आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके टी अंजैया की याद दिलाते कातर शिवराज
भाजपा में नेतृत्व की गिनती जहाँ समाप्त हो जाती है, उस दो नंबर पर विराजे नेता अमित शाह की दो दिनी भोपाल यात्रा की प्रतीक दो तस्वीरें रहीं।
एक तो जब तक वे रहे तब तक लगभग पूरे भोपाल के घुप्प अँधेरे में डूबे रहने की तस्वीर थी। अंधेरा इस कदर घनघोर था कि खुद उनके - भारत के गृहमंत्री - के कार्यक्रम में रोशनी के लिए जनरेटर्स का सहारा लिया जा रहा था। इसी के साथ राजा का बाजा बजाने वाले मीडिया ने जो तस्वीर नहीं दिखाई, वे यह थीं कि बेइंतहा बारिश की वजह से आधे से ज्यादा भोपाल डूबा हुआ था और सरकार अनुपस्थित थी। सिर्फ मंत्री-संतरी, नेता-नेतानी ही नहीं अफसर-बाबू सब के सब अमित शाह की यात्रा में मगन थे।
दूसरी तस्वीर हवाई अड्डे पर अमित शाह को विदाई देने गए भाजपा के तीन नेताओं की थीं, जिनमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान दीन हीन, दया का पात्र बने हाथ मलते हुए घिघियाये और कातर भाव से खड़े दिखाई दे रहे थे। इतना दासत्व इतना असहाय भाव उस शख्स के चेहरे पर अजीब लग रहा था जो कुछ महीने के व्यवधान को छोड़कर लगातार 15 साल से प्रदेश का मुख्यमंत्री है।
यह सिर्फ भाजपा के भीतर उसके बाकी के नेताओ की असली दशा और हैसियत का ही परिचायक नहीं था बल्कि अपरोक्ष रूप से मध्यप्रदेश की जनता और संसदीय लोकतंत्र का भी अपमान था; इसलिए कि शिवराज सिंह चौहान सिर्फ मोदी-शाह भाजपा के सदस्य या छुटके - संसदीय बोर्ड से हटा दिए जाने के बाद तो और भी छुटके हो गए - नेता भर नहीं हैं। वे मध्यप्रदेश की 8,23,42,793 (आठ करोड़, 23 लाख, 42 हजार 793) जनता के लिए भले कैसे भी हों, मुख्यमंत्री भी हैं। उनका इस तरह का सार्वजनिक अपमान सिर्फ एक व्यक्ति या पार्टी कारकून का नहीं उस जनता का अपमान भी है जिसके वे मुख्यमंत्री हैं।
शिवराज की अपनी महत्वाकांक्षाएं हो सकती हैं, मजबूरियाँ भी हो सकती हैं, बल्कि हैं ही। उन्हें पता है कि अमित शाह सिर्फ उनकी गद्दी ही नहीं छीन सकते, अगर अपनी पर आ गए तो ई डी और सीबीआई को भी खुला छोड़ सकते हैं और कहने की जरूरत नहीं कि इन दोनों संस्थाओं के लिए वे देश में सबसे सुयोग्य पात्र हैं। लेकिन उन्हें यह भान होना चाहिए कि वे एक संवैधानिक पद पर हैं और उनकी हो या न हो पद की एक गरिमा होती है।
वजह जो भी हो यह कातरता शर्मसार करती है। सभ्य समाज और तुलनात्मक रूप से परिपक्व लोकतंत्र में इस तरह की घटनाएं जनाक्रोश का कारण बनती हैं और अक्सर तख्तापलट भी कर देती हैं। वर्ष 1982 में आंध्र प्रदेश के तबके के मुख्यमंत्री टी अंजैया के साथ कांग्रेस महासचिव राजीव गांधी द्वारा हवाई अड्डे पर की गयी इसी तरह की एक बदसलूकी ने आंध्र में कांग्रेस को ऐसा रसातल में पहुंचाया कि उसके बाद वह कभी उबर ही नहीं पायी।
मगर इन 40 सालों में राजनीति का पानी बहुत गंदला हो चुका है। सार्वजनिक जीवन और गरिमा के मूल्य इस कदर बदले जा चुके हैं कि पहचान में भी नहीं आते। उस पर से यह भाजपा जो पहले भी कभी राजनीतिक पार्टी नहीं थी - अब तो पूरी तरह हम दो हमारे दो में तब्दील हो चुकी है।
यह टिप्पणी शिवराज सिंह चौहान के प्रति हमदर्दी या संवेदना के लिए नहीं लिखी जा रही है। वे इसके पात्र नहीं हैं। उनके राज में आम जनता की जिंदगी जितनी कठिन और त्रासद हुयी है, उसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती। प्रशासन जितना निकम्मा, निरंकुश और निर्मम हुआ है वह उनके अकुशल अप्रभावी नेतृत्व का उदाहरण है, उनके कार्यकाल में उनकी रहनुमाई और हिस्सेदारी के साथ जितने घोटाले हुए हैं उसकी मिसाल तो "बनाना रिपब्लिक" कहे जाने वाले "कोई धनी न कोई धोरी" वाले देशों में भी नहीं मिलते।
यह टिप्पणी उन कयास-पहलवानों, अनुमान-वीरों और अंदाज-उस्तादों के लिए है जो अमित शाह को विदा करने के समय की इस छवि में मुख्यमंत्री पद से शिवराज सिंह चौहान की आसन्न विदाई पढ़ रहे हैं और आशा लगाए बैठे हैं कि अब उनकी जगह कोई और दूसरा आएगा। अगर आ भी गया तो क्या बड़ा अंतर आएगा? गोटियों की अदला बदली से बाजी बदलने की उम्मीद करने वालों को एक जमाने में भाजपा के ही शीर्ष नेता रहे गोविंदाचार्य की उक्ति याद रखनी चाहिए कि यहां सब मुखौटे हैं - सबका मालिक, निर्माता, निर्देशक, पटकथा और संवाद लेखक, डिस्ट्रीब्यूटर और कमाई का बड़ा हिस्सेदार एक ही है। मुखौटे बदलने से असली चेहरे नहीं बदला करते।
(लेखक लोकजतन पत्रिका के संपादक हैं। अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)
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