Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

ख़बरों के आगे-पीछे: गुजरात में बह रही है काले धन और शराब की नदी

वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन बता रहे हैं कि कैसे गुजरात चुनाव में काले धन और शराब का बोलबाला है। साथ ही केरल में सुधाकरन के बयानों से कांग्रेस की फ़ज़ीहत और अन्य ख़बरें।
Gujarat

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चर्चित जुमला है- 'न खाऊंगा न खाने दूंगा।’ वे यह भी कहते रहे हैं कि उनकी सरकार ऊपर से नीचे तक राजनीति की सफाई कर रही है। उन्होंने एक झटके में पांच सौ और एक हजार रुपये के नोट बंद करके दावा किया था कि इससे काला धन पूरी तरह से खत्म हो जाएगा। अपनी हर सभा में वे यह दावा भी करते हैं कि उनकी सरकार ने भ्रष्टाचार पर लगाम लगा दी है। लेकिन हकीकत यह है कि हर चुनाव में काले धन का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। खुद भाजपा शासित राज्यों में काले धन की गंगा बह रही है।

गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव आयोग ने जितनी नकदी और शराब पकड़ी है उससे लग रहा है कि भ्रष्टाचार पहले से कई गुना बढ़ गया है। इन दोनों राज्यों में पिछले चुनाव के मुकाबले तीन से पांच गुना तक ज्यादा जब्ती हुई है। गुजरात प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का गृह प्रदेश है। वहां पिछले 27 साल से भाजपा का शासन है और वहां पर अभी तक करीब 72 करोड़ रुपये की नकदी, शराब और चुनाव में बांटने वाले उपहार जब्त हुए हैं।

गुजरात में चुनाव आयोग ने विधानसभा चुनाव में एक उम्मीदवार के लिए 40 लाख रुपये खर्च की सीमा तय की है। इस लिहाज से 182 सीटों पर किसी एक पार्टी के सारे उम्मीदवार मिल कर जितना खर्च करेंगे उतना तो अभी तक जब्त हो चुका है।

यह भी हैरान करने वाली बात है कि गुजरात शराबबंदी वाला राज्य है लेकिन अभी तक एक लाख 10 हजार बोतल शराब जब्त हुई है, जिनकी कीमत 3.86 करोड़ रुपये है। पिछले यानी गुजरात में 2017 के चुनाव में कुल जब्ती 27.21 करोड़ रुपये की थी। यानी पांच साल में यह तीन गुना से ज्यादा बढ़ गई है।

सोच-समझ कर आर्थिक तबाही का फ़ैसला

कमाल की बात है कि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दिए हलफनामे में कहा है कि है कि नवंबर 2016 में पांच सौ और एक हजार रुपये के नोट बंद करने का फैसला बहुत सोच-समझ कर किया गया था। पूरे आठ महीने तक भारतीय रिजर्व बैंक के साथ विचार-विमर्श किया गया था। कितनी हैरानी की बात है कि आठ महीने तक विचार विमर्श कर ऐसा फैसला किया गया था, जिसने देश की अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा दिया।

सवाल है कि कैसे कोई सरकार या मुद्रा का विनियमन करने वाली संस्था सोच समझ कर ऐसा आत्मघाती फैसला कर सकती है? केंद्र सरकार ने यह भी कहा कि उसने रिजर्व बैंक की लिखित सलाह के बाद फैसला किया था। हालांकि वह यह नहीं बताएगी कि रिजर्व बैंक ने कैसे सरकार के साथ सहमति जताई थी क्योंकि वह लिखित सलाह का हिस्सा नहीं है।

असल में जब केंद्र सरकार ने रिजर्व बैंक के साथ सलाह मशविरा शुरू किया था तब रघुराम राजन रिजर्व बैंक के गवर्नर थे और वे सरकार के इस फैसले से सहमत नहीं थे। संभवत: इसीलिए सरकार को फैसला करने में आठ महीने लग गए। रघुराम राजन ने सितंबर में जब इस्तीफा दिया तब उर्जित पटेल को नया गवर्नर बनाया गया और उसके बाद उनके दस्तखत वाले नए नोटों की छपाई शुरू हुई, जिसके बाद आठ नवंबर को नोटबंदी का फैसला हुआ। सो, भले ही सरकार ने विचार विमर्श किया या रिजर्व बैंक नोटबंदी के फैसले पर राजी हुई लेकिन हकीकत यह है कि सरकार ऐसा चाहती थी तभी ऐसा हुआ। इसलिए यह रिजर्व बैंक का नहीं सरकार का फैसला था।

केरल में सुधाकरन के बयानों से कांग्रेस की फ़ज़ीहत

कांग्रेस में एक तरफ राहुल गांधी नफरत की राजनीति को लेकर सावरकर का नाम लेकर भाजपा और आरएसएस को ललकार रहे हैं, वहीं दूसरी ओर केरल में उनकी पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्ष के सुधाकरन आरएसएस से हमदर्दी जताते हुए वाम मोर्चा सरकार पर हमला कर रहे हैं। सुधाकरन को राहुल ने ही केरल का अध्यक्ष बनवाया था। उनके अध्यक्ष बनने से कांग्रेस को कोई खास फायदा तो हुआ नहीं लेकिन उनके बयानों से पार्टी की फजीहत जरूर हो रही है।

