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एक साल बाद कश्मीर :  समस्याएं और चिंताएं

आर्टिकल 370 हटाने के एक साल बाद क्या है घाटी का हाल। क्या सोचता है आम कश्मीरी और जम्मू का बाशिंदा। क्या है वहां कि महिलाओं, बच्चों की स्थिति, उनकी पढ़ाई का हाल, उनका कारोबार। इन सबका बहुत विस्तार और बारीकी से अध्ययन और विश्लेषण पेश कर रही हैं सुभाषिनी अली।
एक साल बाद कश्मीर :  समस्याएं और चिंताएं

एक साल पहले, 5 अगस्त, 2019 के दिन, भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने लोकसभा में अपने कठोर बहुमत का बुलडोजेर की तरह इस्तेमाल करके, तमाम संवैधानिक और प्रजातांत्रिक नियमों को रौंदते हुए, अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के साथ-साथ, जम्मू-कश्मीर के दो टुकड़े करके उसे दो केंद्र-शासित इकाइयों मे परिवर्तित कर दिया। जिस राज्य को भारत के साथ विलय के समय यह आश्वासन  दिया गया था कि उसके अधिकारों को सुरक्षित रखा जाएगा, उसके नागरिकों के विशेष अधिकारों के साथ छेड़छाड़ नहीं होगी और उसकी विभिन्नता का सम्मान किया जाएगा, उस राज्य को, पल भर मे, दो कमजोर, पूरी तरह से केंद्र सरकार की दया-मया पर आश्रित, टुकड़ों मे परिवर्तित कर दिया गया।

और यह सब, एक प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत, उस राज्य की जनता से बिना पूछे, भाजपा की सरकार ने आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार करने की ओर कदम बढ़ाते हुए कर डाला। उस समय भी सरकार के किए की तीखी आलोचना कश्मीर के राज नेताओं और लोगों के साथ तमाम वामपंथियों, जनवाद और मानव अधिकार प्रेमियों और विशेषज्ञों ने की। उन्होंने कहा कि ऐसा करके कश्मीर की समस्याओं का समाधान नहीं उन्हें और जटिल बनाने का काम होगा।  सरकार को तो सुनना नहीं था, जनता के तमाम हिस्सों ने भी सुनने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। 

एक साल के बाद, कश्मीर को लेकर चिंताएं 

एक साल बीतने के बाद, कश्मीर के बाहर विरोध व्यक्त करने वालों की कतारों मे ऐसे लोग भी जुड़ गए हैं जिनको ‘देशद्रोही’ करार देकर कठघरे मे खड़ा करना सरकार के लिए आसान नहीं है।

3 सितंबर को ही, भारत के पूर्व NSA, जो IB के निदेशक रही हैं, श्री एम के नारायणन ने कश्मीर के पिछले एक वर्ष के अनुभव के बारे में बहुत ही संजीदा लेख लिखा। उन्होंने कहा कि 5 अगस्त की कार्यवाही ने काफी ‘बेसुरापन’ (dissonance) पैदा किया है। उन्होंने केंद्र सरकार के कदम की तुलना ‘नोटबंदी’ से की (अब उस नोटबंदी के दुष्परिणामों के लेकर कोई भ्रम नहीं रहा)। उनका मानना है कि सरकार के तमाम वादे वादे ही रह गये हैं और कश्मीर के बड़े नेताओं की गिरफ्तारी करके उसने सामान्य राजनैतिक विमर्श की जल्द वापसी के प्रति अपनी कटिबद्धता में लोगों के विश्वास को खो दिया है। यही नहीं, इस गिरफ्तारी ने मानव अधिकारों और उनके उल्लंघन को लेकर लोगों की चिंताओं को सही साबित कर दिया है। केंद्र सरकार द्वारा नागरिकता के नियम बदलने के बाद इस बात पर कश्मीरियों का पूरा विश्वास हो गया है कि अब कश्मीर की आबादी का स्वरूप ही बदला जाएगा।

श्री नारायणन कहते हैं कि अब यह चिंता जम्मू के लोगों को भी सता रही है जो पहले सरकार का समर्थन करती थी। उनको भी लगता है कि बाहर के लोगों के आने से उनका कारोबार चौपट हो जाएगा और अन्य तरह की परेशानियों से भी वे घिर जाएँगे।

अपने लेख मे श्री नारायणन इस बात से असहमति जताते हैं कि कश्मीर की समस्याओं का हल उसकी पहचान को खत्म करके और कश्मीरियों के लिए जम्हूरियत और इंसानियत को समाप्त करके किया जा सकता है।

