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कैसे फासीवाद ने पूंजीवाद के साथ आकर सरकार को दोबारा परिभाषित किया है?

20 वीं सदी ने फासीवाद के उभार और पतन के कुछ बड़े उदाहरण देखे थे। आज एक बार फिर मुश्किल में फंसे पूंजीवाद के लिए फासीवाद एक संभावी हथियार के तौर पर उभरता दिखाई दे रहा है।
कैसे फासीवाद ने पूंजीवाद के साथ आकर सरकार को दोबारा परिभाषित किया है?

अमेरिकी चुनावों ने पूंजीवाद के संकट में होने, बढ़ते राष्ट्रवाद, मजबूत होती राज्य शक्ति और एक नए फ़ासीवादी उभार के मुद्दों को आगे कर इन पर विमर्श तेज कर दिया है। ध्रुवीकृत राजनीति और विचारधारा के साथ लंबे समय से चली आ रही सामाजिक समस्याओं और आंदोलनों ने इस विमर्श की दिशा तय की है। क्या फ़ासीवाद यहां उभर सकता है; क्या यह आने वाला है? या मौजूदा पूंजीवाद, फासीवाद की ओर मुड़ते रुख को बदल सकता है? इस तरह के सवाल, अमेरिकी चुनाव और इतिहास के इस मोड़ पर लगे बड़े दांव को दिखाते हैं।

पूंजीवादी व्यवस्था में संस्थानों को संगठित करने वाले, उनकी शक्ति को लागू और सामाजिक व्यवहार के लिए कानून बनाने वाले राज्य का अस्तित्व होना भी चाहिए या नहीं? यह सवाल अहम है, खासकर उन लोगों के लिए जो पूंजीवाद के पक्ष में दलील देते हैं। उनका विचार है कि आधुनिक समाज की समस्याएं राज्य ने पैदा की हैं। इनका मानना है कि यह समस्याएं बाज़ार या पूंजीवादी उद्यम के नियोक्ता-कर्मचारी ढांचे, संपदा के असमान वितरण या इन उद्यमों द्वारा समर्थित दूसरे संस्थानों द्वारा पैदा नहीं की गई हैं। इस तरह के विचारक एक साफ़, उत्कृष्ट और अच्छे पूंजीवाद की कल्पना करते हैं, जिसे राज्य संस्थान किसी तरह से प्रभावित ना करते हों। जिस पूंजीवाद की यह लोग चर्चा करते हैं, वह बेहद कपोल-कल्पित है। यह विचारक इस नतीज़े पर पहुंचते हैं कि राज्य का प्रभाव घटाकर (जो इनकी परिभाषा के हिसाब से हानिकारक होता है), एक ज़्यादा परिष्कृत पूंजीवाद मौजूदा समस्याओं का जवाब है। उदारवादियों से लेकर रिपब्लिकन पार्टी तक, इस विचारधारा ने पूंजीवादी तंत्र के पीड़ितों की नाराज़गी को पूंजीवाद से हटाकर राज्य की तरफ मोड़ने का काम किया है।

एक दूसरा विपरीत विचार यह है कि इतिहास में जिन समाजों में भी पूंजीवादी आर्थिक ढांचा रहा है, वहां राज्य की मौजूदगी हमेशा रही है। इन समाजों में दूसरे संस्थानों की तरह ही, राज्य समाज की विशेष स्थिति, विवाद और चलायमान गति को प्रदर्शित करता रहा है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था उन उ्दयमों पर टिकी होती है, जो उद्यम में शामिल लोगों को अल्पसंख्यक (नियोक्ता) और बहुसंख्यक (कर्मचारी) में बांटते है।

अल्पसंख्यकों के पास उद्यम का मालिकाना हक़ और नियंत्रण अधिकार होते हैं। वे इसके सभी प्राथमिक फ़ैसले लेते हैं; जैसे कब, कहां और कैसे उत्पादन करना है, फिर जो उत्पाद हासिल होगा, उसके साथ क्या करना है।

