Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

झारखंड में भाजपा ने आरएसएस को कैसे निराश किया?

झारखंड में कभी संघ परिवार का गढ़ बनकर उभरी भाजपा, पिछले कुछ वर्षों में इसने आदिवासियों और अन्य समुदायों के बड़े वर्गों को नाराज किया है।
bjp and RSS

हालांकि, भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को भारत के सबसे समृद्ध खनिज भंडार वाले राज्य, झारखंड के 24 साल के इतिहास में सबसे बुरी हार का सामना करना पड़ा, लेकिन जनमत-निर्माता इस घटनाक्रम के राजनीतिक परिणामों का ठीक से आंकलन नहीं कर रहे हैं। आखिरकार, यह क्षेत्र तब भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सबसे मजबूत गढ़ों में से एक था, जब यह बिहार का हिस्सा था (यानि 15 नवंबर, 2000 तक)।

भगवा खेमे के लिए चिंता की बात यह है कि 26.2 फीसदी आदिवासी, जो 2019 में अपने भूमि संघर्ष के क्रूर दमन के बाद भाजपा से अलग हो गए थे, जिसे पत्थलगड़ी आंदोलन कहा जाता है, अब इसके प्रति बेहद शत्रुतापूर्ण हो गए हैं। स्थानीय आदिवासी, अन्य पिछड़ी जातियाँ (इसमें कुर्मी-महतो भी शामिल हैं) और दलित किसानों ने 2014 से 2019 के बीच तत्कालीन रघुवर दास सरकार की भूमि अधिग्रहण नीति का कड़ा विरोध किया था। इसमें झारखंड के गोड्डा जिले में अडानी के बिजली संयंत्र के लिए अधिग्रहित उपजाऊ भूमि का बड़ा हिस्सा भी शामिल था। कोयले से चलने वाले इस संयंत्र से बांग्लादेश को बिजली बेची जाती है।

मीडिया में भाजपा की जीत को प्रमुखता से दिखाने की आदत है, लेकिन झारखंड में उसकी हार को महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी की हार से कहीं कम कवरेज मिली है। भाजपा को केवल 21 सीटें मिलीं, जबकि उसके गठबंधन सहयोगियों ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन, जनता दल (यूनाइटेड) और लोक जनशक्ति पार्टी को एक-एक सीट मिली।

एनडीए को मिली 24 सीटों के मुकाबले झारखंड मुक्ति मोर्चा (34 सीटें), कांग्रेस (16 सीटें), राष्ट्रीय जनता दल (चार सीटें) और सीपीआई एमएल (लिबरेशन) (दो सीटें) के महागठबंधन ने 81 सदस्यीय सदन में 56 सीटें जीतीं। एनडीए को 38.14 फीसदी वोट मिले जबकि महागठबंधन को 44.33 फीसदी वोट मिले।

आरएसएस असफल क्यों हुई?

शायद ही कोई एंकर और यहां तक कि ओपिनियन वाले पेज के लेखक ने यह पूछा हो कि आरएसएस झारखंड में इतनी बुरी तरह विफल क्यों हुई, जबकि इसके स्वयंसेवकों (विशेष रूप से वनवासी कल्याण आश्रम से जुड़े लोग, जैसे महाराष्ट्र में) ने पूरे राज्य में इतनी अथक मेहनत की थी। भाजपा के बड़े नेताओं ने कथित बांग्लादेशी घुसपैठियों द्वारा आदिवासी लड़कियों से शादी कर उनकी जमीन हड़पने का मुद्दा उठाया। पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 15 नवंबर को बिहार के सीमावर्ती जमुई जिले में एक बड़े समारोह को संबोधित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी - यह कार्यक्रम आदिवासी प्रतीक, बिरसा मुंडा की 150 वीं जयंती के अवसर पर हुआ था। आदिवासी मतदाताओं को संदेश भेजने के लिए 6,650 करोड़ रुपये की विकास परियोजनाएं, जिनमें से ज्यादातर आदिवासी कल्याण के लिए थीं, शुरू की गईं। झारखंड में 13 और 20 नवंबर को मतदान हुआ था।

जो मुख्य पाप भाजपा ने किया वह दिसंबर 2014 में झारखंड विधानसभा चुनाव में जीत के बाद किया था। चूंकि उसी साल की शुरुआत में नरेंद्र मोदी सत्ता में आए थे, इसलिए किसी ने रघुवर दास (जो अब ओडिशा के राज्यपाल हैं) को मुख्यमंत्री बनाने की समझदारी पर सवाल नहीं उठाया, जो एक गैर-आदिवासी हैं और जिनकी पैतृक जड़ें पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में हैं। झारखंड को आदिवासी राज्य के नाम पर बिहार से अलग किया गया था, लेकिन पार्टी ने दास को सीएम बना दिया था।

मानो यह काफी नहीं था, दास सरकार ने नवंबर 2017 में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908 और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम, 1949 में संशोधन करके स्थानीय लोगों से ज़मीन अधिग्रहण कर लिया। भाजपा सरकार ने कॉरपोरेट सेक्टर को लुभाने के लिए हरसंभव कोशिश की। गौर करें, छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा की तरह ही कुछ दशक पहले तक माओवादियों की भी मजबूत मौजूदगी थी।

बस यह आदिवासी आबादी को नाराज़ करने के लिए काफी था। भाजपा सरकार ने अपनी कार्रवाई से जेएमएम को वापसी का मौका दिया। भगवा पार्टी को 2019 के विधानसभा चुनाव में इसकी कीमत चुकानी पड़ी जिसमें दास खुद अपनी सीट पूर्वी जमशेदपुर से हार गए थे।

