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आधारभूत ढाँचे में विशाल निवेश का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ऐलान किया कि उसके उच्च अधिकार कार्य बल ने 102 लाख करोड़ रुपये के निवेश की योजनाओं को स्वीकृति दे दी है तथा अगले कुछ महीने में 3 लाख करोड़ रुपये की और योजनाओं को भी मंजूरी दी जायेगी।
Economic slowdown in India

साल 2019 के अंतिम दिन फिर एक बार वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में अर्थव्यवस्था के उद्धारकर्ता देवदूत के अपने जाने पहचाने अवतार में प्रकट हुईं। इस बार जो बड़ी घोषणाओं की बौछार हुई वह आधारभूत ढाँचे में भारी भरकम निवेश से संबंधित थीं।

वित्त मंत्री ने ऐलान किया कि उसके उच्च अधिकार कार्य बल ने 102 लाख करोड़ रुपये के निवेश की योजनाओं को स्वीकृति दे दी है तथा अगले कुछ महीने में 3 लाख करोड़ रुपये की और योजनाओं को भी मंजूरी दी जायेगी। इस प्रकार कुल 105 लाख करोड़ रुपये के कुल पूँजी निवेश की योजना प्रस्तुत की गई।

102 लाख करोड़ की योजनाओं में 18 राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों की योजनायें बताई गईं हैं जो 22 विभिन्न मंत्रालयों के अंतर्गत आती हैं।

ये प्रोजेक्ट मुख्यतः इन क्षेत्रों में हैं - ऊर्जा (25 लाख करोड़ रुपये), सड़क (20 लाख करोड़ रुपये), रेलवे (14 लाख करोड़ रुपये), बंदरगाह व हवाई अड्डे (2.5 लाख करोड़ रूपये), डिजिटल (3.2 लाख करोड़ रुपये), सिंचाई, ग्रामीण, कृषि, खाद्य प्रसंस्करण (16 लाख करोड़ रुपये) तथा यातायात (16 लाख करोड़ रुपये)।

इसमें से 47 लाख करोड़ रुपये की योजनायें पहले से क्रियान्वयन के चरण में हैं, 37 लाख करोड़ रुपये के प्रस्तावों की विस्तृत योजना तैयार है और 18 लाख करोड़ रुपये के लिए विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाई जा रही है।

विभिन्न वित्तीय वर्षों में सरकारी खर्च का अनुमान इस प्रकार है – वित्तीय वर्ष 2020 – 13.6 लाख करोड़ रुपये, 2021 – 19.5 लाख करोड़ रुपये, 2022 – 19 लाख करोड़ रुपये, 2023 – 13.8 लाख करोड़ रुपये, 2024 – 13 लाख करोड़ रुपये, 2025 - लाख करोड़ रुपये।

इस विशाल घोषित खर्च के लिए वित्तीय स्रोत क्या होगा? वित्त मंत्री के अनुसार इस खर्च में 39-39% का बराबर हिस्सा केंद्र तथा राज्यों के जिम्मे होगा जबकि 22% निवेश निजी क्षेत्र के जिम्मे होगा। यह खर्च निवेश के लिए बनाए गए विशेष संस्थानों के जरिये होगा, जो वित्तीय बाजार से कर्ज जुटायेंगे।

निजी क्षेत्र का निवेश पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के जरिये आयेगा। यहाँ यह जरूरी हो जाता है कि अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति और सरकारी वित्तीय घाटे की मौजूदा हालत के परिप्रेक्ष्य में इतने बड़े निवेश की संभावना और उसके संभावित नतीजों का विश्लेषण किया जाये।

31 दिसंबर को ही यह तथ्य भी सामने आया कि चालू वित्तीय वर्ष के दिसंबर में समाप्त पहले नौ महीनों में कुल वित्तीय घाटा पूरे वित्तीय वर्ष के बजट अनुमानों का 115% हो चुका है। प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष करों, विशेष तौर पर जीएसटी, की वसूली बजट अनुमानों से लगभग दो लाख करोड़ पीछे होने की खबरें भी पहले से सुज्ञात हैं।

हालाँकि सरकार अपने वित्तीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 3.2% बताती रही है किंतु सार्वजनिक क्षेत्र के कुल घाटे (केंद्र सरकार + राज्य सरकार + सार्वजनिक उद्यम) को जोड़ा जाये तो कुल वित्तीय घाटा जीडीपी के 9% के ऊपर है जिसके लिए सरकारों को वित्तीय बाज़ारों से विभिन्न प्रकार से कर्ज लेना पड़ रहा है।

किंतु कॉरपोरेट क्षेत्र को छोड़कर कुल घरेलू क्षेत्र की सालाना बचत सकाल घरेलू उत्पाद का मात्र 7% ही है अर्थात सरकार की ऋण आवश्यकता ही अर्थव्यवस्था में कुल बचत से 2% अधिक है।