बहुसंख्यक अपनी श्रमशक्ति को अल्पसंख्यकों को बेचता है, उसका उद्यम में कोई अधिकार नहीं होता। उसे प्राथमिक फ़ैसलों से भी अलग रखा जाता है। बुनियादी आर्थिक ढांचे का एक नतीज़ा राज्य का अस्तित्व भी रहा है। दूसरा नतीज़ा राज्य के समाज में वह हस्तक्षेप हैं, जो मौजूदा पूंजीवादी आर्थिक ढांचे को फिर से बनाते रहते हैं और इसमें नियोक्ताओं की प्रभावी स्थिति को बनाए रखते हैं।

यह भी है कि जिन समाजों में पूंजीवाद फलता-फूलता है, वहां के आंतरिक विरोधभास भी राज्य को आकार देने में भूमिका निभाते हैं। राज्य और इसके हस्तक्षेप के लिए संघर्ष निश्चित होता है। हर मामले में नतीज़ा अलग-अलग होता है, लेकिन लंबे वक़्त में जो प्रतिमान बने, वह यह बताते हैं कि राज्य ने लगातार पूंजीवाद का पुनर्उत्पादन किया है।

इसी तरह, पूंजीवाद से पहले के समाज, जैसे दास प्रथा और सामंतवाद वाले जमाने में, राज्य के साथ समानांतर प्रतिमान चलते थे। एक लंबे वक्त तक राज्य अपने वर्गीय ढांचे का पुनर्निर्माण भी करते रहे। दास प्रथा का पालन करने वाले समाजों में मालिक और गुलाम होते थे, सामंतवादी समाजों में ज़मींदार और कृषिदास हुआ करते थे। आमतौर पर जब-जब किसी राज्य ने वर्गीय ढांचे का पुनर्उत्पादन नहीं किया, तो उसका अंत निकट रहा है।

हर समाज में विकसित होती स्थितियां और विवाद उसके राज्य के आकार, गतिविधियों और इतिहास को तय करते हैं। इसमें राज्य के लिए शक्ति के विकेंद्रीकरण, केंद्रीयकरण या दोनों के मिले-जुले प्रारूप का तय किया जाना भी शामिल है। सामाजिक स्थितियां और विवाद भी राज्य के ढांचे, समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग से उसकी नजदीकियां या गठबंधन की प्रबलता, यहां तक कि दोनों के विलय को तय करती हैं। 
यूरोपीय पूंजीवाद में शुरुआती विकेंद्रीकरण ने केंद्रीकृत राज्य की तरफ मुड़ने की प्रवृत्ति का विकास किया। कुछ कट्टर स्थितियों में एक केंद्रीकृत राज्य, नियोक्ताओं वाले बड़े पूंजीवादी वर्ग के साथ एक तंत्र में आ गया और इसी से फ़ासीवाद का जन्म हुआ। 20 वीं सदी ने फ़ासीवाद के उभार और पतन के कई उदाहरण देखे। अब एक बार फिर मुश्किल में फंसे पूंजीवाद को फ़ासीवाद सहारा है।

आमतौर पर विकेंद्रीकृत से केंद्रीकृत राज्य में बदलाव, उन सामाजिक स्थितियों में परिवर्तन को दर्शाता है, जहां प्रभुत्वशाली वर्गों को राज्य शक्ति को मजबूत बनाने की जरूरत बन जाती है। यह जरूरत इसलिए होती है, ताकि उस तंत्र को दोबारा बनाया जा सके, जिसमें यह प्रभुत्वशाली वर्ग मजबूत स्थिति में होते हैं। उन्हें डर होता है कि ऐसा ना करने की स्थिति में सामाजिक स्थितियां उनके तंत्र को तबाह कर देंगी या दूसरे आर्थिक तंत्र की तरफ़ मुड़ जाएँगी। किसी भी स्थिति में उनका प्रभुत्व दांव पर लगा होता है।

