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भारतीय अर्थव्यवस्था : तब और अब

रघुराम राजन की चिंता तो इतनी ही थी कि भारतीय अर्थव्यवस्था फिर से उसी धीमी वृद्धि दर की ओर जा सकती है, जो नियंत्रणकारी दौर में रही थी। लेकिन, सच्चाई अब और भी बदतर है। 
Indian Economy

नियंत्रणवादी दौर के एक बड़े हिस्से के दौरान, भारतीय अर्थव्यवस्था में सकल घरेलू उत्पाद करीब 4 फीसद सालाना या उससे भी कुछ कम दर से वृद्धि करता रहा था। यह आर्थिक वृद्धि  दर, हालांकि, औपनिवेशिक दौर के मुकाबले सुधार दर्शाती थी, जिस दौर में करीब-करीब आर्थिक गतिरोध ही बना रहा था, फिर भी यह दर खास प्रभावशाली नहीं थी।

वृद्धि दर: तब और अब

लंबे अर्से तक बराबर चलती रही इस धीमी वृद्धि दर को, अनेक अर्थशास्त्रियों द्वारा मजाकिया तरीके से ‘‘हिंदू वृद्धि दर’’ कहा जाता था, जिसका संकेत शायद यही था कि इस रफ्तार से कोई देखने लायक सामाजिक रूपांतरण आने के लिए तो, अनंतकाल तक ही इंतजार करना पड़ेगा। 1980 के दशक से जीडीपी में वृद्धि की दर में तेजी शुरू हुई, जिसे आगे चलकर नियंत्रणकारी व्यवस्था की जगह पर, नवउदारवाद के लाए जाने के जरिए, टिकाए रखा गया था। लेकिन, अब एक बार फिर हमारी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर धीमी पडऩी शुरू हो गयी है। इसी से, भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व-गवर्नर, डा. रघुराम राजन हाल ही में यह इशारा करने के लिए प्रेरित हुए थे कि हम शायद फिर से खिसक कर, ‘‘हिंदू विकास दर’’ के दौर में पहुंचते जा रहे हैं।

इस सचाई से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि महामारी के आने से पहले से, हमारी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर धीमी पड़ रही थी। और इस सचाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि महामारी के दौरान, जाहिर है कि उत्पाद में बहुत ही तेज गिरावट के बाद,  जो आर्थिक बहाली हुई भी है, वह भी काफी कमजोर बनी रही है। इस सब से इसी धारणा की पुष्टि होती है कि अर्थव्यवस्था फिर से खिसक कर, अपेक्षाकृत कम वृद्धि दर के दौर में जा रही है। लेकिन, यहां हमारा मकसद सांख्यकीय पहलू से इसका आकलन करना नहीं है कि वर्तमान आर्थिक वृद्धि दर, नियंत्रणकारी दौर की वृद्धि दर की तुलना में कहां ठहरती है और क्या इसे वाकई ‘‘हिंदू विकास दर’’ कहा जा सकता है, जाहिर है कि एक सांख्यिकीय परिघटना के ही संकेतक के रूप में। यहां हमारा मकसद तो इसी सचाई को रेखांकित करना है कि पहले वाले दौर की और अब के दौर की, इन अपेक्षाकृत धीमी वृद्धि दरों में भी, एक बुनियादी अंतर है।

