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मौजूदा चुनौतियों से कैसे निपटेगा साल  2021-22 का बजट?

महामारी की वजह से अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी है। लोगों के पास रोज़गार नहीं है। वैक्सीन गरीबों तक पहुंचाना है। सीमा पर चीन को रोके रखना है। देश में चुनौतियां ही चुनौतियां हैं। अब सवाल यह है कि आने वाला बजट इससे कैसे निपटेगा।
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Image courtesy: New Indian Express

यहां-वहां कुछ स्थानीय बढ़त को छोड़ दिया जाए तो अखिल-भारतीय स्तर पर कोविड-19 कर्व समतल होता दिख रहा है और शीर्ष के एक-तिहाई स्तर तक घटने भी लगा है। पर मंदी के चलते अर्थव्यवस्था का कर्व नीचे ही गिरता जा रहा है। 

उन लोगों के लिए जो पूंजीवाद के नियतकालीन संकट की संभावना की बात करते थे, 1929 का ग्रेट डिप्रेशन (Great Depression) ही मानक संदर्भ बिंदु हुआ करता था, जो वैश्वीक पूंजीवाद के इतिहास में सबसे काला अध्याय था। अब भारतीय व विश्व अर्थव्यवस्था ऐसी मंदी की ओर बढ़ रहे हैं, जो ग्रेट डिप्रेशन से भी बहुत बुरा होगा। तथापि मंदी के संपूर्ण प्रभाव को महसूस करना अभी बाकी है।

ऐसे संक्रमण काल में केंद्रीय बजट को बहुत सारी चुनौतियों को संबोधित करना होगा। लाॅकडाउन का तात्कालिक असर जरूर पिछे छूट गया है। कई उद्योग भी खुल रहे हैं, प्रवासी मज़दूर वापस काम पर लौट रहे हैं और काम शुरू हुआ है। पर अर्थव्यवस्था-खासकर उत्पादन की मात्रा और रोजगार-महामारी-पूर्व के स्तर तक नहीं पहुंच पाया।

भारत, जिसने 2019 तक प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अधिक विकास दर प्रदर्शित किया था, अब जी-20 अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तीव्र संकुचन दर्ज किया है। भारत में 2021 में नकारात्मक विकास (negative growth) का अनुमान लगाया गया तो वह -9.5 प्रतिशत (आरबीआई द्वारा) और -10.3 प्रतिशत था (आईएमएफ द्वारा)। अगले वर्ष के लिए रेटिंग एजेंसी माॅर्गन स्टैन्ली (Morgan Stanley) ने 2021-22 के लिए भारत की अर्थव्यवस्था के लिए 6.4 प्रतिशत विकास का अनुमान लगाया है।

इससे लगता है कि भारत की अर्थव्यवस्था महामारी-पूर्व स्थिति तक वापस पहंचने में 2022-23 हो जाएगा। इसके मायने हैं कि राजस्व भी अगले 2 वर्षों तक महामारी से पहले वाली स्थिति तक ना पहुंच पाए।

वर्तमान संदर्भ में अर्थव्यवस्था की रिकवरी इसपर निर्भर है कि सरकार क्या ‘स्टिमुलस पैकेज (stimulus package) देती है? स्टिमुलस पैकेज में दो भाग हो सकते हैं-उत्पादक निवेश (productive investment) और उपभोग खर्च (consumption spending), जिससे उपभोक्ता मांग बढ़ती है। 

अब तक सरकार ने स्टिमुलस पैकेज की तीन किस्ते घोषित की हैं। इसकी मात्रा को काफी बढ़ा-चढ़ाकर 20 लाख करोड़, यानि जीडीपी का 10 प्रतिशत बताया गया। परंतु स्वतंत्र अर्थशास्त्रियों ने दिखाया है कि यह अधिक-से-अधिक 2 लाख करोड़ फंड के निवेश