दास प्रथा वाला ढांचा विकेंद्रीकृत स्थितियों में विकास कर सकता है। राज्य शक्ति जो, हर दास के मालिक के हाथ में मौजूद होती थी, उसने तय किया कि इस ढांचे की दो स्थितियों का पुनर्उत्पादन किया जा सके- पहला मालिक और दूसरी गुलाम। जब इन स्थितियों के पुनर्उत्पादन में दास बाज़ारों में आई रुकावट, दास विद्रोह या मालिकों में विभाजनकारी संघर्ष के चलते रुकावट आई, तो एक दूसरा राज्य स्थापित किया गया। उसका नया ढांचा बनाकर, उसे मजबूत किया गया। इसके पास अपने गुलाम होते थे (राज्य के गुलामों को हम "निजी" गुलामों से अलग देख सकते हैं)। इस तरह का मजबूत राज्य अकसर अपने मालिक के साथ मजबूती से जुड़ा होता था, यह ज़्यादा समन्वय के साथ दास प्रथा को सुचारू रख रहा था। इसमें राज्य और मालिकों द्वारा गुलामों के साथ अकसर हिंसा होती थी।

विकेंद्रीकृत सामंतवाद में ज़मींदारों के पास राज्य जैसी शक्तियां होती थीं। साथ में आर्थिक स्थिति ऐसी होती थी, जिसमें वे अपने नीचे काम करने वाले कृषिदासों से उत्पादन करवा रहे होते थे। आखिरकार जब महामारी, लंबी दूरी के व्यापार, कृषिदासों के विद्रोह या ज़मीदारों के आपसी संघर्षों से सामंतवाद को चुनौती मिली, तो प्रतिस्पर्धी ज़मींदारों के बीच से एक केंद्रीकृत राज्य का उभार हुआ। इस राज्य में एक सर्वोच्च सामंत या राजा होता था, वह सामंतवाद को बनाए रखने के लिए “निजी” सामतों के साथ शक्तियां साझा करता था।

मध्यकालीन यूरोप में मजबूत सामंतवादी राज्य, पूर्ण राजशाही के तौर पर उभरे। इन अलग-अलग देशों की सीमाओं के भीतर राजाओं और कुलीनों के बीच मजबूत गठबंधन था। इस गठबंधन ने कृषिदासों, उनके विद्रोहों, विद्रोही सामंतों, बाहरी ख़तरों और एक दूसरे के खिलाफ़ हिंसा की खूब की।

अपने गुलामों और सामंती पुरखों की तरह ही पूंजीवाद, छोटे और विकेंद्रीकृत उत्पादन ईकाईयों के तौर पर पैदा हुआ। पूंजीवादी उद्यम, "गुलाम और सामंतवादी उत्पादन ईकाईयों (पौधारोपण, मेनर या कार्यशाला)" की तरह ही दो बुनियादी उत्पादन स्थितयों का प्रदर्शन करता है। पूंजीवाद के मामले में यह स्थितियां नियोक्ता और कर्मचारी की होती हैं। अंतर यह है कि पूंजीवाद में कोई भी व्यक्ति दूसरे का स्वामी नहीं होता (जैसा दासप्रथा में होता था), ना ही कोई व्यक्ति किसी दूसरे के प्रति श्रम कर्तव्यों का वहन करता है (जैसा सामंतवाद में होता था)। इसके बजाए वक़्त के साथ-साथ श्रमशक्ति का एक बाज़ार बनाया गया। नियोक्ता खरीददार थे और कर्मचारी विक्रेता।

जब समस्याओं ने शुरुआती पूंजीवाद को खतरा पैदा किया, तो इसने अपने राज्य को वैसे ही मजबूत किया, जैसे दासप्रथा या सामंतवाद ने किया था। ऐसी ही एक समस्या केंद्रीकृत दासप्रथा और सामंतवाद की थी, जिन्होंने इनसे ही निकले पूंजीवाद को चुनौती दी।