आपूर्ति-बाधित और मांग-बाधित व्यवस्थाएं

इस बुनियादी अंतर को समझने के लिए, हमें एक ‘आपूर्ति-बाधित आर्थिक व्यवस्था’ और ‘मांग बाधित आर्थिक व्यवस्था’ के बीच अंतर करना होगा। बाद वाली यानी मांग बाधित व्यवस्था में, किसी भी दौर में उत्पाद, सकल मांग के स्तर से तय होता है। और इसी प्रकार, इस पूरे दौर के बीच उत्पाद का समय-अनुक्रम, सकल मांग के स्तर की वृद्धि दर से तय होता है। किसी भी अवधि में उत्पाद में वृद्धि न तो उपकरणों के उपलब्ध भंडार की पूरी क्षमता का उपयोग हो रहे होने से बाधित होता है और न उपलब्ध श्रम शक्ति के पूरी तरह से लगाए जाने की वजह से बाधित होता है और न ही विदेशी मुद्रा या खाद्यान्न जैसी अति-महत्वपूर्ण लागत सामग्रियों की तंगी से बाधित या सीमित होता है। दूसरे शब्दों में, एक मांग-बाधित व्यवस्था में उत्पाद का स्तर, आपूर्ति के पहलू से तय होने वाली उसकी उत्पाद क्षमता से काफी नीचे ही बना रहता है और ऐसा, एक मांग बाधित व्यवस्था में हर एक दौर में होता है। इसके विपरीत, एक आपूर्ति-बाधित व्यवस्था में किसी भी दौर में उत्पाद, आपूर्ति के पहलू से तय हो रहे अधिकतम वहनीय स्तर से तय होता है और और इस व्यवस्था में वृद्धि दर, उत्पाद की हद तय करने वाली सीमाओं के वक्त के साथ आगे बढऩे के चलते, अधिकतम वहनीय स्तर पर रहती है।

जैसा कि पोलिश मार्क्सवादी अर्थशास्त्री, मिखाइल कलेखी ने बहुत पहले ही इंगित कर दिया था, क्लासिकल पूंजीवाद एक मांग-बाधित आर्थिक व्यवस्था होता है, जबकि क्लासिकल समाजवाद, एक आपूर्ति-बाधित आर्थिक व्यवस्था होता है। क्लासिकल पूंजीवाद की पहचान हमेशा एक ‘‘झोल’’ या ढीलेपन से होती है यानी उसमें एक साथ उत्पादन क्षमता ठाली पड़ी रहती है, बेरोजगारी बनी रहती है और उसी समय खाद्यान्न की तथा विदेशी मुद्रा की आसान उपलब्धता भी बनी रहती है। इससे भिन्न, क्लॉसिकल समाजवादी व्यवस्था में ऐसा कोई ‘‘झोल’’ या ढीलापन नहीं होता है और इसलिए, यह झोल या ढीलापन संसाधनों की जिस बर्बादी का सूचक है, वैसी संसाधनों की कोई बर्बादी क्लासिकल समाजवादी व्यवस्था में नहीं होती है।

नवउदारवादी दौर संसाधनों की बर्बादी

हालांकि, भारत में नियंत्रणकारी दौर की पहचान, कथित रूप से एक नियोजित आर्थिक व्यवस्था के अंदर से, पूंजीवाद के विकास से होती थी, फिर भी नियोजन अपने आप में अर्थ यही था कि अर्थव्यवस्था, मांग-बाधित नहीं थी। नियंत्रणकारी दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था क्लासिकल पूंजीवाद की समानार्थी नहीं थी; वह तो नव-उदारवादी ‘सुधारों’ के लाए जाने के साथ ही अस्तित्व में आया था। यह अर्थव्यवस्था किसी भी ‘‘झोल’’ या ढील से मुक्त थी क्योंकि  अगर इस तरह का कोई ‘‘झोल’’ बनता भी था तो, उसके नजर आते ही मांग में बढ़ोतरी ले आयी जाती थी और यह किया जाता था, सार्वजनिक खर्च को बढ़ाने के तथा खासतौर पर सार्वजनिक निवेश को बढ़ाने के जरिए। इसके लिए, जरूरत होती थी तो राजकोषीय घाटा बढ़ा दिया जाता था। उस दौर में राजकोषीय घाटे के लिए, ऐसी कोई सीमाएं नहीं थीं, जो अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की ओर से लगायी जा रही हों। इसकी वजह यह थी कि अर्थव्यवस्था पर सख्त पूंजी नियंत्रण लगे हुए थे और इसके चलते, वह अंतर्राष्ट्रीय  वित्तीय पूंजी की किसी भी तरह की धौंसपट्टी के दबाव से मुक्त थी। सार्वजनिक निवेश पर और कुल मिलाकर आर्थिक वृद्धि दर पर जो भी सीमाएं लगती थीं, वे आपूर्ति के पक्ष से निकलने वाली सीमाएं थीं। इनमें खाद्यान्न की उपलब्धता की सीमाओं के चलते आने वाली बंदिशें खास थीं और उपलब्धता की इन सीमाओं से आयातों के सहारे उबरना संभव नहीं था क्योंकि अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा की तंगी थी। इस अर्थव्यवस्था की पहचान हमेशा ही एक निश्चित मुद्रास्फीति की दर बनी रही थी, जिसके पीछे खाद्यान्न के बाजार में शुरूआती अतिरिक्त मांग की मौजूदगी थी। लेकिन, उस अर्थव्यवस्था में कोई ‘‘झोल’’ नहीं था और इसलिए, उसमें साधनों की कोई बर्बादी नहीं होती थी।

