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कश्मीर रिपोर्ट : कश्मीर को तहस-नहस कर दिया गया है

रिपोर्ट में कहा गया है कि कश्मीर लंबे समय से भारतीय लोकतंत्र की सफलता को नापने का पैमाना रहा है, जिसमें हम बुरी तरह से फ़ेल हुए है।
J&K

जम्मू-कश्मीर के हालात पर जुलाई 2020 के उत्तरार्द्ध में एक रिपोर्ट जारी की गयी, जिस पर बहुत कम ध्यान दिया गया। इसे जम्मू-कश्मीर मानवाधिकार फ़ोरम (फ़ोरम ऑफ़ ह्यूमन राइट्स इन जे ऐंड के) की ओर से जारी किया गया, जिसके सह-अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व जज मदन लोकुर और अकादमीशियन राधा कुमार हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले साल अगस्त से जम्मू-कश्मीर में लागू लॉकडाउन ने, जो अभी तक जारी है, समूचे क्षेत्र और इसकी जनता के आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक जीवन पर अनर्थकारी और विध्वंसक असर डाला है। कश्मीर घाटी पर इसका विध्वंसक असर बहुत ज़्यादा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कश्मीर लंबे समय से भारतीय लोकतंत्र की सफलता को नापने का पैमाना रहा है, जिसमें हम बुरी तरह से फ़ेल हुए है।

जम्मू-कश्मीर मानवाधिकार फ़ोरम में मदन लोकुर और राधा कुमार के अलावा 19 सदस्य और हैं। इनमें भूतपूर्व जज एपी शाह व हसनैन मसूरी, भूतपूर्व नौकरशाह गोपाल पिल्लई व निरुपमा राव, और रिटायर्ड लेफ़्टिनेंट जनरल एचएस पनाग शामिल हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि लॉकडाउन के चलते कश्मीर घाटी की जनता का शेष भारत व जनता से लगभग पूरी तरह अलगाव हो गया है। यह अलगाव जम्मू की तुलना में कश्मीर में कहीं ज़्यादा नज़र आता है।

संदर्भ के लिए, यहां बता दिया जाये कि केंद्र की भारतीय जनता पार्टी सरकार व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 5 अगस्त 2019 को संविधान के अनुच्छेद 370 को रद्द कर दिया, जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा ख़त्म कर दिया, और उसे दो केंद्र-शासित क्षेत्रों— जम्मू-कश्मीर व लद्दाख— में बांट दिया। एक राज्य के रूप में जम्मू-कश्मीर का विलोप करने के बाद वहां सेना के बल पर बहुत सख़्त लॉकडाउन व कर्फ़्यू लागू कर दिया गया। 5 अगस्त 2019 से जारी लॉकडाउन 5 अगस्त 2020 को एक साल पूरा कर लेगा।

रिपोर्ट के अनुसार, लॉकडाउन के चलते ख़ासकर कश्मीर घाटी अपने बाशिंदों के लिए जेल बन गयी है। इन 11-12 महीनों में उद्योग-धंधे पूरी तरह तबाह हो गये हैं, हज़ारों-हज़ार लोग बेरोज़गार हो गये हैं या उनकी तनख़्वाहों में कटौती हो गयी है, स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय बंद पड़े हैं और शिक्षा-व्यवस्था ध्वस्त हो गयी है, लगातार कर्फ्यू व सड़क नाकाबंदी के चलते स्वास्थ्य-चिकित्सा सेवाएं धराशायी हो गयी हैं, और स्थानीय व क्षेत्रीय अख़बारों व अन्य समाचार माध्यम की रही-सही आज़ादी पूरी तरह ख़त्म हो गयी है। कश्मीर को बर्बादी के कगार पर पहुंचा दिया गया है।

फ़ोरम के सदस्यों का कहना है कि हमने पाया कि जम्मू-कश्मीर की जनता के हितों की पैरवी करने वाला कोई निर्वाचित प्रतिनिधि है ही नहीं। कुछ राजनीतिक बंदियों को रिहा किया गया है, लेकिन उनसे यह हलफ़नामा ले लिया गया है कि वे सरकार के किसी काम या नीति की आलोचना नहीं करेंगे। नागरिकों को कुछ राहत देनेवाली सभी संवैधानिक संस्थाओं को लगभग ख़त्म कर दिया गया है और उन्हें फिर से शुरू करने की केंद्र सरकार की मंशा नहीं दिखायी देती। इसके चलते घाटी की जनता का भारत से लगभग पूरा अलगाव हो गया है।

फ़ोरम की रिपोर्ट बताती है कि इस लॉकडाउन, कर्फ़्यू व सख़्ती का स्थानीय समाचार माध्यम पर बहुत बुरा असर पड़ा है। पत्रकारों को डराया-धमकाया जा रहा है और उन पर क्रूर कानूनी धाराएं लगायी जा रही हैं। इन सबकी वजह से अख़बारों की ख़बरों के स्तर, पाठक संख्या व आय में ज़बर्दस्त गिरावट आई हैं, और कई पत्रकारों की नौकरियां चली गयी हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर नयी मीडिया (समाचार माध्यम) नीति स्वतंत्र मीडिया के लिए मौत की घंटी है।

जम्मू-कश्मीर मानवाधिकार फ़ोरम की यह रिपोर्ट उसी सवाल को फिर हमारे सामने रखती है : क्या हम कश्मीर को हमेशा के लिए खो चुके हैं?

(लेखक वरिष्ठ कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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