जैसे-जैसे पूंजीवाद बढ़ता गया और दुनिया भर में फैलता चला गया, इसने खुद को चुनौती देने वाले दूसरे तंत्रों में बाधा पैदा करनी शुरू कर दी। इसके मजबूत राज्य तंत्र ने हिंसक हस्तक्षेप किए और दूसरे तंत्रों को दबाकर दोबारा गठित कर दिया। यही नए गठन पूंजीवाद के औपचारिक और अनौपचारिक उपनिवेश बने। इस तरह के हस्तक्षेप ने मजबूत पूंजीवादी राज्य को प्रोत्साहन दिया। कर्मचारियों के विद्रोह और मांगों ने भी पूंजीवाद को ऐसा राज्य ढांचा बनाने के लिए मजबूर किया, जो उन्हें दबाने में सक्षम होता। बिलकुल वैसे ही जैसे गला काट प्रतिस्पर्धा में उलझे नियोक्ताओं को संभालने के लिए एक ताकतवर मध्यस्थ की जरूरत होती है, जो उन्हें नियंत्रित कर सकता हो।

भले ही पूंजीवाद ने इस तरह के मजबूत राज्य को प्रोत्साहन दिया हो, लेकिन पूंजीवाद हमेशा ऐसा करने में संकोच करता रहा है। यह संकोच इसलिए पैदा हुआ, क्योंकि शुरुआती पूंजीवाद, वह काल जब उभरने वाले पूंजीवादी उद्यम छोटे हुआ करते थे और उनपर ताकतवर सामंतवादी राज्यों का वर्चस्व हुआ करता था, तब उस काल में पूंजीवाद इस तरह के राज्यों को अपने दुश्मन के तौर पर देखता था। पूंजीवादी और उनके प्रवक्ता अर्थव्यवस्था से राज्य को बाहर रखना चाहते थे। वह पूंजीवादी उद्यमों और बाज़ारों की चाहत रखते थे।

मजबूत राज्यों के बारे में यह संकोच और विरोधी रवैया, 17 वीं शताब्दी में अबंध नीति का समर्थन करते हुए अब आधुनिक समय में "मुक्त बाज़ार व्यवस्था" तक पहुंच गया है। मुक्त बाज़ार व्यवस्था, एक कल्पना है, जो उदारवादी नारों के साथ-साथ उन वैचारिक कार्यक्रमों को सहारा देती है, जो पूंजीवाद को न्यायसंगत ठहराते हैं। आधुनिक समय में किसी भी वास्तविक पूंजीवाद में कभी मुक्त बाज़ार व्यवस्था, बिना राज्य के हस्तक्षेप या नियंत्रण के अस्तित्व में नहीं रही।

18 वीं सदी से लेकर 20 वीं सदी तक, पूंजीवाद पश्चिमी यूरोप में अपने शुरुआती केंद्रों से निकलकर दुनिया भर में फैल गया। इसके विस्तार के लिए राज्य अहम था, जिसने युद्धों और औपनिवेशों के लिए ज़रिए व्यापार के रास्ते खोले। पूंजीवादियों के बीच विवाद, खासतौर पर प्रतिस्पर्धी और एकाधिकारवादी पूंजीवादियों के बीच का संघर्ष, साथ में अलग-अलग देशों के पूंजीवादियों को नियंत्रित करने के लिए राज्य के हस्तक्षेप की जरूरत होती है।

पूंजी-श्रम संघर्षों ने हमेशा राज्य हस्तक्षेप और उसकी ताकत को बढ़ाया है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद बड़े स्तर की सेनाएं रखने की परिपाटी शुरु हुई और सैन्य-औद्योगिक कॉम्प्लेक्सों का जन्म हुआ। यह प्रखंड, राज्य और बड़े पूंजीवादियों के विलय का वह आदर्श थे, जो दूसरे उद्योगों और राज्य के बीच समानांतर विलय के लिए मॉडल बन गए।

