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आर्थिक असमानता एवं कॉर्पोरेट हिंदुत्व की धुरी पर नाचते भारत का शर्मनाक रिकॉर्ड

देश में संपत्ति पर कराधान का मामला हमेशा से नाममात्र का रहा है, लेकिन मोदी सरकार में इसे वास्तविक अर्थों में ना सिर्फ़ ख़त्म कर दिया गया, बल्कि एक क़दम आगे बढ़कर कॉर्पोरेट सेक्टर पर और अधिक कर रियायतों की बौछार भी कर दी गई है।
India’s Shameful Record on Wealth
फाइल चित्र

धन-संपदा के आँकड़े पूरी तरह से यक़ीन के काबिल नहीं रहे हैं, और संपत्ति वितरण के आँकड़े तो उससे भी कहीं और अधिक। एकमुश्त आँकड़ों पर भी पूरी तरह से यकीन नहीं किया जा सकता है, लेकिन कई देशों की आपस में तुलना करने पर और किसी भी देश में समय के साथ देश के शीर्ष दस प्रतिशत की हिस्सेदारी में उतार-चढ़ाव या आबादी के प्रतिशत का, एकमुश्त आंकड़ों की गड़बड़ी से प्रभावित होने की संभावना कम ही लगती है।

हक़ीक़त तो यह है कि भारत में आर्थिक-असामनता का बढ़ना निरंतर जारी है। एक अर्थ में यह कह सकते हैं कि कुल संपदा में शीर्ष के 1% लोगों की स्थिति पूरी तरह से असंदिग्ध है, जैसा कि तथ्यों से जाहिर है कि बढ़ते आर्थिक-असमानता के मामले में ज़्यादातर विकसित और "नए उभरते" देशों के समूह से संबंधित देशों की तुलना में यहाँ पर यह ऊँचे स्तर पर बना हुआ है।

वास्तविकता में इन विकसित और "नए उभरते" देशों के समूह में यदि पुतिन के रूस और बोल्सोनारो के ब्राज़ील को छोड़ दें तो, जिनके शीर्ष के 1% लोगों की धन सम्पदा का आबादी के बाकी हिस्सों से 2019 में भारत के 1% धनाड्य वर्ग से कहीं अधिक है, वर्ना बाकी के देशों की तुलना में भारत सर्वाधिक आर्थिक तौर पर ग़ैर-बराबरी वाले देशों में से एक है।

2019 के लिए क्रेडिट सुइस  की ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुल संपदा का (45%) हिस्सा शीर्ष के 1% लोगों के हाथ में था, जो कि जापान के 1% के हाथ में यह (18%), इटली और फ़्रांस के (22%), यूनाइटेड किंगडम के (29%), चीन और जर्मनी के (30%) और अमेरिका के (35%) की तुलना में काफी अधिक था।

यह हिस्सेदारी 2000 और 2019 के बीच इन सभी विकसित एवं "नए उभरते" देशों में करीब-करीब हर जगह बढ़ी थी, लेकिन भारत के मामले में यह उछाल 38% से 45%  तक देखने को मिली है।

इसमें विशेष रूप से उल्लेखनीय तथ्य यह है कि अपने पड़ोसी देशों की तुलना में यह आर्थिक-ग़ैरबराबरी की खाई भारत में कहीं अधिक तेज़ी से बढ़ी है चाहे इसे गिन्नी गुणांक के माध्यम से आँका जाए या आबादी के शीर्ष 10% की संपत्ति के अनुपात को आबादी के सबसे निचले पायदान पर मौजूद 10% हिस्से की आय से इसका तुलनात्मक अध्ययन किया जाए। असल में अफ़ग़ानिस्तान को छोड़कर सभी दक्षिण एशियाई मुल्कों की तुलना में भारत में अमीरी-ग़रीबी अपने उच्चतम स्तर पहुँच चुकी है। ऐसी बात नहीं है कि हमेशा से ही ऐसा मामला था, लेकिन जबसे नव-उदारवादी दौर की शुरुआत हुई है तब से इसमें बढ़ोत्तरी होती चली गई है और आज वह इस बिंदु तक पहुँच गई है, जहाँ पर भारत की स्थिति पड़ोसी देशों से भी बदतर हो चुकी है।

