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एक नागरिक के तौर पर प्रवासी

प्रवासी कामगार कौन हैं? यह लोग कहां से आते हैं? हमने देखा महामारी में उनके साथ क्या हुआ? लेकिन अब आगे क्या करने की जरूरत है? नंदिता हक्सर पूरे मुद्दे को अलग-अलग हिस्सों में तोड़ते हुए आगे का रास्ता बता रही हैं।
एक नागरिक के तौर पर प्रवासी

हम अपने देश के इतिहास में सबसे डरावनी घटना के गवाह बने हैं। इस डरावनी घटना को एक राज्य से दूसरे राज्यों में अपने घरों में वापस लौटते मज़दूरों के दृश्य बयां कर रहे हैं। अनुमान है कि लॉकडाउन के चलते 2,71,000 फैक्ट्रियों और साढ़े छ: से सात करोड़ लघु और सूक्ष्म धंधे रुक गए, जिसके चलते करीब़ 11 करोड़ चालीस लाख नौकरियां चली गईं। इसमें 9 करोड़ 10 लाख रोजाना मज़दूरी करने वाले और एक करोड़ सत्तर लाख वैतनिक कर्मचारी थे, जिन्हें काम से निकाल दिया गया।

प्रवासी मज़दूर कौन है? क्यों उन्हें संविधान, कानून और अंतरराष्ट्रीय श्रम मानकों के तहत अधिकार प्राप्त नागरिक मानने के बजाए बाहरी माना जाता है।

आज के हालातों में मज़दूर जिस राज्य में प्रवास करते हैं और उनके गृह राज्यों में उनकी आजीविका के प्रबंधन के लिए हस्तक्षेप करना जरूरी है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं सुरक्षित प्रवास की अवधारणा को विकसित कर रही हैं। हमें अपनी पृष्ठभूमि में इसके बारे में ज़्यादा गहराई से देखने की जरूरत है:

1) प्रवासी और प्रवास

कितने प्रवासी भारतीय देश के बाहर और देश में काम कर रहे हैं, इसके लिए कोई भरोसेमंद आंकड़ा नहीं है। लेकिन जो भी आंकड़े उपलब्ध हैं, उनसे इस मुद्दे की गंभीरता का आकलन हो जाता है।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के मुताबिक़ भारत प्रवासियों के उद्गम और इनके प्रवास वाला बड़ा देश है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रवासियों के लिए भारत काम करने की एक लोकप्रिय जगह है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़, विदेशों में करीब 3 करोड़ भारतीय रहते हैं, इनमें से करीब 90 लाख भारतीय मूल के लोग GCC क्षेत्र (जिसे अब कोऑपरेशन काउंसिल फॉर द अरब स्टेट्स ऑफ गल्फ कहते हैं) के देशों में रहते हैं। 90 फ़ीसदी से ज़्यादा भारतीय प्रवासी खाड़ी क्षेत्र और दक्षिण पूर्व एशिया में काम करते हैं, इनमें से ज़्यादातर कम और अर्द्ध कुशल कामग़ार हैं। अंतरराष्ट्रीय प्रवास का एक विश्लेषण बताता है कि भारत में आधिकारिक आंकड़े बेहद सीमित हैं। आंकड़े केवल उन्हीं प्रवासियों के उपलब्ध हैं, जो ''इमिग्रेशन चैक रिक्वॉयर्ड (ECR)'' पासपोर्ट पर, 18 ECR देशों में शामिल किसी देश में प्रवास करते हैं।

इंटरनेशनल ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ माइग्रेंट (IOM) का आकलन है कि 2019 में पूरी दुनिया में करीब 27 करोड़ 16 लाख प्रवासी हैं। 1951 में स्थापित IOM प्रवास के क्षेत्र में अग्रणी अंतर्सरकारी संस्थान है, जो सरकारों, अंतर्सरकारों और गैर-सरकारी साझेदारों के साथ नजदीकी गठबंधन में काम करता है।

IOM के मुताबिक़ ''प्रवासी'' शब्द एक वृहत्तर शब्दावली है, जिसे अंतरराष्ट्रीय कानून में परिभाषित नहीं किया गया है। आम समझ के मुताबिक़, कोई व्यक्ति जो आमतौर पर जहां रहता है, उसे अलग-अलग वजहों से, स्थाई या अस्थाई तौर पर, देश या विदेश जाने के लिए छोड़ता है, तो वो प्रवासी कहलाता है। इस शब्द में कानूनी तौर पर परिभाषित कई वर्ग के लोगों को शामिल किया जाता है, जैसे प्रवासी कामग़ार; जिनका खास किस्म का आवागमन कानूनी तौर पर परिभाषित है, जैसे तस्करी कर लाए गए प्रवासी। लेकिन प्रवासी शब्द में ही कई ऐसे वर्ग शामिल हैं, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय कानूनों में विशेषत: परिभाषित नहीं किया गया है। जैसे: अंतरराष्ट्रीय विद्यार्थी।

यह भी गौर करने वाली बात है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रवासी शब्द की कोई भी सर्वमान्य परिभाषा मौजूद नहीं है।

2) भारत में प्रवासी मज़दूर कौन है?

