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मोदी सरकार और तथाकथित मुफ़्त की रेवड़ियां

पहले नरेंद्र मोदी ने युवाओं को ‘रेवड़ी संस्कृति’ के पीछे भागने के ख़िलाफ़ आगाह किया। उसके बाद भाजपा के एक नेता जो पेशे से वकील है उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगा दी कि ‘मुफ़्त की रेवड़ियां’ बांटने पर रोक लगायी जाए।
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हमारी आंखों के सामने एक बेढ़ब स्वांग चल रहा है। जो मोदी सरकार, इजारेदारों को लाखों करोड़ रूपये की कर रियायतों पर रियायतें देती रही है, अब विडंबनापूर्ण तरीक़े से उसके अपने ही शब्दों में ‘मुफ्त की रेवड़ियों’ का यानी आबादी के दूसरे तबक़ों को सब्सिडी दिए जाने का विरोध कर रही है। पहले नरेंद्र मोदी ने युवाओं को ‘रेवड़ी संस्कृति’ के पीछे भागने के ख़िलाफ़ आगाह किया। उसके बाद भाजपा के एक नेता जो पेशे वकील है उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगा दी कि ‘मुफ़्त की रेवड़ियां’ बांटने पर रोक लगायी जाए।

सुप्रीम कोर्ट का इसमें घसीटा जाना अलोकतांत्रिक

अब यह तो रहस्य ही है सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में क्यों घसीटा गया है? अगर कोई राजनीतिक पार्टियां ऐसी ‘मुफ़्त की रेवड़ियां’ देती हैं जो ‘विकास’ का रास्ता रोकती हैं तो भी इस मामले को मतदाताओं पर ही छोड़ा जाना चाहिए। वे अगर चाहेंगे तो ऐसी ग़लती करने वाली राजनीतिक पार्टियों को चुनाव के समय पर उनकी ग़लती की सज़ा दे देंगे। और अगर मतदाता इन पार्टियों की इस ग़लती को अनदेखा करते भी हैं तब भी भाजपा इसे चुनाव में अपना मुद्दा बना सकती है। सुप्रीम कोर्ट तो इस सब में कहीं आता ही नहीं है। वास्तव में इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का कोई भी हस्तक्षेप, न सिर्फ विधायिका के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण होगा और यह न सिर्फ़ देश की संघीय व्यवस्था के दायरे में राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण होगा बल्कि सबसे बढक़र यह मतदाताओं के विशेषाधिकार पर हमला होगा। इसलिए, हम किसी भी तरह से क्यों न देखें, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का कोई भी हस्तक्षेप बुनियादी तरीक़े से लोकतंत्र-विरोधी होगा।

वास्तव में सुप्रीम कोर्ट खुद इस तरह का हस्तक्षेप करने से, ऐसे मामलों में भी बचता ही रहा है, जहां उसके हस्तपेक्ष करने के लिए काफी प्रभावी कारण भी रहे हैं। उल्लेखनीय तरीके से विधायिका के क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं करने के लिए ही तो उसने सार्वजनिक क्षेत्र की इकाईयों का निजीकरण रोकने को इस तथ्य के बावजूद इंकार कर दिया था कि इस तरह का निजीकरण हमारे संविधान में स्थापित राज्य की नीति के निर्देशक सिद्घांतों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करता है। इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट लंबे अर्से से ऐसा रुख अपनाता आ रहा है यहां तक कि बाल्को के मामले में दिए फैसले के समय से ही ऐसा करता रहा है। इसलिए, यह और भी हैरान करने वाली बात है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में कूद पड़ा है। अगर मोदी सरकार, जो इसके लिए उत्सुक हो सकती है कि वह मेहनतकशों को दी जाने वाली सब्सिडी बंद करती नजर नहीं आये, अपनी ओर से सुप्रीम कोर्ट से ही यह काम करना चाहती हो, तब तो इस योजना के मामले में बाद में सामने आया घटनाक्रम समझ पाना और मुश्किल है।

