, माई लाइफ में लिखा है, "शायद ही कभी किसी रैखिक मार्ग का अनुसरण करता है।"

वे आगे कहते हैं, "जन आंदोलन," "शायद ही कभी एक पूर्व निर्धारित स्क्रिप्ट के अनुसार पैदा  होते हैं। घटनाएं कभी-कभी अप्रत्याशित मोड़ ले लेती हैं। अप्रिय घटनाएँ घटती हैं। झटके लगते हैं। अक्सर यह अपरिवर्तनीय होता है, कुछ ऐसा जिसे नेता नहीं चाहते हैं और जिसकी अनुयायों से अपेक्षा भी नहीं की जाती है। 

उनके लिए, बाबरी मस्जिद का विध्वंस एक ऐसी घटना थी और "इतिहास बदलने वाली घटनाओं की असाधारण श्रेणी" का एक हिस्सा थी। उनके लिए, यह "अस्पष्ट था कि किसने रैंकों को तोड़ा और कानून को अपने हाथ में लिया।"

घटी घटनाओं के बारे में, उन्होंने बताया कि कैसे वे अयोध्या में उत्साही कार्यकर्ताओं को मस्जिद के गुंबदों से नीचे लाने के अपने प्रयासों में विफल रहे।

अन्य नेताओं में, अशोक सिंघल, एचवी शेषाद्री, विजयाराजे सिंधिया और उमा भारती ने भी इसकी कोशिश की थी। लेकिन, उनकी इस मेहनत का "कोई असर नहीं हुआ"। इनमें से, राम मंदिर आंदोलन के प्रारंभिक सारथी, को "इन प्रयासों के दौरान हाथापाई" भी झेलनी पड़ी थी।

इस विफलता को सुनिश्चित करने के पीछे का कारण यह था कि भीड़ बाबरी मस्जिद पर चढ़ाई न करे, जो चढ़ाई हुई, उसके पीछे यह गहरी मान्यता यह थी कि मस्जिद को एक मंदिर में ‘बदलना’ चाहिए।

आडवाणी ने लिखा है कि मस्जिद स्थल को खाली करने की अपमानजनक दलीलें देने के बाद, मंदिर-नगर में "उत्साह के मूड" में, नेताओं का ही एक समूह, विध्वंस के बाद प्रभावित हुआ। "कोई आया और मिठाई बांटने लगा।"

यह इस बात का पक्का सबूत था कि उनके दिलों में, दिल दहला देने वाले इस मौके पर हर नेता मगन और खुश था।

तथाकथित विफलता का एक विस्तृत पुनर्कथन, यदि कोई हो सकता है, तो वह यह कि विध्वंस 'होने' देने का जानबूझकर इरादा था, जो इस प्रश्न को चिह्नित करने के लिए जरूरी था।

अगर संघ परिवार के दिग्गज – तब भी, और अब 2014 की तरह, राम मंदिर आंदोलन एक बहु-संगठन परियोजना थी जिसमें आरएसएस-भाजपा-विहिप-बजरंग दल शामिल थे – जो बाबरी मस्जिद के विध्वंस को रोकने और उस वादे को निभाने में विफल रहे, जो वादा उच्चतम न्यायालय में यथास्थिति बनाए रखने के लिए किया गया था, ऐसी क्या निश्चितता थी कि 6 दिसंबर 1992 के बाद वर्तमान कार्यकर्ता, पैदल सैनिक या नव-धर्मांतरित, एक बार फिर "कानून को अपने हाथ में नहीं लेंगे" और हिंसा की पुनरावृत्ति नहीं होगी?

क्या कोई वरिष्ठ हिंदुत्व नेता, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, यह सुनिश्चित कर सकता है कि उदयपुर के दर्जी की निंदनीय हत्या के बाद के आने वाले दिनों में गुस्से को उन दो लोगों के अपराधों के लिए पूरे समुदाय पर निर्देशित होने से रोका जा सके?

क्या इस शासन का कोई भी नेता यह सुनिश्चित करेगा कि सर्वोच्च न्यायालय और उसके न्यायाधीशों पर आक्षेप न लगाया जाए? नूपुर शर्मा की प्रशंसा को किसी भी नेता ने अस्वीकार क्यों नहीं किया?

