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संगम तट से : लॉकडाउन में बर्बाद फेरीवालों को माघ मेला भी नहीं दे पा रहा रोज़गार

माघ मेले में भी ग़रीब फेरीवालों की दुश्वारी कम न हुई है। वे अपना सामान बेचने आए तो हैं लेकिन इस बार उस जनता की भी पोटली तंग है जो इनसे सामान ख़रीदती थी।
लॉकडाउन में बर्बाद फेरीवालों को माघ मेला भी न दे पा रहा रोज़गार

प्रयागराज (इलाहाबाद):  "इस बार का मेला ठीक नहीं है। कुछ बच नहीं रहा है। महंगाई बढ़ गई है। जो बिक भी रहा है उससे ज्यादा खर्च हो जाता है। चार बच्चे हैं, सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं। अगर ऐसी महंगाई रहेगी तो बहुत परेशानी होगी। आगे बेटी की शादी विवाह की दिक्कत होगी" गाज़ीपुर से चना जोर गरम बेचने आये रबी बिंद बताते हैं।

लॉकडाउन ने देशभर के फेरीवालों को एक गांव से दूसरे गांव या शहर की सड़कों, गलियों और मुहल्लों में सामान बेचने से रोक दिया, उनका पूरा जीवन संकट में पड़ गया। जब यह लॉकडाउन खुला तो उन्हें लगा कि शायद उनके दिन बहुर जाएंगे लेकिन ऐसा होता हुआ नहीं दिख रहा है। यहाँ तक कि माघ मेले में भी उनकी दुश्वारी कम न हुई है। वे अपना सामान बेचने आए तो हैं लेकिन कोई खरीददार नहीं मिल रहा। खरीददार मिल भी जाता है तो कम कीमत देता है। श्रद्धालुओं की संख्या भी पिछले मेलों से कम है और इस बार उस जनता की भी पोटली तंग है जो इनसे सामान खरीदती थी। इस माहौल में प्रयागराज (इलाहाबाद) के माघ मेला क्षेत्र में देश के कोने-कोने से आए फेरीवालों ने अपनी मार्मिक कहानियां बयां की हैं।

पहले सरकारी प्रयासों के बारे में

कोरोना महामारी के दौरान रेहड़ी-पटरी, छोटे व्यापारियों और फेरीवालों के टूट चुके  काम-धंधे को दोबारा शुरू करने के लिए केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश में 'प्रधानमंत्री स्ट्रीट वेंडर्स आत्मनिर्भर निधि' आर्थिक राहत पैकेज के तौर पर दस हजार की छोटी राशि का ऋण देने का प्रावधान किया था। केंद्रीय आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के अनुसार, "इस योजना का उद्देश्य देश भर में 50 लाख स्ट्रीट वेंडर्स को लॉकडाउन के बाद काम फिर से शुरू करने में आर्थिक सहायता प्रदान करना है।"

हाल ही में स्ट्रीट वेंडर्स निधि से जुड़ी एक रिपोर्ट के अनुसार योजना के तहत राज्य ने कुल 347.4 करोड़ रुपए का कर्ज 3.54 लाख लोगों को बांटा गया है। पश्चिम बंगाल इस लिस्ट में सबसे नीचे है जबकि इस योजना का सबसे अच्छा प्रदर्शन उत्तर प्रदेश, तेलंगाना और मध्यप्रदेश में देखने को मिला है। हालांकि माघ मेला में आए एक भी फेरीवाले व रेहड़ी पटरी वाले नहीं मिले जिन्होंने इस योजना का लाभ उठाया हो।

मेले में नहीं हैं ख़रीददार, गहराया आजीविका का संकट

माघ मेले का आयोजन ऐसे समय में किया गया है जब देश में कोरोना संक्रमण के एक करोड़ सात लाख से अधिक मामले सामने आ चुके हैं और डेढ़ लाख से अधिक लोगों की जान जा चुकी है। हालांकि एक साल बीत जाने के बाद यह पहला मेला है जिसे रेहड़ी-पटरी और फेरीवालों के लिए अवसर के रूप में देखा जा रहा है। मकर संक्रांति बीते पन्द्रह दिन हो चुके हैं। माघ का महीना शुरू हो चुका है। कल्पवासी आ चुके हैं लेकिन मेला में फेरीवालों का सामान खरीदने वाले खरीददार नहीं हैं।

अलीगढ़ से पन्द्रह लोगों की टोली के साथ रमेश लोदी राजपूत कैंडी फ्रेश (गुड़िया का बाल) बेचने इलाहाबाद के माघ मेले में आए हैं। रमेश कई वर्षों से माघ मेला में कैंडी बेच रहे हैं लेकिन वे मानते हैं कि इस बार माघ मेला बेहद कमजोर है।

रमेश कहते हैं कि "पहले इसी मेले में हम दिनभर में 600 से 700 रुपए तक कमा लेते थे। लेकिन अब 200 रुपये कमाना भी मुश्किल हो रहा है। तीन हजार का कमरा है। खाना-पानी सब इसी से करना है। कोरोना ने मिट्टी खराब कर दी है, जिसको रोज लाना और रोज खाना है उसे काम नहीं मिलेगा तो क्या होगा?" 

