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मुद्दा: नए भारत में न्याय

क्या यह ऐसे न्यायाधीशों का ज़माना है जो निर्णय पहले ले लेते हैं और बाद में उसे न्यायोचित सिद्ध करने के लिए संवैधानिक और क़ानूनी विधियां तलाशते हैं?
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प्रतीकात्मक तस्वीर। फ़ोटो साभार: Moneycontrol

विगत दिनों सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसले नकारात्मक कारणों से चर्चा में रहे। इनमें कुछ फैसले जरा पुराने थे और कुछ एकदम हाल के।

इन फैसलों के चर्चा में आने का कारण सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस खानविलकर की सेवानिवृत्ति थी। इन सभी फैसलों से उनका संबंध रहा था और इन फैसलों को आपस में जोड़ने वाली चिंतन प्रक्रिया और वैचारिक अंतर्धारा को इनमें सहज ही पढ़ा जा सकता था।

जाहिर है कि न्यायालय का हर फैसला हर किसी को पसंद नहीं आ सकता, हर किसी को संतुष्ट करना न्यायालय का काम भी नहीं है। क्या इन फैसलों की आलोचना भी केवल इसी सामान्य कारण से हो रही थी कि सुप्रीम कोर्ट से राहत की उम्मीद कर रहे पक्ष को निराशा हाथ लगी थी और वह अपने असंतोष की अभिव्यक्ति कर रहा था? दरअसल ऐसा नहीं था।

अनेक न्यायविदों की राय में इन फैसलों के दूरगामी परिणाम होंगे जो राज्य की निरंकुश शक्ति की अभिवृद्धि तथा आम आदमी के दमन और उत्पीड़न में सहायक होंगे। इन न्यायविदों के अनुसार वटाली मामले और पीएमएलए मामले में दिए गए निर्णय व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को सीमित और समाप्त करने में राज्य की मदद कर सकते हैं। एफसीआरए पर दिया गया निर्णय अभिव्यक्ति और संघ निर्माण की स्वतंत्रता में कटौती करने वाला है। जबकि जाकिया जाफरी और हिमांशु कुमार के मामले में आए फैसले न्यायालय के हस्तक्षेप द्वारा अपने मौलिक अधिकारों को प्राप्त करने तथा राज्य के अनुचित आचरण के विरुद्ध न्यायिक समाधान पाने के नागरिक अधिकारों को कमजोर बनाने वाले हैं।

जाकिया जाफरी मामले और हिमांशु कुमार प्रकरण के विषय में न्यायालय का निर्णय संविधान के उस अनुच्छेद 32 पर ही प्रहार करता है जो आंबेडकर को सर्वाधिक प्रिय था और जिसे उन्होंने संविधान के हृदय एवं आत्मा की संज्ञा दी थी जिसके बिना संविधान का महत्व ही समाप्त हो जाएगा।

यह देखना दुःखद है कि तीस्ता सेतलवाड़ और हिमांशु कुमार द्वारा संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय उस राज्य द्वारा याचिकाकर्ताओं के विरुद्ध कार्रवाई का आधार बन रहा है जिसकी कार्यप्रणाली से असंतुष्ट होकर वे न्याय मांगने सर्वोच्च न्यायालय गए थे।

गौतम भाटिया जैसे कानून के अनेक जानकार यह मानते हैं कि स्वतंत्र भारत के न्याय शास्त्र के इतिहास में पहले भी इस प्रकार के अधिसंख्य उदाहरण मिलते हैं जब राज्य विजयी हुआ है और व्यक्ति को पराजय झेलनी पड़ी है। राज्य पर व्यक्ति की विजय अपवादस्वरूप ही रही है। किंतु ऊपर उल्लिखित फैसलों में जो चिंताजनक बात है वह राज्य के जीतने के तरीके में आया बदलाव है। अब न्यायालय राज्य के हितों, उसके दावों और उसके द्वारा प्रस्तुत तथ्यों को तत्काल बिना विचारे यथावत अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार करने लगा है किंतु जब आम आदमी की बारी आती है तो उसे प्रथम दृष्टया ही संदिग्ध, मिथ्याभाषी और अनावश्यक विवाद उत्पन्न करने वाला मान लिया जाता है। जब न्यायपालिका आम नागरिक को महत्वहीन और उपेक्षणीय समझने लगेगी तो स्वाभाविक है कि उसके अधिकार भी गैरजरूरी मान लिए जाएंगे।

टेरर फंडिंग के आरोपी जहूर अहमद शाह वटाली के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर अनेक न्यायविद असहमत थे। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय महज उच्च न्यायालय द्वारा दी गई जमानत को रद्द करने तक सीमित नहीं था। वटाली मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि वटाली को जमानत देने के लिए उच्च न्यायालय द्वारा अपनाया गया कानूनी मापदंड ही गलत था। यूएपीए के सेक्शन 43(डी)(5) के मामलों में जमानत की याचिका पर विचार करते समय साक्ष्यों की विस्तृत पड़ताल अथवा छानबीन की कोई आवश्यकता नहीं है। राज्य के अस्वीकार्य कथनों को खारिज करना मामले के गुण दोषों पर विचार करने जैसा है। न्यायालय को पुलिस द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के आधार पर व्यापक संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए जमानत याचिका पर निर्णय लेना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद यूएपीए के मामलों में जमानत मिलना असंभव प्राय हो गया है। जब बचाव पक्ष जमानत पर सुनवाई के दौरान अपने तर्क नहीं रख सकता है, अपने गवाह प्रस्तुत नहीं कर सकता है, न ही अभियोजन पक्ष के पक्ष के गवाहों का प्रति परीक्षण कर सकता है तब उसकी असहायता की कल्पना ही की जा सकती है।

