लगता है कि भारत ने ऊंचे-नीचे सभी तरह के ग्राफ़ को सपाट कर दिया है !
विश्व बैंक भी उन कई संस्थानों और व्यक्तियों में शामिल हो गया है, जिन्होंने चालू वित्तीय वर्ष के लिए गंभीर आर्थिक भविष्यवाणियां की हैं। इसके मुताबिक़, वैश्विक अर्थव्यवस्था 5.2% तक सिकुड़ जायेगी, जबकि भारत की जीडीपी 3.2% तक गिर जायेगी।
ज़ाहिर है, किसी पर ख़ास तौर पर कोविड-19 के उद्भव और प्रसार के लिए दोष तो नहीं मढ़ा जा सकता है, और इसी तरह, इस बात को लेकर भी कोई विवाद नहीं है कि भारत सरकार को कुछ जगहों पर कुछ समय के लिए और कुछ हद तक ही देश में लॉकडाउन लागू करना चाहिए था। हालांकि जितना ही ऊपर से यह मामला सहज दिखता है, असलियत में यह उतना ही जटिल है। शुरुआत में ही अगर अपना निष्कर्ष बताऊं,तो मोदी शासन इस अभियान को लेकर पूरी तरह इतना ढीला-ढाला रवैया अपनाता रहा है कि लगभग ऐसा लगता है कि सरकार ने जानबूझकर दुर्भावना से काम लिया है। शायद ऐसा नहीं भी हो, लेकिन यह सरकार निश्चित रूप से अपराधिक रूप से हठी तो है।
उद्योगपति राजीव बजाज का मानना है कि सरकार ने इस लॉकडाउन के ज़रिये हर तरह के ग्राफ़ को सपाट कर दिया है, यह सुनने में भले ही अटपटा लगे, लेकिन इसके सही या कामयाब होने की संभावना तो अब बिल्कुल नहीं है।
मोदी सरकार की कोविड-19 को लेकर अहमियत, उसे लेकर कार्रवाई, और अक्षमता को मोटे तौर पर समझने के लिए वर्ष की शुरुआत से कोविड-19 से जुड़े घटनाक्रम को लेकर भारत सरकार के कार्यों की मुझे समीक्षा करने दें। जहां तक कोविड-19 के प्रकोप का सवाल है, तो बहुत शुरुआत में शासन एक थकी हुई धुंध में ढका हुआ दिखायी दिया। जैसा कि हम देखेंगे कि यह वास्तव में किसी जड़ता में ही नहीं, बल्कि सिर्फ अधिक बढ़ते दबाव वाली चिंताओं से भी विचलित था।
इसे समझने के लिए हम उस दिन से शुरू कर सकते हैं, जिस दिन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इस प्रकोप की घोषणा की थी, जो चीन के भीतर तेजी से फैलने लगा था, इसे ‘अंतर्राष्ट्रीय चिंता का एक सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल’ बता दिया गया था। इसका ऐलान 30 जनवरी को किया गया था। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस कोविड-19 प्रकोप को 11 मार्च को एक महामारी बताया, डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक, टैड्रोस ऐडरेनॉम ग़ैबरेयेसस ने ज़ोर देकर कहा था कि दुनिया को एक संभावित महामारी को लेकर तैयार रहने के लिए "सब कुछ करते हुए" इसके नियंत्रण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, तब तक चेतनावनी अच्छी तरह से दी जा चुकी थी।
हालांकि कई चीज़ें तब भी अस्पष्ट ही रहीं, लेकिन दुनिया भर में यह बहुत हद तक साफ़ हो गया था कि यह नोवल वायरस समस्यायें पैदा कर रहा है। चीन जनवरी में इस वायरस से परेशान था। इसलिए,23 जनवरी को वुहान और हुबेई प्रांत के दूसरे शहरों में लॉकडाउन लगा दिया गया था। फ़रवरी की शुरुआत तक कोविड-19 चीन के इस क्षेत्र के बाहर भी फैल गया था। 23 फ़रवरी को दक्षिण कोरिया ने उच्चतम स्तर की चेतनावनी का ऐलान कर दिया था।
