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भूख से फिर मरे महाराष्ट्र के बच्चे! अमृतकाल में पेट से दूर 'भोजन की थाली'

भोजन करने की इच्छा भूख का एहसास तो कराती है, लेकिन आदिवासी अंचलों में कोई बच्चा भूख से एक दिन में तो मरता नहीं। जैसा कि होता है कि हाइपोथैल्यस के हार्मोन छोड़ने से भूख बढ़ती गई होगी, अंतड़ियों में मरोड़ होती गई होगी, कई दिनों तक ज्यादा भूखा रहने के कारण तब कहीं जाकर भुखमरी की नौबत आई होगी और बच्चे का शरीर कंकाल बना होगा।
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देश में भूख और भुखमरी के मामले में प्रशासनिक असंवेदनशीलता की स्थिति यह है कि उच्च से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप करने के बावजूद व्यवस्था अपनी ही चाल में चल रही है।

बीमारी और पोषण के अभाव में बच्चे हर साल मर जाते हैं, लेकिन कोई सुध लेने वाला नहीं है। यही वजह है कि कुपोषण के मामले में एक बार फिर बॉम्बे हाईकोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा है। हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र के आदिवासी जिले नंदुरबार कलेक्टर को बाल-मृत्यु और मातृ-मृत्यु की संख्या में बढ़ोतरी को देखते हुए तलब किया है। बता दें कि हाईकोर्ट राज्य के आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण के कारण कई बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं की मृत्यु से संबंधित 2007 में दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहे हैं।

दरअसल, जनवरी 2022 से नंदुरबार जिले में 411 लोगों की मौत हुई है, जिनमें 86 बच्चे कुपोषण और मेडिकल सुविधाओं की कमी के कारण मौत के शिकार हुए हैं। इस दौरान यह बात भी सामने आई कि क्षेत्र में अच्छी सड़कें नहीं होने के कारण मेडिकल देखभाल तक पहुंच की समस्या बनी हुई है।

महाराष्ट्र में अकेला नंदुरबार ही नहीं बल्कि देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से लगे ठाणे और पालघर से लेकर विदर्भ के अमरावती तथा नागपुर के कई अंचलों में कुपोषण और कुपोषण के कारण हो रही मौतें लगातार सामने आ रही हैं।  

वर्ष 2021-22 में कुपोषण की रिपोर्ट के अनुसार, महाराष्ट्र के ठाणे जिले में 1 हजार 531 बच्चे सामान्य रूप से कुपोषित हैं, जबकि 122 बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित पाए गए हैं।

वहीं, पिछले महीने विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष अजीत पवार ने अमरावती जिले के मेलघाट का दौरा किया था। इस दौरान उन्होंने मेलघाट में कुपोषण की स्थिति की समीक्षा की। मेलघाट पिछले तीन दशक से भुखमरी के कारण हजारों बच्चों की मौत के चलते सुर्ख़ियों में रहा है। अजीत पवार ने अपने दौरे में कुपोषित बच्चों के परिवारों से मुलाकात की तथा वहां की स्वास्थ्य सुविधाओं की जानकारी ली।

देखा जाए तो पिछले तीन साल में महाराष्ट्र के 16 जिलों में बच्चों में कुपोषण के करीब 15 हजार 253 मामले सामने आए हैं। इसमें छह हजार से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। ये सभी 16 जिले आदिवासी बहुल इलाके हैं।

दरअसल, नंदुरबार और मेलघाट की कहानियां बताती हैं कि बच्चों की मौतों की बड़ी वजह है भूख। दूसरी ओर भूख से निपटने की सरकारी व्यवस्था कई बार बड़ी बाधा बन रही है। ऐसा इसलिए कि इसे एहसास नहीं है कि भूख क्या होती है! भोजन करने की इच्छा भूख का एहसास तो कराती है, लेकिन आदिवासी अंचलों में कोई बच्चा भूख से एक दिन में तो मरता नहीं। जैसा कि होता है कि हाइपोथैल्यस के हार्मोन छोड़ने से भूख बढ़ती गई होगी, अंतड़ियों में मरोड़ होती गई होगी, कई दिनों तक ज्यादा भूखा रहने के कारण तब कहीं जाकर भुखमरी की नौबत आई होगी और बच्चे का शरीर कंकाल बना होगा।

क्या आदिवासी अंचलों के नजारे तभी तक सुंदर हैं जब तक की आप बीमार नहीं हैं, एक बार यदि तबीयत ज्यादा बिगड़ी तो सत्तर-पछत्तर किलोमीटर भागने के बाद भी कोई गारंटी नहीं कि आप सही सलामत इन जंगलों से बाहर निकल पाएं! यह एक पहाड़ी जंगल है, जहां हर छोटी जरुरत से लेकर अपनी जान बचाने के लिए आदिवासियों को मीलों सफर करना पड़ता है, बगैर किसी मोटर-साइकिल के पैदल ही।

क्या आदिवासी अंचलों के नजारे तभी तक सुंदर हैं, जब तक की आप बीमार नहीं हैं, एक बार यदि तबीयत ज्यादा बिगड़ी तो सत्तर-पछत्तर किलोमीटर भागने के बाद भी कोई गांरटी नहीं कि आप सही सलामत इन जंगलों से बाहर निकल पाएं! यह एक पहाड़ी जंगल है, जहां हर छोटी जरुरत से लेकर अपनी जान बचाने के लिए आदिवासियों को मीलों सफर करना पड़ता है, बगैर किसी मोटर-साइकिल के पैदल ही।