अमेरिका में ऐसे ही एक समानांतर विलय से स्वास्थ्य-औद्योगिक कॉम्प्लेक्स का जन्म हुआ। वहां राज्य का किरदार चार उद्योगों- डॉक्टर, दवाईयां बनाने वाले, स्वास्थ्य उपकरण बनाने वाले और स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराने वाली कंपनियों के एकाधिकार की रक्षा करना था। सरकार ने खुद का स्वास्थ्य-औद्योगिक कॉम्प्लेक्स में विलय किया व इसे बनाए रखा। ऐसा करने के लिए सरकार ने कई तरीके अपनाए। सरकार ने मेडिकेयर और मेडिकेड (ज़्यादा उम्र के लोगों और गरीबों के लिए सार्वजनिक बीमा) में सब्सिडी दी, इसके ज़रिए सावधानी पूर्वक युवा, ज़्यादा स्वस्थ्य और फायदेमंद ग्राहकों को निजी स्वास्थ्य बीमा कंपनियों के लिए छोड़ दिया गया। सरकार बड़ी मात्रा में फॉर्मास्यूटिकल्स खरीदने और बचत को जनता तक पहुंचाने से बचती है। सरकार आमतौर पर इस निजी मुनाफ़े वाले स्वास्थ्य ढांचे के अच्छी मंशा वाले प्रगतिशील सुधारों को "समाजवाद" के नाम पर खारिज कर देती है।

भले खुले तौर पर ना सही, लेकिन भीतर ही भीतर राज्य और पूंजीवादियों के विलय ने राज्य शक्ति के साथ-साथ पूंजी के केंद्रीकरण को खोखला कर दिया।

वित्त में भी ऐसा ही हो रहा है। पूंजीवादी देशों में केंद्रीय बैंक, जो ज्यादातर राज्य संस्थान हैं, वे बड़े निजी बैंकों के साथ करीबी संबंध रखते हैं। फेडरल रिज़र्व ने इस शताब्दी में अब तक तीन पूंजीवादी गिरावटों का जवाब दिया है। इस दौरान ना केवल फेडरल रिज़र्व ने ब्याज़ दरों को कम और पैसे की छपाई को ज़्यादा किया, बल्कि गैरवित्तीय औद्योगिक घरानों को कर्ज़ भी उपलब्ध करवाया। फेडरल रिज़र्व द्वितीयक बाज़ार के कॉरपोरेट बॉन्ड, व्यापारिक निधियों पर बदले गए कॉरपोरेट बॉन्ड और कॉरपोरेट कर्ज़ पर आधारित-संपत्ति से समर्थित प्रतिभूतियां (सिक्योरिटीज़) भी खरीदता है। अब फेडरल रिज़र्व के पास एक तिहाई रिहायशी कर्ज़ है।

सरकारी कर्ज़, निजी कर्ज़ से कहीं ज़्यादा अहम हो चला है। सरकार जल्द ही यह तय करेगी कि किसे कितना सरकारी कर्ज़ दिया जाए। साथ में दूसरी सरकारी नीतियां भी तय होंगी, जैसे कौन सी चाइनीज़ कंपनी को प्रतिबंधित किया जाए और कौन सी यूरोपीय कंपनी को अनुमति दी जाए। यह वित्तीय विकास उस दिशा में मील के पत्थर हैं, जहां अंतिम मंजिल राज्य और पूंजीवाद का विलय है।

नस्लभेद, राष्ट्रवाद और युद्धोन्माद से इतर, हिटलर ने फासीवाद के आर्थिक तंत्र की बुनियाद रखी। इसके लिए राज्य और बड़े निजी खिलाड़ियों का आपस में विलय किया गया। हिटलर ने बड़े पूंजीवादियों के लिए मुनाफ़े वाली स्थितियां बनाईं।