अंत मे वे कहते हैं कि कश्मीर की समस्या अंतराष्ट्रीय संदर्भ से अलग करके न  देखी जा सकती है और न सुलझाई जा सकती है। वहाँ सामान्य स्थिति को पुनर्स्थापित करना न टलने वाली प्राथमिकता है। वह सरकार को आगाह करते हैं कि जनप्रियता हासिल करने के लिए कश्मीरियों के प्रति दंडात्मक नीतियों को अपनाए रखना उचित साबित नहीं होगा।

5 अगस्त 2019 के बाद 

केंद्र सरकार ने कश्मीर की जनता के जले पर नमक छिड़कते हुए, इस बात का ऐलान किया कि वह जो कुछ कर रही थी वह उसकी भलाई के लिए ही कर रही थी: “J&K मे विकास की लहर दौड़ेगी, उसकी महिलाओं को बराबरी के अधिकार मिलेंगे, आतंकवाद खत्म हो जाएगा और पूरे इलाके मे अमन और शांति छा जाएगी।”

प्रतिरोध की आवाज़ को रोकने के लिए केवल झूठे वादों का सहारा नहीं लिया गया। पूरे कश्मीर मे कर्फ़्यू लागू कर, चप्पे-चप्पे पर, हर गली के सिरे पर, हर मोहल्ले के प्रवेश पर बंदूकधारी फ़ौजियों को खड़ा कर दिया, हर रास्ते को काँटेदार तार मे कैद कर दिया। टेलीफोन और इंटरनेट को बंद कर दिया। पूरी जनता को गूंगा बना दिया गया। उसको घरों के अंदर कैद कर दिया गया। स्कूल और कालेज बंद कर बच्चों का बचपना ही उनसे छीन लिया गया।

तमाम राजनैतिक नेताओं, जिनमे 3 पूर्व मुख्यमंत्री शामिल थे, के अलावा 4000 लोगों को गिरफ्तार करके कश्मीर की जेलों को इस हद तक भर दिया कि कैदियों को दूर-दूर की जेलों मे भेजा गया, उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों तक पहुंचाना पड़ा। इनमे से बहुत, गरीब परिवारों के सदस्य थे। उनके मा-बाप या पत्नियों ने बड़े जतन से पैसा और हिम्मत जुटाकर उनसे मिलने का बीड़ा उठाया। जब वह उन जेलों तक पहुंचे जहां उनके प्रियजन बंद थे, तो उनसे कहा गया कि बातचीत सिर्फ हिन्दी मे ही हो सकती है। कश्मीर के गरीब और कम शिक्षित लोगों को तो कश्मीरी ही आती है। लिहाजा, बिना बात किए ही कईयों को बड़ी मायूसी के साथ वापस लौटना पड़ा।

खोखले वायदे 

लोकसभा में गृहमंत्री ने ज़ोर-शोर से ऐलान किया था की अब कश्मीरी महिलाओं को उनका अधिकार दिलाया जाएगा। उनका दावा था कि समस्त J&K के लोगों को विशेष नागरिकता कानून द्वारा प्राप्त संपत्ति को प्राप्त करने के अधिकार से वह कश्मीरी महिलाएं वंचित कर दी जाती थीं जो राज्य के बाहर शादी करती थी।  उन्होंने दावा किया कि अब, इस विशेष नागरिकता के कानून को समाप्त करके, कश्मीरी महिलाओं को विरासत का पूरा अधिकार दिलवा दिया जाएगा। कितनी शर्म की बात है कि संसद के सामने गृहमंत्री इस तरह से गलत बयानी कर बैठे।  दरअसल, न्यायालय ने कई साल पहले ही कश्मीरी महिलाओं के इस अधिकार को सुरक्षित करने का काम किया था। यही नहीं, भारत मे पारित महिलाओं की सुरक्षा के लिए तमाम कानून, जैसे घरेलू हिंसा और काम की जगह मे हिंसा के खिलाफ कानून, J&K मे भी लागू थे। 