भारत ऐसी भयानक आर्थिक-ग़ैरबराबरी वाला देश क्यों बनता चला गया है? तुरत-फुरत में इसके लिए जो जवाब दिया जा सकता है वह यह है कि इसका सम्बन्ध उच्च विकास दर के साथ जुड़ा हुआ है। और चूँकि हाल-फिलहाल तक भारत उच्च विकास दर वाला देश रहा है, इसलिये नव-उदारवादी नीतियों को लागू करने के तहत आर्थिक-ग़ैरबराबरी में बढ़ोत्तरी होते जाने को लेकर इसमें किसी प्रकार के आश्चर्य का विषय नहीं है।

इसके बढ़ते जाने के पीछे के तर्क बेहद सरल हैं। उच्च विकास हासिल करने के लिए जीडीपी के बड़े हिस्से के निवेश किये जाने की आवश्यकता होती है, क्योंकि पूंजी-उत्पादन अनुपात केवल समय के साथ धीरे-धीरे बदलता है। और उसी के अनुरूप यह पूंजी संचय की उच्च दर के लिए मजबूर करने में जाहिर होता है।

एक नव-उदारवादी शासन के तहत, जहाँ पर सार्वजनिक निवेश की भूमिका काफी कम हो जाती है, यह पूंजीपतियों के हाथों में पूंजीगत स्टॉक की वृद्धि की उच्च दर को बनाये रखने को मजबूर करता है, और इसलिए पूंजीपतियों के संपत्ति के विकास की दर ऊँची बनी रहती है। जबकि दूसरी तरफ कुछ व्यक्तिगत संपत्ति या छोटे-मोटे जायजाद के रूप में ग़रीबों की सम्पत्ति कमोबेश अपरिवर्तित रहती है। और इस दौरान इस प्रकार से अमीरों की सम्पत्ति, इस तीव्र विकास की अवधि में तेजी से बढती जाती है, जिसका मतलब है इस अवधि में आर्थिक-ग़ैरबराबरी की खाई तेज़ी से बढने लगती है ।

हालाँकि, यह तर्क जो उच्च विकास की दर को बनाए रखने के लिए आर्थिक-ग़ैरबराबरी की कीमत को चुकाने के औचित्य को सिद्ध करता है, तार्किक रूप से टिकाऊ नहीं है। लेकिन इससे पहले कि ऐसा क्यों नहीं है, आइये पहले एक प्रारंभिक प्रश्न पर विचार करते हैं।

यदि उच्च विकास की दर में तीव्र वृद्धि इसलिये हो रही हो, क्योंकि छोटे पूंजीपति या छोटे-मोटे उत्पादन के क्षेत्र तेजी से यह विकास हासिल हुआ है, तो इसे शीर्ष पर बैठे 1% लोगों की हिस्सेदारी में गिरावट के साथ भी किया जा सकता है। क्या उच्च विकास के साथ सर्वाधिक प्रतिशत वाले समूह की हिस्सेदारी में बढ़ोत्तरी, का अर्थ है आर्थिक-ग़ैरबराबरी के बढ़ते जाने के साथ संबंध है, इसलिए, यह उस विकास की प्रकृति पर निर्भर करता है कि वे कौन से गतिशील क्षेत्र हैं, और किस आकार की पूंजी उन क्षेत्रों में प्रचलन में है। इसलिये यह आवश्यक नहीं कि उच्च विकास दर का अर्थ, शीर्षस्थ प्रतिशत समूह की संपत्ति की हिस्सेदारी में भी इजाफा हो। इस तथ्य के साथ कि ऐसा भारत में घटित हुआ है, यह हमारे विकास की प्रकृति के बारे में, यहाँ तक कि इसके होने के तर्कों की पोल खोलकर रख देता है।