सुधाकरन ने हाल ही में दो ऐसे बयान दिए हैं, जिनकी वजह से कांग्रेस घिरी है। इन बयानों पर न सिर्फ वामपंथी पार्टियों ने सवाल उठाए हैं, बल्कि कांग्रेस की सहयोगी इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने भी इनकी आलोचना की है। सुधाकरन ने पहले कहा कि कई दशक पहले जब कम्युनिस्ट पार्टियों के लोग आरएसएस के लोगों को शाखा नहीं लगाने देते थे और उन पर हमले करते थे तब वे अपने लोगों को भेज कर संघ के लोगों की रक्षा करते थे। उसके बाद उन्होंने कहा कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू बहुत लोकतांत्रिक थे और उन्होंने फासीवाद से लड़ाई में समझौता करके श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपनी सरकार में मंत्री बनाया था।

सुधाकरन के इन बयानों को केरल में कांग्रेस के ही कई नेता बलंडर बता रहे हैं तो कुछ नेता मास्टर स्ट्रोक मान रहे हैं। एक तरफ इस बयान से मुस्लिम और ईसाई मतदाताओं के नाराज होने का खतरा जताया जा रहा है तो सुधाकरन का समर्थक गुट कह रहा है कि केरल में भाजपा अपना आधार नहीं बना सकी है इसलिए वाम मोर्चा को हराने के लिए हिंदुत्ववादी सोच के मतदाता कांग्रेस के साथ जुड़ सकते है संघ के लोग भी कांग्रेस की मदद कर सकते हैं। हालांकि केरल की राजनीति के कुछ जानकारों का कहना है कि सुधाकरन के ऐसे बयानों से कांग्रेस को फायदा हो या न हो, पर नुकसान होना तय है, क्योंकि इससे वह ईसाई और मुस्लिम समुदाय में अपने समर्थकों का भरोसा खो देगी।

गुजरात में मुस्लिम मुक्त हो गई है राजनीति!

गुजरात को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की प्रयोगशाला यूं ही नहीं कहा जाता है। इस सूबे में 10 फीसदी के करीब मुस्लिम आबादी है लेकिन पिछले दो दशक से यह स्थिति बनी हुई है कि कोई भी पार्टी मुसलमानों को आबादी के अनुपात में टिकट नहीं देती है। यही कारण है कि गुजरात की 182 सदस्यों वाली विधानसभा में 10 फीसदी मुस्लिम आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले विधायकों की संख्या दो फीसदी भी नहीं है। मौजूदा विधानसभा में सिर्फ तीन मुस्लिम विधायक हैं और अभी चल रहे चुनाव के बाद हो सकता है कि यह संख्या और कम हो जाए। इसका कारण यह है कि राजनीतिक दलों की ओर से गिनती के मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में हैं।

भाजपा ने हर बार की तरह इस बार भी किसी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया है। भाजपा ने आखिरी बार 25 साल पहले एक मुस्लिम उम्मीदवार को उतारा था। उस समय गुजरात की राजनीति में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का कोई दखल नहीं था। कांग्रेस पर मुस्लिमपरस्त राजनीति करने के आरोप लगते रहे हैं लेकिन उसने भी अपने 182 उम्मीदवारों में से सिर्फ छह मुस्लिम उम्मीदवार दिए हैं। कांग्रेस की जगह लेने की राजनीति कर रही आम आदमी पार्टी ने तो सिर्फ दो ही सीट से मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं।

एक समय ऐसा था, जब गुजरात विधानसभा में 17 मुस्लिम विधायक होते थे। लेकिन अब संख्या तीन पर आ गई है। इसका कारण यह है कि भाजपा को मुस्लिम वोट चाहिए नहीं और अब तक अकेले कांग्रेस लड़ती थी तो वह मान कर चलती थी कि मुसलमान मजबूरी में उसको ही वोट देंगे। आम आदमी पार्टी ने भी यही मान कर औपचारिकता पूरी करने के लिए दो टिकट दिए हैं।

लोकसभा के लिए भी तैयारी में जुटी है भाजपा

लग तो यह रहा है कि भाजपा के सारे नेता गुजरात के चुनाव में व्यस्त हैं लेकिन बात ऐसी नहीं है। असल में गुजरात का चुनाव भाजपा ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के जिम्मे छोड़ा है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी आठ रैलियां करेंगे। लेकिन पार्टी के अध्यक्ष और कई महासचिव व केंद्रीय मंत्री लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं। पार्टी लोकसभा की उन 144 सीटों पर बड़ी मेहनत कर रही है, जहां पिछली बार वह जीत नहीं पाई थी। ऐसी सीटों की जिम्मेदारी केंद्रीय मंत्रियों को दी गई है। केंद्रीय मंत्रियों ने इन सीटों को लेकर जो पहली रिपोर्ट दी थी उस समय की बैठक में अमित शाह और जेपी नड्डा दोनों शामिल हुए थे।