रमेश अकेले ही लॉकडाउन से चौपट हो गए काम-धंधे का दंश नहीं झेल रहे हैं। जबकि फेरीवालों का पूरा वर्ग इसी तरह की समस्या से जूझ रहा है। मेला क्षेत्र में पहले जहां एक ही सामान बेचने के लिए कई लोग आया करते थे वहीं इस बार उनकी संख्या घटी है। इलाहाबाद के माघ मेला में देश के कोने-कोने से लोग सिंदूर, हींग, चुरमुरा, बाँसुरी, खिलौना, डमरू, मोरपंख, कालीन, गोदना और कंदमूल फल बेचने आते हैं। वहीं इलाहाबाद शहर के लोग बड़ी संख्या में चाय, चना, जूस, डिब्बा, नारियल, फूल-माला और बिसातखाना की दुकानें लगाते हैं। ये सभी मानते हैं कि उम्मीद से बहुत कम कमाई हो रही है।

बिहार से माघ मेला में बाँसुरी बेचने वालों की एक बड़ी संख्या आती है। वे बिहार के मीरशिकार बिरादरी से आते हैं। मीरशिकार वस्तुत: गरीब मुस्लिम है और जो किसी तरह से अपना गुजारा कर पाता है। जब वे बाँसुरी बेचने का काम नहीं करते हैं तो शादी-विवाह में बैंड बजाने, खेती के मौसम में कृषक मजदूर के रूप में काम करते हैं। पहले के मेलों मे इनकी संख्या 250 से 300 के करीब रहती थी लेकिन इस बार मेला में बाँसुरी बेचने वाले बहुत कम संख्या में आए हैं। बिहार के छपरा से बांसुरी बेचने आए राजू बिक्री न होने से खासा परेशान नज़र आते हैं। मेले में इधर से उधर-भटक रहे हैं। लोगों के सामने जाकर नज़ाक़त में बांसुरी बजा कर बताने की कोशिश कर रहे हैं कि उनकी बाँसुरी की आवाज़ सबसे अच्छी है लेकिन लोग खरीद नहीं रहे हैं। राजू बिना थके यही काम लगातार कर रहे हैं।

राजू ने बताया कि वे वर्षों से पूरे देश के मेले में बांसुरी बेच रहे हैं लेकिन इतना डाउन (कमजोर) धंधा कभी नहीं किये। राजू बताते हैं कि "हम पंचमढ़ी, खाटू श्याम, केला देवी और माघ मेला में बाँसुरी बेचने आते हैं। पहले संगम में 200 से 300 लोग बाँसुरी बेचने आते थे लेकिन इस बार 40 से 45 लोग आए हैं। धंधा ऐसा ही रहा तो सब बिहार वापस चले जायेंगे। गांव में मज़दूरी करेंगे।"

राजू ने बताया कि वे छोटी बाँसुरी 7 रुपये में खरीदते हैं और 10 से 20 रुपये में बेचते हैं। और बड़ी बाँसुरी 16 रुपये में खरीदते हैं और 20 से 30 रुपये में बेचते हैं। दिनभर में 150 की बांसुरी बिकी है। पहले दिनभर में 500 से अधिक की बांसुरी बिक जाती थी। वे कहते हैं कि "इस बार मेले में धंधा डाउन है। सुबह से 150 की बिक्री हुई है। इसमें 50-60 रुपये बचेगा। बस रोज खाने भर का मिल रहा है। तीन हजार का कमरा है उसका पैसा निकल पायेगा या नहीं अभी कुछ नहीं पता।"

कुछ इसी तरह की कहानी बाराबंकी से आकर सिंदूर बेचने वालों की है। अनवर बचपन से रीवा, मिहर, बिलासपुर, देहरादून, मुरादाबाद, रुड़की, लुधियाना, पानीपत, सोनीपत, दिल्ली, हापुड़, कटनी, चोपन, डाला, बस्ती, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर जैसे कई राज्यों और जिलों सिंदूर, रंग और हींग बेचते हैं। लेकिन माघ मेला में उनके सिंदूर के खरीददार नहीं हैं।

अनवर कहते हैं कि "ये धंधा अब पिट चुका है। औरतें कम लगाती हैं। बोलती हैं इसको लगाने के बाद सिर में रंग भर जाता है। सात-आठ साल से संगम में आ रहे हैं लेकिन इतना मंदा धंधा नहीं किया। पहले 500-700 रुपये दिनभर में मिल जाता था लेकिन अभी 200 निकालना भी मुश्किल हो रहा है।" अनवर इसके पीछे कारण बाज़ार में फैशनी सिंदूर और कोरोना के कारण मेला में भीड़-भाड़ कम होना मानते हैं।