सच तो यह है कि 5 अगस्त, 2019 के बाद, कश्मीर की महिलाओं ने बहुत कुछ खो डाला। यही नहीं कि कश्मीर के पुरुषों कि तरह अब उन्हे अनुच्छेद 370 के खत्म किए जाने के बाद अपनी ज़मीन से हाथ धोने की संभावना का सामना करना पड़ेगा क्योंकि अब बाहर के लोगों को पूरे J&K मे ज़मीन खरीदने का अधिकार मिल गया है, बल्कि विशेष नागरिकता कानून की समाप्ति के बाद राज्य के शैक्षणिक संसथाओ और नौकरियां जो केवल राज्य के नागरिकों को ही मिल सकती थी अब तमाम भारतियों के लिए उपलब्ध हो जाएंगी।

इसके अलावा भी उन्हे बहुत कुछ खोना पड़ा है। जब टेलीफोन और इंटरनेट के तार काटे गए थे तो उनका बोलने और अपने जज़्बात को व्यक्त करने का अधिकार ही नहीं छिना, बल्कि स्कूल या कालेज जाना, अस्पताल तक जाना, बाज़ार जाना – इन तमाम सामान्य अधिकारों से वह वंचित हो गईं। खोया बहुत कुछ और बहुत सारे नए डर पाये। बिना दवा के, बिना डाक्टर के, घर के बीमार सदस्यों का क्या होगा?  जो बच्चा कुछ ही दिनों मे पैदा होने वाला है, वह कहाँ और कैसे पैदा होगा?  क्या जवान बेटा उनके सामने मार दिया जाएग? जिन गोलियों की आवाज़ें घर के अंदर घुस रही हैं, क्या वह गोलियां भी घर के अंदर घुस जाएंगी? शांति और चैन से जीने का अधिकार भी उनसे छीन लिया गया। 

घर के बाहर के खतरों के साथ, घर के अंदर के खतरे भी बढ़ गए। घर और परिवार के अंदर होने वाली हिंसा से छुटकारा पाने के तमाम रास्ते बंद हो गए थे।  तीन-चार महीने बाद, फोन और इंटरनेट थोड़ा बहुत चलने लगा लेकिन मदद के लिए फोन किसको करते?  5 अगस्त को ही J&K महिला आयोग को बंद कर दिया गया था। उसकी अध्यक्ष, एडवोकेट वसुंधरा मसूदी पाठक का कहना है कि उसकी बंदी के बाद उन्हें रात दिन परेशान महिलाओं के काल आते है। उनका कहना है की लाकडाउन के चलते, परिवार के अंदर महिलाओं पर हिंसात्मक हमले करने वालों पर अब किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं है क्योंकि पीड़ित महिलाओं के पास अब मदद का कोई जरिया नहीं बचा है। पूरी घाटी मे एक ही महिला थाना है और वहाँ भी उनकी सुनवाई तब तक नहीं होती जब तक वह बुरी तरह से घायल न हों। पूरे कश्मीर मे पीड़ित महिलाओं के लिए किसी तरह का संरक्षण गृह नहीं है। हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए अस्पताल जाना भी मुमकिन नहीं है – पहले कर्फ़्यू ने रास्ता बंद कर दिया और अब कोरोना के बाद अधिकतर आउट पेशन्ट विभाग (ओपीडी) बंद हैं। न्यायपालिकाओं के दरवाजे तो बंद ही हैं।

सरकार के समाज कल्याण विभाग के अनुसार, कोरोना लॉकडाउन के पहले माह मे ही 16 बलात्कार और 64 यौन उत्पीड़न के मामले दर्ज किए गए थे। लेकिन चूंकि न तो लोगों को मालूम है की इस तरह के मामलों को कहाँ दर्ज कराना है, न ही उनकी सुनवाई सुनिश्चित है, इसलिए यह आंकड़े असलियत से बहुत कम हैं।

कश्मीर के डॉ. राउफ बताते हैं, ‘टकराव की स्थिति इन तीनों चीजों को और जटिल बना देती है – गरीबी, लैंगिक असमानता और घरेलू हिंसा। इससे अवसाद (डिप्रेशन) बढ़ सकता है। टकराव की इन स्थितियों से पैदा तनाव की भड़ास घर की महिलाओं पर उनके पुरुष निकालते हैं। इससे महिलाओं पर मानसिक बोझ और बढ़ता है।

इस साल भी 29 फरवरी को कश्मीर की महिलाओं ने 29 साल पहले, 23 फरवरी 1991 की सर्द रात में, कुनान पोशपोरा गाँव में, कम से कम 40 महिलाओं के साथ राजपूताना राइफल के जवानों द्वारा किए गए सामूहिक बलात्कार को सड़कों पर खड़े होकर याद किया। 3 दशकों से यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के सामने  है लेकिन उसकी सुनवाई आज तक नहीं हुई है। अबके साल ज़्यादा शिद्दत के साथ उन्हें इस बात का एहसास हुआ होगा की उनके लिए न्याय के दरवाजे हर तरफ से बंद हैं।