इस तार्किकता की तार्किक कमजोरी एक सामान्य तर्क के चलते उत्पन्न होती है, जिसका अर्थ है कि पूंजीपतियों के हाथों में पूंजीगत स्टॉक में वृद्धि होने का मतलब यह नहीं है कि उनके पास भी उसी मात्रा में धन संचित हो चुका हो। जितना निवेश किया गया यह ज़रूरी नहीं कि आवश्यक रूप से मुनाफ़े के रूप में उतना ही फायदा पूँजीपतियों मिल ही जाए (और इसलिए बचत जो वास्तव में इकट्ठा होती है, वह उनके धन के अतिरिक्त होती है) जितने का उन्होंने निवेश किया होता है। इसलिये भले ही आउटपुट में निवेश के हिस्से को उच्च विकास हेतु उसमें बढ़ोत्तरी की गई हो, यह आर्थिक-ग़ैरबराबरी को बढाने में कैसे मददगार साबित हो सकती है, यह अपने आप में एक अलग मसला है।

इसे एक सामान्य उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिए कि निजी निवेश में 100 रुपये तक की बढ़ोत्तरी की जाती है। यह एक बंद अर्थव्यवस्था में 100 रुपये की बचत (सार्वजनिक निवेश के साथ) के रूप में होगा। 100 रुपये के अतिरिक्त निवेश का अर्थ है कि आय में बढ़ोत्तरी होनी चाहिए, मान लेते हैं कि इसमें 250 रूपये की हुई, जैसे कि गुणक के चलते (जैसे: क्योंकि कुल अतिरिक्त माँग पैदा हुई, और साथ ही साथ उसके खपत की मांग में वृद्धि में भी बढ़ोत्तरी के चलते)।

यदि टैक्स-जीडीपी का अनुपात 20% है और बचत-जीडीपी अनुपात भी 20% है, और यह मान कर चलते हैं कि सारी बचत पूँजीपतियों द्वारा की गई हैं और सभी टैक्स भी उनके द्वारा चुकाए गए हैं, तो उस स्थिति में पूंजीपतियों की बचत में 50 रूपये की बढ़त होगी और उसी प्रकार सरकार के राजस्व में भी बचत के रूप में 50 रुपये की वृद्धि होगी। पूंजीपतियों द्वारा अतिरिक्त निवेश के ज़रिये उनकी संपत्ति में 50 रुपये की वृद्धि हो जाती है। लेकिन इसी के साथ यदि सरकार भी पूंजीपतियों के करों में 50 रुपयों की कटौती कर देती है तो उनकी बचत और संपत्ति में सौ रुपये तक का इज़ाफ़ा हो जाता है।

इस प्रकार से सिर्फ़ इस बात से यह तय नहीं हो जाता कि पूंजीपतियों द्वारा किए गए निवेश के ही माध्यम से असल में कितनी अतिरिक्त संपत्ति उनके हाथ में आई है, बल्कि यह विभिन्न राजकोषीय नीति सहित उन कई कारकों पर निर्भर करता है; और जैसा कि ऊपर दिए गए तर्क में इशारा किया गया है, यह केवल निवेश में बढ़ोत्तरी के ज़रिये निर्धारित नहीं होता है।