 (fresh infusions) से ज्यादा नहीं होगा। यह जीडीपी (GDP) का मात्र 1 प्रतिशत है, तो कैसे इससे अर्थव्यवस्था को 10 प्रतिशत संकुचन से सकारात्मक विकास की ओर ले जाया जा सकता है, यह रहस्य तो केवल मोदी ही समझा सकते हैं। खैर, इस बात में दो राय नहीं हो सकते कि दोनों स्टिमुलस पैकेजों को मिलाने पर भी वह निहायत अपर्याप्त है। तो आने वाले बजट से अपेक्षा है कि इससे बड़ा स्टिमुलस पैकेज दे।

मंदी के चलते 2019-20 में ही राजस्व नकारात्मक विकास की ओर चले गए। सरकार अब केवल कर्ज लेकर अधिक खर्च कर सकती है। पर सरकार खर्च करने के लिए कितना उधार ले सकती है यह राजकोषीय घाटे पर निर्भर करेगा। 

द फिस्कल रेस्पाॅन्सिबिलिटी एंड बजट मैनेजमेंट ऐक्ट (The Fiscal Responsibility and Budget Management Act) ने निर्धारित किया कि राजकोषीय घाटा (जो मोटामोटी कुल उधार की सीमा दर्शाता है) मार्च 2021 तक जीडीपी का 3 प्रतिशत होना चाहिये। परंतु निर्मला सीतारमन के पिछले बजट ने ही 2020-21 में राजकोषीय घाटे का टार्गेट जीडीपी का 3.5 प्रतिशत तय किया था। इसके मायने हैं कि सरकार ने इस वर्ष के अपने टार्गेट में कानून द्वारा निर्धारित सीमा को लांघ लिया था। 

व्यवहार में आने वाले बजट के संशोधित आंकलन दर्शाएंगे कि वास्तव राजकोषीय घाटा इस टार्गेट से भी कितना आगे बढ़ जाएगा। निर्मलाजी के पास पूंजीगत व्यय या कल्याणकारी व्यय को बढ़ाने के लिए बहुत कम राजकोषीय गुंजाइश होगी। तो यह बहुत हद तक संभव है कि अर्थव्यवस्था महामारी-पूर्व की स्थिति तक वापस आने की स्थिति 2022-23 तक भी न बने। शायद यह चुनाव वर्ष, यानि 2024 तक ही हो पाए।

अगली मैक्रोइकनाॅमिक (macroeconomic ) चिंता है रोजगार के स्तर के बारे में। यदि रोजगार का स्तर गिरता है, आय और खर्च भी गिरेंगे, और जब औसत मांग और अधिक संकुचित होती है, रिकवरी और भी लंबित होती है। प्रति त्रिमास रोजगार के स्तर का सरकारी डाटा एकत्र किये जाने के अभाव में अर्थशास्त्री वास्तव में रोजगार डाटा प्राप्त करने के लिए मुख्य तौर पर सीएमआईई (CMIE), यानि सेंटर फाॅर माॅनिटरिंग इंडियन इकाॅनमी (Centre for Monitoring Indian Economy) के त्रैमासिक रोजगार सर्वे पर निर्भर रहते हैं। व्यापक पैमाने पर सीएमआईई के डाटा को विश्वसनीय माना जाता है, जबकि प्रमाण मिल चुके हैं कि मोदी सरकार सरकारी डाटा में हेरफेर कर रही है।