विकास का वादा तो भद्दा मज़ाक बनकर रह गया है। 5 अगस्त 2019 की शुरुआत टेलीफोन और इंटरनेट की बंदी से हुई। जम्मू और लद्दाख मे संचार से साधन काफी आँख मिचौली खेलते रहे लेकिन घाटी को निराशा के ऐसे अंधकार में धकेल दिया गया जहां से उसकी चीखें अनसुनी ही रह गईं। कई दिनों तक कश्मीर देश और दुनिया से बिलकुल ही कट गया। फिर कुछ लैंडलाइन चलने लगे लेकिन 6 महीने तक इंटरनेट बंद रखा गया।

लोगों पर मुसीबतों का जो पहाड़ अचानक टूट पड़ा, उसको उन्होंने कैसे झेला, इसके कुछ उदाहरण सामने आए हैं। 11 नवंबर तक, घाटी के लोगों के लिए सबसे नजदीक कनेक्शन लदाख मे ही उपलब्ध था जो 500 किलोमीटर दूर है। मोहम्मद शुनेद PHD के छात्र हैं। उन्हे अपने लेख अंतराष्ट्रीय पत्रिकाओं मे छपवानी पड़ते हैं। यह पता लगाने के लिए कि उनका लेख स्वीकार किया गया की नहीं, उन्हें लद्दाख तक जाकर इंटरनेट का इस्तेमाल करना पड़ता था। ऐसा उन्हें 6 महीनों मे दो-तीन बार करना पड़ा।

11 नवम्बर को बनिहाल (जम्मू) तक की रेल दोबारा शुरू हुई। अब यह सबसे करीब पड़ने वाली इंटरनेट-युक्त जगह हो गयी। सुबह 8.15 मिनट पर ट्रेन श्रीनगर स्टेशन से निकलती और देर शाम को वह लौटती। जाड़े के दिनों में, अंधेरे मे जाना और अंधेरे मे ही लौटना कितना मुश्किल और खतरों से भरा होता है! लेकिन ट्रेन के डिब्बे खचाखच भरे जाते और आते थे। बैठना छोड़िए, खड़े होने की जगह भी मयस्सर नहीं होती थे। लेकिन जाना और फिर आना मजबूरी थी। केवल इंटरनेट को इस्तेमाल करने के लिए।

मेडिकल कालेज और अन्य कालेजों के प्रवेश के इम्तेहान के लिए पंजीकरण ऑनलाइन ही होता है। श्रीनगर में केवल मीडिया सेंटर मे पत्रकारों के लिए इन्टरनेट की सुविधा उपलब्ध थी। शहर में 10 लाख की आबादी के लिए 4 कंप्यूटर उपलब्ध थे और घंटों खड़े होने के बाद ही कंप्यूटर का इस्तेमाल संभव होता था। इसलिए बनिहाल की ट्रेन ही पकडनी पड़ती थी। 

एक मेडिकल मे प्रवेश पाने की इच्छुक छात्रा घर से तड़के निकली और ट्रेन से बनिहाल पहुंची। वहाँ पता चला कि इंटरनेट डाउन है। लौटकर श्रीनगर में, तमाम कोशिशों के बाद, वह कंप्यूटर के पास भी नहीं पहुँच पायी। फिर ट्रेन मे बैठकर बनिहाल ही जाना पड़ा। वहाँ तीन घंटे के इंतज़ार के बाद, कंप्यूटर उसके हाथ लगा। काँपती उँगलियों से उसने कंप्यूटर खोलकर, फार्म भरा और, आंखे बंद करके, उसने भेजने का बटन दबाया। आंखें खोलकर जब उसने देखा कि उसका फार्म चला गया है तो उससे रहा नहीं गया। वह फूट फूटकर रोने लगी और बोली ‘मेरे तमाम सपने मेरी आँखों के सामने चकना चूर होते दिखाई दे रहे थे।’ 

संचार के साधनों के ठप्प हो जाने से, लोगों के धंधे बिलकुल चौपट हो गए हैं।  केंद्र सरकार का विकास का वादा एक भद्दा मज़ाक बन गया है। कई कंपनियाँ हाल के दिनों मे अच्छा काम करने लगीं थी लेकिन इंटरनेट की बंदी ने उनके और उनके ग्राहको के बीच संबंध बिलकुल समाप्त कर दिया। 