डब्ल्यूएचओ ने 28 फ़रवरी को कोविड-19 के प्रसार के इस वैश्विक जोखिम के स्तर को "उच्च" से "अति उच्च" क़रार दिया था। तब तक कोविड-19 के 4,691 मामले ही थे,जिनमें चीन से बाहर 51 देशों में हुई 67 मौतें भी शामिल थीं। भारत ने 31 जनवरी को अपना पहला कोविड-19 मामला दर्ज किया था। हालांकि फ़रवरी के अंत तक इस रोग की प्रगति कम से कम थी, लेकिन स्थिति कई लोगों के लिए काफ़ी गंभीर हो गयी थी और अक्सर उनकी जांच की जा रही थी और उन्हें समूहों में आइसोलेशन में डाला जा रहा था। ऐसे लोगों में ख़ासकर देश के बाहर से आने वाले लोग थे।
इस समयावधि के निर्धारण का कारण यह है कि कोविड-19 की स्थिति फ़रवरी से विकट हो रही थी और मार्च के आने तक किसी को भी इसकी विकटता से निश्चिंत नहीं होना चाहिए था। हालांकि, मोदी शासन बिल्कुल निश्चिंत ही रहा। ऐसा लगा कि मार्च के बीच में जाकर ही सरकार अपनी गहरी नींद से जागी, जब 19 मार्च को भारत के लिए आने वाली अंतर्राष्ट्रीय उड़ान को निलंबित कर दिया गया और इसे 22 मार्च को एक सप्ताह के लिए लागू कर दिया गया (बाद में इसे और आगे बढ़ाया गया)। 15 मार्च से सीमा चौकियों को बंद कर दिया गया। इसके बाद 22 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने "जनता कर्फ्यू" के तमाशे का ऐलान कर दिया। दो दिन बाद, चार घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन का ऐलान कर दिया गया। यह 17 मई तक चला, करीब आठ सप्ताह, इससे पहले की इसमें कुछ ढील दी जाती।
पहली ग़ौरतलब बात तो यही है कि पूरे फ़रवरी और आधे मार्च तक सरकार इससे बेख़बर दिख रही थी। सरकार तबतक इस सच्चाई पर बमुश्किल ही ध्यान दे पायी कि यह वैश्विक महामारी प्रचंड रूप अख़्तियार कर गयी थी, इसने देश की सुरक्षा को ख़तरे में डाल दिया था और बुरी तरह से फ़ैलना शुरू हो गयी थी। इसे लेकर सरकार के गंभीर नहीं होने के पीछे के कई तात्कालिक कारण थे। सत्तारूढ़ दल को दिल्ली के चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था, जिसके बाद उसके कैडर दिल्ली में हिंसा में व्यस्त हो गये थे और अशांति फैला रहे थे, जिसके बाद जैसे-तैसे केंद्र को उस स्थिति को "रोकना" पड़ा था। सबसे अजीब बात तो यह थी कि प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को प्रभावित करने और अपने और ट्रंप के दंभ को संतुष्ट करने के लिए बड़े पैमाने पर एक आत्मरत शो के आयोजन में व्यस्त थे। बामुश्किल इस आयोजन की धूल अभी जमी ही थी कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने मध्यप्रदेश सरकार को तोड़ने में अपनी ऊर्जा लगा दी थी।
कोविड-19 को लेकर इस हीले हवाली को देखते हुए आश्चर्य की बात नहीं है कि मोदी और उनके शासन को इस महामारी को लेकर ज़्यादा चिंता नहीं थी, जो निश्चित रूप से यह बताता है कि आख़िर बिना किसी योजना के अपनी ख़ास ताम-झाम वाली शैली के साथ मोदी ने लॉकडाउन क्यों लगाया। यहां दो प्रमुख बिंदु की चर्चा ज़रूरी है।