बदले में पूंजीवादियों ने अपने उद्यमों के वित्त, उत्पाद, कीमत और निवेश के ज़रिए राज्य नीतियों को ज़्यादा समर्थन दिया। "निजी स्वामित्व वाले उत्पादन के हरण की नीति" ने चयनित सामाजिक उपसमूहों (जैसे यहूदी) को ही निशाना बनाया। निजी पूंजीवाद का खात्मा नहीं, बल्कि लोगों का आर्यनीकरण करना राज्य का उद्देश्य था।

इसके उलट समाजवादियों ने निजी पूंजीवादी उद्यमों के समाजवादीकरण वाले विकल्प को प्राथमिकता दी। यह राज्य का निजी पूंजीवाद के साथ विलय नहीं था। बल्कि यह निजी पूंजीवादियों की बेदखली थी। राज्य ने उत्पादन करने के लिए निजी पूंजीवादियों से उनके संसाधन ले लिए। ताकि एक राज्य पूंजीवाद (स्टेट कैपिटलिज़्म) चलाया जा सके।

ज़्यादातर समाजवादियों ने राज्य पूंजीवाद को साम्यवाद की दिशा में बीच की सीढ़ी की तरह देखा। साम्यवाद को पूंजीवाद की एंटीथीसिस की तरह देखा गया, जहां उत्पादन के लिए सामाजिक संपत्ति (निजी नहीं) होगी, संसाधनों और उत्पादन के वितरण के लिए सरकारी योजना (बाज़ार से चलित व्यवस्था नहीं) होगी, उद्यमों पर उसमें काम करन वाले कर्मचारियों का नियंत्रण होगा और उत्पाद का जरूरत के हिसाब से वितरण होगा।

फासीवाद का आर्थिक संगठन आज वहां मौजूद है, जहां आर्थिक विकास, पूंजीवाद (विशेष तौर पर अमेरिकी पूंजीवाद) को ढकेल रहा है। आज अमेरिकी पूंजीवाद उसी समानांतर व्यवस्था को दर्शाता है, जिसमें मजबूत राज्य के साथ विलय किया जाता है। पूंजीवाद को मिलने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए राज्य की शक्ति को बढ़ाया जा रहा है, बड़े पूंजीवादी व्यापार को बढ़ावा दिया जा रहा है और आखिरकार उनका फासीवाद में विलय किया जाएगा।

पूंजीवाद कब फासीवाद में बदलता है, इसके लिए हर राष्ट्र की स्थितियां अलग होती हैं। जैसे- पूंजीवाद के आंतरिक विरोधाभास (उदाहरण के लिेए इसकी अस्थिरता और संपदा के ध्रुवीकरण समेत आर्थिक असमता लाने की इसकी प्रवृत्ति) बड़े स्तर पर जनप्रतिरोध पैदा कर सकते हैं, जो पूंजीवादी के फासीवाद में परिवर्तन की दर को धीमा कर सकता है, रोक सकता है या इसकी दिशा भी बदल सकता है। कम से कम कुछ वक़्त के लिए तो बिलकुल ऐसा कर सकता है। या यह जनप्रतिरोध आर्थिक बदलाव को समाजवाद की तरफ भी मोड़ने की ताकत रखता है। 
लेकिन पूंजीवाद की प्रवृत्ति, अस्थिरता (जो चक्रों में आती है), असमता (जहां संपदा का ध्रुवीकरण होता है) और फासीवाद (राज्य-पूंजीवाद विलय) की तरफ होती है। इस सदी के शुरुआती 20 साल इन प्रवृत्तियों को बिलकुल अलग तरीके से दिखाते हैं।

रिचर्ड डी वोल्फ एमर्हस्ट स्थित मैसाचुसेट्स यूनिवर्सिटी के मानद् प्रोफेसर हैं। वे न्यूयॉर्क की न्यूस्कूल यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय मामलों के ग्रेजुएट प्रोग्राम में अतिथि व्याख्याता भी हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट के प्रोजेक्ट इक्नॉमी फॉर ऑल ने प्रोड्यूस किया था।

लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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