इसके विपरीत, नवउदारवादी दौर की पहचान, साल-दर-साल ‘‘झोल’’ के बने रहने से होती है। इस झोल को खत्म इसलिए नहीं किया जा सकता है कि सरकार ही है जो इसे खत्म कर सकती है और उसके हाथ तो खर्चों के मामले में पहले ही बंधे हुए हैं। वित्तीय संसाधनों की जिस कमी से उसके हाथ बंधे हुए हैं, वह कमी सिर्फ धनवानों पर कर लगाने की सीमाओं से ही तय नहीं हो रही है बल्कि राजकोषीय घाटे पर लगी हुई सीमाओं से भी तय हो रही हैं। और ये दोनों ही सीमाएं, वैश्विक वित्तीय पूंजी द्वारा थोपी गयी हैं। करीब-करीब पूरे के पूरे नवउदारवादी दौर में ही अर्थव्यवस्था पर ठाली पड़ी उत्पादन क्षमता, भारी बेरोजगारी, खाद्यान्न के विशाल भंडारों और विदेशी मुद्रा के भी विशाल भंडारों (जो विदेशी वित्तीय निवेशों के अंतप्र्रवाहों के जरिए जमा हुए हैं) का बोझ लदा रहा है। इस तरह, जहां नियंत्रणकारी दौर में अर्थव्यवस्था की वृद्घि आपूर्ति-बाधित हुआ करती थी, नवउदारवादी दौर में अर्थव्यवस्था, मांग-बाधित बनी रही है। इसलिए, नवउदारवादी दौर में लगातार आर्थिक बर्बादी बनी रही है, जो कि अतार्किक है।

असमानता बढ़ने का वृद्घि दर पर असर

लेकिन, बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। खाद्यान्नों की प्रति व्यक्ति मांग की वृद्धि दर, दो कारकों पर निर्भर होती है: प्रति व्यक्ति जीडीपी की वृद्धि दर और वह कारक जिसे खाद्यान्न की मांग की औसत आय नमनीयता या इलॉस्टिसिटी कहा जाता है। यह नमनीयता विभिन्न वर्गों के बीच आय के वितरण की स्थिति पर निर्भर करती है और आय असमानता के बढऩे के साथ, इसका खाद्यान्नों की मांग पर उसे ठस्स करने वाला प्रभाव पड़ रहा है। नियंत्रणकारी दौर और नवउदारवादी दौर के बीच, खाद्यान्नों की आपूर्ति में वृद्धि की दर में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। इस दर में अगर कुछ हुआ है, तो कुछ न कुछ कमी ही हुई है। इसका अर्थ यह हुआ कि पहले वाले दौर में अगर हमेशा खाद्यान्न की तंगी रहती थी, जबकि अब खाद्यान्न के विशाल भंडार जमा हो गए हैं, इसका मतलब यह होना चाहिए कि खाद्यान्न की मांग में वृद्धि की दर, तब और अब के बीच, नीचे खिसक गयी है। लेकिन, चूंकि प्रति व्यक्ति जीडीपी की वृद्धि दर तब और अब के बीच, बढऩे के ही अनुमान हैं, इसे देखते हुए खाद्यान्न की मांग की वृद्धि दर घटने की एक ही वजह हो सकती है, कि नियंत्रणकारी दौर की तुलना में नवउदारवादी दौर में आय की असमानता उल्लेखनीय रूप से बढ़ गयी है।

