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झारखंड में आदिवासियों को लेकर अलग धर्म कोड की मांग फिर तेज़ हुई

भाजपा समर्थित राजधानी रांची की मेयर आशा लकड़ा ने आदिवासियों के लिए अलग श्रेणी का कॉलम बनाने की मांग की है जिसमें हिन्दू या ईसाई का स्पष्ट उल्लेख हो। इसे लेकर सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रियाओं का दौर चल रहा है।
झारखंड
Image courtesy: Social Media

आदिवासी क्या हैं अथवा उनका धर्म क्या है। इसे लेकर जारी सामाजिक चर्चा इन दिनों झारखंड प्रदेश में फिर से सरगर्म हो उठी है। इसमें आग में घी का काम भाजपा समर्थित राजधानी रांची की मेयर आशा लकड़ा के दिये सार्वजनिक बयान ने किया है। 16 मार्च को रांची नगर निगम में आयोजित पाँच दिवसीय फील्ड ट्रेनर प्रशिक्षण कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उन्होंने मांग किया कि आदिवासियों के लिए अलग श्रेणी का कॉलम बने। जिसमें हिन्दू या ईसाई का स्पष्ट उल्लेख हो।

17 मार्च को इस बयान कि खबर मीडिया में प्रकाशित होते ही सोशल मीडिया में तीखी प्रतिक्रियाओं का सिलसिला शुरू हो गया– आदिवासी सिर्फ आदिवासी है! आदिवासी को हिन्दू–ईसाई में न बांटें, आदिवासी को सिर्फ आदिवासी कि श्रेणी में ही रखें! आदिवासी को हिन्दू बनाने की संघी साजिश नहीं चलेगी! प्रकृतिपूजक आदिवासी को हिन्दू घोषित करनेवाले संघ परिवार के आदिवासी एजेंटों का सामाजिक बहिष्कार करो! संघ परिवार से जुड़े आदिवासी, सही आदिवासी नहीं हैं! होश में आओ .... इत्यादि।

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आदिवासी सवालों पर निरंतर सक्रिय रहनेवाले आदिवासी बुद्धिजीवी मंच के वरिष्ठ प्रतिनिधि वाल्टर कंडुलना ने इस मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया सोशल मीडिया में लिखने के साथ साथ बताया, 'आरएसएस–भाजपा ने जिस प्रकार से नागरिकता के सवाल पर सीएए–एनआरसी लाकर समाज को हिन्दू मुसलमान में बांटने की सांप्रदायिक साजिश रची है, झारखंड में वही खेल अब झारखंड के आदिवासी समाज में हिन्दू-ईसाई का विभाजन पैदा करके किया जा रहा है। वैसे आरएसएस द्वारा यह खेल झारखंड में आदिवासी सामाज की एकता तोड़ने के लिए काफी पहले से ही खेला जा रहा है। आशा लकड़ा द्वारा दिये बयान में सिर्फ मुंह उनका है, शब्द संघ परिवार से निर्धारित हैं।'

उन्होंने आगे कहा कि विधान सभा चुनाव में आदिवासी समाज ने भाजपा के जन विरोधी नीतियां को जिस तरीके से हराया है। संघ परिवार उससे काफी बौखलाया हुआ है। हिन्दू–ईसाई का विभाजन का कार्ड उसी की भरपाई के लिए खेला जा रहा है।

गौरतलब है कि पिछले 20 फरवरी को सरसंघचालक मोहन भागवत द्वारा झारखंड दौरे के क्रम में दिये गए बयान–आगामी जनगणना के धर्म वाले कॉलम में आदिवासी अपना धर्म हिन्दू लिखें पर झारखंड व दिल्ली समेत कई राज्यों के आदिवासियों ने सड़कों पर उतर कर कड़ा विरोध प्रदर्शित किया था। साथ ही उनके इस बयान कि ईसाई संगठन चाहता है कि सारे आदिवासी ईसाई बन जाएं इसलिए हिन्दू संगठन उन्हें अपने पाले में लाने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहें हैं पर भी तीखा विरोध प्रकट किया।
 