सरकारी बेरोजगारी दर मई 2020 में रिकार्ड 27 प्रतिशत था और लाॅकडाउन के उठने के बाद जून में 17.5 प्रतिशत तक गिर गया। अगस्त 2020 में जारी अपने आंकलन में सीएमआईई ने कहा कि 2019-20 के स्तर से यदि तुलना की जाए तो भारत में 2020 में 1 करोड़ 90 लाख कम वैतनिक रोजगार थे। यहां जरूरी है कि हम लाॅकडाउन के प्रभाव और उसके बाद की मंदी के प्रभाव में पार्थक्य करें। सीएमआईई डाटा को जरा गौर से देखें तो पता चलता है कि अप्रैल 2020 में 1 करोड़ 77 लाख वैतनिक रोजगार खत्म हो गए। मई में और 1 लाख रोजगार खत्म हुए। पर जब लाॅकडाउन आंशिक रूप से खुला तो 39 लाख रोजगार प्राप्त हुए। पर फिर  से जुलाई में 50 लाख वैतनिक रोजगार (salaried jobs) खत्म हो गए, जबकि कोई नया लाॅकडाउन नहीं था। इसके मायने हैं कि मंदी का शुरुआती प्रभाव जुलाई से ही महसूस किया जाने लगा था। यह ट्रेन्ड जारी है।

पर भारत में सभी रोजगारों में से 21 प्रतिशत वैतनिक रोजगार हैं आर बाकी अनौपचारिक (informal) रोजगार हैं। चलिये हम अनौपचारिक रोजगार के खात्मे पर गौर करें। सीएमआईई डाटा दर्शाता है कि 9 करोड़ 12 लाख अनौपचारिक रोजगार अप्रैल 2020 में समाप्त हुए, जिसमें प्रवासी मजदूरों को भी ले लें; और इनमें से 68 लाख को अगस्त मध्य तक अपने काम पर लौटना था। तो भारत में 2020 में कुल 2 करोड़ 5 लाख औपचारिक व अनौपचारिक रोजगार स्थायी रूप से समाप्त हो गए। सीएमआईई का अनुमान है कि प्रति वर्ष 80 लाख नए रोजगार पैदा करने होंगे ताकि देश कोविड-पूर्व रोजगार और श्रम भागीदारी दर तक पहुंचें। पर सबसे बड़ी चुनौति है कि कैसे बढ़ती मंदी के कारण और अधिक रोजगार खोने की स्थिति से बचा जा सके। व्यापार और फैक्टरी बंदी का एक दौर शुरू ही हो रहा है। 2021 का वर्ष अप्रत्याशित रोजगार समाप्ति का वर्ष हो सकता है। महामारी ने भारत में रोजगार हानि मुआवजे के अभाव को उजागर किया, जबकि सभी विकसित देशों में बेरोज़गारी भत्ते के रूप में सामाजिक सुरक्षा का प्रावधान होता है।


2020 में रोजगार हानि से अधिक व्यापक थी वेतन में कटौती, खासकर आईटी और अन्य हाई-टेक क्षेत्रों में और ई-काॅमर्स (e-commerce firms) कम्पनियों में। मैनुफैक्चरिंग में भी उच्च वेतन वाले श्रमिकों की जगह कम वेतन वाले निश्चित अवधि के अस्थायी श्रमिकों को रखा गया। पूंजीवाद में श्रमिकों को वेतन कटौती की भरपाई कभी नहीं मिलती। इसलिए इसी संदर्भ में भारतीय श्रमिक आंदोलन के लिए यह चुनौती है कि 2021 में वह कैसे नयी जमीन तोड़े। न्यूनतम बात तो यह होना चाहिये कि एक ऐसा नया कानून हो जो मनमाने वेतन कटौती के लिए, जो पहले से ही गैरकानूनी है, कड़ी सज़ा निर्धारित करे। इससे भी आगे, सरकार को चाहिये कि एक ऐसी अभिनव योजना तैयार करे जिसके तहत श्रमिकों को उनकी वेतन हानि के लिए मुआवजा मिले।