यूएपीए का सेक्शन 43(डी)(5) आरोपी को तब जमानत देने से मना करता है जब यह विश्वास करने का पर्याप्त आधार हो कि लगाए गए आरोप प्रथम दृष्टया सत्य हैं। यदि न्यायालय, राज्य द्वारा आरोपी के विरुद्ध लगाए गए आरोपों की गहराई से जांच नहीं करेगा तो उसे यह कैसे ज्ञात होगा कि इनमें सत्यता कितनी है। दशकों चलने वाले यूएपीए के मामलों में जमानत को असंभव बना देने की भयानकता की कल्पना करना कठिन नहीं है।

विधि विशेषज्ञों का मानना है कि पीएमएलए पर सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला भी राज्य को अनुचित रूप से असीमित अधिकार देने वाला है। दंड प्रक्रिया संहिता पुलिस की कार्यप्रणाली पर जो अंकुश लगाती है उससे ईडी को सर्वथा मुक्त कर दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस की एफआईआर के समतुल्य मानी जाने वाली ईसीआईआर की प्रति आरोपी के साथ साझा करने से ईडी को छूट दी है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार ईडी के समन्स का अर्थ गिरफ्तारी नहीं है। आत्म दोषारोपण के विरुद्ध प्राप्त संवैधानिक अधिकार ईडी की पूछताछ पर लागू नहीं होगा क्योंकि ईडी, पुलिस नहीं है। ईडी के सामने की गई स्वीकारोक्तियां साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य होंगी यद्यपि पुलिस के मामले में ऐसा नहीं है। शायद न्यायालय यह मानता है कि पुलिस किसी व्यक्ति को झूठी स्वीकारोक्तियाँ करने के लिए मजबूर कर सकती है किंतु ईडी के अधिकारी कोई अनुचित आचरण कर ही नहीं सकते।

सर्वोच्च न्यायालय के मतानुसार ईडी मैन्युअल के तहत ईडी जिन प्रक्रियाओं को अपनाता है उन्हें सार्वजनिक करने की कोई बाध्यता नहीं है और यह ईडी के आंतरिक दस्तावेजों के रूप में दर्ज होकर हमेशा गुप्त बनी रहेंगी। सर्वोच्च न्यायालय यह भी कहता है कि पीएमएलए के मामलों में यह व्यक्ति का उत्तरदायित्व रहेगा कि वह स्वयं को निर्दोष सिद्ध करे न कि यह राज्य की जिम्मेदारी रहेगी कि वह व्यक्ति को दोषी सिद्ध करे। पीएमएलए को इतना व्यापक बना दिया गया है कि अनजाने में पीएमएलए के दायरे में आने वाले किसी लेनदेन में अप्रत्यक्ष भागीदारी होने पर भी किसी व्यक्ति को इसके अंतर्गत आरोपी बनाया जा सकता है।

जब हम यह जानते हैं कि पिछले आठ वर्षों में पीएमएलए के तहत ईडी द्वारा दर्ज किए गए मामलों में 8 गुना वृद्धि हुई है और दोष सिद्ध होने की दर एक प्रतिशत से भी कम है तो सर्वोच्च न्यायालय की यह सख्ती और आश्चर्यजनक लगती है।

अंतरराष्ट्रीय संधियों की बाध्यता को आधार बनाकर अपनी सुविधानुसार सत्ता नागरिक अधिकारों में कटौती कर रही है जबकि अंतरराष्ट्रीय कानून के उन उदार अंशों को जो शरणार्थियों एवं अल्पसंख्यकों के अधिकारों से संबंधित हैं, रद्दी की टोकरी में डाला जा रहा है। ऐसे समय मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद लगाए आम आदमी की हताशा स्वाभाविक ही है।

जब सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों से जुड़े जस्टिस खानविलकर सेवानिवृत्त हुए तब स्वाभाविक था कि उनके इन फैसलों की चर्चा-समीक्षा होती। प्रिंट और सोशल मीडिया में इन पर खूब लिखा गया, अधिकांश आलोचनात्मक टिप्पणियों में इन फैसलों के विवादास्पद अंशों के लिए श्री खानविलकर को व्यक्ति के रूप में अधिक और न्यायाधीश के रूप में कम दोषी ठहराया गया। अनेक आलेखों का यह भाव था कि यदि जस्टिस खानविलकर के स्थान पर कोई और न्यायाधीश होता तो निर्णय कुछ और होता।

इस तरह अनेक गंभीर प्रश्न अचर्चित रह गए। क्या जस्टिस खानविलकर की चिंतन प्रक्रिया और न्यायपालिका की भूमिका के विषय में उनके दृष्टिकोण को व्यक्तिगत कह कर हम सुप्रीम कोर्ट की साझा सोच और कार्यप्रणाली में आए महत्वपूर्ण वैचारिक परिवर्तनों को गौण नहीं बना रहे हैं? यह महत्वपूर्ण मामले अलग अलग मुख्य न्यायाधीशों के कार्यकाल में श्री खानविलकर को सौंपे गए, क्या इससे यह संकेत नहीं जाता कि राज्य को सशक्त और आम आदमी को कमजोर करने के उनके न्यायिक दर्शन से मोटे तौर पर सर्वोच्च न्यायालय भी सहमत था?