वरिष्ठ आदिवासी चिंतक और शिक्षाविद पद्मश्री रामद्याल मुंडा लिखित “आदि धर्म” समेत अनेकों देशी–विदेशी समाजशास्त्री और नृविश्लेषकों द्वारा लिखित किताबों और अनगिनत शोध आलेखों में यह बात प्रमुखता से लायी गयी है कि सिर्फ भारत ही नहीं पूरी दुनिया के आदिवासियों की बाकी समाज से एक पृथक व भिन्न अपनी अलग पहचान, भाषा-संस्कृति– परंपरा व जीवनशैली रही है। मानव समाज शास्त्र के उपलब्ध तथ्यों–शोध साक्ष्यों के मुताबिक भी आदिवासी समाज आदिवासी रहें हैं।

हाल में झारखंड समेत देश के कई हिस्सों के आदिवासी समाज के लोग जनसंख्या गणना समेत सभी सरकारी कार्यों में अपने लिए अलग धार्मिक कोड की मांग को लेकर निरंतर आवाज़ उठा रहें हैं। चंद महीने पहले दिल्ली के जंतर मंतर में झारखंड के कई आदिवासी संगठनों के लोग अपने लिए ‘सरना कोड’ की मांग को लेकर प्रदर्शन किए। झारखंड में तो इस मांग को लेकर अनेकों कार्यक्रम हुए हैं और अभी भी जारी हैं।
 
16 मार्च को आदिवासी विधायक बंधु तिर्की समेत कई आदिवासी संगठनों के प्रतिनिधियों ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से मिलकर चालू विधान सभा के सत्र से सरना धर्म कोड को मान्यता देने संबधी प्रस्ताव विधान सभा से पारित करने के लिए ज्ञापन भी दिया। राजी पड़हा सरना प्रार्थना सभा द्वारा तैयार इस ज्ञापन में विस्तृत आंकड़े पेश कर कहा गया है कि किस प्रकार से देश के 12 करोड़ से भी अधिक आबादी वाले आदिवासी समुदाय के लोग अलग धार्मिक कोड नहीं होने से अपनी अलग पहचान खो रहें हैं।

झारखंड के 70 लाख से भी अधिक आदिवासियों को अलग धार्मिक कोड नहीं होने के कारण उन्हें हिन्दू या ईसाई धर्म कॉलम में अपना नाम डालने को मजबूर होना पड़ रहा है। इस बार तो मोदी शासन ने 2021 के जनगणना पपत्र से अगल धर्म ( others religions) का कॉलम हटाकर हमारे स्वतंत्र अस्तित्व के अधिकार को ही छीन लिया है।
 
उक्त संदर्भों में देखा जाय तो झारखंड समेत देश के सभी आदिवासियों द्वारा अपने स्वतंत्र धार्मिक पहचान की मांग करना देश के सभी नागरिकों की भांति उनका भी संवैधानिक–लोकतान्त्रिक अधिकार तो बनता ही है। देश की आज़ादी के संघर्षों से लेकर बाद के समयों में देश के विकास और राष्ट्रनिर्माण में आदिवासी समुदायों की भूमिका किसी भी समुदाय अथवा संप्रदाय से कम नहीं रही है। चर्चा है कि वर्तमान झारखंड सरकार प्रदेश के आदिवासियों के लिए अलग धार्मिक कोड के रूप में ‘सरना कोड ’ लागू करने का प्रस्ताव विधान सभा के चालू सत्र से पारित करनेवाली है।

बावजूद इसके यदि कोई पार्टी विशेष अथवा संघ–संस्था आदिवासी समाज को जबरन अपना अंग बनाने अथवा अपने अंदर समाहृत करने की कवायद में निरंतर संलग्न है तो यह कहाँ तक न्याय संगत कहा जाएगा?  सबसे बढ़कर जब 2021 की राष्ट्रीय जनगणना प्रक्रिया चलेगी तो देश के सभी नागरिकों के लिए उनका अपना धार्मिक कोड होगा, लेकिन देश के लाखों लाख आदिवासी किस धार्मिक कॉलम में रहेंगे ..... एक बड़ा संवैधानिक नागरिक सवाल है!   

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