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लॉकडाउन, ज़िंदा रहने के लिए घास खाते मुसहर, और गरीबों पर हमला

एहतियात (प्रिकॉशन) बरतना एक बात है, और चरम घबराहट व ख़ौफ़ पैदा करना दूसरी बात है। दिखायी दे रहा है कि कोरोना वायरस को लेकर चरम घबराहट और ख़ौफ़ पैदा किया जा रहा है, और इसके जरिए राजनीतिक मक़सद साधा जा रहा है।
मुसहर

कोरोना वायरस  के फैलाव और संक्रमण को रोकने के नाम पर केंद्र की भाजपा सरकार के मुखिया व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह आनन-फानन में, परपीड़क (सैडिस्ट) अंदाज़ में, देश की जनता को विश्वास में लिये बगैर, देशव्यापी लॉकडाउन (देश बंद- काम बंद- जनता बंद- अनिश्चितकालीन कर्फ़्यू) की घोषणा की, उसकी असलियत एक ख़बर और एक फ़ोटो ने उजागर कर दी है।

यह दृश्य विचलित कर देने वाला है। इससे, और अन्य कई घटनाओं व दृश्यों से, पता चलता है कि लॉकडाउन देश की करोड़ों-करोड़ ग़रीब जनता और मेहनतकश तबकों पर केंद्र की भाजपा सरकार का अत्यंत बर्बर राजनीतिक हमला है। इसने उन्हें न सिर्फ़ जीने के साधन और रोज़गार के अवसर से क्रूरतापूर्वक तरीक़े से एक झटके से अलग कर दिया, बल्कि उन्हें मानव गरिमा, आत्मसम्मान व उम्मीद से भी वंचित कर दिया। लॉकडाउन की मार खाये हुए लोग भुखमरी की हालत में पहुंच गये हैं। उनकी हालत भिखमंगा-जैसी हो गयी है। वे कह रहे हैं कि कोरोना से तो हम बाद में मरेंगे, पहले तो हम भूख से मर जायेंगे।

उत्तर प्रदेश के कई शहरों से निकलने वाले हिंदी दैनिक ‘जनसंदेश टाइम्स’ के बनारस संस्करण में 26 मार्च 2020 को पहले पन्ने पर संवाददाता विजय विनीत की रिपोर्ट छपी, बमय फ़ोटो, जिसका शीर्षक है, ‘बनारस के कोइरीपुर में घास खा रहे मुसहर’। इस मुख्य शीर्षक के ऊपर पतले टाइप में उप शीर्षक हैः ‘कोरोना के चलते लॉकडाउन की मुसहर बस्तियों पर मार, सूख रही बच्चों की अंतड़ियां’। खबर के साथ छपी फ़ोटो में बच्चे घास खाते हुए दिखायी दे रहे हैं। मुसहर जाति दलित समुदाय (एससी) में आती है और दलितों में भी बहुत निचले पायदान पर है।

ध्यान रहे कि बनारस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लोकसभा चुनाव क्षेत्र है—यहीं से वह चुनाव जीत कर लोकसभा में पहुंचे हैं। प्रधानमंत्री के लोकसभा चुनाव क्षेत्र में मुसहरों को घास खा कर ज़िंदा रहना पड़ रहा है!

ख़बर में कहा गया हैः ‘कुछ गज ज़मीन, जर्जर मकान, सुतही-घोंघा और   चूहा पकड़कर जीवन की नैया खेते थक-हार चुके मुसहर समुदाय को अब कोरोना डंस रहा है। बनारस की कोइरीपुर मुसहर बस्ती में लॉकडाउन के चलते यह बीमारी कहर बरपा कर रही है। पिछले तीन दिनों से इस बस्ती में चूल्हे नहीं जले। पेट की आग बुझाने के लिए लोग घास खा रहे हैं। मुसहरों के पास सेनेटाइजर और मास्क की कौन कहे, हाथ धोने के लिए साबुन तक नसीब नहीं है... भीषण आर्थिक तंगी झेलनी पड़ रही है। राशन न होने के कारण मुसहरों के घरों में चूल्हे नहीं जल पा रहे हैं।’

ऐसा इसलिए हुआ कि 22 मार्च को घोषित ‘जनता कर्फ्यू’ से जारी लॉकडाउन के चलते सभी तरह के काम-धंधे पूरी तरह बंद हो गये हैं।

नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च 2020 को रात 8 बजे देश को संबोधित करते हुए कहा कि कोरोना वायरस से बचाव व रोकथाम के लिए 25 मार्च से 14 अप्रैल तक पूरे देश में लॉकडाउन रहेगा। इस दौरान—पूरे तीन हफ़्ते तक—किसी व्यक्ति को घर से बाहर नहीं निकलना है, उसे अपने घर में कैद रहना है, सड़क-रेल-हवाई यातायात पूरी तरह बंद रहेगा, सार्वजनिक गतिविधियां बंद रहेंगी (कुछ अपवादों को छोड़ कर)।