जनगणना के मुताबिक़ प्रवासी व्यक्ति वह है, जो ''जनगणना में अपने जन्म से इतर दूसरी जगह पाया गया है, वह प्रवासी है।'' ग्रामीण भारत में लाखों महिला और पुरुष काम के लिए प्रवास करते हैं। यह साल के कुछ विशेष मौसम में और भी ज़्यादा होता है। अनुमान है कि करीब़ 12 करोड़ या इससे ज़्यादा लोग ग्रामीण भारत से शहरी श्रम बाज़ारों, उद्योगों और खेतों में काम करने के लिए प्रवास करते हैं।

भारत में बड़े प्रवासी कॉरिडोर, जहां से बड़े पैमाने पर कामग़ारों का प्रवास होता है, उन्हें नीचे नक्शे में दिखाया गया है। उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे राज्यों को दशकों से ग्रामीण प्रवास के लिए जाना जाता है। लेकिन ओडिशा, मध्यप्रदेश, राजस्थान और हाल में उत्तर-पूर्व जैसे राज्य भी नए कॉरिडोर बन रहे हैं, अब यह हाथ से काम करने वाले लोगों की आपूर्ति के बड़े स्त्रोत् वाले राज्य हैं।

प्रवासी मज़दूर को सबसे ज़्यादा रोज़गार, निर्माण क्षेत्र (4 करोड़), घरेलू नौकर के तौर पर ( 2 करोड़), कपड़ा उद्योग में (एक करोड़ दस लाख), ईंट भट्टे (एक करोड़) में, यातायात, खदानों और कृषि में मिलता है। बीस सालों में देश के भीतर होने वाला प्रवास दोगुना हो गया है। 1991 में 22 करोड़ लोग देश के भीतर प्रवास करते थे, 2011 में यह आंकड़ा 45 करोड़ 40 लाख हो गया।

2011 की जनगणना के मुताबिक़, भारत में करीब 55 लाख लोगों ने अपने निवास स्थल देश के बाहर बताया है। यह कुल आबादी का करीब़ 0।44 फ़ीसदी हिस्सा है। इनमें से 23 लाख बांग्लादेश और 7 लाख पाकिस्तान से हैं। अफ़गानिस्तान से आने वाले प्रवासियों की संख्या 6,596 है।

इन आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में ऐसी आबादी जिसने अपना निवास स्थल देश के बाहर बताया है, उसका 55 फ़ीसदी हिस्सा बांग्लादेश और पाकिस्तान से है। जनगणना के आंकड़ों से हमें यह भी पता चलता है कि यह प्रवासी कितने वक़्त से भारत में रह रहे हैं। सबसे बड़ा प्रवास विभाजन के दौरान और विभाजन के बाद, फिर 1971 में बांग्लादेश की आजादी के युद्ध में हुआ।

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देश के भीतर प्रवासियों की आवाजाही

3) प्रवासियों के लिए कानूनी और संवैधानिक सुरक्षा

महामारी के दौरान जिस स्तर पर प्रवासियों को सड़कों पर आना पड़ा, उस पृष्ठभूमि में प्रवासी कामग़ारों की कानूनी सुरक्षा की बात करने का कोई मतलब नहीं है। लेकिन हमें इन कानूनों को जानना जरुरी है, ताकि हम पूछ सकें कि इनकी मौजदूगी के बाद भी प्रवासियों को अपने कानूनी और संवैधानिक अधिकारों को अपनाने का मौका क्यों नहीं मिला।

अपनी स्थापना के साथ ही ILO ने 181 कंवेशन और 188 रिकमेंडेशन को माना है, जिनके ज़रिए पूरी दुनिया में श्रम मानकों को सुधारा जा सके। इनमें 8 मुख्य श्रम मानक है। चार अहम वर्ग हैं: 1) संगठित होने और सामूहिक मोल-भाव करने का अधिकार 2) जबरदस्ती श्रम का खात्मा अधिकार 3) बालश्रम का खात्मा 4) पेशे और वैतनिक भेदभाव में का खात्मा।

प्रवासी कामग़ार, जो भारत के नागरिक हैं, उनके भारतीय संविधान के तहत कुछ मौलिक अधिकार हैं।

साथ में कामग़ारों को सुरक्षित रखने के लिए श्रम कानून हैं, जैसे न्यूनतम भत्ता कानून, 1948। चार श्रम न्यायालय भी मौजूद हैं, लेबर कमिश्नर भी हैं और एक सिस्टम है, जो सभी कर्मचारियों को कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है।

साथ में इंटर-स्टेट माइग्रेंट वर्कमेन (रेगुलेशन ऑफ एंप्लायमेंट एंड कंडीशन ऑफ सर्विस) एक्ट, 1979 है, जिसे 40 साल पहले बनाया गया था।

2012 में UNICEF द्वारा बनाई गई रिपोर्ट में कहा गया कि इस कानून में सुधार करने की जरूरत है:

इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कमैन (रेगुलेशन ऑफ एंप्लायमेंट एंड कंडीशन ऑफ सर्विस) एक्ट और इन खामियों पर दोबारा विचार करने की जरूरत है।

⦁    यह कानून केवल राज्य की सीमा पार करने वाले प्रवासियों पर लागू होता है, इसलिए प्रवासियों की बड़ी संख्या इसके दायरे से बाहर हो जाती है।

⦁    यह  अंपजीकृत कांट्रेक्टर्स और ढांचों की निगरानी नहीं करता।

⦁    यह शैक्षिक संस्थानों, बच्चों के लिए केंद्रों, शिशु गृहों और मज़दूरों के लिए मोबाइल मेडिकल यूनिटों पर शांत है।

⦁    यह अंतर्राज्यीय सहयोग के लिए कोई दिशा निर्देश नहीं देता।

⦁    इसमें केवल रोज़गार और प्रवासियों की सेवा की शर्तों को नियंत्रित किया जाता है, इसमें प्रवासियों की सामाजिक सुरक्षा, शहर में उनके अधिकार और बच्चों वा महिला प्रवासियों की विशेष दिक्कतों का जिक्र नहीं है।

- कानून के अहम प्रावधान, जैसे न्यूनतम मज़दूरी, बेदखल भत्ता, स्वास्थ्य सुविधाएं और सुरक्षित वेशभूषा लागू ही नहीं किए गए हैं।