कानपुर के मुन्ना बादशाह दस-बारह साल से मेले में कंदमूल फल बेच रहे हैं। मान्यता है कि 14 वर्ष के वनवास में राम ने जंगलों कंदमूल खाकर ही बिताया था। इसलिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु व्रत में कंदमूल का प्रयोग करते हैं। लेकिन इस बार पूरे मेले में अकेले मुन्ना कंदमूल फल बेच रहे हैं। मुन्ना बताते हैं कि "हम चित्रकूट से कंदमूल लाते हैं। इस समय 150 रुपया किलो है। लेकिन इसबार के मेले में कमाई बिल्कुल नहीं है। सौ पचास मिल जाता है। कोरोना की वजह से भीड़ कम है इसलिए कम बिक्री हो रही है। अभी तक समझ आ रहा है कि खाली हाथ घर वापस जाना पड़ेगा।"

कोरोना की आड़ में प्रशासन सख़्त

एक तरफ लॉकडाउन के झटके झेल रहा वर्ग अब मेला प्रशासन की ओर से कोरोना नियमों का सामना करने को मजबूर हो रहा है। पहले मेला क्षेत्र में लगने वाली दुकानों के लिए लाइसेंस बनता था लेकिन इस बार कोरोना के कारण लाइसेंस नहीं मिल रहा है। इस कारण बड़ी संख्या में दुकानदार इधर से उधर भगाए जा रहे हैं। जमीन या ठेले पर दुकान लगाने वालों को पुलिस डंडे मार रही है। संगम में बड़े हनुमान मंदिर के पास पीढ़ी दर पीढ़ी से बिसातखाना, धार्मिक पुस्तकों की दुकाने लगाने वाले लगभग तीस परिवार को माघ मेला में दुकान लगाने से मना कर दिया गया है।

विद्या देवी (40) पैंतीस साल से बड़े हनुमान मंदिर के पास दुकान लगा रही हैं। विद्या देवी के भरोसे पांच लोगों का परिवार है। मेला उनके लिए अधिक कमाई करने का अवसर होता है लेकिन मेला प्रशासन ने छीन लिया। विद्या देवी बताती हैं कि "मैं यहां सड़क किनारे जमीन पर पैंतीस साल से दुकान लगा रही हूँ। हमसे मेला प्रशासन पहले कहा कि कोरोना जांच कराओ, हमने कोरोना जांच कराया। हमारे पास कागज अभी भी है। हमारे अंदर कोरोना नहीं है। लेकिन उसके बाद भी हमें दुकान नहीं लगाने दिया जा रहा है।"

विद्या देवी सवाल उठाते हुए कहती हैं कि "क्या बड़ी दुकानों से कोरोना नहीं फैलेगा हमसे कोरोना फैल जाएगा?"

मेला शुरू हुए लगभग पन्द्रह दिन बीत चुके हैं लेकिन झुग्गी झोपड़ी में रहने वाला तीस निषाद परिवार मेला प्रशासन से लेकर जिलाधिकारी तक दुकान लगाने की अनुमति के लिए चक्कर लगा रहा है। परिवारों के सम्मुख संकट है कि यदि वे मेला में दुकान नहीं लगा सके तो साल भर के लिए संकट खड़ा हो जाएगा। लेकिन मेला प्रशासन इन परिवारों की एक नहीं सुन रहा है।

गुड्डी निषाद संगम नोज पर पूजापाठ का सामान बेच रही हैं। लेकिन मेला प्रशासन से खासा नज़र आती हैं। उन्होंने बताया कि पुलिस वाले दुकान लगाने वाली महिलाओं को उठा ले जा रहे हैं। 14 दिन तक अस्पताल में भर्ती कर रहे हैं। गुड्डी कहती हैं कि "कमाई धंधा बंद है। सौ-पचास मिल जाय वही बहुत है। गांव वाले खरीददार कम आ रहे हैं। शहर वाले खरीददारी नहीं करते हैं। इस बार मेले में शहर वालों की ही भीड़ है।"

कोरोना के सवाल पर गुड्डी निषाद झुंझला कर कहती हैं कि "कोरोना होता तो बीमारी में होते या यहां बैठकर दुकान लगाते? धंधा करने वालों का कोरोना चेक हो रहा है। जो बाहर से आ रहे हैं उनकी कोई जांच नहीं हो रही है। अगर कोरोना है तो क्यों लगवाए हो? मेला न लगने दो।" वे आगे सवाल करती हैं कि "इतने दिन में कोरोना न हुआ केवल माघ मेला में होने लगा? गांव-देस में कोरोना नहीं है सिर्फ संगम में ही है?"

गिरीशचन्द्र पांडेय लगभग बीस सालों से संगम में बिसातखाना की दुकान लगा रहे हैं। लेकिन इस बार मेला प्रशासन ने कोरोना का हवाला देते हुए उनकी दुकान नहीं लगने दी। पांडेय लगभग पन्द्रह हजार कर्ज लेकर दुकान में सामान भर चुके हैं लेकिन दुकान बंद है। पांडेय ने कर्ज के विषय में बताया कि "नगर निगम से फॉर्म लिया था। बैंक में दस दिनों तक दौड़ भाग किया लेकिन फिर भी पैसा नहीं मिला। बाद में रिश्तेदारों से पन्द्रह हजार उधार लिया। मेला में दुकान नहीं लगने देंगे तो कैसे चुका पाऊंगा?"

सभी फोटो गौरव गुलमोहर

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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