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ख़बरों के आगे-पीछे : 'गुजरात के प्रधानमंत्री’ नरेंद्र मोदी!

नरेंद्र मोदी गुजरात के प्रधानमंत्री की तरह वोट मांगते हैं। उनका पूरा प्रचार गुजराती अस्मिता को केंद्र में रख कर होता है, जिसके एकमात्र प्रतीक वे ख़ुद हो जाते हैं।
ख़बरों के आगे-पीछे : 'गुजरात के प्रधानमंत्री’ नरेंद्र मोदी!
सांकेतिक तस्वीर, एनबीटी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के अलावा किसी भी प्रदेश में चुनाव प्रचार के लिए जाते हैं तो वे उस प्रदेश की अस्मिता की बात नहीं करते, लेकिन गुजरात में चुनाव प्रचार के लिए जाते हैं तो देश के प्रधानमंत्री के बजाय गुजरात के प्रधानमंत्री की तरह बर्ताव करने लगते हैं। वे गुजरात के प्रधानमंत्री की तरह वोट मांगते हैं। उनका पूरा प्रचार गुजराती अस्मिता को केंद्र में रख कर होता है, जिसके एकमात्र प्रतीक वे ख़ुद हो जाते हैं। गुजरात में अभी चुनाव की घोषणा नहीं हुई है लेकिन वे बहुत दिनों से लगातार गुजरात का दौरा कर वहां चुनाव प्रचार कर रहे हैं। उन्होंने 19 अक्टूबर को अपने हालिया दौरे में दो जगह गुजराती अस्मिता की दुहाई दी। एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने कहा कि गुजरात को गाली देने वालों को सबक सिखाना है। एक अन्य कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि कुछ लोगों को गुजरात की सफलता और खुशहाली रास नहीं आती। पिछली यात्राओं में भी उन्होंने कई बार कहा कि गुजरात का विकास रोकने के प्रयास हुए और गुजरात को बदनाम किया गया। इस तरह की बातें वे दूसरे राज्यों में नहीं करते हैं। देश के किसान जब दिल्ली की सीमाओं पर धरना दे रहे थे तो उनको खालिस्तानी और आतंकवादी कहा गया, लेकिन पंजाब की चुनावी सभाओं में मोदी ने कभी नहीं कहा कि जिन लोगों ने पंजाब को बदनाम किया उन्हें सबक सिखाना है, क्योंकि बदनाम करने वाले भाजपा के ही लोग थे। इसी तरह बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों को देशभर में लांछित-अपमानित किया जाता है, लेकिन उनकी अस्मिता की बात प्रधानमंत्री कभी नहीं करते हैं। राजधानी दिल्ली सहित देश के अनेक राज्यों में पूर्वोत्तर के लोगों को चिढ़ाया और अपमानित किया जाता हैं, दक्षिण भारतीयों का मज़ाक उड़ाया जाता है, लेकिन उनकी अस्मिता की बात भी प्रधानमंत्री कभी नहीं करते हैं।

अमूल को भी है गुजरात की चिंता

पहले चुनाव नज़दीक आते ही सरकारें चिंतित हो जाया करती थीं। आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ना कम हो जाते थे। केंद्र सरकार पेट्रोल और डीजल की क़ीमतों पर लगाम देती थी। लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि निजी कंपनियां भी सरकार की चुनावी चिंता में भागीदारी करने लगी है। यह मोदी के होने से सब कुछ मुमकिन होने का एक सबूत है। गुजरात को-ऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फ़ेडरेशन ने हाल ही में अपने उत्पाद अमूल दूध की क़ीमतों में बढ़ोतरी की है लेकिन उसने गुजरात को इस बढ़ोतरी से मुक्त रखा है। इससे पहले अमूल दूध की क़ीमतें पूरे देश में एक साथ बढ़ती थी। उसका विज्ञापन भी टेलीविज़न पर आता है कि 'अमूल दूध पीता है इंडिया’। हैरानी की बात है कि जो दूध पूरा इंडिया पीता है उसने अपनी क़ीमतों में बढ़ोतरी की तो गुजरात को छोड़ दिया। फुल क्रीम दूध और गाय के दूध की क़ीमतों में दो रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी की है। उसके तुरंत बाद मदर डेयरी ने भी अपने दूध की क़ीमतों में दो रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी कर दी। मदर डेयरी का दूध चूंकि उत्तर भारत में ही ज़्यादा बिकता है इसलिए उसको गुजरात की चिंता करने की ज़रूरत नहीं पड़ी। गुजरात में अगले महीने के अंत तक या दिसंबर में चुनाव होने वाले हैं। इसलिए अमूल दूध बनाने वालों ने गुजरात में क़ीमत नहीं बढ़ाने का फ़ैसला किया। बाक़ी देश में साल में तीसरी बार दूध के दाम बढ़े हैं।

राम रहीम को चुनाव से पहले फिर पैरोल

डेरा सच्चा सौदा का प्रमुख रहा गुरमीत राम रहीम फिर पैरोल पर रिहा हो गया है। हत्या और बलात्कार के मामले में सजा काट रहे राम रहीम को इस साल तीसरी बार पैरोल मिली है और इस बार पैरोल 40 दिन की है। इस साल के शुरू में जब पंजाब और उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने थे तब भी राम रहीम को 21 दिन के लिए पैरोल पर रिहा किया गया था। तब उसने अपने डेरे के अनुयायियों से भाजपा को वोट देने की अपील भी जारी की थी। हालांकि पंजाब में भाजपा को इसका कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ। पार्टी सिर्फ़ दो ही सीट जीत पाई लेकिन अकाली दल से अलग होकर लड़ रही भाजपा को डेरा प्रेमियों के वोट अच्छी ख़ासी संख्या में मिले। अब हरियाणा की आदमपुर विधानसभा सीट पर उपचुनाव हो रहा है और राज्य में दूसरे चरण के स्थानीय निकाय चुनाव होने हैं। दोनों चुनाव भाजपा के लिए बेहद अहम है। स्थानीय निकाय चुनावों के लिए नामांकन की प्रक्रिया शुरू हो गई है और आदमपुर में तीन नवंबर को मतदान होना है। माना जा रहा है कि राम रहीम अपने डेरे से जुड़े विवादों को निबटाने के साथ-साथ भाजपा के पक्ष में गोपनीय अपील भी जारी कर सकता है। 2019 में हरियाणा विधानसभा चुनाव के वक्त भी उसे पैरोल पर छोड़ा गया था और उसने भाजपा के पक्ष में अपील जारी की थी। ग़ौरतलब है कि हरियाणा में डेरा के सबसे ज़्यादा अनुयायी हैं और उनके बीच राम रहीम अब भी लोकप्रिय है। बहरहाल, जेल प्रशासन नियमों का हवाला दे रहा है कि हर सज़ायाफ़्ता क़ैदी को पैरोल का अधिकार है लेकिन राम रहीम का मामला बाक़ी क़ैदियों से अलग और ख़ास है।

राष्ट्रीय अध्यक्ष का राज्य बचाने की चुनौती

हिमाचल प्रदेश का विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए बहुत चुनौती वाला है। इसलिए नहीं कि वहां भाजपा की सरकार नहीं बची तो बड़ी आफ़त आ जाएगी। भाजपा की केंद्र सहित देश के क़रीब आधे राज्यों में सरकार है, इसलिए हिमाचल जैसे छोटे राज्य की सरकार चले जाने का उसकी सेहत पर कोई ख़ास असर नहीं होगा। वह कोई कांग्रेस नहीं है, जिसकी सिर्फ़ दो राज्यों में सरकार है। इसके बावजूद हिमाचल प्रदेश का चुनाव भाजपा के लिए इसलिए अहम है क्योंकि वह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का गृह प्रदेश है। यह लगभग तय हो चुका है कि भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को एक और कार्यकाल मिलेगा। यानी भाजपा अगला लोकसभा चुनाव उनकी अध्यक्षता में ही लड़ेगी। लेकिन उससे पहले अगर उनके गृह प्रदेश में भाजपा हार जाती है तो नड्डा के साथ-साथ पार्टी की भी बड़ी बेइज़्ज़ती होगी। विपक्षी पार्टियों के हौसले बढ़ेंगे। कांग्रेस को एक और राज्य की सरकार मिल जाएगी, जिससे उसकी ताक़त बढ़ेगी। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिमाचल प्रदेश में पूरी ताक़त लगा दी है। वे पिछले छह महीने में छह बार हिमाचल प्रदेश गए और जून में एक रात वहां रुके भी थे। उन्होंने हिमाचल की तीन यात्राएं तो पिछले 17 दिनों में ही की हैं और इस दौरान दर्जनों परियोजनाओं के उद्घाटन और शिलान्यास किए और वंदे भारत ट्रेन को हरी झंडी दिखाई। उन्होंने हिमाचल को अपना दूसरा घर बताया। ग़ौरतलब है कि हिमाचल में पिछले साढ़े तीन दशक से हर चुनाव में सत्ता बदलती रही है। इसलिए भाजपा ने इस बार वहां राज नहीं रिवाज बदलने का नारा दिया है। भाजपा को उम्मीद है कि कांग्रेस के दिग्गज नेता वीरभद्र सिंह के निधन से कांग्रेस कमज़ोर हुई है और इसका फ़ायदा उठा कर वह पांच साल में सत्ता बदलने का रिवाज बदल सकती है।

दिल्ली आने से कतरा रहे हैं अफ़सर

आमतौर पर अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी यानी आईएएस, आईपीएस, आईएफएस आदि करिअर में आगे बढ़ने के लिए केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर आने की हसरत रखते हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से अचानक ऐसे अधिकारियों का दिल्ली से मोहभंग हो गया है। राज्यों में तैनात अधिकारी केंद्रीय डेप्युटेशन पर दिल्ली आने से कतरा रहे हैं और न किसी अन्य जगह केंद्रीय डेप्युटेशन चाह रहे हैं। केंद्र सरकार इस स्थिति को बदलने के लिए बहुत प्रयास कर रही है। पिछले साल इसका नियम भी बदला गया। यह प्रावधान किया गया कि अधिकारी राज्य सरकार की मंज़ूरी के बग़ैर केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर जा सकते हैं। इसके बावजूद स्थिति नहीं बदली। पिछले दिनों राज्यों के प्रधान सचिवों की एक बैठक में केंद्रीय कार्मिक राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने यह बात रखी और दिल्ली आने में अधिकारियों की हिचक को दूर करने का प्रयास किया। लेकिन अधिकारियों की हिचक क़ायम है। यहां तक कि भाजपा शासित राज्यों के अधिकारी भी प्रदेश छोड़ कर केंद्र की प्रतिनियुक्ति पर नहीं आना चाहते। इसका नतीजा यह हुआ है कि केंद्र सरकार के पास अधिकारियों की कमी हो गई है। केंद्र में 1472 आईएएस और 872 आईपीएस अधिकारियों की कमी है। इस वजह से दूसरी सेवाओं के अधिकारियों को केंद्र में तैनात किया जा रहा है या लैटरल एंट्री के ज़रिए सेवा से बाहर के विशेषज्ञों को केंद्र में उच्च पदों पर नियुक्त किया जा रहा है।

हिमाचल में अब धूमल युग भी ख़त्म हुआ

हिमाचल प्रदेश में शांता कुमार के बाद अब प्रेम सिंह धूमल का युग भी समाप्त हो गया। इस बार भाजपा की ओर से धूमल को विधानसभा का उम्मीदवार नहीं बनाया गया है। पार्टी ने 62 उम्मीदवारों की जो पहली सूची जारी की है उसमें उनका नाम नहीं है और उनकी सुजानपुर विधानसभा सीट पर सेना से रिटायर कैप्टन रणजीत सिंह को उम्मीदवार बनाया गया है। प्रेम कुमार धूमल पिछली बार सुजानपुर सीट से ही चुनाव लड़े थे और पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार थे। चुनाव में भाजपा ने बहुमत हासिल किया लेकिन सुजानपुर सीट से धूमल चुनाव हार गए, जिसके बाद जयराम ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाया गया। तभी से यह अंदाजा लगाया जा रहा था कि अब धूमल युग भी समाप्त हो रहा है। वैसे भी उनकी उम्र 78 साल की हो गई है और पार्टी में 75 साल पर नेताओं के रिटायर होने का अघोषित नियम है। ग़ौरतलब है कि इस छोटे से पहाड़ी प्रदेश की राजनीति पिछले कई दशकों से तीन चेहरों के इर्द-गिर्द घूमती रही थी। भाजपा की ओर से शांता कुमार और प्रेम कुमार धूमल थे, जबकि कांग्रेस की ओर से वीरभद्र सिंह। घूम फिर कर ये तीन नेता ही मुख्यमंत्री बनते रहे थे। यह तथ्य है कि 1983 से लेकर 2017 यानी 34 साल तक ये तीन नेता बारी-बारी से मुख्यमंत्री बनते रहे। भाजपा में मोदी-शाह के दौर की राजनीति शुरू होने के बाद शांता कुमार का युग समाप्त हुआ और उसके बाद वीरभद्र सिंह का निधन हो गया। अब प्रेम कुमार धूमल भी मुख्यधारा की राजनीति से बाहर हो गए।

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