कल्याणकारी ख़र्च बनाम मुफ़्त की रेवड़ियां

अगर मनमाने वर्गीकरण की बात छोड़ दी जाए तो सैद्घांतिक रूप से एक ओर कल्याणकारी ख़र्चों व उत्पादक सब्सिडियों और दूसरी ओर ‘मुफ़्त की रेवड़ियों’ के बीच किसी भी विभेद में जो तार्किक अंतर्विरोध निहित है, वह इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणियों से भी सामने आता है। वह कहते हैं कि कल्याणकारी ख़र्चों और मुफ़्त की रेवड़ियों में अंतर होता है, लेकिन इसका कोई इशारा तक नहीं करते हैं कि दोनों में क्या अंतर होता है? वह ‘बेतुकी या अतार्किक मुफ़्त की रेवड़ियां’ ख़त्म करने की बात कहते हैं, लेकिन चूंकि वह ऐसा कोई स्वतंत्र मानदंड पेश ही नहीं करते हैं जिससे मुफ़्त की रेवड़ियों में ‘तार्किक’ और ‘अतार्किक’ का भेद किया जा सकता हो, यह तो पुनरुक्ति का ही मामला हो जाता है। ऐसे स्वतंत्र मानदंड के बिना तो आप, जिस भी कथित मुफ़्त की रेवड़ी को ख़त्म करना चाहते हों, अतार्किक क़रार देकर ख़त्म कर सकते हैं। और अंतत: वह इसके लिए परामर्श देने के लिए एक समिति गठित करने की बात करते हैं कि मुफ़्त की रेवड़ियों के मामले में क्या किया जाना चाहिए।

लेकिन, ऐसी जो भी कमेटी गठित की जाती है उससे इजारेदारों की दी जाने वाली भारी मुफ़्त की रेवडिय़ों की, कम से कम पड़ताल करने के लिए तो कहा ही जाना चाहिए। हमारे देश में, जहां कोई संपदा कर नहीं लगाया गया है और जहां अमीरों से ख़ासकर कॉरपोरेट करों के जरिए ही कर की वसूली की जाती है क्योंकि निजी आय कर से तो वे बड़ी आसानी से बच सकते हैं क्योंकि वे अपने उपभोग को तथा अपनी आय को, अपनी मिल्कियत वाले उद्यमों की लागत के रूप में दिखा देते हैं। ऐसी सूरत में कॉरपोरेट करों में रियायतें देना औचित्य की सभी परिभाषाओं के ख़िलाफ़ है। और यह दलील कि इस तरह की कर रियायतों से निवेश को उत्प्रेरण मिलता है, एक पूरी तरह से स्वार्थपूर्ण दावे का ही मामला है, जिसके पीछे न तो कोई सैद्घांतिक तर्क है और न ही जिसके पक्ष में कोई व्यवहारगत साक्ष्य हैं। इसलिए, इस तरह की कर रियायतों की तरफ़ से आंखें मूंदे रखकर, मुफ़्त की रेवड़ियों की बात करना तर्क को ही ठुकराना है।

लेकिन, सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित की जाने वाली कमेटी से पूंजीपतियों को दी जाने वाली कर रियायतों की पड़ताल करने के लिए तो नहीं ही कहा जाएगा। और इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए कि ऐसे पर्याप्त सेवानिवृत्त अर्थशास्त्री तथा नौकरशाह मिल जाएंगे जो इस तरह की कमेटी में काम करने के लिए और स्लॉट मशीन की भूमिका अदा करने के लिए तैयार होंगे यानी सिक्का डालो और मन के मुताबिक रिपोर्ट हासिल कर लो! तीन क्रूर कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसान आंदोलन के समय पर भी क्या ठीक ऐसी ही कमेटी गठित नहीं की गयी थी? उस कमेटी का गठन ही ऐसा था कि वह उक्त मामले में मोदी सरकार के रुख का ही अनुमोदन करने जा रही थी। मुश्किल थी तो यही कि किसानों को यह मंज़ूर नहीं था।

