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भूमिअधिग्रहण अध्यादेश पर इनकी भी सुनो

हमारी पड़ोसन प्राध्यापिका जी आज फिर हमारे यहां आ गयीं, पता नहीं क्यों वे मोदी सरकार से बिना वजह खफ़ा हैं। वे अन्ना हजारे के आंदोलन से वापस लौटी थीं, अन्ना हजारे ने मोदी सरकार के किसानविरोधी जनविरोधी भूमिअधिग्रहण अध्यादेश को ले कर मोदी सरकार की असलियत खोलने के लिए जंतर मंतर पर दो दिन का धरना दिया, सो वे भी गयीं थीं और आ कर उन्होंने अपने मन की बात हमसे कह डाली। वे बोलीं, ‘देखिए भाई साहब, मोदी ने ‘सब का साथ, सबका विकास’ का झांसा दे कर और ढेर सारे झूठे वादे करके पूरे देश की जनता के एक अच्छे खासे हिस्से के वोट बटोर कर केंद्र में सत्ता हासिल कर ली हालांकि यह वोट 31 प्रतिशत ही था, मगर हमारी चुनावी व्यवस्था कुछ ऐसी अद्भुत है कि कम वोट प्रतिशत हासिल करके भी सत्ता पर काबिज़ हुआ जा सकता है, कांग्रेस राज में भी यह होता रहा, अब भाजपा के साथ भी यही खेल काम आया। मगर ‘सब का साथ, सबका विकास’ के वादे से मुकर कर हमारे पीएम सिर्फ़ कारपोरेट जगत के साथ हो लिये जिनकी कई पुश्तों के ‘विकास’ के लिए संसद के सत्र का इंतज़ार किये बग़ैर फटाफट एक अध्यादेश जारी करके यूपीए सरकार के दौरान पारित ‘भ्रूमि अधिग्रहण’ क़ानून में ऐसे संशोधन कर डाले जिन से भाजपा का असली चेहरा सब के सामने आ गया। इस अध्यादेश से यह समझने में किसी भी समझदार भारतवासी को यह नज़र आ जायेगा कि यह सरकार देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों के मुनाफ़े में ‘विकास’ के लिए देश के किसानों के साथ किसी भी तरह के अत्याचार करने पर आमादा है। लोकसभा में अपनी पाशविक बहुशक्ति के अहंकार में मोदी सरकार किसी की बात सुनने को तैयार नहीं। अन्ना हजारे ने दो दिन यानी 23-24 फ़रवरी 2015 को जंतर मंतर पर धरना करके इस संशोधित कानून के खि़लाफ़ बिगुल बजा दिया क्योंकि मोदी सरकार ने इस क़ानून को ब्रिटिश हकूमत के 1894 में बनाये एक्ट से भी कहीं ज्या़दा जनविरोधी बना दिया है’

                                                                                                                               

मैंने कहा कि ‘सी पी आइ(एम) ने 19 जनवरी 2015 को ही अपनी केंद्रीय कमेटी की बैठक में इस काले क़ानून के खि़लाफ़ आंदोलन करने की घोषणा कर दी थी और पूरे देश में सभी वामदलों ने प्रदर्शन किये थे। वामदलों के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पूंजीपरस्त मीडिया की ख़बर तो बनते नहीं हैं, इसलिए आमजन को यह सब मालूम ही नहीं कि यह काला क़ानून कितना ख़तरनाक और जनविरोधी है। लेकिन अब भाजपा के ऐसे जनविरोधी क़दमों के खिलाफ़ आक्रोश उभरना शुरू हो गया है।’

इस पर हमारी पड़ोसन बोलीं, ‘खुद आर एस एस से जुड़े किसान संगठन ने भी इस अध्यादेश की मुख़ालफ़त की है, हालांकि सब जानते हैं कि वह संगठन किसानों के प्रति नक़ली हमदर्दी दिखा कर किसानों का भी भला और सरकार का भी चाटुकार बना रहना चाहता है। नया अध्यादेश यूपीए सरकार द्वारा 2013 में पारित क़ानून में 3ए नामक नया अध्याय जोड़कर जारी किया गया है जो पूरी तरह तानाशाही क़दम है। इससे किसानों की उर्वर ज़मीन अब उनकी रज़ामंदी के बग़ैर हड़प कर कारपोरेट घरानों को और विदेशी पूंजीपतियों को सौंप देने की घिनौनी चाल चली गयी है।’

मैंने कहा, ‘सरकार का तर्क है कि देश के औद्योगिक विकास के लिए ज़मीन तो चाहिए, रेलवे, प्रतिरक्षा, शिक्षा, अस्पताल आदि से संबंधित संस्थानों या उपक्रमों की स्थापना के लिए ज़मीन तो चाहिए। इसमें देशविदेश की प्राइवेट पूंजी का भी निवेश तभी होगा जब उनको भी ज़मीन उपलब्ध करायी जाये।’