एक उदाहरण है परवेज़ भट्ट जो 28 साल के हैं और यूट्यूब पर अति जनप्रिय व्यंग्यकार हैं। उनके 5 लाख ‘फालोअर’ थे और हर महीने विज्ञापन के माध्यम से ठीक-ठाक कमाई हो जाती थी। रातोरात इंटरनेट की बंदी ने उन्हें गूंगा बना दिया और उनके श्रोताओं को बहरा।  

डॉक्टरों और मरीजों की मुसीबतें तो दिल को दहला देने वाली हो गईं। कई मरीज़ इसलिए ही मर गए कि उनका इलाज करने वाले डॉक्टर देश के अन्य हिस्सों के विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा नहीं कर पाये। 

कोरोना के बाद के लॉकडाउन में तो परेशानियाँ और बढ़ीं। देश भर मे ऑनलाइन पढ़ाई शुरू कर दी गयी है। इससे जहां हर जगह उन बच्चों को शिक्षा से वंचित रख दिया गया है जिनके लिए स्मार्ट फोन और लैपटाप पहुँच के बाहर हैं, वहीं कश्मीर के बच्चों की पीड़ा तो इनसे कहीं अधिक है। पहले इंटरनेट के बंद होने की वजह से बच्चों की पढ़ाई बंद हुई और अब केवल 2G की ही उपलब्धता के चलते न बच्चे पढ़ पा रहे हैं और न ही उनके शिक्षक क्लास ले पा रहे हैं, न वीडियो अपलोड कर पा रहे हैं।

स्कूल की पढ़ाई से वंचित बच्चों के मानसिक स्वास्थ और खुशहाली पर बहुत विपरीत असर पड़ा है। वह घबराहट के शिकार हो रहे हैं। एक तरफ,  स्कूल नहीं जा सकते हैं, दूसरी तरफ उनके माँ-बाप उनकी पढ़ाई को लेकर परेशान हैं। कश्मीर की स्थिति पर कुछ गणमान्य नागरिकों की कमेटी जिसमें पूर्व न्यायधीश लोकुर शामिल हैं, ने अपनी जुलाई 2020 की रिपोर्ट मे कहा है कि बच्चों पर इंटरनेट न चलने का भी बहुत भयानक प्रभाव पड़ा है। पढ़ाई तो उनकी चौपट हो ही गयी है, इसके साथ ही वे अपने आपको मानसिक रूप से बिल्कुल निचुड़े हुए महसूस करते हैं, वह बहुत आक्रामक हो गए हैं और उनके अंदर ज़बरदस्त निराशा का एहसास पैदा हो गया है। रिपोर्ट मे यह भी कहा गया की तमाम बच्चों को गिरफ्तार भी किया गया है। खेद की बात है कि इसके बारे मे जब सर्वोच्च न्यायालय से पूछताछ की गई तो न्यायालय ने जवाब दिया की ‘गिरफ्तारी केवल दिन मे कुछ घंटों के लिए ही की जा रही है। उस पर ज़्यादा चिंता जताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वहाँ की अस्थिर परिस्थितियों मे ऐसा बच्चों के भले के लिए ही किया जा रहा है।’  कश्मीर छोड़, देशभर के बच्चों की परेशानियों के बारे मे सर्वोच्च न्यायालय अक्सर चिंता व्यक्त करता है। कश्मीर के बच्चो के प्रति उसका रवैया कितना दुखद है!  

आर्थिक विकास का वादा तो पूरी तरह से खोखला ही साबित हुआ है। न्यायाधीश लोकुर और अन्य नागरिकों की कमेटी के अनुसार, एक साल मे राज्य को 40,000 करोड़ रुपए का जबर्दस्त नुकसान उठाना पड़ा है। इसमें औद्योगिक क्षेत्र, पर्यटन, कृषि, फल-उत्पादन, हस्त-कला इत्यादि मे हुए नुकसान शामिल हैं। 5 अगस्त, 2019 के पहले, J&K का आर्थिक प्रदर्शन अन्य कई राज्यों से बेहतर था लेकिन एक साल में उसमे बड़ी गिरावट आई है। 