भले ही लाॅकडाउन खत्म हो गया हो, वायरस का खतरा अभी टला नहीं है। 2021 के राष्ट्रीय ऐजेंडा में टीकाकरण (vaccination) है। तो बजट के समक्ष तीसरी बड़ी चुनौती है कोरोना वैक्सिनेशन प्रोग्राम के लिए पर्याप्त फंड का आवंटन। सरकार अब तक स्पष्ट टीकाकरण नीति लेकर नहीं आई है। देश के नाम अपने एक संबोधन में मोदी ने स्वयं वायदा किया कि प्रत्येक भारतीय को एक निशुल्क वैक्सीन मिलेगी। बाद में उनकी सरकार ने उनके इस मत को ही खारिज कर दिया। केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव ने प्रेस को सूचित कर दिया कि सरकार की कभी यह नीति नहीं थी कि समस्त नागरिकों का टीकाकरण किया जाएगा। बाद में सरकार ने घोषणा कर दी कि पहले राउंड में केवल 30 करोड़ भारतीयों को वैक्सीन दिया जाएगा। हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि बाकी 100 करोड़ नागरिकों का क्या होगा। सरकार ने प्राइवेट सेक्टर को भी प्रवेश करने दिया है और कह दिया है कि जो भी खर्च वहन कर सकता है, प्राइवेट स्वास्थ्य सेवा व्यवसाइयों के यहां जा सकता है। इससे मध्यम वर्ग के बीच भारी दबाव पैदा हो सकता है और वैक्सीन के नाम पर विभाजन भी बढ़ सकता है। दूसरी ओर, कोरोना वायरस का एक नया प्रकार कई भारतीय शहरों में फैलने लगा है।

यदि एक ‘सेकेन्ड वेव’ आता है तो इसका हमारी अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या निर्मला सीतारमन आगामी बजट में इसके लिए उपयुक्त आवंटन करेंगी, यह स्पष्ट नहीं है। अब तक भारत में जितने टीकाकरण कार्यक्रम हुए हैं, उनके खर्च को केंद्र सरकार ने ही वहन किया है। पर अब मोदीजी कह रहे हैं कि केंद्र केवल वैक्सीन किट सप्लाई करेगा। उनकी ढुलाई, स्टोरेज, और कार्यक्रम लागू करने का खर्च राज्य को वहन करना होगा। मोदीजी ने व्यक्तिगत तौर पर वायदा किया है कि वह कुछ ही दिनों में कार्यक्रम शुरू कर देंगे पर भारत के किसी भी राज्य में ठंडी स्थिति में स्टोरेज का, परिवहन का या दसियों हज़ार टीमों का, जो छः महीने में वैक्सिनेशन कार्यक्रम को सफल करेगा-आधारभूत ढांचा है ही नहीं। इसपर भी कोई स्पष्टता नहीं है कि जब प्राइवेट कम्पनियां मैदान में उतरेंगी तो वैक्सीन कार्यक्रम कितना सुरक्षित होगा।

फिर चीन से तनाव के चलते देश का रक्षा बजट भी बढ़ेगा, क्योंकि भारतीय सेना ने तय कर लिया है कि 1000 किलोमीटर के बार्डर पर कम-से-कम 100 पर्वत शिखरों पर सेना तैनात होगी। पर बाॅर्डर पर इस आक्रामक रुख की बड़ी कीमत भी होगी। चीन से युद्ध जब प्राथमिकता ग्रहण कर ले तो करोना से लड़ने के लिए कितना आवंटन होगा, इसका अनुमान हम लगा ही सकते हैं।

मीडिया की प्रारंभिक धारणा के विरुद्ध यह देखा जा रहा है कि वायरस धनी और मध्यम वर्ग के लोगों को अधिक चपेट में ले रहा है बजाए गरीब लोगों के; महामारी का असर सार्वभौम है और उसने आर्थिक और सामाजिक तौर पर गरीबों को अनुपात से अधिक प्रभावित किया। यह भी देखना बाकी है कि बजट गरीबों पर महामारी के असर को संबोधित करता है या कि अपने विशिष्ट ‘सूट-बूट की सरकार’ वाले रूप में ही बना रहता है।

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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