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मई दिवस: मज़दूर—किसान एकता का संदेश

इस बार इस दिन की दो विशेष बातें उल्लेखनीय हैं। पहली यह कि  इस बार मई दिवस किसान आंदोलन की उस बेमिसाल जीत की पृष्ठभूमि में आया है जो किसान संगठनों की व्यापक एकता और देश के मज़दूर वर्ग की एकजुटता की बदौलत हासिल हुई। दूसरी यह कि आज का दौर न केवल श्रमिक वर्ग बल्कि समूची जनता और मानवता के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण है।
May day

हर साल 1 मई को मनाया जाने वाला 'मई दिवस' दुनिया भर के मेहनतकशों का एक ऐतिहासिक पर्व है। इस दिन श्रमिक वर्ग अपने संघर्ष की सफलता पर गर्व करते हैं और शोषण से मुक्ति के संकल्प को नई ऊर्जा के साथ उद्घोषित करते हैं। इस बार इस दिन की दो विशेष बातें उल्लेखनीय हैं। पहली यह कि  इस बार मई दिवस किसान आंदोलन की उस बेमिसाल जीत की पृष्ठभूमि में आया है जो किसान संगठनों की व्यापक एकता और देश के मजदूर वर्ग की एकजुटता की बदौलत हासिल हुई। दूसरी यह कि आज का दौर न केवल श्रमिक वर्ग बल्कि समूची जनता और मानवता के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण है ।

कैसी त्रासदी है कि आजादी की 75वीं वर्षगांठ के मौके पर हम पाते हैं कि भाजपा की मोदी सरकार पिछले 8 साल के शासन के दौरान संप्रभुता, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और संघीय प्रणाली के संवैधानिक स्तंभों को ही तबाह कर रही है। इन हमलों से देश को बचाने के लिए सबसे जरूरी बन गया है कि जनता अपनी एकता और सामाजिक ताने-बाने को बचाए जो कार्पोरेट-सांप्रदायिक जुगलबंदी के निशाने पर है।

सर्वप्रथम मई दिवस के महत्व पर जरा  गौर कर लिया जाए।  अमेरिका में 1886 के शिकागो शहीदों को समर्पित मई दिवस धर्म, जाति, समुदाय, क्षेत्र  आदि से ऊपर उठकर समानता, न्याय और आत्मसम्मान के लिए संघर्ष का एक विशिष्ट अंतरराष्ट्रीय प्रतीक माना जाता है।

 8 घंटे काम की मांग पर श्रमिकों के जो संघर्ष 19वीं सदी में उभार ले रहे थे उनमें शिकागो का आंदोलन ऐतिहासिक माना जाता है। 1 मई 1886 को एक बड़ी सभा के रूप में श्रमिक असंतोष दर्ज हुआ था और अमेरिका के लाखों मजदूरों ने उस दिन हड़ताल की थी। प्रत्यक्षदर्शी लिखते हैं कि बीसियों हजार प्रदर्शकारियों के विशाल काफिले सड़कों पर जिस तरह से उतरे वह  नज़ारा पहली बार देखने को मिला था। उस दिन एक मजदूर शहीद हुआ। उसके विरोध में 3 मई को भी आक्रोश प्रदर्शन हुए जिन पर पुलिस फायरिंग की गई और 4 श्रमिक शहीद हो गए।

अगले दिन 4 मई को पुलिस ने योजना बनाकर हिंसक घटना रची। पुलिस की ओर एक बम फेंका गया जिसमें एक पुलिस वाला मारा गया। जिसे बहाना बनाकर सात प्रमुख श्रमिक नेताओं पर मुकदमा चलाकर उन्हें 1887 में फांसी की सजा सुनाई गई ।  चार श्रमिक नेताओं को फांसी दी गई, एक ने फांसी से पहले जेल में आत्महत्या कर ली और दो की सजा उम्र कैद में बदल दी गई। मुकदमे के फर्जीवाड़े का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1893 में गवर्नर जॉन पीटर ने उम्र कैद के दोषियों को यह कहकर बरी कर दिया था कि पूरे मुकदमे में पर्याप्त सबूत नहीं थे और मुकदमे की कार्रवाई न्यायोचित नहीं थी। अफसोस, कि फांसी देकर जिनकी जान ले ली गई वे गवर्नर के न्यायपूर्ण फैसले के बावजूद,  वापस नहीं आ सकते थे।