नियंत्रणकारी दौर में वृद्धि के आपूर्ति-बाधित (मुख्यत: खाद्यान्नों की तंगी के चलते आपूर्ति-बाधित) होने, जबकि नवउदारवादी दौर के मांग-बाधित होने के तथ्य से यह अर्थ निकलता है कि नियंत्रणकारी दौर के मुकाबले, नवउदारवादी दौर में असमानता में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई होगी। और आंकड़े ठीक यही दिखाते हैं। हम इसकी एक ही मिसाल लेंगे। पिकेट्टी और चांसेल के अनुमान के अनुसार, राष्ट्रीय आय में सबसे ऊपरी सिरे की 1 फीसद आबादी का हिस्सा, स्वतंत्रता के बाद के दौर में घटा था और 1982 तक 6 फीसद से नीचे खिसक गया था। लेकिन, उसके बाद से बढक़र यही हिस्सा 2014-15 में (जो आखिरी वर्ष है जिसके लिए अनुमान उपलब्ध हैं) 22 फीसद पर पहुंच चुका था। 22 फीसद का यह आंकड़ा, 1922 में जब देश में आयकर लागू किया गया था, उसके बाद के समूचे दौर का सबसे ऊंचा आंकड़ा है। (ये सभी अनुमान आयकर के आंकड़ों पर आधारित हैं और इसलिए 1922 के बाद के दौर के लिए ही ये आंकड़े मिलते हैं।) यह नतीजा इतना हैरान करने वाला है कि पिकेट्टी और चांसेल की आकलन की पद्धतियों से किसी की चाहे जो भी असहमतियां हों, उनके निष्कर्ष की सत्यता पर कोई संदेह नहीं कर सकता है।

मेहनतकशों की हालत और ख़राब होगी

इसलिए, भारतीय अर्थव्यवस्था आज फिर से भले ही तथाकथित ‘‘हिंदू वृद्धि दर’’ को ही झेल रही हो, जैसी दर को कि उसने पहले वाले दौर में भी झेला था, पहले वाले दौर से बिल्कुल भिन्न, जबकि यह अर्थव्यवस्था आपूर्ति-बाधित थी, आज अर्थव्यवस्था मांग-बाधित है और इसकी पहचान पहले वाले दौर की तुलना में, अब असमानता के उल्लेखनीय पैमाने पर बढ़ चुकी होने से होती है।

बहरहाल, यहां एक अतिरिक्त कारक और है। किसी मांग-बाधित आर्थिक व्यवस्था में अगर वृद्धि धीमी हो जाती है, तो यह तब तक यह धीमी ही पड़ती रहती है, जब तक कोई बाहरी उत्प्रेरण, जैसे वैश्विक वृद्धि दर में तेजी, उसे इस सुस्ती की अवस्था से बाहर नहीं निकाल देता है। शुरूआत में सुस्ती की यह प्रवृत्ति ठाली पड़ी उत्पादन क्षमता का अनुपात बढऩे के रूप में सामने आती है और इसका असर यह होता है कि निवेश की दर में तथा इसलिए वृद्धि दर मे, कमी आती है। पहले वाले दौर में तथाकथित ‘‘हिंदू वृद्धि दर’’ फिर भी एक टिकाऊ परिघटना हो सकती थी, लेकिन अब तथाकथित ‘‘हिंदू वृद्धि दर’’ ज्यादा समय तक बनी नहीं रह सकती है। इससे, वृद्धि दर में और कमी आएगी और उस सूरत में, पहले ही असमानता में हो चुकी बढ़ोतरी के चलते, जिसके आगे भी बढ़ते रहने के ही आसार हैं, मेहनतकश जनता की दशा बदतर ही होने जा रही है।

रघुराम राजन की चिंता तो इतनी ही थी कि भारतीय अर्थव्यवस्था फिर से उसी धीमी वृद्धि  दर की ओर जा सकती है, जो नियंत्रणकारी दौर में रही थी। लेकिन, सचाई यह है कि अपेक्षाकृत धीमी वृद्धि दर पर यह वापसी भी, मेहनतकश जनता के लिए, पहले वाले दौर में जैसी साबित हो रही थी, उससे कहीं बदतर साबित होगी।

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