यानी, जनजीवन पूरी तरह से ठप रहेगा। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि लोगों को एक-दूसरे से ‘सोशल डिस्टेंस’ (सामाजिक दूरी) बना कर रखना चाहिए—वे सामाजिक मेलजोल न करें। देशव्यापी लॉकडाउन से जो हालत पैदा होगी, उससे निपटने की तैयारी के लिए नरेंद्र मोदी ने देश की 130 करोड़ आबादी को सिर्फ़ चार घंटे का समय दिया—रात 8 बजे से रात 12 बजे तक।

प्रधानमंत्री की इस घोषणा से जैसे ज़लज़ला आ गया (आना ही था)। पूरी सरकारी व्यवस्था-तामझाम-अर्थतंत्र भर-भराकर गिर पड़ा (गिरना ही था)। लोगों में हाहाकार-गहरी चिंता-अफ़रातफ़री-अराजकता-आतंक-भगदड़-पलायन मच गया (मचना ही था)। चंद अमीरज़ादों को छोड़कर देश की विशाल आबादी के सामने, ख़ासकर 80 करोड़ ग़रीब जनता के सामने, यह सवाल मुंह बाए खड़ा हो गयाः हम खायेंगे क्या, जियेंगे कैसे? नरेंद्र मोदी तो देश को संबोधित कर अपने आरामगाह में चले गये, और 130 करोड़ हिंदुस्तानियों को उनके रहम-ओ-करम पर छोड़ दिया।

लॉकडाउन के चलते काम-धंधा पूरी तरह बंद-चौपट हो जाने की वजह से अपने-अपने गांव लौटने के लिए बाध्य प्रवासी मज़दूरों के झुंड-के-झुंड दिल्ली की सड़कों पर दिखायी दे रहे हैं। यातायात का कोई साधन न होने की वजह से औरत-मर्द-बच्चे पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश-बिहार-झांरखड में अपने-अपने गांव लौट रहे हैं। इनके लिए कोरोना वायरस या ‘सोशल डिस्टेंस’ क्या मतलब रखता है? यहां तो पहला और आख़िरी सवाल यही है कि भूख और भुखमरी से हम बच पायेंगे कि नहीं। ये लोग केंद्र की भाजपा सरकार या किसी भी राज्य सरकार की चिंता के केंद्र में नहीं हैं क्योंकि ये ग़रीब लोग हैं। (केरल सरकार अपवाद है।)

एहतियात (प्रिकॉशन) बरतना एक बात है, और चरम घबराहट व ख़ौफ़ पैदा करना दूसरी बात है। दिखायी दे रहा है कि कोरोना वायरस को लेकर चरम घबराहट और ख़ौफ़ पैदा किया जा रहा है, और इसके जरिए राजनीतिक मक़सद साधा जा रहा है। कोरोना वायरस व लॉकडाउन की आड़ में भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विरोध व असहमति की आवाज़ और कार्रवाई को कुचल दिया है, लोकतांत्रिक अधिकार और मानवाधिकार को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है, और पूरे देश को कोरोना-कोरोना का जाप करने के लिए बाध्य कर दिया है। जिस तरह से शाहीन बाग़ (दिल्ली) को ध्वस्त किया गया, वह भविष्य का संकेत देता है।

पूरी कोशिश की जा रही है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी के पक्ष में सर्व सहमति—सर्वानुमति—बन जाये और असुविधाजनक सवालों व ज्वलंत मसलों को ओझल कर दिया जाये। कोशिश की जा रही है कि कोरोना वायरस बीमारी को लेकर मोदी सरकार की जो अपराधपूर्ण, अक्षम्य लापरवाही रही है, उस पर सवाल न किया जाये, न मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा किया जाये। ठीक वैसे ही, जैसे पुलवामा हमले (2019) के समय में हुआ, जिसकी बदौलत केंद्र में भारतीय जनता पार्टी फिर लौटी और मोदी दोबारा प्रधानमंत्री बन गये।

हर बीमारी या महामारी की राजनीति व राजनीतिक विमर्श होता है। कोरोना वायरस इसका अपवाद नहीं है। टीबी (तपेदिक) से, जो छूत की बीमारी है और जिसका कारगर इलाज मौजूद है, भारत में हर साल 4 लाख 50 हजार लोग मरते हैं। लेकिन इसे लेकर कभी हो-हल्ला नहीं मचता, कभी लॉकडाउन या जनता कर्फ़्यू नहीं लगता, क्योंकि टीबी ‘ग़रीबों की बीमारी’ है!

(लेखक वरिष्ठ कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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