वे बोलीं, ‘सरकार ऐसा क्यों नहीं करती कि जो कारख़ाने सालों से बंद हैं, जिनके मालिक वहां की ज़मीन को रियल एस्टेट में तब्दील करने की जुगाड़ में हैं उनका अधिग्रहण करके वहां ऐसे ही ज़रूरी संस्थान स्थापित करे, कई नगरों के आसपास हज़ारों एकड़ ज़मीन पर फार्म हाउस बने हैं जिन में कोई कृषि उत्पादन नहीं हो रहा, उसे ले ले, ऐसे बहुत से भूस्वामी हैं जो विदेश चले गये हैं और ज़मीन पर कोई उत्पादन नहीं हो रहा, वह ज़मीन ले ली जाये। क्या तीन तीन फ़सलें देने वाली उर्वर ज़मीन ग़रीब किसानों से, आदिवासियों से जबरन ले कर या किसी भी पैदावारी ज़मीन को हड़प कर ही ये काम हो सकते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि कृषि उत्पादन में कमी लाने की साजिश रची जा रही हो जिससे साम्राज्यवादी ताक़तों के इशारे पर यह सरकार विदेशों से अन्न आयात करने की योजना बना रही हो। कोई भी देशप्रेमी भारतीय ऐसा सोच भी नहीं सकता कि उर्वर कृषिभूमि को हड़प कर अन्न के उत्पादन में लगे मेहनतकश किसान अवाम को बेघर और बेरोज़गार कर दिया जाये और भारत की पूरी आबादी को विदेशी अन्न पर जीने के लिए मजबूर किया जाये।’

मैंने कहा कि ‘आपके सुझाव या भारत की ग़रीब जनता के सुझाव यह मोदी सरकार माननेवाली है नहीं, वह तो अड़ी हुई है कि उनके इस क़ानून में कोई बदलाव नहीं लाया जायेगा। इससे लगता है कि उसका असली तानाशाही चेहरा अब सामने आ रहा है।’

वे बोलीं, ‘आप ठीक कह रहे हैं। सुझाव तो संसद में भी आ रहे हैं। मुलायम सिंह ने संसद में सुझाव दिया कि लाखों एकड़ ज़मीन चंबल के इलाक़े में है जो आसानी से समतल की जा सकती है और उस पर बहुत से कल कारखाने लगाये जा सकते हैं, किसानों या आदिवासियों या किसी भी कृषि उत्पादन की ज़मीन को जबरन हड़पने की ज़रूरत ही नहीं है, ऐसे बहुत से सुझाव संसद में आ सकते हैं। उन पर यह सरकार ग़ौर नहीं करेगी यह तय है। खाद्यान्न आपूर्ति के लिए संकट पैदा करना कौन सी राष्ट्रभक्ति का क़दम है। कहीं ऐसा तो नहीं कि विश्व बैंक और आइ एम एफ के निर्देश आ गये हों कि ‘सुधारों’ के नाम पर ऐसे क़ानून जल्दी जल्दी पारित करो जिससे एक ओर कलकारखानों में काम करने वालों की छंटनी हो सके और दूसरी ओर कृषिउत्पादन में लगे लोगों की ज़मीनें हड़प कर और उनको भी बेघर बेरोजगार करके देशी विदेशी पूंजीपतियों को दे दो जिससे वे अपनी दौलत में और अधिक इज़ाफ़ा कर सके और अपने ही द्वारा पैदा किये गये संकट से उबर सकें। उनके अच्छे दिन आ सकें।’

मैंने कहा कि ‘लगता तो यही है कि यह सारा खेल अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के इशारे पर हो रहा है, आख़िर देशी विदेशी कारपोरेट घरानों ने ऐसे ही तो नहीं मोदी के चुनाव में पानी की तरह पैसा बहाया था, अब उस पैसे को वसूलने के ‘अच्छे दिन आ गये हैं’। उनके सलाहकार के रूप में ‘नीति आयोग’ में और पीएमओ में भी वे ही अर्थशास्त्री रखे गये हैं जो अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के साम्राज्यवादपरस्त संस्थानों में काम कर चुके हैं और उन्हीं की नीतियों को लागू करवाने में उसी तरह जुट गये है जैसे मनमोहन सिंह-मोंटेक सिंह अहलूवालिया-चिदंबरम्-रघुराम राजन यूपीए सरकार में लगाये गये थे जिन्होंने कांग्रेस की लुटिया हमेशा के लिए डुबो दी।’

वे बोलीं, ‘तो सुन लो, इस सरकार का हश्र भी वही होगा जो पहले वालों का हुआ जिनकी साम्राज्यवादपरस्त नवउदारवादी-सुधारवादी आर्थिक नीतियों से भारत की जनता बदहाली का शिकार हुई, किसानों को आत्महत्याएं करनी पड़ीं, आर्थिक ‘सुधारों’ के नाम पर छंटनी और निजीकरण के पागलपन से बेरोज़गारों की तादाद में बढ़ोतरी हुई। भाजपा सरकार भी इन्हीं नीतियों पर चल रही है। उसने अब तक तो कोई ऐसा क़दम नहीं उठाया है जिससे ग़रीब अवाम को कोई राहत मिली हो, सिर्फ़ वादे, कोरे वादे, कोरी लफ्फ़ाज़ी के सिवा अब तक कुछ नहीं मिला, अब खुल्लमखुल्ला भूमिअधिग्रहण अध्यादेश से तानाशाही की ओर रुख़ कर लिया है इस सरकार ने। क्या जनता तानाशाही बर्दाश्त करेगी?’

अब मैं क्या कहूं, हमारी पड़ोसन प्राध्यापिका के प्रलाप में काफ़ी कुछ सारगर्भित तत्व है, अंग्रेज़ी में शेक्सपियर ने कहा था, ‘मैथड इन मैडनैस’ यानी पागलपन में भी समझदारी। काश कि हमारी इस ख़ब्ती पड़ोसन के इशारे को विपक्ष के वे सभी दल समझ कर एक व्यापक मोर्चा बना सकते जिससे इस सरकार के तानाशाही क़दमों के ख़िलाफ़ एकजुट हो कर जनआंदोलन विकसित हो सकता जिसकी अब सख्त़ ज़रूरत है।

 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

 

 

 

 

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