सुप्रीम कोर्ट में पिछले कुछ वर्षों में मुख्य न्यायाधीश का कार्यभार संभालने वाले जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रंजन गोगोई एवं जस्टिस एस ए बोबडे के फैसले, उनकी प्राथमिकताएं एवं कार्यप्रणाली तथा उनसे जुड़े विवाद जिस तरह जनचर्चा का विषय बने क्या वह इस बात का द्योतक नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट अब कमिटेड जुडिशरी से भी कुछ आगे बढ़कर राज्य के हितों की रक्षा के लिए प्रोएक्टिव रोल निभाना चाह रहा है? यह तो असंभव है कि न्यायाधीश मानवीय कमजोरियों से सर्वथा मुक्त हों किंतु उनसे यह तो अपेक्षा होती है कि बतौर न्यायाधीश वे अपनी इन कमजोरियों को कर्त्तव्य पालन के मार्ग में बाधक न बनने दें। क्या हमारे न्यायाधीश इस अपेक्षा पर खरे उतर पाए हैं?

क्या अब ऐसे न्यायाधीशों का युग समाप्त होता जा रहा है जो निर्णय लेते समय अपनी विचारधारा और सोच को इसलिए दरकिनार कर देते थे क्योंकि वह संविधान और कानून से संगत नहीं होती थी? क्या यह ऐसे न्यायाधीशों का जमाना है जो निर्णय पहले ले लेते हैं और बाद में उसे न्यायोचित सिद्ध करने के लिए संवैधानिक और कानूनी विधियां तलाशते हैं? दूसरे शब्दों में क्या संविधान के अनुकूल निर्णय देने के स्थान पर अपने निर्णय को संविधान सम्मत सिद्ध करने का चलन बढ़ा है? क्या नए भारत में राज्य की इच्छा ही न्याय है और न्यायाधीशों की भूमिका राज्य की इच्छा को कानूनी जामा पहनाने तक सीमित होती जा रही है?

वर्तमान सरकार और आदरणीय प्रधानमंत्री जी बार बार यह कहते रहे हैं कि अधिकारों की बात बहुत हुई, कर्त्तव्य पालन आज के समय की मांग है। किंतु क्या सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों और इच्छा का पालन करना ही - भले ही वह कितनी ही अनुचित और प्रतिगामी क्यों न हों - क्या सर्वोच्च नागरिक कर्त्तव्य है? क्या सर्वोच्च न्यायालय सरकार की इस मान्यता से सहमत है कि नागरिक अधिकारों की मांग करना सरकार की कार्यप्रणाली में रोड़े अटकाना है और नागरिक अधिकारों के दमन से ही विकास प्रक्रिया को अपेक्षित त्वरा प्रदान की जा सकती है?

कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष ने पीएमलए के प्रावधानों को संविधान सम्मत ठहराने वाले सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को खतरनाक बताया है। लेकिन यह भी सच है कि हर राजनीतिक दल इस तरह के नागरिक अधिकार विरोधी दमनकारी कानूनों के निर्माण में योगदान देता रहा है और अपने शासन काल में इनके दुरुपयोग द्वारा विरोधियों का दमन करता रहा है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही विधि विशेषज्ञ भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण योगदान देते रहे हैं, यह परिपाटी स्वतंत्र भारत में भी जारी रही है। किंतु अपने दल की सत्ता होने पर इन दमनकारी कानूनों पर यह विधि विशेषज्ञ एक वफादार पार्टी कार्यकर्ता की भांति मौन साध लेते हैं या इनका बचाव करने की चेष्टा करते हैं। यही कारण है कि अब इनके द्वारा की जा रही सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की आलोचना के पीछे नैतिक बल नहीं दिखाई देता।

वर्तमान सरकार जिस प्रकार लोकतांत्रिक परंपराओं और संविधान की अनदेखी कर रही है उस परिस्थिति में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। हमारी सर्वोच्च अदालत के इतिहास में अनेक गौरवपूर्ण क्षण आए हैं और बहुत बार सर्वोच्च न्यायालय संविधान और लोकतंत्र की गरिमा की रक्षा का माध्यम बना है। आशा की जानी चाहिए कि इस बार भी न्यायपालिका के भीतर से ही कोई सकारात्मक पहल सामने आएगी भले ही वह मौजूदा दौर से असहमति और विरोध के रूप में ही क्यों न हो।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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