सबसे पहली बात तो यह कि इस पैमाने पर पूरे देश में एक ही गंभीरता के साथ संपूर्ण लॉकडाउन लागू किये जाने का कोई कारण नहीं था। जिस समय चीन इस महामारी से जूझ रहा था, उस समय वहां पीछे हटने की ऐसी कोई मिसाल नहीं मिलती, मगर फिर भी इस तरह का लॉकडाउन वहां नहीं लगाया गया था, हालांकि घबराहट के बीच चीन अगर ऐसा करता, तो यह बात समझ से परे नहीं होती। चीन ने अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग श्रेणी की गंभीरता वाला लॉकडाउन लगाया। जो इलाक़े प्रभावित नहीं हुए थे, वहां बामुश्किल लॉकडाउन लागू किया गया था। हम इस बिंदु पर फिर बाद में लौटेंगे।
दूसरी बात कि मोदी और उनके अनुचरों ने अगर अपनी बेपरवाही से समय निकालकर कुछ सोच-विचार करने के लिए सिर्फ़ एक या दो दिन का समय निकाला होता, तो उन्हें महसूस हुआ होता कि बहुत सारे लोग- जिसमें सबसे महत्वपूर्ण प्रवासी मज़दूर हैं—जो बिना किसी काम या कमाई के जगह-जगह फंस जायेंगे। मुमकिन है कि सोच विचार करने से उन्हें यह समझ में आता कि इन लोगों को अगर एक पखवाड़े तक का समय मिल जाता, तो वे अपने-अपने घर वापस लौट जाते। इससे बहुत सारे लोगों को बहुत सारी ग़ैर-ज़रूरी परेशानियों से बचाया जा सकता था। चूंकि इस पर पर्याप्त रूप से लिखा जा चुका है, इसलिए हम इस समय इस मुद्दे को यहीं छोड़ देते हैं।
हालांकि, उस समय जो कुछ भी अन्य देशों में हो रहा था, उसे देखते हुए सरकार को तो एहसास हुआ ही होगा कि वही कुछ यहां भी हो सकता है। ऐसे में एक अच्छा विचार तो यही होता कि संक्रमण के फ़ैलने और बेकाबू संक्रमणीयता वाले विषाणु के प्रसार की गति के तेज होने से पहले लोगों को अपने-अपने घर वापस जाने दिया गया होता। दूसरे शब्दों में, अगर लॉकडाउन लागू होने से पहले जिन लोगों को यात्रा करने की ज़रूरत होती, अगर उन्हें ऐसा करने दिया जाता, तो वे वायरस को न्यूनतम रूप से फैलाने का ज़रिया बन पाते।
लेकिन जैसा कि हम जानते हैं, इसके बजाय सरकार चलाने वाले जीनियस लोगों ने मई में (ठसाठस गाड़ियों में) प्रवासी मज़दूरों और अन्य लोगों को उनके घर वापस जाने देने का फ़ैसला किया, तब तक लॉकडाउन के बावजूद, कोविड-19 तेज़ी से फैल रहा था। लॉकडाउन के अंतिम चरण में इस तरह के फ़ैसले का तो यही मतलब था कि अपने-अपने घर लौटने वाले ये लोग वायरस को आगे और तेज़ी से फैलाना शुरू कर देते, यह ज़्यादातर उन क्षेत्रों में होता, जो अबतक इस वायरस से अछूते थे, ऐसा ही हुआ। जब तक लॉकडाउन में ढील की शुरूआत हुई, तब तक इसका उद्देश्य पूरी तरह से निष्फल हो चुका था।
अब, जबकि लॉकडाउन हटा लिया गया है, हम कोविड-19 के एक उच्च गति से प्रसार वाले एक चरण में जाने का इंतजार कर सकते हैं, जिसे लॉकडाउन के एक नये चरण को शुरू करके बमुश्किल ही रोका जा सकता है। इस सिलसिले में बजाज की टिप्पणी अहमियत रखती है। मोदी के लॉकडाउन ने वास्तव में महामारी के ग्राफ़ के बढ़ते जाने के लिए जीडीपी के ग्राफ़ को सपाट कर दिया है।
अगर शासन-प्रशासन लोगों को जहां भी वे जाना चाहते थे या जहां उन्हें होने की ज़रूरत थी, वहां वापस जाने की अनुमति दी होती, तो संक्रमण पिछले महीने के बीच से इतनी तेज़ी से नहीं फ़ैलता। लेकिन, वह तो इस मसले का एक हिस्सा भर है। अगर मोदी सरकार ने इस समस्या को अधिक संघीय भावना से निपटाया होता, तो मुमकिन है कि जीडीपी का ग्राफ़ उतना ज़्यादा सपाट नहीं हुआ होता, जितना कि इस समय है। दूसरे शब्दों में, कल्पना कीजिए कि अगर सरकार ने मुख्यमंत्रियों के साथ आने वाले दिनों में लॉकडाउन को लेकर मार्च महीने में ही सलाह-मशविरा करना शुरू कर दिया होता, तो संभव था कि इस बीमारी के प्रसार का आकलन किया जाना शुरू हो गया होता और इस बीच ज़रूरी इंतज़ाम भी कर लिया गया होता।