यह केवल मात्र संयोग ही नहीं कहा जा सकता कि इस मुकदमे में और भगतसिंह व उनके साथियों पर चले मुकदमे में कमाल की समानता है। ध्यान रहे कि भगतसिंह व बटुकेश्वर दत्त ने पब्लिक सेफ्टी बिल के विरोध में ही संसद में बम फेंका था। पब्लिक सेफ्टी बिल ब्रिटिश सरकार द्वारा श्रम अधिकारों पर अंकुश लगाने हेतु लाया गया था। 28 सितंबर 2017 को लाहौर हाईकोर्ट कोर्ट ने भी अपने एक अभूतपूर्व निर्णय में यह घोषणा करके निश्चित तौर पर एक  मिसाल कायम कर दी कि भगतसिंह व उनके साथियों को फांसी देने की कार्रवाई न्यायसंगत नहीं थी।

मुख्य नेताओं को फांसी दिए जाने के उपरांत श्रमिक आंदोलन को धक्का भी लगा। आठ घंटे काम का नियम अनेक स्थानों पर मजदूरों ने खुद ही लागू कर दिया। तब से 1 मई दुनिया भर में मजदूर दिवस के तौर पर मनाया जाने लगा ।

भारत में जाने-माने तत्कालीन ट्रेड यूनियन नेता और स्वतंत्रता सेनानी का. सिंगारावेलु चेट्टियार की पहल कदमी में पहला मई दिवस 1923 में मद्रास में मनाया गया था। इसे अगले साल यानी 2023 में पूरी एक शताब्दी होने जा रही है।

यह लंबा सफरनामा अपने आप में ऐसे अद्भुत इतिहास का निर्माण करता आया है जिसमें न केवल श्रमिक वर्ग बल्कि मानव मुक्ति की प्राकृतिक जिज्ञासा ने नए नए मार्ग सृजित किए हैं। इस दौरान कितने ही देशों ने साम्राज्यवादी गुलामी , रंगभेद, राजशाही और पूंजीवाद से मुक्ति पाई है। कितने राष्ट्र अपनी खुदमुख्तारी की हिफाजत करने के वास्ते साम्राज्यवादी मुल्कों से कठिन संघर्ष कर रहे हैं । समाजवादी व्यवस्था ने इस दौरान हर दृष्टि से अपनी श्रेष्ठता साबित की है । ग़रीबी व निरक्षरता उन्मूलन में सफलता प्राप्त की है। कोविड के दौरान खासतौर पर स्वास्थ्य के क्षेत्र में  पूंजीवाद और समाजवाद में दिन रात का फ़र्क दुनिया ने देखा।

मई दिवस का आयोजन कोई रस्म अदायगी नहीं है बल्कि नव उदारीकरण के मौजूदा दौर में  लगातार इसकी प्रासंगिकता और भी ज्यादा बढ़ी है । आज देशों के बीच और देश के भीतर मुट्ठी भर घरानों और जनता के बीच गैर बराबरी भयावह रूप ले चुकी है। ऑक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार भारत के 10 सबसे धनवानों के पास देश की कुल संपदा का 57 फ़ीसदी हिस्सा है जबकि नीचे से आधी आबादी के पास देश की संपदा का सिर्फ 13 फ़ीसदी हिस्सा ही है। महामारी  के दौरान किए गए लॉकडाउन के दौरान जब देश के लाखों प्रवासी परिवारों को दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर किया तब भी कारपोरेट घरानों के मुनाफे सैकड़ों गुना की दर से बढ़ रहे थे।

बढ़ती गरीबी, बेरोजगारी ,भूख और कमरतोड़ महंगाई ने गरीब तबकों के लिए तो अस्तित्व का ही संकट खड़ा कर दिया है। समाज ने विज्ञान और तकनीक को जितनी ऊंची बुलंदियों पर पहुंचा दिया वह विकास असल में तो जनता के जीवन को सुविधाजनक बनाने के लिए प्रयोग होना चाहिए था, परंतु पूंजीवाद ने उसका प्रयोग अपने मुनाफे के लिए किया और जनता को ही रोजगार से बाहर फेंक दिया। छंटनी करते हुए महिला श्रमिकों को सबसे पहले बाहर का रास्ता दिखाया जाता है। गौरतलब है कि हरियाणा, दिल्ली, गुजरात आदि प्रदेशों में परियोजना वर्कर महिलाओं ने ही हाल में जुझारू आंदोलनों को लड़ते हुए सरकार के दमन और उत्पीड़न का सफलता से मुकाबला किया है।