अन्य देशवासियों के सामने भारत सरकार लगातार इस बात को साबित करने का प्रयास करती है कि कश्मीर के लोग बहुत खुश हैं, उनके लिए विकास के कई रास्ते खुल रहे हैं। इसी प्रयास के चलते, सरकार ने 8 मार्च, 2020 को 7 कश्मीरी महिला व्यवसाइयों को दिल्ली मे पुरस्कृत किया। उनमें से एक, आरीफा जान, ने हिम्मत जुटाकर प्रधानमंत्री से कह दिया ‘जब इंटरनेट बंद किया गया, तो सब कुछ चौपट हो गया।’ बाद में उन्होंने पत्रकारों को बताया ‘मैं राजनीतिक बात नहीं करना चाहती लेकिन यह तो स्पष्ट ही है कि इंटरनेट की बंदी से किसी का फायदा नहीं हुआ। कश्मीर में चारों ओर देखिये। सबका नुकसान हुआ है, मेरा भी। हमें अपने कर्मचारियों को काम से हटाना पड़ा, अपने कारखाने बंद करने पड़े। हमारे ग्राहक हम से संपर्क नहीं पाये और ऑनलाइन हमारा सामान खरीद नहीं सके।’ विकास को लेकर सरकारी दावे धरे के धरे रह गए।

भारत सरकार ने तो इस बात का वादा भी किया था कि कश्मीर के नौजवानों और नवयुवतियों को भारतीय उद्योगपति हाथो-हाथ लेकर नौकरियों मे लगा देंगे लेकिन सच्चाई तो यह है कि काम पर लगे हुए हजारों लोगों का काम छिन गया है और भविष्य मे उन्हे रोजगार मिलने की संभावना घट रही है। फल और पर्यटन के क्षेत्र रोजगार के बड़े स्रोत हैं और 5 अगस्त की मार ने दोनों को ही रोजगार का रेगिस्तान बना दिया है। इनमें लगे लाखों लोग आज भुखमरी की कगार पर हैं। 

यही नहीं,  सरकार ने नागरिकता कानून मे फेरबदल करके अब पूरे इलाके के लोगों को नौकरियों मे आरक्षण के लाभ से वंचित कर दिया है। 5 अगस्त 2019 के पहले बैंको और सार्वजनिक उद्यमों मे नौकरियों के लिए इम्तेहान और साक्षात्कार की प्रक्रिया समाप्त हो चुकी थी लेकिन अब उनमें भाग लेने वालों को सूचित कर दिया गया है कि इम्तेहान और साक्षात्कार रद्द कर दिये गए हैं और वह नए नियमों के तहत फिर से करवाए जाएँगे ताकि देश भर के लोगों को इनमे भाग लेने का मौका मिल सके। J&K के तमाम नौजवानो के भविष्य पर इसका बहुत ही विपरीत असर पड़ेगा। उनके लिए नौकरी (और पढ़ाई) के अवसर बहुत कम हो जाएँगे। इस नई परिस्थिति के खिलाफ घाटी के साथ लद्दाख और जम्मू मे भी असंतोष भड़क रहा है।

केंद्र सरकार जो इस वक्त पूरे इलाके पर शासन कर रही है,  बेरोजगारों के प्रति कितनी बेरहम है उसका उदाहरण तब सामने आया जब, कुछ दिन पहले, उसने SHGs (बचत गुटों) पर पाबंदी लगा दी। इसका तीखा विरोध सीपीआईएम के पूर्व विधायक यूसुफ तारीगामी ने किया। उन्होंने बताया कि करीब 15000 बेरोजगार इंजीनियर SHG के माध्यम से अपने आप को ज़िंदा रखने की कोशिश कर रहे हैं – इनमें कंप्यूटर इंजीनियर, बायो मेडिकल इंजीनियर इत्यादि हैं। SHGs के माध्यम से वह राज्य के विकास मे अपना योगदान कर रहे हैं। अब सरकार उनसे ज़िंदा रहने का यह रास्ता भी छीन रही है। 