स्वतंत्रता के बाद लगभग साढ़े चार दशकों तक भाजपा या उसका कोई भी सहयोगी, शासन की एक प्रमुख पार्टी के रूप में उभरने में विफल रहे थे। 1980 के दशक के उत्तरार्ध में, राम जन्मभूमि आंदोलन को जनता का समर्थन मिलने के बाद ही यह सत्ता के लिए एक गंभीर दावेदार बन पाई। 

इसके बाद ऐसे समय भी आए, जब भाजपा और उसके सहयोगियों ने हिंदुत्व-केंद्रित कार्यक्रमों को कम कर दिया था - उदाहरण के लिए, 1996 और 2004 के बीच अटल बिहारी वाजपेयी के तहत शासन को देखें, और फिर जब मोदी ने मुख्यमंत्री के रूप में, हिंदू संरक्षणवाद के नारे से हटते हुए खुद को विकास के नेता के रूप में पेश किया था। 

लेकिन, पार्टी धार्मिक अल्पसंख्यकों, मुसलमानों और ईसाइयों (गैर-भारतीय धर्मों के अनुयायी) को बराबरी के दर्ज़े से कम आँकने के अपने प्राथमिक लक्ष्य से कभी नहीं भटकी।

इस उद्देश्य की खोज में, ऐसे चरण आए, जब भाजपा ने मुख्य रूप से हिंदू समर्थक नीतियों (यदि सरकार में है) और 'वास्तविक' धर्मनिरपेक्षता पर आधारित राजनीति का प्रचार किया, और साथ ही समाज में मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रहों और इस्लाम को महत्वहीन बनाने की राजनीति के साथ बदल दिया था, जिसमें इसके अनुयायी इस प्रचार का अभिन्न अंग थे। 

मोदी की सबसे बड़ी विफलता गैर-भेदभावपूर्ण जन-समर्थक और असमानता को कम करने वाली विकास नीतियों और कार्यक्रमों के साथ हिंदू-समर्थक राजनीति को एकीकृत करने में उनकी अक्षमता रही है।

वाजपेयी के समय में मौजूद उदारवादी विचार और कठोर विचार के बीच की विभाजन पूरी तरह से मिट गया है। जाहिर है, एक आरामदायक संसदीय बहुमत की व्याख्या सामाजिक बहुमत के रूप में भी की गई थी।

खैरात के तौर पर तथाकथित कल्याणकारी योजनाएं जो अनिवार्य रूप से लोगों को मदद पहुंचाने के उद्देश्य के लिए थी, उनके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि सरकार द्वारा यह तय करते वक़्त किसी की धार्मिक पहचान को नहीं देखती है कि वह लाभार्थी किस खास धर्म से है या नहीं।

फिर भी, 2014 से, बार-बार, सरकार और संघ परिवार ने अपने कई नेताओं को रैंक और फ़ाइल के अलावा हिंदू समर्थक राजनीति की सीमाओं को पार कर मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह को बढ़ाने के उद्देश्य से अभियानों में बदला ताकि उदासीनता को घृणा में बदल दिया जा सके और शारीरिक हमलों का रूप दिया जा सके। 

विशेष रूप से, 2019 के बाद से इसका कोई अंत नज़र नहीं आता है। अब हम देखते हैं कि व्यवस्थित अभियान नागरिक समाज, मीडिया, शिक्षा, कला और संस्कृति में विरोधियों पर हमलों से जुड़ा हुआ है; संक्षेप में, कोई भी व्यक्ति जो उत्तर देने का साहस करता है और तर्क करने की दृढ़ता रखता है उस पर हमला किया जाता है।

इन असहिष्णुता को बढ़ाने वाली राजनीति ने भारत को एक थोपी हुई खुशी वाले बहुसंख्यक राष्ट्र में बदल दिया है, जहां हर मुसलमान को 'अतीत' के कथित झूठ और 'अहंकार' के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है।

इसके बावजूद भाजपा की समृद्ध चुनावी पैदावार हो रही है, और अब राष्ट्र में विषफोट होने का एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है।

देश में समझदार लोग इस चिंता के साथ जी रहे हैं कि क्रोध और घृणा किसी भी क्षण अलगाव की बढ़ती भावना और आहत महसूस करने से टकरा सकते हैं।