आपूर्ति की तुलना में माँग अधिक है इसीलिए रिजर्व बैंक द्वारा रेपो रेट में 1.35% की कमी और सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद भी ऋण पर वास्तविक ब्याज दरें कम नहीं हो पा रही हैं। ऋण दरों को कम करने के लिए रिजर्व बैंक पिछले दो सप्ताह से ऑपरेशन ट्विस्ट चला रहा है जिससे वह दस साल के दीर्घ काल के लिए वित्तीय बाजार में नकदी प्रवाह बढ़ा सके और ब्याज दरें गिरें।

साथ ही अधिकांश जनता की आय भी बढ़ नहीं रही है जबकि महँगाई विशेष तौर पर शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में निजीकरण व व्यवसायीकरण के तेज होते दौर से महँगाई बहुत तेजी से बढ़ी है।

श्रमिक व गरीब किसानों के पास तो बचत की संभावना पहले ही बहुत सीमित थी, किंतु आज की स्थिति में मध्यम वर्ग की वित्तीय बचत क्षमता भी अत्यंत सिकुड़ गई है। अतः घरेलू क्षेत्र की बचत से वित्तीय आपूर्ति बढ़ने की भी तुरंत कोई आशा नहीं है। फिर सरकार निवेश के लिए ऋण कहाँ से जुटाएगी? उसके पास एक ही विकल्प बचाता है। वह है रिजर्व बैंक द्वारा नकदी प्रवाह अर्थात नये नोट ‘छापकर’ मुद्रा प्रसार को बढ़ावा देना। किंतु वह मुद्रा के मूल्य को कम कर आम जनता पर चोर दरवाजे से लगाये टैक्स के समान है। अर्थात कुल मिलाकर आम जनता की जेब से ही आधारभूत ढाँचे पर इस विशाल निवेश का खर्च जुटाया जायेगा।

जहाँ तक निजी क्षेत्र का सवाल है वह पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) के जरिये इन प्रोजेक्ट में भागीदारी करेगा। पिछले 20 सालों में इन पीपीपी प्रोजेक्ट का अनुभव बताता है कि इसके जरिये कुल खर्च में एक छोटा हिस्सा वहन करने के बावजूद निजी पूँजीपति इन प्रोजेक्ट के मालिक बन जाते हैं, इनसे होने वाली आय को पीछे से चुराते हैं और जब प्रोजेक्ट घाटे में आ जाते हैं तो घाटे को सार्वजनिक क्षेत्र के सिर डालकर अलग हो जाते हैं।

खास तौर पर पीपीपी मॉडल की सबसे बड़ी प्रणेता आईएलएफ़एस और उसकी 335 अनुषंगी कंपनियों के जरिये जिस लूट को अंजाम देकर 2018 में कंपनी को पूरी तरह डुबा दिया गया वह ही पिछले 15 महीने से चल रहे गैर वित्तीय कंपनियों और बैंकों के आर्थिक संकट की एक मुख्य वजह रहा है। तजुरबा यही कहता है कि पीपीपी का अर्थ है – लाभ प्राइवेट, घाटा सार्वजनिक!
 
एक तीसरा पक्ष है कि मौजूदा आर्थिक संकट का मुख्य कारण सिकुड़ती माँग है जिसके कारण पहले से ही स्थापित उद्योग क्षमता के 65-70% पर ही उत्पादन कर पा रहे हैं तथा उनमें ऋण से हुये पूँजी निवेश पर ब्याज चुकाने तक की नकदी आय नहीं जुटा पा रहे हैं। तब नये आधारभूत उद्योग कैसे लाभप्रद होंगे और 2008-09 में किए गए ऐसे ही निवेश के परिणामस्वरूप 2012-13 में बैंकों के सामने आये विशाल डूबे ऋणों के संकट को दोबारा पैदा नहीं करेंगे?

खास तौर पर जिस तरह से पूरे आधारभूत ढाँचे की योजना आधिकांश आबादी की जरूरतों के बजाय 10% अमीर जनसंख्या की चाहत आधारित हो गई है उसमें इनके लिए पर्याप्त माँग कहाँ से आयेगी? इसके लिए दिल्ली मेट्रो का उदाहरण ले सकते हैं जहाँ भाड़े में वृद्धि होते ही यात्रियों की संख्या में भारी गिरावट हो गई। मुंबई में एसी लोकल व मेट्रो के लिए जिन किरायों की चर्चा है उससे भी यात्रियों की संख्या बहुत होने की संभावना नहीं है।

अतः कुछ साल में ही ये विशाल चमकते प्रोजेक्ट भारी घाटे में रहने की संभावना है और इनका खर्च जुटाने के लिए आम जनता पर वसूली का एक नया दौर शुरू होगा।

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