5 अगस्त, 2019 को लोक सभा और राज्य सभा के माध्यम से सरकार ने पूरे देश को बताया कि कश्मीर के लोगों मे अलगाव की भावना दफा 370 ने पैदा की है, इसलिए उनको अपने साथ जोड़ने के लिए इसे समाप्त करना आवश्यक है। क्या दफा 370 को समाप्त करने के बाद ऐसा हुआ है?  हाल मे भाजपा से जुड़ी कई महिलाओं जिनमें चुनी हुई प्रतिनिधियाँ भी हैं, के बयान सामने आए हैं। भाजपा के कुछ नेताओं जिनमे सरपंच भी थे कि पिछले एक महीने में हत्याएँ हुई हैं। इन हत्याओं को लेकर सरकार के कई दावों पर सवाल खड़े हो गए हैं – आज भी कश्मीर में लोग, सरकार से जुड़े हुए लोग भी, इतने असुरक्षित क्यों हैं?  अगर सरकार आपने आपको सुरक्षित नहीं रख पा रही है तो वह दूसरों को सुरक्षित कैसे रखेगी? अगर दफा 370 ही अलगाव का कारण था तो फिर उसके हटने के बाद अलगाव क्यों बढ़ रहा है?  यह सवाल कितने प्रासंगिक हैं इसका हवाला यह महिलाएं दे रही हैं। 

हलीमा, जो 2001 से भाजपा की सदस्य हैं, ने बताया कि अपने साथियों के साथ कश्मीर के भाजपा परवेक्षक, राम माधव, को उन्होंने ज्ञापन दिया। उन्होंने उनसे मांग की कि दफा 370 के हटाये जाने के हालात मे उनकी तरफ से कुछ परिवर्तन होना चाहिए और, पहले की तरह, J&K के लोगों की ज़मीन और नौकरियाँ फिर से सुरक्षित होनी चाहिए,  बाहरी लोगों को वहाँ की ज़मीन का मालिक नहीं बनने दिया जाना चाहिए।‘ 

फ़तेहपुर-बारामुला की 23 वर्षीय भाजपा सरपंच, अमनदीप कौर, के अनुसार पंचायतों के अंतर्गत 21 सरकारी विभाग होने के बावजूद,  ज़मीन पर कोई काम करते हुए नज़र नही आता है। उनका कहना है ‘कश्मीर में हम ज़मीन पर अधिकारियों को तब ही देखते हैं .... जब उन्हें गांवो मे प्रशासन की तरफ से जबरन भेजा जाता है।’ 

जब भाजपा से जुड़े लोग इस तरह की बाते करने के लिए मजबूर हो रहे हैं तो फिर आम कश्मीरियों का इस नए दौर और शासन के बारे मे क्या विचार है उसे समझना मुश्किल नहीं है। 

भाजपा का एक वादा और था, दलितों को उनका अधिकार मिलेगा। उन्होंने भ्रमित करने के लिए कहा की धारा 370 के चलते, एससी/एसटी को आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है जबकि उन्हें राज्य की नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण मिल रहा था। दरअसल, अब जब उन्हें देश भर के एससी/एसटी के साथ बहुत कम जगहों के लिए होड मे शामिल होना पड़ेगा तो उनकी समस्याएँ बढ़ जाएंगी। यही नहीं, दलितों के सामाजिक उत्पीड़न में पिछले साल मे कोई परिवर्तन नहीं आया है। 18 जुलाई 2020 को जम्मू किश्तवाड़ के पूछल ए-2 पंचायत की दलित सरपंच, कमलेश भगत ने मनरेगा मे भ्रष्टाचार और अनियमिताओं के चलते अपने पद से इस्तीफा दे दिया। कमलेश ने बताया कि उनके वार्ड मे दो राजपूत  बहुल हैं और पाँच मुस्लिम व दलित बहुल। राजपूत बहुल वार्ड मे हर रोजगार कार्ड धारक के खाते में 14000 जमा कराए गए हैं जबकि शेष वार्डों के रोजगार कार्ड धारकों के खातों में 100 दिनों के काम के एवज में मात्र 4000 रुपए प्रति खाता जमा कराया गया। उन्होने आगे यह बताया कि जब उन्होंने शिकायत की तो उन्हें ‘जाति-सूचक गालियां’ सुननी पड़ी। इसके खिलाफ उन्होंने एफआईआर दर्ज की लेकिन न्याय के बजाय उन्हें और अपमान सहने पड़े। अंत में, अपना इस्तीफ़ा ज़िले के अधिकारियों को देने के बाद, कमलेश ने राष्ट्रपति को पत्र भी भेजा जिसमे उन्होंने लिखा ‘यहाँ पर लोकतन्त्र की हत्या कर दी गई है।’ 