उदाहरण के तौर पर वैश्विक स्तर पर, 1950 के बाद के करीब ढाई दशकों की अवधि के दौरान समूचे पूँजीवाद के इतिहास में सर्वोच्च (एक निश्चित अवधि के तौर पर) वृद्धि की दर आँकी गई थी। यह वृद्धि की दर बाद के नव-उदारवादी वर्षों की तुलना से कहीं अधिक थी। इस पूरे काल को कभी-कभी "पूंजीवाद के स्वर्ण युग" के रूप में संदर्भित किया जाता है, लेकिन इसके बावजूद आर्थिक-ग़ैरबराबरी के मामले में ऐसी कोई वृद्धि देखने को नहीं मिली थी, जितना कि बाद के नव-उदारवादी काल में देखने को मिली है। ऐसा क्यों न हो सका, इसका कारण यह था कि अन्य चीजों के साथ तीव्र विकास दर के बावजूद उस दौरान लगाए गए भारी संपत्ति-कराधान (और सामान्य रूप से कॉर्पोरेट कराधान) थे। इसलिए हम कह सकते हैं कि कर प्रावधानों के ज़ये आर्थिक-ग़ैरबराबरी में होने वाले परिवर्तनों को निर्धारित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका होती आई है।

यह केवल संपत्ति पर कराधान लगाने वाला मामला ही नहीं है जो आर्थिक-ग़ैरबराबरी की हलचलों को निर्धारित करने के काम आता है। इसमें सभी प्रकार के कराधान शामिल हैं, उदाहरण के लिए कॉर्पोरेट मुनाफ़े पर टैक्स का मामला। निश्चित तौर पर संपत्ति पर कराधान इसे तय करता है, लेकिन जैसा कि ऊपर संख्यात्मक उदाहरण से पता चलता है कि समग्र तौर पर अमीरों पर क्या कराधान लागू किये जा रहे हैं, वह चीज है जिसकी अहमियत है।

इस नव-उदारवादी दौर में भारत में अमीरों पर टैक्स के बोझ में भारी कमी लाई गई है, जिससे कि पूंजीपतियों द्वारा किये गए निवेश में वृद्धि के साथ-साथ ही उनकी संपत्ति में भी वृद्धि हुई है। यह वह तथ्य है जो देश में बड़े पैमाने पर आर्थिक ग़ैरबराबरी को बढ़ावा दिए जाने को रेखांकित करता है।

संपत्ति पर कराधान, जो हमेशा से हमारे यहाँ ग़ैर-मामूली रहा था, को असल में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया है। लेकिन इसके साथ ही कॉर्पोरेट मुनाफ़े और पूंजीगत लाभ लागू करों में भी भरपूर कटौती कर दी गई है। वास्तव में इस प्रकार की बड़े पैमाने पर सदाशयता का ताजा उदाहरण तब देखने को मिला जब मोदी सरकार ने हाल ही में कॉर्पोरेट क्षेत्र द्वारा अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन दिए जाने के नाम पर 1.50 लाख करोड़ रुपये की कर रियायतें दे डालीं! इसका असर या तो संकट के और बिगड़ते जाने में दिखने जा रहा है (यदि इसकी भरपाई, लगातार सरकारी खर्चे में कटौती करने से की जाए) या आगे अनावश्यक रूप से कॉर्पोरेट क्षेत्र की संपत्ति में इसकी बढ़ोत्तरी होते जाने में हो (यदि सरकारी खर्चों में बिना कोई कटौती किये, राजकोषीय घाटे को बढ़ाते जाने की अनुमति दी जाती है)।

वर्तमान संकट से अर्थव्यस्था को उबारने का एक रास्ता तरीका है, जिसमें बिना किसी आर्थिक-ग़ैरबराबरी को और आगे बढ़ाते हुए इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। वह है यदि सरकारी खर्च में बढ़ोत्तरी को जारी रखा जाए और कॉर्पोरेट संपत्ति पर कराधान के ज़रिये इसका वित्त पोषण हो (जो कि कॉर्पोरेट क्षेत्र को निवेश के प्रलोभन दिए जाने को भी प्रभावित नहीं करेगा)। लेकिन मोदी सरकार तो कॉरपोरेट-हिंदुत्व के आधार पर ही टिकी हुई है, उस गठबंधन से ऐसा करने की उम्मीद करना बेमानी सिद्ध होगा।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

India’s Shameful Record on Wealth Inequality and Corporate-Hindutva Axis

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