अक्सर, यह देखा गया है कि संवैधानिक रूप से निहित अधिकारों के बारे में पूछने पर नाराजगी जताई जाती है – वह भी प्रधान मंत्री और प्रथम नागरिक की तरफ से ऐसा होता है, जो खुले तौर पर लोगों से अपने अधिकारों के बारे में पूछने के बजाय मौलिक कर्तव्यों को पूरा करने के लिए कहते हैं। 

इसके विपरीत, जो लोगों को इन अधिकारों से वंचित करने और उन्हें गुलाम बनाए रखने का काम करते हैं, उनकी जय-जयकार की जाती हैं।

भारत में दो जिन्न निकले हुए हैं। पहला, काल्पनिक घृणा से प्रेरित है, दूसरा वो जिसे अब 'हम में से एक' को या सनातन धर्म के अनुयायी के रूप में भी लेबल किया जाता है।

दूसरा न केवल हाशिए पर पड़े लोगों की स्थिति सुधारने में घोर रूप से विफल है, बल्कि वह यह भी सुनिश्चित करता है कि जिन्होंने खुद को दलदल से निकाला है, वे इसमें डूबे नहीं, जैसा कि हाल के वर्षों में हुआ है, खासकर महामारी की शुरुआत के बाद।

भाजपा नूपुर शर्मा जैसे लोगों से अस्थायी रूप से असहज हो सकती है और यह भी कह सकती है कि जस्टिस जेबी पारदीवाला और सूर्यकांत पर हमले अनावश्यक और अनुचित हैं।

लेकिन इनमें से कई बड़बोले लोग और इंटरनेट हिंदुत्ववादी जो ओवर द काउंटर से स्नातक हुए हैं, जिनमें संघ परिवार के वरिष्ठ नेता शामिल हैं और जिन्हें हर साल सरसंघचालक द्वारा संबोधित किया जाता है, जैसा कि उन्होंने इस साल किया था जब उन्होंने ज्ञानवापी मस्जिद पर भ्रामक बयान दिया था।

भगवा पार्टी शासन से संबंधित किसी भी वादे को पूरा करने में असमर्थ होने और साथ ही लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करने के कहीं भी करीब न होने की वजह से स्पष्ट रूप से चिंतित नज़र आ रही है। यह स्थिति पार्टी और उसके नेताओं को उन ताकतों को खुली छूट देने पर मजबूर कर रही है जो सामाजिक स्थिरता को खतरे में डालने के लिए खड़ी हैं।

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ही एकमात्र 'कार्ड' है जिसमें 2024 तक भाजपा के लिए काम करने की क्षमता है, इसके अलावा 'विकल्प कौन है' तर्क के अलावा, नफ़त का जाल और लोगों के नए दुश्मन पैदा करने का निरंतर जोखिम है जो अब नियंत्रण से बाहर जा रहा है।

यह दिखाने का प्रयास करते हुए कि वह व्यक्तिगत रूप से मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभावपूर्ण नहीं है, मोदी ने भाजपा के पार्टी नेताओं से विकास और कल्याण कार्यक्रमों के मुद्दों पर वंचित, गैर-कुलीन लोगों तक पहुंचने के लिए कहा है।

लेकिन यह केवल भाजपा और उसके नेताओं के दोगलेपन को रेखांकित करता है। क्या कोई अपने इलाकों में बुलडोजर चलाकर और मस्जिदों और चर्चों के बाहर गुंडागर्दी की अनुमति देकर विकास कार्यक्रमों को अंजाम दे सकता है?

संघ परिवार के नेतृत्व के लिए यह स्वीकार करने का समय आ गया है कि वह केवल एक ही कार्ड अच्छी तरह से खेल सकता है, और वह जितनी जल्दी परिणामों को झेलने की तैयारी करेगा, देश के लिए उतना ही अच्छा होगा।

लेखक एनसीआर स्थित लेखक और पत्रकार हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रीकॉन्फिगर इंडिया है। उन्होंने द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ़ द इंडियन राइट और नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स भी लिखी हैं। उनसे @NilanjanUdwin  ट्वीट पर संपर्क किया जा सकता है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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