पिछले एक साल के अनुभव ने यह सिद्ध कर दिया है कि पूरे क्षेत्र की समस्याओं के लिए दफा 370 जिम्मेदार नहीं थी। इसका प्रमाण है कि पिछले एक साल मे कश्मीर के लोगों को किसी तरह का फायदा तो नहीं पहुंचा है और शांति की स्थापना भी एक दिव्य-स्वप्न बना रह गया है। दफा 370 के हटाये जाने के बाद, उग्रवादी गतिविधियां और हमलों मे वृद्धि हुई है। सरकारी दावों को पूरी तरह से झुठलाते हुए हाल मे गृह मंत्रालय को कड़वी सच्चाई को स्वीकार करना पड़ा है। उसके द्वारा तैयार की गई तथ्य-पर्चे के अनुसार, 2020 के 7 महीनों में 90 स्थानीय लोगों ने विभिन्न आतंकवादी समूहों मे सदस्यता ली है...अधिक चिंता की बात है कि संख्या उम्मीद से ज़्यादा हो सकती है। पहले जब कोई नौजवान गायब हो जाता था और आतंकवादियों से मिल जाता था, तो उसके परिजन, पड़ोसी या फिर सोशल मीडिया पर पोस्ट के माध्यम से सुरक्षा बालों को सूचना दे दी जाती थी।’ एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि ‘अब पोस्ट ऑनलाइन नहीं आ रहे हैं और परिजन भी आगे नहीं आ रहे हैं।’

मुठभेड़ मे मारे गए आतंकवादियों की पहचान की प्रक्रिया बता रही है कि उनमें से अधिकतर स्थानीय हैं। अधिकारियों का कहना है कि 90% से अधिक मारे जाने वाले स्थानीय हैं। गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने बताया कि ‘कश्मीर घाटी में गुस्सा महसूस किया जा सकता है। इसीलिए, चाहे जितने आतंकवादी मार दिये जाएं, उनकी संख्या कम नहीं हो रही है। नौजवानों से संबंधित गतिविधियां कोविड के चलते समाप्त हो गयी हैं। स्कूल और कालेज बंद हैं। इंटरनेट का संचार ढेर हो गया है और मनोरंजन के न होने से बहुत कड़ुवाहट बढ़ी है।’  एक अन्य अधिकारी कहते हैं कि रोजगार के अवसरों मे आई कमी इस कड़वाहट को बढ़ा रही है।

घाटी में तो कड़वाहट बढ़ रही है, साथ ही जम्मू में भी गुस्सा और असंतोष बढ़ रहा है। इसके पीछे केवल नागरिकता के कानून का बदला जाना नहीं है हालांकि इससे जम्मू और लद्दाख दोनों में ही आक्रोश है, इसके पीछे बढ़ते अन्याय और अत्याचार भी हैं। जम्मू के गुर्जर समुदाय के लोग हमेशा अलगाववाद के विरोधी और भारत सरकार के समर्थक रहे हैं। 18 जुलाई की घटना से अब इसमे बड़ा परिवर्तन आया है। उस दिन, रजौरी (जम्मू) के तीन नाबालिग गुर्जर लड़के जो सेब के बगीचों में काम करने के लिए गए थे, को सेना ने ‘आतंकवादी’ कहकर मार डाला। किसी सैनिक को कोई चोट नहीं आई। जम्मू में बड़े पैमाने पर लोग जांच की मांग कर रहे हैं। सीपीआई (एम) ने भी इस मांग का समर्थन किया है। 

सरकार का दावा था की अलगाव की भावना को 370 के साथ समाप्त कर दिया जाएगा लेकिन एक साल मे नए अलगाववादी पैदा हो गए हैं।

कुछ सबक

एक साल गुज़र गया है। वादा खिलाफी का एक साल। कश्मीर के लोगों के लिए बड़ा ही भयावह एक साल। 

कश्मीर में सरकार ने प्रजातन्त्र को बर्बाद करने का जो प्रयोग किया, उससे पूरा देश अब प्रभावित हो रहा है। धीरे धीरे उन तमाम देशवासियों को जिनकी आत्मा अभी जीवित है, जिनको प्रजातन्त्र और संविधान से थोड़ा भी लगाव है,  इस बात का आभास हो रहा है किसी एक स्थान में जनतंत्र और नागिरकता के अधिकारों पर हमला पूरे देश को प्रभावित करता है;  किसी एक स्थान में इस हमले की सफलता, पूरे देश मे ऐसा ही करने के लिए सरकार को प्रेरित करती है। एक पर हमला, सब पर हमले का पहला कदम है।

हम कहते नहीं थकते, कश्मीर हमारा है। अब यह कहना सीखें कि कश्मीरी हमारे हैं।

(सुभाषिनी अली पूर्व सांसद और अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (AIDWA) की उपाध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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