4) बाहरी के तौर प्रवासी मज़दूर

आखिर प्रवासी मज़दूर अपने अधिकारों का उपयोग करने में नाकामयाब क्यों रहते हैं? यह सवाल सभी गरीब़ लोगों पर लागू होता है, क्योंकि कानूनी व्यवस्था बड़े पैमाने पर ताकतवर और अमीर लोगों के पक्ष में झुकी हुई है। लेकिन इस नागरिक क्रम में प्रवासी कामग़ार सबसे ज़्यादा असुरक्षित हैं।

प्रवासी मज़दूर पहचान आधारित आंदोलनों का निशाना बने हैं, यह देश के हर हिस्से में हो रहे हैं। उन्हें ‘’बाहरी’’ के तौर पर देखा जाता है और सभी तरह की सामाजिक और आर्थिक दिक्कतों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। महाराष्ट्र में शिवसेना ने कई बार प्रवासियों को निशाना बनाया है। उत्तर-पूर्व राज्यों और कश्मीर में भी प्रवासी मज़दूरों पर हमले किए गए।

इसके उलट केरल सरकार ने मज़दूरों के लिए 15,541 राहत कैंपों को बनाया है, यह किसी भी राज्य द्वारा बनाए गए सबसे ज्यादा राहत कैंप हैं।

केरल जैसे राज्य में जहां प्रवासी मज़दूरों से सम्मान के साथ व्यवहार किया जाता है, वहां भी उन्हें अतिथि कामग़ार कहकर बुलाया जाता है। उनसे संबंधित मामलों को ‘’डिपार्टमेंट ऑफ नॉन-रेसिडेंट केरलाइट अफेयर्स (NORKA)’’ देखता है। 

तो अब सवा उठता है कि क्या प्रवासी कामग़ार जब अपने ही देश के एक राज्य से दूसरे राज्य में जाता है, तो वो पूर्ण नागरिक नहीं है? क्या उन्हें अपने ही देश में बाहरी के तौर पर देखा जाना चाहिए?

प्रवास पर पहली टास्कफोर्स पार्था मुखोपाध्याय के नेतृतव् में शहरी विकास मंत्रालय ने 2015 में बनाई थी। उस रिपोर्ट में पैनल ने कहा था कि प्रवासी आबादी आर्थिक विकास में बड़ा योगदान देती है, उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना जरूरी है।18 सदस्यों वाले इस वर्किंग ग्रुप ने जनवरी 2017 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी।

रिपोर्ट की शुरुआत एक आदर्श स्थिति के कथन से होती है, जिसमें कहा गया कि प्रवासी मज़दूरों की सुरक्षा के लिए अलग से प्रावधान बनाने की जरूरत नहीं है। चाहे वह अंतर्राज्यीय प्रवास हो या किसी और तरह का, उन्हें सभी कामग़ारों के साथ मिलाना चाहिए और उस कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए, जिसके तहत सभी कामग़ारों को भत्ते और कम की बुनियादी स्थितियां मिलनी चाहिए।

5) प्रवासी मज़दूर और भारतीय संघवाद

जिस तरह सभी नागरिकों के कल्याण की जिम्मेदारी सरकार की होती है, वैसे ही प्रवासी मज़दूरों के भले की पहली ज़िम्मेदारी सरकार की है। लेकिन केंद्र ने बिना नोटिस के लॉकडाउन घोषित कर दिया, नतीज़तन प्रवासी मज़दूरों रातों-रात बेरोज़गार हो गए। उनके पास ना तो रहने के लिए घर बचा और ना ही खाना। इसके बाद केंद्र सरकार ने इन मज़दूरों को घर पहुंचाने की जिम्मेदारी राज्यों पर डालने की कोशिश की। इसके बाद जिस राज्य से मज़दूर आ रहे हैं और उनके गृह राज्य में टकराव की स्थिति पैदा हुईं।

महामारी से भारतीय संघवाद के गड्ढे सामने निकलकर सामने आ गए हैं। केंद्र और राज्य के बीच की लड़ाई में, संवैधानिक संकट के बीच में प्रवासी मज़दूर फंसे हुए थे और वे पीड़ित के तौर पर सामने आए।

अंतर्राज्यीय प्रवासी मज़दूरों को कांट्रेक्टर्स और नियोक्ताओं ने उनका पैसा नहीं दिया। केंद्र सरकार के नोटिस के बावजूद मकान मालिकों ने उन्हें किराये के कमरे से बाहर फेंक दिया। बाद में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के चलते उनसे वैकल्पिक निवास और खाने के इंतज़ाम भी छिन गया। यह व्यवस्था स्थानीय प्रशासन द्वारा की जा रही थी। एक बड़े हिस्से में ऐसा हो पाया, क्योंकि नियोक्ता और कांट्रेक्टर समेत मकान मालिक ‘स्थानीय’ थे और प्रवासी मज़दूर बाहरी।

खाने के सामान के साथ मदद करने वाले वॉलेंटियर्स ने भी मज़दूरों की अपने पैसे और आवास को वापस पाने के बजाए उनकी घर पहुंचने में ही मदद की। फिर ऐसे भी मामले थे, जहां नियोक्ता या कांट्रेक्टर्स ने अपने अंदर काम करने वाले मज़दूरों को लौटने नहीं दिया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि इन लोगों को सस्ते श्रम की जरूरत थी।  लेकिन मज़दूरों के पास वापस लड़ने की ताकत नहीं थी, क्योंकि ट्रेड यूनियन प्रवासी मज़दूरों की मदद करने में नाकामयाब रहीं।  कई बार ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि संगठिक कामग़ार स्थानीय थे। सांसद-विधायकों ने भी प्रवासी मज़दूरों की कोई मदद नहीं की, क्योंकि वे उनके मतदाता नहीं थे।

2019 के लोकसभा चुनाव में वोटर्स टर्नआउट 67।11 फ़ीसदी था। यह आंकड़ा 90 करोड़ मतदाताओं में 60 करोड़ बैठता है। 30 करोड़ लोग, जो वोट नहीं दे पाए, इनमें प्रवासी मज़दूरों का एक बड़ा हिस्सा है। 

प्रवासी मज़दूर दूर किए जा चुके वे नागरिक हैं, जिनके पास अपने अधिकारों को लागू करने का कोई ज़रिया नहीं है।

6) प्रवासी मज़दूरों का घरेलू अर्थव्यवस्था में योगदान

हम जानते हैं कि प्रवासी मज़दूर भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी हैं। लेकिन उनके अर्थव्यवस्था में योगदान पर कोई भरोसेमंद आंकड़े नहीं है। प्रवास और विकास की प्रोफेसर प्रिया देशिंगकर ने अपने एक सहयोगी के साथ मिलकर साक्ष्यजन्य अध्ययनों से कुछ आंकड़ों को इकट्ठा किया। इसमें पता चला कि सबसे ज़्यादा मजदूरों का इस्तेमाल कपड़ा उद्योग, निर्मा, खदान, ईंट भट्टे, लघु उद्योग (हीरा शोधन, चमड़ा उद्योग आदि), फ़सलों की बुवाई, गन्ना कटाई, रिक्शा चालन, मतस्य पालन, नमक उद्योग, घरेलू नौकर, सुरक्षा गार्ड, यौनकर्मी, छोटे होटेल और रोड किनारे चाय/होटल और रेहड़ी लगाने में होता है। इन अनुमानों पर आधारित गणना के आकलन के मुताबिक़ भारत की कुल जीडीपी में प्रवासियों का आर्थिक योगदान 10 फ़ीसदी के आसपास है।

बाद में हुए एक और अध्ययन से पता चलता है कि 2007-08 में भारत का आंतरिक रेमिटेंस करीब 7।485 बिलियन डॉलर था। इससे भारत की गरीबी और असमता का भान होता है, जिससे प्रवासी मज़दूरों की क्षमता कम होती है, क्योंकि पैसा सीधे उनके परिवारों में जाता है, जो भारत के सबसे गरीब़ इलाकों में बसे हैं।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक़, भारत में दो करोड़ से लेकर 9 करोड़ के बीच घरेलू नौकर हैं। इनमें से कई प्रवासी हैं। महिलाओं के काम को अकसर पहचाना नहीं जाता। ऊपर से कोई प्रवासी महिला हो तो ऐसा और भी ज्यादा होता है।

आज इस बात की बहुत ज़्यादा जरूरत है कि प्रवासी मज़दूरों के काम को पहचान मिले।

7) अवैध प्रवासियों के ऊपर विवाद

नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 पर हुए विवाद के मूल में अवैध प्रवासी ही थे। असम में 1979 से 1985 के बीच विदेशी लोगों के विरोध में हुए आंदोलन के बाद से ही अवैध प्रवासियों की पहचान, उन्हें हिरासत में लेना और उनका निष्काषन बीजेपी के मुख्य एजेंडे में रहा है। एक पूरा कैंपेन चलाया गया, जिसके ज़रिए अवैध प्रवासियों की तुलना आतंकियों से की गई, जिन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा माना गया। इस खतरे की बात असम में सबसे ज्यादा की गई।

इसके बाद 2003 में नागरिकता कानून में संशोधन हुए और अवैध प्रवासियों, यहां तक कि उनके बच्चों को भी भारत में नेचुरलाइज़ेशन से नागरिकता मिलना लगभग असंभव हो गया।

दूसरे शब्दों में कहें तो अगर कोई शख्स भारत में पैदा हुआ है और उसके माता-पिता में से कोई एक ‘अवैध प्रवासी’ है, तो उस शख्स को निष्काषित किया जा सकता है।

अवैध प्रवासियों के निष्कासन की मांग सबसे ज़्यादा असम और उत्तर-पूर्व के इलाकों में ही सबसे ज्यादा तेज थी। बांग्लादेश युद्ध के दौरान प्रवासियों की बाढ़ के बाद से ही यह मांग तेज होती गई। जितना अनुमान लगाया गया था, अवैध प्रवासियों की पहचान उससे ज़्यादा जटिल साबित हुई। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने 2013 से 2019 के बीच यह काम अपने हाथ में लिया।

असम के नागरिकों के लिए अंतिम ‘’नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजन्स फॉर असम’’ 31 अगस्त, 2019 को प्रकाशित किया गया। इसमें तीन करोड़ तीस लाख की आबादी में तीन करोड़ दस लाख नाम थे। असम एनआरसी से करीब 19 लाख आवेदकों को बाहर कर दिया गया। इनमें से पांच लाख बंगाली हिंदू हैं, 7 लाख मुस्लिम और बाकि बचे हुए लोग स्थानीय और भारत के शेष हिस्सों से आने वाले हिंदू थे।

नतीज़ा यह हुआ कि 19,06,657 लोगों को अंतिम रजिस्टर में शामिल नहीं किया गया और उन्हें ‘संदेहास्पद नागरिक’ मान लिया गया। इन लोगों को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए आखिरी उपाय फॉरेनर्सस ट्रिब्यूनल ही बचा। जिन लोगों को रजिस्टर में शामिल नहीं किया गया, उनमें एक पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद का परिवार और कारगिल युद्ध के वीर मोहम्मद सनाउल्लाह शामिल थे, जिन्हें नागरिक साबित न हो पाने के चलते जेल भेजा गया। कई ऐसे परिवार बिखर गए, जिनके कई सदस्यों की नागरिकता साबित नहीं हो पाई और उन्हें संदेहास्पद मानते हुए हिरासत में ले लिया गया।

दिसंबर, 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम पास होने के साथ ही ऐसे गैर मुस्लिम, जिन्हें संदेहास्पद नागरिक मान लिया गया था, वे खुद को अवैध प्रवासी बताते हुए एक उदारवादी प्रक्रिया से भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं। इस प्रक्रिया से अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने अपनी चिंता जाहिर की। जैसे, अरबपति और दानकार्यों में लगे अरबपति जॉर्ज सोरोस ने जनवरी, 2020 में दावोस बैठक में कहा,

‘राष्ट्रवाद पीछे जाने के बजाए, आगे बढ़ता जा रहा है। सबसे बड़ी और डरावनी खबर भारत से है, जहां लोकतांत्रिक तौर पर चुने हुए नरेंद्र मोदी भारत में एक हिंदू राष्ट्र बना रहे हैं, इसके लिए वे कश्मीर पर सजाओं को थोप रहे हैं और वे लाखों मुस्लिमों को उनकी नागरिकता छिनने का डर दिखा रहे हैं।’ 

संदेहास्पद मुस्लिम नागरिकों को अपनी नागरिकता पेश करने के लिए दस्तावेज़ पेश करने होंगे, नहीं तो उसे अवैध प्रवासी के तौर पर अनिश्चित वक्त के लिए हिरासत में लिया जा सकता है, फिर उसे खुद अपने लिए और अपने बच्चों के लिए भारतीय नागरिकता पाने की कोई उम्मीद ही नहीं बचेगी।

दूसरे शब्दों में कहें तो अवैध मुस्लिम प्रवासी राज्यविहीन हो सकते हैं, उनके पास किसी भी तरह की सुरक्षा नहीं होगी।

उत्तर-पूर्व में रहने वाले मूलनिवासी हिंदू या मुस्लिम, किसी भी तरह के अवैध प्रवासियों को अपने क्षेत्र में रहने नहीं देना चाहते, क्योंकि उनकी संख्या प्रवासियों की तुलना में लगातार कम हो रही है, इससे उनकी पहचान को खतरा है। नागरिकता संशोधन अधिनियम से देश के इस हिस्से को प्रवासियों की बाढ़ से कुछ सुरक्षा मिलती है। असम, त्रिपुरा, मेघालय भी अपने-अपने राज्यों में नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजन्स बनाए जाने की मांग कर रहे हैं।

लेकिन उत्तर-पूर्व में रहने वाले मुस्लिमों को डर है कि उन्हें नए कानून से दूर किया जा सकता है, क्योंकि जो दस्तावेज़ मांगे जा रहे हैं, उन्हें वे पेश नहीं कर पाएँगे।

8) भारत में प्रवासियों का दस्तावेजीकरण

कई प्रवासी मज़दूरों के पास अपने पहचान पत्र या कोई दस्तावेज़ नहीं हैं, जिनके ज़रिए उन्हें भारत में जारी कल्याणकारी सामाजिक नीतियों तक पहुंच मिल सके। किसी योजना का लाभ लेने के लिए, किसी खास दस्तावेज़ की मांग की वजह से भी भारत में बहुत सारे कामग़ार अधिकारों का हनन हुआ है।

स्वाभाविक तौर पर प्रवासी कामगारों की गिनती किए जाने की जरूरत है, चाहे वह वैध हों या अवैध। ऐसा उन तक सामाजिक कल्याण की योजनाओं को पहुंचाने और उन्हें कानूनी सुरक्षा दिए जाने के लिए जरूरी है।

मार्च, 2019 में करीब़ 108 अर्थशास्त्रियों और समाज विज्ञानियों ने सांस्थानिक स्वतंत्रता और सांख्यकीय संगठनों की अखंडता को दोबारा लागू करने की अपील की। इन विशेषज्ञों ने कहा कि पूरी दुनिया में कोई आंकड़े अगर सरकार के हासिल पर जरा भी शक करते हैं, तो उन्हें दोबारा बनाया जाना चाहिए या फिर सवालों के आधार पर उन्हें निरस्त कर देना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘सभी पेशेवर अर्थशास्त्रियों, सांख्यकीयविदों, स्वतंत्र शोधार्थियों को अपने राजनीतिक और वैचारिक झुकाव को परे रखकर एक साथ आकर प्रतिकूल आंकड़ों को दबाने का विरोध करना चाहिए।’

9) प्रवासी मज़दूरों को राहत और सुरक्षा देने के लिए कौन जिम्मेदार है?

प्रवासियों के नाम पर बड़े पैमाने की राशि का प्रबंधन तारीफ के लायक है। औद्योगिक संस्थानों, संगठनों और व्यक्तिगत आधार पर भी लोगों ने दिल खोलकर दान दिया। पहले महीने में रेस्टारेंट ऑनर्स एसोसिएशन ने 50,000 लोगों को खाना उपलब्ध कराया।

एक तरफ यह तारीफ़ की बात है कि बहुत सारे एनजीओ और लोग प्रवासी मज़दूरों को खाना खिला रहे थे, उन्हें रहने के लिए जगह उपलब्ध करा रहे थे। लेकिन फिर भी सवाल खड़ा रह जाता है कि इन प्रवासियों के नाम पर पीएम और राज्यों के मुख्यमंत्रियों द्वारा इकट्ठा किए गए पैसे का क्या हुआ? 

1948 से ही प्राइम मिनिस्टर नेशनल रिलीफ़ फंड (PMNRF) जारी था, लेकिन प्रधानमंत्री ने मार्च, 2020 में PM CARES फंड स्थापित कर लिया। इसमें रक्षामंत्री, गृहमंत्री और वित्तमंत्री पदेन ट्रस्टी हैं।

इस फंड को FCRA से छूट दी गई है, साथ में विदेशी अनुदान को इकट्ठा करने के लिए एक अलग खाता खोला गया है। इसके ज़रिए PM CARES फंड को देशी और विदेशी, लोगों और संगठनों से पैसा लेने में सक्षमता प्राप्त है। इस फंड के उद्देश्य निम्न हैं:

(1) जन स्वास्थ्य आपात से संबंधित किसी भी तरह की मदद और राहत का कार्य करना।

(2) किसी प्रभावित आबादी को वित्तीय मदद, पैसे का भुगतान या फिर ऐसे ही कोई मदद करना, जिसके बारे में बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज़ सही समझता हो।

(3) ऊपर उल्लेखित गतिविधियों से इतर कोई गतिविधि।

सवाल उठता है कि इस फंड का पैसा कहां गया? आखिर कितना पैसा प्रवासी कामग़ारों तक पहुंचा? PM CARES फंड कोई सार्वजनिक संस्था नहीं है, ना ही यह RTI के तहत आती है।

प्रवासी मज़दूरों को भत्ता नहीं दिया गया, ना ही उन्हें रहने की जगहों पर खाना उपलब्ध कराया गया। इन लोगों ने अकसर ही खुद के ट्रांसपोर्टेशन का पैसा भी भरा।

यह बेहद अहम है कि नागरिक समाज सरकार को ज़िम्मेदार और पारदर्शी बनाने के तरीके खोजे। ऐसा तब और भी अहम हो जाता है, जब सरकारी कर्मचारियों, यहां तक कि सेना के लोगों को भी अपने वेतन में से कटौती करवानी पड़ी हो। उन्हें उनका पैसा कहां गया, यह पूछने का पूरा अधिकार है।

10) आगे की चुनौतियां

अर्थव्यवस्था को दोबारा गति देने के लिए सरकार ने एक आर्थिक पैकेज की घोषणा की। सरकार श्रम कानून में ‘सुधार’ वाले अध्यादेश को भी लेकर आई। उत्पादनकर्ताओं और उद्यमियों के मुताबिक़, विकास की राह में ‘कामग़ारों की ज़्यादा सुरक्षा’ रुकावट बनती है।

उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार ने सभी श्रम कानूनों को निरस्त कर दिया, इसमें न्यूनतम वेतन कानून भी था। जिन कानूनों में ढील दी गई है, उनमें औद्योगिक विवाद सुलझाने वाले कानून, कर्मचारियों पेशेगत सुरक्षा, स्वास्थ्य और काम करने की दशाएं शामिल हैं। साथ में ट्रेड यूनियन, कांट्रेक्ट लेबर और प्रवासी मज़दूरों से जुड़े कानूनों में भी अगले तीन साल के लिए छूट दी गई है।

राजस्थान में सरकार ने नौकरी से निकासी की दर 100 से बढ़ाकर 300 कर दी है। वहीं ट्रेड यूनियनों के लिए सदस्यों की सीमा 15 फ़ीसदी से बढ़ाकर 30 फ़ीसदी कर दी गई है। एक दिन में काम के घंटों को 8 से बढ़ाकर 12 कर दिया गया है। दूसरे राज्यों, जैसे पंजाब, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में भी काम के घंटों में बढ़ोतरी की गई है।

ट्रेड यूनियनों की अब कोई कानूनी वैधता नहीं होगी, अपने सदस्य कर्मियों के स्थान पर हस्ताक्षरित कोई भी समझौता अब मान्य नहीं होगा। श्रम विभाग के पास अब कोई काम नहीं होगा, श्रम अधिकारियों के पास भी कोई क्षेत्राधिकार नहीं होगा।

अर्थव्यवस्था को उबारने के नाम पर जो कदम उठाए जा रहे हैं, दरअसल इनके ज़रिए श्रम-पूंजी संबंधों को दोबारा बनाया जा रहा है, राज्य के हस्तक्षेप की प्रवृत्ति और राज्य की भूमिका को फिर से परिभाषित किया जा रहा है। इसलिए जिसे भी मज़दूर, प्रवासियों या संगठित अधिकारों के पक्ष में हस्तक्षेप करने की दिलचस्पी है, उसे इन बुनियादी बदलावों के घरेलू और अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में राजनीतिक परिणाम समझने होंगे।

इन अधिकारों को लागू करवाने की दिशा में काम करने के लिए पहले समस्या की राजनीतिक समझ होना जरूरी है, साथ में एक ऐसे मजबूत राजनीतिक संगठन को बनाने की समझ होना जरूरी है, जो अधिकारों की लड़ाई में दबाव को सह सके। सोशल मीडिया राजनीतिक एकत्रीकरण, संगठन और कार्रवाई की जगह नहीं ले सकता। राजनीतिक एकत्रीकरण की शुरुआत स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक समझ से होनी चाहिए। राजनीतिक संस्थानों और संगठनों को अवैध ठहराए जाने के चलते अब थ्योरी और व्यवहार की जरूरत वाली पुरानी कहावत प्रासंगिक हो गई है।

यहां कुछ वे राजनीतिक सवाल हैं, जिन्हें तुरंत हल किए जाने की जरूरत है:

1)    अंतर्राज्यीय प्रवासी कामग़ारों से, संविधान और श्रम कानूनों के ज़रिए अधिकार प्राप्त एक पूर्ण नागरिक की तरह व्यवहार कैसे किया जा सकता है?

2)    प्रवासियों की समस्या हल करने में केंद्र और राज्य सरकारों समेत नागरिकों की क्या भूमिका होनी चाहिए?

3)    एक वैश्विक दुनिया में अवैध प्रवासियों के क्या अधिकार होने चाहिए?

4)    क्या कश्मीर या पूर्वोत्तर जैसे हिस्सों के लिए, जहां स्थानीय लोगों को अपनी संस्कृति, धर्म और पहचान बचाने की जरूरत महसूस होती है, वहां के लिए कुछ विशेष प्रावधान किए जाने संभव हैं? 

11) सुरक्षित प्रवास

एक तरफ हम गहरे मुद्दों पर विमर्श कर रहे हैं, पर दूसरी तरफ प्रवास को भविष्य में सुरक्षित बनाए जाने की जरूरत है। सुरक्षित प्रवास का विचार उस पृष्ठभूमि में दुनिया के सामने आया है, जब अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के पार लोगों की तस्करी हो रही है। इस अवधारणा के मूल में प्रवासियों के अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करवाए जाने की कोशिश है, भले ही यह प्रवासी वैध हों या अवैध।

कुछ राज्यों ने प्रवासियों के लिए मॉनिटरिंग सेल्स बनाई हैं और वे स्थानीय दूतावासों के संपर्क में हैं। भारतीय दूतावासों ने कई बार मुश्किल में फंसे प्रवासियों की मदद की है। इस भूमिका को और भी मजबूत बनाया जा सकता है। सुरक्षित प्रवास की यह अवधारणा भारत में अवैध प्रवासियों की समस्या हो हल करने के लिए जरूरी है।

12) देश के भीतर सुरक्षित प्रवास

अपने गांव को छोड़कर शहर जाने वाले प्रवासियों के स्वपंजीकरण की योजना में स्थानीय स्वशासन संस्थान बहुत अहम भूमिका अदा कर सकते हैं। लेकिन एक राज्य से दूसरे राज्य के बीच सुरक्षित प्रवास को सुनिश्चित करने की भी बहुत ज्यादा जरूरत है। प्रवास पर कार्यकारी समूह ने 2017 में निम्नलिखित सुझाव दिए थे:

(1)    सामाजिक सुरक्षा

राज्यों को (अ) अंसगठित कामग़ार सामाजिक सुरक्षा बोर्डों का गठन करना चाहिए, (ब) कामग़ारों के पंजीकरण के लिए प्रभावी और साधारण प्रक्रिया बनानी चाहिए, जिसमें आत्मपंजीकरण की प्रक्रिया हो, जैसे मोबाइल एसएमएस के ज़रिए। (स) रजिस्ट्रेशन रिकॉर्ड के डिजिटाइज़ेशन से अंतर्राज्य यातायात में सुरक्षा और फायदों को हस्तांतरित किया जा सके।

(2)    स्व-पंजीकरण

प्रवासियों को स्वपंजीकरण के ज़रिए को वहनीय स्वास्थ्य सुविधाएं और सामाजिक सुरक्षाएं मिलनी चाहिए। इन सेवाओं पर उनके रोज़गार के दर्जे से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। इन फायदों में संबंधित कामग़ार या राज्य सरकार द्वारा अतिरिक्त भुगतान किया जा सकता है।

(3)    खाद्यान्न सुरक्षा

जो प्रवासी मज़दूर, खासकर जो कम वक्त के लिए अपने घरों से प्रवास करते हैं या ऐसे प्रवासी जो बिना अपने परिवारों के प्रवास करते हैं, उन्हें सार्वजनकि वितरण व्यवस्था तक पहुंच से हाथ धोना पड़ता है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 में दिए गए अधिकारों में यह बड़ा रोढ़ा है। फायदा लेने वाले लोगों की सूची के डिजिटलकरण या कुछ मामलों में उन्हें आधार कार्ड से जोड़ने से पीडीएस के फायदों में दो तरह से संवहन किया जा सकता है (अ) दिए जाने वाले फायदों में बदलाव ताकि किसी व्यक्ति विशेष को अपने परिवार से अलग होने की दशा में भी लाभ मिल सके। (ब) ऊचित मूल्य की दुकानों में मिलने वाले फायदों का संवहन।

(4)    स्वास्थ्य

स्वास्थ्यसेवाओं की संवहनीयता मुख्यत: RSBY (राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना) और ESI (कर्मचारी राज्य बीमा) पर निर्भर करता है। इसमें मुख्य ध्यान कांट्रेक्ट वर्कर्स, ESI के अंतर्गत आनेवाले असंगठित कामग़ारों और UWSSA (संगठित कामग़ार सामाजिक सुरक्षा योजना) योजना पर किया जा सकता है। हालांकि इन योजनाओं को लागू करने और इनके बुनिया फायदों को पहुंचान और कामग़ारों द्वारा अतिरिक्त भुगतान से इनकी सुविधाओं के इजाफ़े जैसे प्रावधानों में अभी काफ़ी अंतर है।

कार्यकारी समूह ने यह भी सुझाव दिया कि ‘इंटीग्रेटेड चाइल्ट डिवेल्पमेंट सर्विस- आंगनवाड़ी (ICDS-AW)’ और ऑक्सीलरी नर्स मिडवाइफ़ (ANMs) को अपनी सुविधाओं को प्रवासी महिलाओं और बच्चों तक विस्तार देने के लिए कहा जाए।

(5) शिक्षा

कार्यकारी समूह ने यह सुझाव भी दिया कि मानव संसाधन मंत्रालय को राज्यों को प्रवासियों के बच्चों को  सर्व सिक्षा अभियान की वार्षिक कार्य योजना जैसे  शिक्षा गारंटी और वैकल्पिक एवम् सृजनात्मक शिक्षा योजना का हिस्सा भी बनाना चाहिए। 

इसके तहत आवासीय छात्रावासों और परिवार द्वारा चयनित  सेवाप्रदाता को मदद दी जा सकती है। कुछ राज्यों में ऐसा होता भी है। ऐसा करने के दौरान पर्याप्त मात्रा में शिशु सुरक्षा, बुनियादी सुविधाएं देनी चाहिए। साथ में बच्चों से सेवा प्रदाताओं का अनुपात भी अच्छा रखना होगा।

(6) कौशल और रोज़गार

कार्यकारी समूह ने अपने सुझावों में कहा कि प्रवासियों के पास शहरी क्षेत्रों में कौशल कार्यक्रमों तक अबाध्य पहुंच है। जिन इलाकों में मूलनिवासी संबंधी बाध्यताएं हों, वहां उन्हें दूर करना चाहिए। सरकार के अलग अलग मंत्रालयों को यह तय करना चाहिए कि केंद्र सरकार के बजट द्वारा समर्थित कौशल कार्यक्रमों में मूलनिवासी संबंधी बाधाएं ना हों।

(7) वित्तीय समावेशन

कार्यकारी समूह ने अपने सुझाव में कहा कि संचार मंत्रालय को  डिपार्टमेंट ऑफ पोस्ट के इलेक्ट्रॉनिक मनी ऑर्डर उत्पाद पर पुनर्विचार करना चाहिए, इसे निजी (अनौपचारिक) सेवादाताओं को हस्तांतरित कर देना चाहिए। ताकि यह प्रवासी रेमिटेंस हस्तांतरण के लिए एक प्रतिस्पर्धी  विकल्प हो सके।

13)  लेबर कॉन्ट्रैक्टर्स और प्लेसमेंट एजेंसीज पर नियंत्रण और उनकी मॉनिटरिंग

लेबर कॉन्ट्रैक्टर्स और प्लेसमेंट एजेंसीज पर अब तक लेबर कमिश्नर, कोर्ट और कुछ एनजीओ ही नज़र रखते आ रहे हैं। इसे स्थानीय स्तर पर करना होगा। लेकिन बढ़ते निजीकरण के साथ इन कॉन्ट्रैक्टर्स के और ज्यादा ताकतवर होने का अंदाजा है।

श्रम कानूनों की ताकत खत्म कर दी गई है। कोर्ट अब अप्रभावी हैं। ट्रेड यूनियन आंदोलन कमज़ोर हो चुका है। एनजीओ शायद ही कभी राज्य को चुनौती देते हों और कॉन्ट्रैक्टर्स की बढ़ती ताकत को रोकने में प्रभावी नहीं हो सकते। लेकिन एनजीओ प्लेसमेंट एजेंसियों द्वारा किए जाने वाले शोषण को पुलिस की सहायता से रोक सकते हैं।

आज जनजागरण कार्यक्रम की जरूरत है। ताकि लोगों को प्रवासियों के अधिकारों के प्रति ज्यादा संवेदनशील बनाया जा सके।

14) राज्य संस्थानों के साथ व्यवहार

हमें कानूनी और राजनीतिक, दोनों तरह की कल्पनाओं की जरूरत है, जिनके जरिए  हम राज्य संस्थाओं से प्रवासी मजदूरों के अधिकारों को लागू करवा सकें। वो भी ऐसे वक़्त में जब श्रम पैमानों को कमज़ोर किया जा रहा है।

जा स्टेट की कार्यप्रणाली को समझने और सार्वजनिक संस्थानों जैसे कोर्ट और कमीशन के साथ व्यवहार करने की जरूरत है, ताकि प्रवासी कामगारों के अधिकारों को लागू करने के लिए लोकतांत्रिक जगह को बचाए रखा जा सके।

लेकिन व्यक्तिगत अधिकारों या छोटे समूह के अधिकारों के हनन की दशा में कोर्ट और कमीशन सामान्य तौर पर प्रभावी होते हैं। लेकिन वे लाखों लोगों के अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में प्रभावी नहीं हो सकते।

15) संगठन और सीधी कार्रवाई

पारंपरिक ट्रेड यूनियनों के लिए पलायन कर रहे प्रवासी मजदूरों को इकट्ठा करना बहुत मुश्किल है। लेकिन इस चुनौती को पूरा करना होगा। आख़िर अपनी जिंदगी और आजीविका, अपने आत्म सम्मान के लिए खुद प्रवासी मजदूरों को एक होना होगा।

 इस बात का खतरा हमेशा बना होता है अगर ट्रेड यूनियन जैसे संगठन सामने नहीं आयेंगे, तो मजदूर हिंसक तरीके से अपने अधिकारों की मनवाएंगे।

16) अपने हाल पर  छोड़ दिए जा चुके प्रवासियों से नागरिक तक का सफ़र

अगर प्रवासी मजदूर राजनीतिक तौर पर प्रासंगिक हो जाते हैं तो उनकी आवाज सुनी जाएगी। ऐसा कोई तरीका होना चाहिए, जिससे प्रवासी मजदूर वोट दे सकें। चाहे वह उनके गृह राज्य में हो या फिर जिस राज्य में यह लोग निवास कर रहे हों, वहां मतदान कर सकें।

ज्यादा जवाबदेही और पारदर्शिता की लड़ाई में कोर्ट और कमीशन, जैसे राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग  अहम भूमिका अदा कर सकते हैं।

जरूरत इस बात की है कि अब केंद्र सरकार को संबोधित करते हुए मांगों का एक चार्टर बनाया जाए, एक दूसरा चार्टर राज्यों के लिए बनाया जाए। एनजीओ और ट्रेड यूनियनों के लिए भी मांगों का चार्टर बनाया जाए। अब राजनीतिक पार्टियों से भी प्रवासी मजदूरों पर उनकी स्थिति साफ़ करवाने को कहा जाए। और मांग रखी जाए कि यह चीजें उनके चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा बनें।

तभी प्रवासी मज़दूर एक नागरिक के तौर पर अपने अधिकारों के लिए दावा कर पाएंगे।

नंदिता हक्सर मानवाधिकार वकील और लेखिका हैं।

मूल आलेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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