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अगर संसद भवन पूरे देश का है तो सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट में जनता की भागीदारी क्यों नहीं?

संसद भवन और सरकार के मंत्रालय भारतीय लोकतंत्र की विरासत हैं। इनके नवीनीकरण पर जिस तरह से जनता को दूर रखा गया है वह पूरी तरह से निराश करने वाला है।
सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट

वो जमाना राजा महाराजाओं का था, जब एक तरफ अकाल पड़ा होता था, लोग भूख से मर रहे होते थे और राजा अपनी विरासत को दर्शाने के लिए ऊंची ऊंची इमारतें बनवाया करता था। लेकिन यह जमाना तो लोकतंत्र का है। लोक से बनी हुई प्राथमिकताओं का है इसलिए अगर कहीं भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन में यह बैठा हो कि अपने कार्यकाल को इतिहास में प्रतीकात्मक तौर पर दर्ज करने के लिए नए संसद भवन का निर्माण एक शानदार तरीका है तो इसकी एक व्याख्या यह भी हो सकती है कि वह लोकतांत्रिक दौर में दर्ज किए जाने वाले इतिहास के मानकों को समझने में पूरी तरह से चूक कर रहे हैं। लेकिन ये सारी बातें इतिहास पर छोड़ देनी चाहिए।

आने वाला इतिहास यह तय करेगा कि एक लोकतांत्रिक समाज में एक नेता को एक महामारी के दौर में लोगों की तंगहाली को ज्यादा तवज्जो देना चाहिए था या एक ऐसे काम को जिसका प्रतीकात्मक तौर के सिवाय और कोई महत्व नहीं है। एक पत्रकार होने के नाते हमारा काम वर्तमान का है तो हम ये छानबीन करते हैं कि नए संसद भवन बनाने से जुड़ी जरूरी प्रक्रियाओं पर ध्यान दिया गया या नहीं?

सबसे पहले ये जानते हैं कि आखिर नए संसद भवन के निर्माण से जुड़ा सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट है क्या?

20 मार्च 2020 को नोटिफिकेशन जारी कर दिल्ली के सात जमीन के टुकड़े के इस्तेमाल के तौर तरीके में बदलाव करने की बात की गई। यह जमीन का टुकड़ा राष्ट्रपति भवन से लेकर इंडिया गेट तक के 3 किलोमीटर का इलाका है। जिसे सेंट्रल विस्टा के नाम से साल 1962 से जाना जाता है। नया संसद बनाने के नाम पर सार्वजनिक तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले इस इलाके को पूरी तरह से सरकारी बनाने की योजना का खाका तैयार हो चुका है।

विशेषज्ञों का कहना है कि सेंट्रल विस्टा के तकरीबन 3 किलोमीटर इलाके में मौजूद 87 एकड़ जमीन पर सरकार का कब्जा हो गया है। यहां सरकारी भवन बनेगा। बाकी 15 से 20 एकड़ जमीन पब्लिक के इस्तेमाल के लिए बचा रहेगा।

जब से इस प्रोजेक्ट का ऐलान किया गया था तब से पर्यावरण से जुड़े कार्यकर्ताओं, आर्किटेक्चर और विपक्ष के नेताओं द्वारा इस प्रोजेक्ट का विरोध किया गया। सब ने यह सवाल पूछा कि सब कुछ अंधेरे में रखते हुए बिना किसी पारदर्शिता को अपनाए हुए सरकार ने इतना बड़ा फैसला कैसे ले लिया? संसद भवन का विषय सर्वजन से जुड़ा हुआ विषय है। इससे जुड़ी सारी जानकारियों को पब्लिक में रखना चाहिए था।

विरोध से जुड़ा मामला हाल फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया है इसलिए भले ही नया संसद भवन बनाने से जुड़ा भूमि पूजन हो चुका हो लेकिन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी है कि जब तक नया संसद भवन बनाने से जुड़ा फैसला सुप्रीम कोर्ट नहीं कर देती है तब तक किसी भी तरह का निर्माण का काम नहीं किया जाएगा। एक भी ऐसा पत्थर नहीं रखा जाएगा जो सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट से जुड़ा हुआ हो।

सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के तहत साल 1920 में बने संसद भवन को छोड़कर सभी तरह के मंत्रालयों को ध्वस्त कर नए संसद भवन का निर्माण करने का मसौदा तैयार हुआ है। जिसके अंतर्गत तकरीबन 10 मंजिली तिकोनी बिल्डिंग बनेगी जहां सभी मंत्रालय भी होंगे। इस निर्माण पर सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने यह तर्क दिया है कि पुराना संसद भवन तकरीबन 100 साल पुराना हो चुका था। इतना पुराना कि सुरक्षा के लिहाज से बहुत अधिक खतरनाक था। साथ में मंत्रालय भी दूर-दूर थे। सरकार इन सब से निपटने के लिए नया संसद भवन बना रही है और साथ में सभी मंत्रालयों को भी रख रही है। ताकि सरकारी कामकाज प्रभावी और आसान तरीके से होता रहे।

दूसरा तर्क सरकार की तरफ से दिया जा रहा है कि साल 2031 में परिसीमन होने के बाद सांसदों की संख्या में बढ़ोतरी होगी। बढ़े हुए सांसदों को संभालने की क्षमता मौजूदा संसद भवन में नहीं है इसलिए नया संसद भवन बनाया जा रहा है।

सरकार के इस तर्क पर विशेषज्ञों का मानना है कि मान लेते हैं कि संसद 100 साल पुरानी है। परिसीमन के बाद सांसदों की संख्या बढ़ेगी। लेकिन इस परेशानी के हल के तौर पर यह कैसा समाधान है कि मौजूदा संसद को पूरी तरह से खारिज कर पुराने मंत्रालयों को हटाकर पूरी तरह से नया तामझाम खड़ा किया जाए।

पुराना संसद भवन अभी भी इतना कारगर है कि उसमें बहुत सारे सुधार कर परिसीमन के बाद पैदा होने वाली अड़चनों को ठीक किया जा सकता है। पुराने संसद भवन में सुरक्षा के लिहाज से भी सुधार किया जा सकता था। कुछ और भवन भी तैयार किए जा सकते थे। लेकिन यह कैसा सुधार कि नए के नाम पर पुराना पूरी तरह से छोड़ा जा रहा है और पुराने का बहुत बड़ा हिस्सा ध्वस्त किया जा रहा है।

अब इस सवाल से टकराते हैं कि नए संसद भवन के निर्माण के लिए क्या एक लोकतांत्रिक सरकार के लिहाज से पारदर्शी प्रक्रिया को अपनाया गया?

साल 2019 में फ्रांस की ऐतिहासिक विरासत नोट्रे डम कैथड्रल में आग लग गई। इसकी छत तहस-नहस हो गई। दुनिया भर से छत की मरम्मत करवाने के लिए डिजाइन मंगवाए गए। तकरीबन 30 हजार लोगों ने आवेदन किए। सब कुछ सार्वजनिक था। इन डिजाइनों में से चुनाव भी सार्वजनिक मानकों के आधार पर हुआ। तब जाकर चीन के दो आर्किटेक्चर को चुना गया। क्या ऐसे ही पारदर्शी प्रक्रिया सेंट्रल विस्टा के लिए अपनाई गई? क्या लोगों के बीच यह बात फैलाई गई कि नया संसद भवन बनेगा? आप सब इस पर अपना विचार दीजिए? अगर यह काम राष्ट्रीय महत्व का है? राष्ट्र के गौरव से जुड़ा है? तो इसमें राष्ट्र को क्यों नहीं शामिल किया गया? क्या लोगों को इसमें शामिल नहीं करना चाहिए था?

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक साल 2008 से दिल्ली को यूनेस्को के तहत इंपीरियल कैपिटल सिटीज  की मान्यता दिलवाने की कवायद चल रही थी। लेकिन जब 2015 में इसे अंतिम रूप दिया जाना था तो इस कवायद को अचानक से रोक लिया गया। इसके पीछे की वजह क्या थी किसी को नहीं पता? विशेषज्ञों का कहना है कि अगर साल 2015 में दिल्ली को इंपीरियल कैपिटल सिटीज की मान्यता मिल जाती। तो सेंट्रल विस्टा एरिया में किसी भी तरह का नया काम करना बहुत मुश्किल होता। अब यह क्यों नहीं हुआ इसका जवाब साफ दिख रहा है। और इसका जवाब यह है कि साल 2015 से ही सेंट्रल विस्टा को बदल देने की कवायद चुपचाप चलती आ रही है।

केवल 6 हफ्ते के अंदर सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के टेंडर के काम को पूरा कर लिया गया। 6 संस्थाएं चुनी गई। बंद दरवाजों के अंदर इनसे बातचीत हुई। और अंत में जाकर अहमदाबाद की एक ठेके पर काम करने वाली एक संस्था एचसीपी डिजाइन प्लानिंग एंड मैनजमेंट प्राइवेट लिमिटेड को सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट का ठेका दे दिया गया।