यह कैसी विडंबना है कि बेरोजगारों की यही रिजर्व फोर्स कारपोरेट के लिए वरदान भी साबित हो रही है। पूंजीवाद के लिए अधिकतम मुनाफा ही सर्वोपरि होता है और वह जनहित से ऊपर होता है। इसके विपरित यदि समाज के समग्र विकास की दिशा में आगे ले जाना है तो जनहित को मुनाफे से ऊपर रखना होगा । ऐसा नहीं हुआ तो व्यवस्था का मौजूदा चौतरफा संकट और भी अधिक गहरा होना निश्चित है। इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि यही बेरोजगारी जिसे पूंजीवाद वरदान के रूप में प्रयोग करता आया है वही उसके अंतर्निहित संकट और अंततः उसके विनाश को भी सुनिश्चित करती है।

हमारे देश के शासक वर्गों की नीतियां पूरी तरह से कारपोरेट को समर्पित हैं। जिस प्रकार तीन कृषि कानून थोपे गए थे उसी प्रकार अनेक श्रम कानूनों को निरस्त करके चार लेबर कोड बनाए गए हैं। जिनके लागू हो जाने के बाद कंपनियों के मालिक अपनी मनमर्जी से श्रमिकों को नौकरी से निकालने को स्वतंत्र होंगे। यही नहीं बल्कि 8 घंटे काम की जो मांग सदियों पहले मानी जा चुकी थी उसे भी नकार कर 10 घंटे और 12 घंटे काम लिए जाने की छूट दी जा रही है । यह श्रमिकों को बंधुआ मजदूर बना देगा।

मजदूर और किसानों के बीच इस हालात में जो व्यापक स्तर पर आक्रोश पनप रहा है उससे ध्यान भटकाने के उद्देश्य से उन्हें आपस में लड़ाकर उनकी एकता तोड़ने की कोशिशें किसी से छिपी नहीं हैं। यह जरूरी हो गया है कि मेहनतकश जनता अपनी रोजी-रोटी और ट्रेड यूनियन व जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करते हुए देश के संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों की सुरक्षा को भी साथ जोड़ कर चलें। सत्ता की सरपरस्ती में उनके बीच सांप्रदायिक नफरत फैला कर ध्रूवीकरण करने का खेल किया जा रहा है। वह परस्पर सद्भाव को बचाए रखकर ही अपनी आजीविका की रक्षा कर पाएंगे। ये सब कार्पोरेट की नंगी लूट के शिकार हैं। उत्पादक किसान और उपभोक्ता दोनों को लूटकर सुपर मुनाफे बनाए जा रहे हैं। कच्चे और तैयार माल के बीच जिस तरह फासला बढ़ रहा है उससे किसानों पर क़र्ज़ का फंदा कसा जाना निश्चित है। कमरतोड़ महंगाई और गिरते वेतन इसका एक और ज्वलंत उदाहरण है। देश की बेशकीमती परिसंपत्तियों को कौड़ी के भाव देशी और विदेशी कंपनियों को सौंपा जा रहा है।

मजदूर, किसान , खेत मजदूर, कर्मचारी, महिलाएं, छात्र-युवा  और अन्य तबकों को व्यापक मंच निर्मित करके अपनी आजीविका और देश बचाने की लड़ाई लड़ने की ओर बढ़ना होगा। इनमें भी मजदूर व किसानों की वर्गीय एकता को प्राथमिकता पर लेना होगा। दुनिया पर लूट का शिकंजा कसने के अमरीकी व अन्य साम्राज्यवादी मुल्कों के मंसूबों को परास्त करना होगा।

आज इसी संदेश के साथ मई दिवस और जनवादी आंदोलन के सभी शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि बनती है।

मई दिवस के एक शहीद आगस्ट स्पाईस ने फांसी से पहले कहा था  "आप गला घोंट कर जिस आवाज को खामोश कर रहे हो, वक्त आएगा वो खामोशी हमारी आवाज़ से भी ज्यादा शक्तिशाली साबित होगी"।

लेखक एआईकेएस हरियाणा के उपाध्यक्ष हैं और संयुक्त किसान मोर्चा के साथ काम करते हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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