दूसरी तरफ, महाराष्ट्र की सतपुड़ा पहाड़ी के आदिवासी बहुल मेलघाट अंचल में आज से बीस साल पहले बाघों को बसाने के नाम पर कई गांवों को विस्थापित करके उनके लिए पुनर्वास योजना बनाई गई थी। लेकिन, ऊंट के आकार में फैले विस्थापन के सामने पुनर्वास जैसे ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर साबित हुआ। आजाद भारत में कोरकू जनजाति पर एक के बाद एक कई प्रहार हुए और इनका जीवन जंगल से कटता गया। इसके चलते उनकी आजीविका छिन गई। वे बेकार हो गए और उनके आगे भोजन का संकट खड़ा हो गया। नतीजा यह पूरा इलाका भुखमरी की चपेट में चला गया।

कुपोषण कम करने की योजनाओं की भी अक्सर चर्चा होती रहती है। सवाल यह है कि कुपोषण और भूख को दूर करने के लिए सरकार ने 'महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय' के माध्यम से 2 अक्टूबर 1975 को एकीकृत बाल विकास योजना शुरू की थी तो वह उसके उद्देश्य को कैसे भूल गया। उद्देश्य इस बात पर विचार करना है कि ऐसी योजनाओं को लागू करने के चार दशक से अधिक समय बाद भी सार्वजनिक स्वास्थ्य संकेतक क्यों हासिल नहीं किए जा सकते हैं?

'राष्ट्रीय परिवार व स्वास्थ्य सर्वेक्षण' की पिछली रिपोर्टें कुछ निर्धारकों पर सुधार दिखाती हैं, जैसे कि अब घर के बजाय अस्पतालों में होने वाले जन्मों की संख्या में वृद्धि। संस्थागत प्रसव 2015-16 में 78.9 प्रतिशत से बढ़कर 2019-20 में 93.8 प्रतिशत हो गया। लेकिन, फिर सोचने वाली बात यह है कि कुपोषण के आंकड़े इतने संतोषजनक क्यों नहीं हैं?

1998-1999 में कम वजन वाले बच्चों का प्रतिशत 19.7 प्रतिशत था, जो 2005-06 में बढ़कर 22.9 प्रतिशत हो गया। पिछले सर्वे में यही आंकड़ा बढ़कर 32.1 फीसदी हो गया। एनीमिया का भी यही हाल है। 2015-16 में 14 से 19 वर्ष की आयु की लड़कियों में एनीमिया का प्रसार 22.7 प्रतिशत था, जो 2019-21 में बढ़कर 25 प्रतिशत हो गया। ये आंकड़े देश की स्वास्थ्य के क्षेत्र में बदहाली के विषय में केवल संकेत देते हैं।

सच तो यह है कि स्वास्थ्य की अवधारणा को अकेले नहीं सोचा जाना चाहिए, बल्कि इस बारे में व्यापक रूप से विचार करने की आवश्यकता है। स्वास्थ्य की अवधारणा को समावेशी बनाने की जरूरत है।

कहा जाता है कि स्वास्थ्य केवल बीमारी या दुर्बलता की दूरी होना भर नहीं है, बल्कि पूर्ण शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कल्याण की स्थिति है। यानी हमें स्वास्थ्य को हर तरफ से देखना होगा। स्वास्थ्य के जानकार मानते हैं कि मानव शरीर छोटी-छोटी कोशिकाओं से बना है। उन कोशिकाओं का स्वतंत्र अस्तित्व होता है और वे स्वतंत्र रूप से कार्य करती हैं। ये सभी कोशिकाएं मिलकर एक शरीर बनाती हैं। प्रत्येक कोशिका को जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन, ग्लूकोज और अन्य पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। एक व्यक्ति जितना अच्छा खाता है, बेहतर वातावरण में सांस लेता है, पर्याप्त व्यायाम करता है, धूम्रपान से परहेज करता है, कोशिकाओं को उतना ही अधिक लाभ होता है, वे उतने ही स्वस्थ होते हैं और शरीर समग्र रूप से स्वस्थ होता है। तो अगर हम इस बात से अवगत हों कि क्या करना है और क्या नहीं करना है तो सभी कोशिकाएं स्वस्थ होंगी।

ठीक यही संबंध एक व्यक्ति का सामुदायिक देश के साथ है। राष्ट्र एक शरीर है और उसके व्यक्ति कोशिकाओं की तरह हैं। यदि किसी राष्ट्र को स्वस्थ रहना है तो उसकी सभी कोशिकाएं अर्थात व्यक्ति स्वस्थ होने चाहिए।

लेकिन, वास्तव में अमृतकाल में प्रवेश करते ही हम इन लक्ष्यों से मीलों दूर प्रतीत होते हैं। उदाहरण के लिए, यदि हम आय पर विचार करें, तो 'भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण' के अनुसार भारत में केवल दो प्रतिशत परिवारों की आय आठ लाख रूपए से अधिक है।

जैसे-जैसे गरीबी और धन के बीच की खाई बढ़ती जाएगी, राष्ट्र के लोगों की स्वास्थ्य स्थिति कम होती जाएगी, इसके विपरीत, यदि यह अंतर कम होता है, तो स्वास्थ्य की स्थिति और जीवन स्तर अपने आप बढ़ जाएगा। इसके लिए कोई अन्य उपाय करने की आवश्यकता नहीं होगी।

इसके लिए सभी तरह की विषमता को पाटने का प्रयास करना चाहिए। यह बात सामान्यत: समझ नहीं आती कि समाज में असमानता प्रत्येक व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए घातक है। समाज, देश व्यक्तियों से बनता है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, लैंगिक समानता एक आदर्श समाज की विशेषताएं हैं। इसलिए उन्हें संविधान में शामिल किया गया।

तस्वीरें साभार: यूनिसेफ

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