इसी ठेका कंपनी के साथ गुजरात में अपने मुख्यमंत्री काल के दौरान नरेंद्र मोदी ने साबरमती रिवर फ्रंट का काम करवाया था। यानी इस ठेका कंपनी के साथ प्रधानमंत्री का पुराना नाता है।

कानूनी मामलों के जानकार गौतम भाटिया द हिंदू अखबार में लिखते हैं कि सार्वजनिक तौर पर महत्वपूर्ण ऐसे काम के लिए सरकार ने यह भी उचित नहीं समझा कि इस प्रोजेक्ट से जुड़ी डिजाइन सार्वजनिक तौर पर मुहैया करवाई जाए? ताकि राष्ट्रीय महत्त्व से जुड़े इतने महत्वपूर्ण स्मारक पर सभी नागरिक अपना फीडबैक दे सकें। इस महत्वपूर्ण स्मारक का मॉडल अगर जनता के बीच उपलब्ध करवाया जाता तो इस तरह के मामलों से जुड़े कई सारे विशेषज्ञ इस पर अपनी राय देते तो बेहतर होता।

यूनिफाइड बिल्डिंग बाई लॉ के तहत सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के पूरा हुए बिना ही इसे ग्रेड 1 की सबसे ऊंची हैसियत दे दी गई है। कानूनी तौर पर इसका मतलब यह होता है कि वैसा कोई भी हस्तक्षेप अब स्वीकार नहीं होगा जो बिल्डिंग के फायदे में ना हो। किसी भी तरह का रीडेवलपमेंट या इसमें हेरफेर हेरिटेज कंजर्वेशन कमिटी की इजाजत के बाद ही होगा।और यह कमेटी तभी बैठेगी जब पब्लिक अपनी आपत्तियां दर्ज करेगी।

आसान भाषा में यह समझिए कि सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट में बदलाव तभी हो पाएगा जब पब्लिक इसके लिए आवाज उठाएगी। और पब्लिक तो तभी आवाज उठाएगी जब सामने मौजूद इमारत से उसे परेशानी का एहसास होगा। और ऐसी कोई भी संभावना तभी बनती है जब इमारत बनकर तैयार हो चुकी हो।

जहां तक एनवायरमेंटल क्लीयरेंस की बात है तो बिना किसी एन्वाइरन्मेंट इंपैक्ट स्टडी के 22 अप्रैल को तालाबंदी के समय मिनिस्ट्री आफ एनवायरमेंट फॉरेस्ट एंड क्लाइमेट चेंज की तरफ से एनओसी का सर्टिफिकेट दे दिया गया। जबकि तकरीबन सेंट्रल विस्ता प्रोजेक्ट के खिलाफ पर्यावरण से जुड़ी 1200 आपत्तियां नागरिकों की तरफ से दाखिल की गई थी।

अंग्रेजी के कई अखबार सूत्रों के हवाले से यह जानकारी छाप रहे हैं कि इस प्रोजेक्ट में तकरीबन 12 हजार करोड़ से अधिक रुपए लगेंगे। इसके अलावा सरकारी कामों में होने वाले भ्रष्टाचार को जोड़ लीजिए तो यह और भी महंगा साबित होगा। इसलिए खर्चे का सवाल तो है ही लेकिन अगर इतिहास की नजर से ही देखा जाए तो सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि संसद भवन और सरकार के मंत्रालय भारत नाम के विचार की मूर्त नुमाइंदगी करते हैं। भारत एक लोकतंत्र है ना कि राजतंत्र। इस लिहाज से संसद भवन से लेकर सरकार के मंत्रालय सब पर जनता का हक है। और अगर इनमें पूरी तरह से तब्दीली करनी है तो क्यों ना यह कहा जाए कि सरकार ने बड़े ही गुपचुप तरीके से काम किया है।

भारत के राष्ट्रीय गौरव से भारत की जनता की सहभागिता को इरादतन दूर रखा है। भारतीय जनता की सहभागिता यहां बहुत अधिक अहमियत रखती है। अगर संसद भवन और सरकार के मंत्रालय भारतीय लोकतंत्र के विरासत हैं तो इनके नवीनीकरण पर जिस तरह से जनता को दूर रखा गया है वह पूरी तरह से निराश करने वाला है।

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