इससे विभिन्न उपायों को सरकारें ज़रूरत और व्यावहारिकता के मुताबिक़ समन्वित, वर्गीकृत और चरणबद्ध तरीक़े से अपना पातीं। अगर उचित तरीक़े से इंतज़ाम किया गया होता, तो इन कई लॉकडाउन का उचित रूप से आकलन किया गया होता और ज़रूरत के हिसाब से उसमें संशोधन करने की गुंज़ाइश भी होती। ज़रूरत के मुताबिक़ प्रतिबंधों की सख़्ती में अलग-अलग रूप में ढील दी जा सकती थी, जिसमें लोगों और वस्तुओं की अंतर-क्षेत्रीय आवाजाही भी शामिल होती।
लेकिन, इसे मुमकिन करने के लिए मोदी सरकार को संघीय सिद्धांत पर काम करना होता। अंतर-राज्य के सवालों पर केंद्र के परामर्श से राज्य सरकारों द्वारा निर्णय लिए जाने चाहिए थे, जबकि केन्द्र की भूमिका एक से अधिक राज्यों को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर समन्वय और निर्णय लिये जाने में महत्वपूर्ण हो सकती थी। केन्द्र स्थिति पर नज़र भी रख सकता था।
मगर, दुर्भाग्य से केन्द्रीय शासन ख़ुद को स्थापित मानदंडों से परे मानता है। इसलिए, स्थितिजन्य जटिलताओं के बारे में बिना सोचे-विचारे केन्द्रीय शासन ने नियमों का निर्धारण किया, इन जटिलताओं और असली कार्य करने की ज़िम्मेदारी को राज्य सरकारों के हवाले कर दिया गया। यहां तक कि इन राज्य सरकारों को इस अभूतपूर्व सार्वजनिक-स्वास्थ्य संकट से निपटने के लिए संघ की तरफ़ से किसी तरह का ज़रूरी फ़ंड भी नहीं मुहैया कराया गया। बेशक, कभी-कभार केन्द्र सरकार ने राज्यों को तेज़ी से काम करने वाले दस्ते ज़रूर मुहैया कराये, लेकिन इससे किसी तरह की मदद नहीं मिली, बल्कि इससे परेशानी ज़रूर हुई।
इस पूरी क़वायद में मोदी सरकार ने अपने संभावित मक़सद हासिल कर लिया है, और वह मक़सद ऐसे हालात का निर्माण है, जो राजनीतिक विरोधियों को परेशानी में डाल सकते हैं। लेकिन, इनमें विरोध झेल रहे वे राज्य सरकारें शामिल नहीं हैं, जो सबसे ज़्यादा नुकसान उठा चुके हैं। बल्कि वे लोग हैं, जिन्होंने सबसे ज़्यादा नुकसान उठाये हैं, इनमें आम लोग और ख़ास लोग दोनों हैं, मगर सबसे ग़ैर-ज़रूरी निर्दयता और विध्वंस का शिकार वे लोग हुए हैं, जो ग़रीब हैं और ये लोग हालात का सामना करने की हालत में बिल्कुल भी नहीं रह गये हैं।
जैसा कि अनुमानित जीडीपी के आंकड़ों से पता चलता है कि सभी के लिए रिकवरी की रफ़्तार धीमी होगी। रिकवरी में अगर साल नहीं, तो कम से कम महीने तो लगेंगे ही, मगर निश्चित रूप से ऐसा सप्ताहों में तो मुमकिन नहीं ही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जिनके जनादेश के साथ मोदी ने इतनी बेरहमी के साथ विश्वासघात किया है, जब इन ग़रीबों का वक्त आयेगा, तो वे इस बेरहम विश्वासघात को याद रखेंगे और लॉकडाउन के ख़िलाफ़ भाजपा पर सबसे सख़्त शिकंजा कस देंगे ।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेज़ी में लिखे गए मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें
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