पिछले दिनों केंद्रीय मंत्रियों की दूसरी बैठक हुई। दो दिन चली इस बैठक की अध्यक्षता नड्डा ने की। चुनाव की वजह से अमित शाह इसमें शामिल नहीं हुए। बैठक में मंत्रियों ने अपने जिम्मे मिली सीट के बारे में जानकारी दी।

बताया जा रहा है कि दिसंबर के बाद केंद्रीय मंत्रियों की रिपोर्ट पर कार्रवाई होगी। इन 144 कमजोर सीटों पर चल रही एक्सरसाइज का कोऑर्डिनेशन पार्टी के महासचिव विनोद तावड़े देख रहे हैं, जो बिहार के भी प्रभारी हैं। उनके साथ दूसरे महासचिव सीटी रवि भी तालमेल का काम देख रहे हैं। बताया जा रहा है कि पार्टी इन सीटों पर सबसे पहले उम्मीदवार तय करेगी।

कांग्रेस में इस्तीफ़ा देने वालों से अलग-अलग बर्ताव

कांग्रेस में यह तय हुआ था कि जो भी अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ेगा उसे अपने पद से इस्तीफा देना होगा। इसी नियम के चलते पार्टी के आला नेता चाहते थे कि अशोक गहलोत अध्यक्ष पद का नामांकन दाखिल करने से पहले ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दें। हालांकि गहलोत की जगह खड़गे चुनाव लड़े और अध्यक्ष बने। अध्यक्ष के नामांकन से पहले खड़गे ने राज्यसभा में पार्टी के नेता पद से इस्तीफा दे दिया।

नामांकन के बाद कांग्रेस ने एक और नियम बनाया कि जो भी नेता किसी उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार करना चाहता है, उसे अपने पद से इस्तीफा देना होगा। इस नियम की वजह से कांग्रेस पार्टी के तीन प्रवक्ताओं- गौरव वल्लभ, दीपेंद्र हुड्डा और नासिर हुसैन ने इस्तीफा दे दिया। अब ये पार्टी के प्रवक्ता नहीं हैं। इन तीनों को खड़गे का प्रचार करना था।

मजेदार बात यह है कि तीनों प्रवक्ताओं के इस्तीफ़े मंजूर हो गए लेकिन खड़गे का इस्तीफा मंजूर नहीं हुआ। यह भी मजेदार है कि खड़गे का इस्तीफा कांग्रेस अध्यक्ष के पास ही रह गया। अध्यक्ष की ओर से नेता बदलने की सूचना राज्यसभा सचिवालय या सभापति को नहीं दी गई। अब यह देखना दिलचस्प है कि इस्तीफा देने वाले फिर से कब तक पद पर लौटते हैं और खड़गे कब तक दो पदों पर बने रहते हैं।

सरथ रेड्डी की गिरफ़्तारी, एक तीर से कई शिकार

दिल्ली की नई शराब नीति में हुए कथित घोटाले की जांच के एक तीर से कई शिकार हो रहे हैं। दो बड़ी केंद्रीय एजेंसियां- सीबीआई और ईडी इसकी जांच कर रही हैं। इस सिलसिले में दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के यहां सीबीआई का छापा पड़ा था और पिछले दिनों उनसे पूछताछ भी हुई। इस मामले में कई लोग गिरफ्तार हुए हैं। पिछले दिनों ईडी ने अरविंदो फार्मा के मालिक के बेटे और कंपनी के निदेशक पी. सरथचंद्र रेड्डी को गिरफ्तार किया।

असल में दोनों एजेंसियों की जांच से पता चल रहा है कि इस कथित घोटाले के तार हैदराबाद से जुड़े हैं और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव के परिवार की करीबी कंपनियां दिल्ली में शराब के काम में शामिल हैं। इसलिए सरथ रेड्डी की गिरफ्तारी दिल्ली की सरकार और मनीष सिसोदिया के साथ साथ चंद्रशेखर राव के परिवार के लिए भी मुश्किलें खड़ी कर सकती हैं।

ईडी ने अदालत को बताया है कि सरथ रेड्डी मुख्य साजिशकर्ताओं में से एक है और उसके कार्टेल का दिल्ली में शराब के 30 फीसदी कारोबार पर कब्जा था। ईडी ने यह भी कहा है कि रेड्डी ने आबकारी विभाग के अधिकारियों और आम आदमी पार्टी के नेताओं को एक सौ करोड़ रुपये की रिश्वत दी।

आप और टीआरएस नेताओं के साथ इस गिरफ्तारी से आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी की पार्टी भी निशाने पर है। वैसे जगन भाजपा और मोदी के प्रति सद्भाव रखते हैं और उनकी गर्दन पहले से एजेंसियों के हाथ में है। अब यह नया मामला भी आ गया है। इसके अलावा सरथ रेड्डी 2012 में जगन के खिलाफ दर्ज हुए मुकदमे में भी सह आरोपी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest