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मुद्दा: क्या विपक्ष सत्तारूढ़ दल का वैचारिक-राजनीतिक पर्दाफ़ाश करते हुए काउंटर नैरेटिव खड़ा कर पाएगा

आज यक्ष-प्रश्न यही है कि विधानसभा चुनाव में उभरी अपनी कमजोरियों से उबरते हुए क्या विपक्ष जनता की बेहतरी और बदलाव की आकांक्षा को स्वर दे पाएगा और अगले राउंड में बाजी पलट पायेगा?
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उत्तर प्रदेश में चुनाव नतीजे आने के तुरंत बाद से ही राजनीतिक द्वंद्व के अगले दौर की शुरुआत हो गयी है। आमतौर पर चुनाव के बाद नई सरकार बनने पर कुछ महीनों तक का एक  "हनीमून पीरियड " माना जाता था। पर इस बार माहौल बिल्कुल बदला हुआ है।

पहले दिन से ही सारी राजनीतिक पार्टियाँ अगले राउंड के लिए कमर कसने लगी हैं।

इसके दो कारण प्रतीत होते हैं। पहले का सम्बंध उत्तर प्रदेश चुनाव से है और दूसरा 2024 के आगामी आम चुनाव से जुड़ा है।

दरअसल, उत्तर प्रदेश का जनादेश पूर्व के कई चुनावों जैसा decisive mandate नहीं रहा। यह बेहद close election था। भाजपा 53 सीटें 5 हजार से कम मतों के अंतर से जीती। उसने 74 सीटें 5% से कम मार्जिन से close contest में जीती हैं। भाजपा को पिछली बार की तुलना में इस बार 57 सीटों का भारी नुकसान हुआ, उसके एक उपमख्यमंत्री और अनेक मंत्री अपना चुनाव नहीं जीत सके।

सच तो यह है कि  जनाकांक्षा और जनादेश की भावना बदलाव के पक्ष में थी, जिसकी अभिव्यक्ति विपक्षी गठबंधन के वोटों में भारी वृद्धि में हुई और वह 36.3% तक पहुंच गया। हालांकि विभिन्न कारकों के संयोग से, जिसमें प्रशासनिक मशीनरी का दुरुपयोग भी शामिल है, भाजपा गठबंधन विपक्ष से महज 7% मत अधिक पाकर (जो straight contest के कारण सीटों के दो गुना अंतर में बदल गया ) जीतने में सफल हो गया। इसीलिए चुनाव-परिणाम उत्तर प्रदेश के समाज और राजनीति में equilibrium बना पाने में सफल नहीं हुआ, एक uneasy tension बरकरार है।

दूसरा कारक सामने खड़ा 2024 का दिल्ली का महासमर है। एक तरह से साल के अंत में होने जा रहे गुजरात व अन्य विधानसभा चुनावों से होते हुए 2024 के लिए count-down शुरू हो गया है। 

यह देखना लोगों के लिए हैरत-अंगेज़ था कि UP चुनाव का परिणाम आने के अगले दिन ही मोदी जी गुजरात चुनाव के लिए रोड-शो करने अहमदाबाद पहुँच गए। जाहिर है 24 का चुनाव और उसके पूर्व होने जा रहे विधानसभा चुनाव सभी पार्टियों की कार्यसूची में सबसे ऊपर आ गए हैं। 

भाजपा जहां विधानसभा चुनाव की अपनी उपलब्धियों को consolidate करने में लगी हैं, वहीं विपक्ष के सामने चुनौती विधानसभा चुनाव की कमजोरियों को दूर कर भाजपा को पटखनी देने और हारी हुई बाजी पलटने की है।

BJP को लगता है कि UP के विधानसभा चुनाव से उसे जीत का रामबाण नुस्खा मिल गया है। उस राजमार्ग पर पहले दिन से ही वह सरपट दौड़ पड़ी है।

मुफ्त अनाज वितरण की व्यवस्था को पहली ही कैबिनेट बैठक में योगी सरकार ने 3 महीने के लिए बढ़ाने का फैसला किया तो मोदी सरकार ने अगले ही दिन उसे 6 महीने के लिए बढ़ाने की घोषणा की। माना जा रहा है कि UP की इस चुनाव जिताऊ योजना को लोकसभा चुनाव तक जारी रखा जाएगा।

इन लाभार्थी योजनाओं के साथ योगी जी अपने हिंदुत्व और बुलडोजर मॉडल को replicate करने और मजबूत करने में लगे हैं। सोशल इंजीनियरिंग का विशेष ख्याल रखा जा रहा है। पिछली बार की संघ-भाजपा के जमीनी कार्यकर्ताओं की नौकरशाही को लेकर नाराजगियों को इस बार एड्रेस किये जाने के संकेत हैं।

वैसे तो आपराधिक मामलों के कुछ आरोपियों और कुछ अल्पसंख्यकों की प्रॉपर्टीज पर भी (जो सरकार के अनुसार illegal ढंग से बनी हैं) बुलडोजर पहुंचे हैं, लेकिन फिलहाल सबसे ज्यादा जो चर्चा में है और चिंताजनक है वह  बलिया में पत्रकारों पर गिरी बुलडोजर राज की गाज है। पेपर लीक की खबर छापने और समाचार का स्रोत न बताने पर 3 पत्रकारों अजित ओझा, दिग्विजय सिंह और मनोज गुप्ता को प्रताड़ित किया गया और जेल भेज दिया गया। 

सच्चाई यह है कि तमाम परीक्षाओं में नकल और पेपर लीक अब एक फलता-फूलता उद्योग बन चुका है, जिसमें शिक्षा-परीक्षा से जुड़े तमाम संस्थान,समाज के तमाम रसूखदार लोग शामिल हैं। उन पर प्रशासन हाथ नहीं डाल सकता क्योंकि वे सत्तारूढ़ पार्टी के  सामाजिक आधार से आते हैं। ऐसी स्थिति में एक ही रास्ता बचता है कि यह सब खबर ही न बनने पाये। पेपर लीक की रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों को गिरफ्तार करके सरकार ने ठीक यही सुनिश्चित किया है। योगी सरकार ने अपना संदेश बिल्कुल साफ कर दिया है कि उसे मीडिया में  ऐसी कोई खबर स्वीकार्य नहीं है जो उसके शासन-प्रशासन पर कहीं से प्रश्नचिह्न खड़ा करे !

प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के सदस्य जय शंकर गुप्त ने बिल्कुल ठीक कहा है कि,  "नकल माफिया और प्रशासन की कलई खोलने वाले पत्रकारों को इनाम देने की बजाय उन्हें जेल भेजना लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी को खत्म करने का कुत्सित प्रयास है। पत्रकारों को अपनी खबर का स्रोत बताने के लिए कोई बाध्य नहीं कर सकता, वह न्यायालय ही क्यों न हो।"

योगी राज में पेपर लीक का कीर्तिमान बनता जा रहा है। पिछले कार्यकाल की अनगिनत प्रतियोगी परीक्षाओं में पेपर लीक होने की legacy आगे बढ़ रही है। इतिहास में पहली बार इंटरमीडिएट परीक्षा का भी पेपर लीक हो गया।

ठीक इसी तरह बुलडोजर राज की गाज गिरी है गाज़ियाबाद के पुलिस प्रशासन पर। बताया जा रहा है कि संघ-भाजपा कार्यकर्ताओं को चुनाव के समय और फिर बाद में  मनमानी से रोकने के अपराध में पुलिस के SSP पवन कुमार को निलंबित किया गया है। यह पिछले कार्यकाल में संघ-भाजपा के निचले स्तर के कार्यकर्ताओं की उस शिकायत का भूल-सुधार ( rectification ) लगता है कि नौकरशाही उनकी बात नहीं सुनती। इस action का संदेश भी बिल्कुल स्पष्ट है कि अब नौकरशाही को हर स्तर पर संघ-भाजपा के अनुरूप चलना होगा। सुदूर पूर्वांचल के बलिया और पश्चिम के गाज़ियाबाद से निकलने वाला सन्देश बिल्कुल साफ है, भाजपा को चाहिए- Committed  bureaucracy, Dedicated media !

धार्मिक messaging धड़ल्ले से जारी है। पहले कार्यकाल के 42 बार अयोध्या दौरे के क्रम को जारी रखते हुए योगी आदित्यनाथ ने चुनाव जीतने के बाद अयोध्या पहुंचकर निर्देश दिया कि वहाँ जितने भी मठ-मंदिर, धार्मिक स्थल हैं उनको टैक्स राहत दी जाए और उनपर किसी तरीके का कमर्शियल टैक्स न लगाया जाए। अयोध्या में करीब 10 हजार मठ-मंदिर हैं। मुख्यमंत्री के ऐलान के बाद धर्मशालाओं को भी टैक्स नहीं देना होगा। 

पिछले कार्यकाल की तरह इस बार भी फर्रूखाबाद समेत कई जिलों का नाम बदलने की कवायद पाइप लाइन में है। संगीत सोम सेना जैसे outfits द्वारा veg-biryani ( जिसे सरधना पुलिस ने भी स्वीकार किया है ) को non-veg बताकर उत्पात या लखनऊ की मेयर द्वारा त्योहारों के मौसम में मांस-मछली की दुकानों को लेकर बयानबाजी विभाजनकारी एजेंडा का ही हिस्सा है। गाज़ियाबाद के प्रशासन ने अपने ऐसे ही एक आदेश को बाद में वापस ले लिया।

उधर सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति को और भी fine tune किया जा रहा है। मन्त्रिमण्डल के गठन में भी इसके लिए खासी मशक्कत की गई। चुनाव हारे केशव मौर्या को न सिर्फ मंत्री बल्कि उपमुख्यमंत्री भी बनाया गया। अनेक छोटी, unrepresented, अति-पिछड़ी और दलित जातियों से मंत्री बनाये गए। शिया समुदाय की बजाय अबकी बार मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी आबादी वाली पसमांदा अंसारी बिरादरी से symbolic representation देते हुए एक मंत्री बनाये गए। हाल ही में केंद्र द्वारा उत्तर प्रदेश की कई जातियों को अनुसूचित जनजाति ( ST ) श्रेणी में शामिल किया गया है।