आदिवासियों के गुस्से का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2019 में भाजपा कुल 28 में से सिर्फ दो अनुसूचित जनजाति आरक्षित सीटें जीत पाई थी। 2014 में इसकी संख्या 11 थी। लेकिन 2024 में यह सिर्फ एक सीट बचा पाई, जो सरायकेला है, जहां से पूर्व सीएम चंपई सोरेन विधानसभा चुनाव से ठीक पहले झारखंड मुक्ति मोर्चा से भाजपा में शामिल हुए थे।

हेमंत की गिरफ्तारी

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को लगातार परेशान किया जाना और उसके बाद 31 जनवरी 2024 को प्रवर्तन निदेशालय द्वारा उनकी गिरफ़्तारी ने आदिवासियों को नाराज़ कर दिया। 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा सभी पाँच एसटी आरक्षित सीटें हार गई। इस हार का सामना तत्कालीन भाजपा के गढ़ खूंटी से केंद्रीय मंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को करना पड़ा।

इस समय, 30 वर्षीय कुर्मी-महतो जयराम महतो उभरे, जिन्होंने झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा बनाया, जिसने 71 सीटों पर चुनाव लड़ा। हालांकि जयराम अकेले विजेता थे, लेकिन उनकी पार्टी ने कई सीटों पर ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन और भाजपा की चुनावी संभावनाओं को नुकसान पहुंचाया। कुर्मी-महतो का झुकाव हाल तक एजेएसयू की ओर था। इसके अध्यक्ष और पूर्व उपमुख्यमंत्री सुदेश महतो भी अपनी सीट हार गए। जेएमएम की तरह जयराम ने भी बाहरी लोगों के वर्चस्व के खिलाफ आवाज उठाई।

इसलिए झारखंड में लड़ाई जल्द ही बाहरी बनाम मूलनिवासी में बदल गई। कुर्मी-महतो, हालांकि ओबीसी सूची में थे, लेकिन 1931 की जनगणना तक उन्हें आदिवासी का दर्जा हासिल था। वे अब एक बार फिर इस दर्जे की मांग कर रहे हैं।

याद रखना चाहिए कि झामुमो का गठन 1972 में आदिवासी नायक शिबू सोरेन (हेमंत के पिता), बिनोद बिहारी महतो और बंगाली मार्क्सवादी ए के रॉय ने किया था। अगर आदिवासी और कुर्मी महतो एक बार फिर हाथ मिला लेते हैं, जैसा कि उन शुरुआती सालों में हुआ था, जब उन्होंने ‘दिक्कू’ (बाहरी लोगों) के खिलाफ धर्मयुद्ध छेड़ा था, तो भाजपा के लिए यह एक बड़ी चुनौती होगी। तब महाजनों (साहूकारों), शराब के धंधेबाजों और कोयला और भू-माफियाओं के खिलाफ अभियान और भी तीव्र था।

बांग्लादेश बनाम बांग्लादेश

विधानसभा चुनाव में निश्चित रूप से बांग्लादेशी फैक्टर था। लेकिन यह तथाकथित घुसपैठियों के खिलाफ भाजपा द्वारा उठाया गया ‘भूमि जिहाद’ का मुद्दा नहीं था, बल्कि जेएमएम नेताओं द्वारा बिजली उत्पादन के लिए एक कॉर्पोरेट इकाई द्वारा कथित तौर पर ‘हड़पी गई’ जमीन का मुद्दा था जिसे बांग्लादेश को बेचा जाता है। गोड्डा के स्थानीय लोगों ने आरोप लगाया कि उन्हें बिना किसी लाभ के उजाड़ दिया गया क्योंकि उन्हें कोई बिजली नहीं मिलने वाली है। इसके बजाय, बिजली संयंत्र उनके लिए बहुत बड़ी पारिस्थितिक आपदा ला रहा है। उनकी खेती की जमीन अपनी उर्वरता खो रही है और गोड्डा के पूरे क्षेत्र में जल स्तर नीचे जा रहा है।

भाजपा ने घबराहट में बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा उछाला, जो उल्टा पड़ गया, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय सीमा की सुरक्षा की जिम्मेदारी केंद्र के हाथ में है। इसके अलावा, झारखंड कोई सीमावर्ती राज्य नहीं है।

झारखंड में 2019 की हार के बाद भाजपा को अपनी गलती का एहसास हुआ। देश के अन्य हिस्सों में आदिवासियों का समर्थन वापस जीतने के लिए भाजपा ने झारखंड की तत्कालीन राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू, जो मूल रूप से ओडिशा की हैं, को 2022 में राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया। कांग्रेस के साथ गठबंधन करने वाली झामुमो ने भाजपा की चाल को पूरी तरह से समझ लिया और मुर्मू का समर्थन किया।

जैसे कि यह काफी नहीं था, भाजपा ने 2023 विधानसभा चुनाव जीतने के बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के रूप में आदिवासी विष्णु देव साई को नामित किया। इस साल की शुरुआत में इसने ओडिशा के मुख्यमंत्री के रूप में एक और आदिवासी मोहन चरण माझी को नियुक्त किया। चूंकि ओडिशा और छत्तीसगढ़ में भी आदिवासी आबादी काफी है, इसलिए भगवा पार्टी अब नुकसान को कम करने की कवायद में लगी हुई है।

लेकिन झारखंड में यह कारगर साबित नहीं हुआ, क्योंकि पार्टी ने आदिवासियों को समर्थन देने के बजाय हेमंत के खिलाफ़ अभियान छेड़ दिया। हेमंत और उनकी पत्नी कल्पना राज्य की राजनीति में एक शक्तिशाली जोड़ी के रूप में उभ री है।

यह भाजपा की उपलब्धि है।

लेखक, पटना स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार निजी हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक को क्लिक करें–

How BJP Let Down RSS in Jharkhand

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest