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सद्भभावना दिवस: ...क्योंकि किसानों के दिल में बस गए हैं गांधी

किसानों के धरना स्थल पर गांधी की चाक्षुष उपस्थिति न के बराबर है या बहुत कम है। क्योंकि उन्हें ज़रूरत नहीं गांधी के नाम पर दिखावा करने की।
किसान आंदोलन
ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर धरना स्थल की तस्वीर। फोटो साभार : the week

दिल्ली की सीमा पर शांतिपूर्वक धरने पर बैठे किसानों ने 30 जनवरी यानी महात्मा गांधी के शहादत दिवस पर एक दिन का उपवास रखा। उधर भारत सरकार यानी राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने राजघाट पर रामधुन के साथ महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि दी। राजघाट के कार्यक्रम का दृश्य देश के सभी टेलीविजन चैनलों पर प्रसारित किया गया और उसकी भव्यता देखते ही बनती थी। दूसरी ओर किसानों ने गांधी का स्मरण करते हुए जो अनशन किया और सद्भावना दिवस मनाया उसका प्रसारण शायद ही कहीं हुआ हो। वह दिखावे से दूर सादगी लिए हुए जो था।

किसानों के धरना स्थल पर गांधी की चाक्षुष उपस्थिति न के बराबर है या बहुत कम है। आंदोलन को सांप्रदायिक और हिंसक साजिश में फंसाने की कोशिशों के बाद किसान नेताओं ने 30 जनवरी के मौके पर गांधी की तस्वीरें मंगवाई हैं। वे उनके माध्यम से अपने आंदोलन के अहिंसक रूप को प्रचारित करना चाहते हैं और यह भी संदेश देना चाहते हैं कि उनकी राजनीति नफरत के विरुद्ध सद्भाव और सौहार्द की है। फर्जी मुद्दों के विरुद्ध असली मुद्दों को उठाने की है। लेकिन यह सवाल किसी को भी परेशान कर सकता है कि पैंसठ दिन तक शांतिपूर्वक चले देश के इतिहास के महत्वपूर्ण किसानों के धरने में गांधी की कोई तस्वीर नहीं है। गाजीपुर के किसान एकता मोर्चा मंच पर भी भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद के चित्र हैं। लेकिन गांधी गैर हाजिर हैं।

इसलिए यह सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों?  इस सवाल का जवाब ढूंढते समय राजकुमार हिरानी की फिल्म लगे रहो मुन्ना भाई याद आती है। उस फिल्म के एक संवाद में फर्जी प्रोफेसर बना मुन्ना भाई कहता है कि एक पत्थर उठाओ और गांधी की मूर्तियां, उनके नाम पर बनी इमारतें तोड़ डालो, दफ्तरों में लगी उनकी तस्वीरें हटा डालो, उनके नाम पर बनी सड़कों का बोर्ड हटा डालो। अगर उन्हें कहीं रखना है तो दिल में रखो। इस आंदोलन और वहां जुटे जन-जन को देखकर यही लगता है कि उसने भले ही फोटो भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद की लगा रखी है। लेकिन महात्मा गांधी को दिल में बसा लिया है। आखिर बाबा महेंद्र सिंह टिकैत का रास्ता और क्या था ? उन्होंने जितने भी आंदोलन और धरने के कार्यक्रम किए वे शांतिपूर्ण ही थे। अगर उनके आंदोलन में कहीं हिंसा हुई तो उतनी हिंसा गांधी के आंदोलन में भी होती थी।

इसी तरह के गांधीवादियों के लिए डॉ. लोहिया कुजात गांधीवादी विशेषण का प्रयोग करते थे। यह गांधीवादी न तो राजघाट पर रामधुन का सीधा प्रसारण करने वाले सरकारी गांधीवादी हैं और न ही गांधीवादी संस्थाओं में बैठकर गांधी के नाम पर खादी और चरखा बेचने वाले और जमीनों के लिए झगड़ा करने वाले हैं। वे अपना कर्तव्य निभाते हैं और जब अत्याचार बढ़ जाता है तो गांधी के तरीके के साथ उसका प्रतिरोध करते हैं। भले ही नांदेड़ के जत्थेदार मोहन सिंह गांधी का नाम न लें लेकिन वे जिस तरह से दो महीने से गाजीपुर बार्डर पर लंगर चला रहे हैं उससे बड़ा कोई सेवा भाव कोई हो नहीं सकता। वे रोजाना 15,000 गिलास चाय पिलाते हैं और 15,000 थाल खाना खिलाते हैं। जब उनसे पूछा गया कि इतना राशन कहां से आता है तो उनका कहना था कि यह तो भगवान भेजते हैं। यह पूछे जाने पर कि कब तक चलाओगे तो बोले साढ़े पांच सौ साल से तो लंगर चल ही रहा है और जब तक इनसान रहेगा तब तक चलता रहेगा।

आंदोलन स्थल पर सेवा करने वालों का भगवान और अपने सेवाभाव में यह विश्वास ही गांधीवाद है। भले वे गांधी की तस्वीर न लगाएं लेकिन उनके हृदय से गांधी ही बोलते जब वे कहते हैं कि हमारे पास भगवान है, सत्य है। उनके पास शैतान है। आखिर में जीत सत्य की ही होती है। इसी विश्वास पर वे 28-29 तारीख की रात को तब डटे थे जब लग गया था कि पुलिस प्रशासन कभी भी कार्रवाई करके उन्हें हटा सकता है। उससे पहले उन्हें सांप्रदायिक धमकियां मिली थीं। राकेश टिकैत के आंसू भी अपने लोगों के समक्ष उनके हृदय के सच्चे भाव ही थे। उसी भाव ने एक खत्म होते आंदोलन को फिर से जिंदा कर दिया। हजारों नौजवान उमड़ आए और सत्ता की अथाह शक्ति और नफरत फैलाने वालों को शांति से जवाब देने के लिए डट गए। गांधी यही तो करते थे कि सत्य पर विश्वास रखते हुए अपने सच्चे भावों को सबके समक्ष प्रकट करते हुए डटे रहते थे।

गांधी और भगत सिंह में अंतर करने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि दोनों एक ही मिट्टी के बने थे। वे सत्य और न्याय के मार्ग पर निर्भीकता से बढ़ने वाले थे। उन्हें अपनी मृत्यु से जरा भी डर नहीं था। अगर भगत सिंह ने फांसी के फंदे को हंसते हंसते चूमा तो महात्मा गांधी ने भी अपने हत्यारे की गोली का बहादुरी से ही सामना किया। भगत सिंह की तरह ही गांधी को भी अपनी मृत्यु का एहसास था और वे निरंतर साहस के साथ ही उसकी ओर बढ़ रहे थे। तभी गांधी ने कहा था, `` यह तो ईश्वर ही जानता है कि जब मुझ पर गोली चलाई जाएगी या चाकुओं से हमला किया जाएगा तो मैं भाग जाऊंगा या हमलावर के प्रति मन में क्रोध लाऊंगा। अगर ऐसा होता है तो इसमें कोई नुकसान नहीं है और लोग जान जाएंगे कि जिसे वे महात्मा कहते थे वह सच्चा महात्मा नहीं था। मैं भी जान जाऊंगा कि मेरी हैसियत क्या है? यह भी संभव है कि गोली चलाए जाने के बाद भी मैं राम बोलूं। देखिए दोनों में से क्या होता है? आखिरकार जो भी होगा अच्छा ही होगा।’ इसी तरह भगत सिंह ने भी अपनी मौत के लिए साथियों से कहा था– हवा में रहेगी मेरे ख़्याल की बिजली, ये मुश्ते-ख़ाक है फानी, रहे, रहे न रहे।

गांधी और भगत सिंह अपने जीवन से बड़ा संदेश अपनी मृत्यु से देकर गए हैं। हमें उस संदेश को समझना चाहिए। चाहे साम्राज्यवादी ताकतें हों या सांप्रदायिक ताकतें हों वे सत्य, न्याय और भाई चारे का गला घोंटने की कोशिश करती ही हैं। लेकिन इस तरह के सर्वोच्च बलिदान से सत्य की लड़ाई छोटी होने की बजाय और बड़ी हो जाती है। इसीलिए गांधी और भगत सिंह दोनों अपने हर शहादत दिवस पर और भी बड़े हो जाते हैं। यही कारण है कि गांधी की शहादत पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए सरोजिनी नायडू ने कहा था, ` मैं चाहती हूं मेरे गुरु, मेरे नेता और मेरे पिता शांति से विश्राम न करें, उनकी आत्मा को शांति न मिले। बल्कि उनकी अस्थियां, उनकी चिता की जली हुई लकड़ियां और उनकी हड्डियों का चूरा जीवन और प्रेरणा से भरपूर रहे। उनकी मृत्यु के बाद सारा भारत स्वाधीनता के यथार्थ से पुनर्जीवित हो उठे। मेरे पिता विश्राम मत करना और न ही हमें विश्राम करने देना।’

गांधी विश्राम नहीं कर रहे हैं और न ही उनकी आत्मा शांत बैठी है। जहां जहां अन्याय और अत्याचार होता है वहां वहां उनकी आत्मा भटकती रहती है। इसलिए उनकी आत्मा को राजघाट की समाधि में ढूंढने की बजाय दिल्ली के चारों ओर धरने पर बैठे किसानों में ढूंढने की कोशिश करें वह वहां टहलती हुई मिल जाएगी। भले उनका चित्र न मिले। 

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