लेकिन योगीजी के पिछले कार्यकाल से ही मूलभूत सवालों पर जो विराट चुनौतियां मुँह बाए खड़ी हैं, उनके और गम्भीर होने के आसार हैं, क्योंकि उनके कारण  स्ट्रक्चरल हैं और भाजपा की बुनियादी रीति-नीति से जुड़े हैं। इनको ठीक कर पाना योगी सरकार के लिए असम्भव है क्योंकि इसके लिये उनके पास न नीति है, न नीयत है।

बेरोजगारी, महंगाई, किसानों का सवाल, लोकतांत्रिक व संवैधानिक अधिकारों पर हमला, अल्पसंख्यकों तथा अन्य कमजोर तबकों का सामाजिक उत्पीड़न और दबंगई ऐसे ही मुद्दे हैं।

इलाहाबाद से लगातार प्रतियोगी छात्रों की आत्महत्या की खबरें आ रही हैं। रोजगार के मोर्चे पर पिछले कार्यकाल में पूरी तह विफल भाजपा सरकार की वापसी से युवाओं के अंदर गहरी हताशा है। रोज बढ़ती महंगाई के सामने आम लोग बिल्कुल असहाय होते जा रहे हैं।

ठीक इसी तरह भाजपा की केंद्र व राज्य सरकार की किसान विरोधी नीति में भी किसी बदलाव के अब तक न संकेत हैं, न उसकी कोई उम्मीद है। किसानों के साथ समझौते के 4 महीने बीत जाने के बाद भी अब तक मोदी सरकार ने MSP पर कमेटी तक नहीं बनाई और तरह तरह की शातिर चालों में लगी है।

केंद्र सरकार की खाद्य, उपभोक्ता मामले एवं सार्वजनिक वितरण सम्बन्धी स्थायी समिति की पिछले माह संसद मे दी गई रिपोर्ट के अनुसार गन्ना किसानों का  16,612 करोड़ रुपये का बकाया है। ( जनसत्ता, 25 मार्च 2022 )

चुनाव बाद हिंसा में तमाम लोग मारे गए हैं, क्योंकि अपने सामाजिक आधार के दबंगों पर अंकुश लगा पाना सरकार के वश में नहीं है, उल्टे उन्हें संरक्षण मिलता है।

सुरक्षा और कानून व्यवस्था के नाम पर चुनाव जीतने वाली सरकार को पिछले एक सप्ताह के अंदर की डकैती-छिनैती की घटनाएं मुंह चिढ़ा रही हैं। गाजियाबाद में बैंक में घुसकर हथियारबंद बदमाश 12 लाख रुपए लूट कर ले गए तो बुलंदशहर में भी एक प्राइवेट बैंक से अठारह लाख रुपये लूट लिये गये। आगरा में एक व्यापारी से छह लाख रुपए की लूट हुई तो हाल ही में गाजियाबाद में बदमाश फिल्मी स्टाइल में दिनदहाड़े 25 लाख लूट ले गए।

बहरहाल, चुनाव नतीजों से यह साफ है कि अपने सारे जनविरोधी कारनामों के बावजूद भाजपा का वोट प्रतिशत और उसका core वोट बैंक अब जिस मुकाम पर पहुंच गया है, उसमें भाजपा विरोधी वोटों के बिखराव को रोके बिना उसे हरा पाना मुश्किल है। उत्तर प्रदेश चुनाव में सभी सम्भव गैर-भाजपा ताकतों ( बड़े व छोटे दलों समेत ) की व्यापक एकता बनाने का गम्भीर प्रयास नहीं हुआ, जिसकी कीमत चुकानी पड़ी।

यह बात भी फिर साबित हुई कि सरकार को dislodge करने के लिए जनता की तकलीफें या सरकार से मुद्दा-आधारित नाराजगी आवश्यक तो है लेकिन वह  पर्याप्त नहीं है। इसके लिए जरूरी है कि विपक्ष जन-विक्षोभ को संघर्ष और आन्दोलन के माध्यम से राजनीतिक स्वरूप दे तथा जनसमुदाय को राजनीतिक तौर पर सत्ताधारी दल के खिलाफ अपने पक्ष में खड़ा करे। 

सत्तारूढ़ दल का वैचारिक-राजनीतिक पर्दाफाश करते हुए उसके खिलाफ काउंटर नैरेटिव खड़ा किये बिना और जनता के सवालों को जनान्दोलन के माध्यम से राजनीतिक मुद्दा बनाये बिना भाजपा को हरा पाना नामुमकिन है।

विपक्ष को सड़क पर आना होगा। सोशल मीडिया के माध्यम से हस्तक्षेप उसका विकल्प नहीं हो सकता, अधिक से अधिक उसका पूरक हो सकता है।

आज यक्ष-प्रश्न यही है कि विधानसभा चुनाव में उभरी अपनी कमजोरियों से उबरते हुए क्या विपक्ष जनता की बेहतरी और बदलाव की आकांक्षा को स्वर दे पाएगा और अगले राउंड में बाजी पलट पायेगा ?

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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