ख़ासकर किसानों की सब्सिडी पर है निशाना

वास्तव में हम अब उसी फ़िल्म को दोहराते हुए देख रहे हैं। मोदी सरकार की शिक्षा या स्वास्थ्य संबंधी सब्सिडी में कटौती सुझाने की तो हिम्मत होगी नहीं। इसलिए, मुफ़्त की रेवड़ियों के ख़िलाफ़ उसके तीरों का निशाना मुख्यत: उत्पादक सब्सिडी पर होगा, खासतौर पर लघु उत्पादकों, विशेष रूप से किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी पर। जैसाकि खुद मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी में इशारा किया गया है, कल्याणकारी ख़र्चों और ‘मुफ़्त की रेवड़ियों’ के बीच एक विभाजक रेखा खींच दी जाएगी, जिसमें मुख्य रूप से किसानों को लागत सामग्री पर दी जाने वाली सब्सिडी को ही मुफ़्त की रेवड़ियों की श्रेणी में रखा जाएगा। लेकिन, ‘कल्याणकारी ख़र्चों’ और मुफ़्त की रेवड़ियों’ के बीच का यह विभेद तो पूरी तरह से अवास्तविक है क्योंकि किसानी अर्थव्यवस्था तो एक एकीकृत अर्थव्यवस्था होती है जिसमें उत्पादन तथा उपभोग पर किए जाने वाले ख़र्चे, क़रीब-करीब पूरी तरह एक-दूसरे से जुड़े हुए होते हैं। मिसाल के तौर पर अगर किसान को बिजली के लिए ज़्यादा ख़र्च करना पड़ता है तो ऐन मुमकिन है कि उसे अपने बच्चे की पढ़ाई छुड़वानी पड़ जाए। लेकिन, जाहिर है कि जबर्दस्ती इन दोनों के बीच अंतर किया जाएगा और मुफ़्त की रेवड़ियां बंद करने के नाम पर किसानों को लागत सामग्री पर दी जाने वाली सब्सिडी में भारी कटौती की जाने वाली है। वास्तव में बिजली सब्सिडी को तो ‘मुफ़्त की रेवड़ी’ बताया भी जा चुका है। इसलिए, मुफ़्त की रेवड़ियों के ख़िलाफ़ इस तमाम शोर-शराबे का कुल मिलाकर नतीजा यही होगा कि खेती को और बुरी तरह से निचोड़ा जाएगा और उसेे पहले से ज़्यादा ग़ैर-लाभकर और अंतत: कॉरपोरेटों के अतिक्रमण के लिए और ज़्यादा वेध्य बनाया जाएगा। यह तीन कृषि क़ानूनों वाला ही एजेंडा है। बस इस बार उस एजेंडे को उससे अलग आवरण में पेश किया जा रहा है।

नव-उदारवाद का तो हमेशा से यही एजेंडा रहा है कि लघु उत्पादन, ख़ासतौर पर किसानी खेती के कॉरपोरेट अधिग्रहण को सुगम बनाया जाए यानी पूंजी के आदिम संचय की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाए और भारतीय अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से, विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं की मांगों का ताबेदार बना दिया जाए। और इसका अर्थ होता है, देश की खाद्य सुरक्षा को कमज़ोर कर दिया जाए। इस तरह के फ़ैसले के कुपरिणाम हाल ही में अफ़्रीक़ा के मामले में खुलकर सामने आए हैं, जहां रूस तथा यूक्रेन से अनाज के आयात रुकने से, सत्यानाशी अकाल का ख़तरा मुंह बाए सामने आ खड़ा हुआ था। लेकिन, मौजूदा सरकार में इसकी परवाह करने वाला है ही कौन?

मुफ़्त की रेवड़ियों की यह रट, मोदी सरकार की नव-उदारवाद के लिए ताज़ातरीन मामले हैं। इस सरकार को राजकोषीय घाटे के लक्ष्य हर क़ीमत पर पूरे करने हैं और बड़े पूंजीपतियों को कर रियायतें देने के साथ पूरे करने हैं। दूसरी ओर, मुद्रास्फीति की ऊंची दर के मौजूदा वातावरण में चूंकि अप्रत्यक्ष करों का और बढ़ाया जाना व्यावहारिक नहीं रहा है, इसलिए इस सरकार के पास एक ही रास्ता रह जाता है कि ख़र्चों में कटौती कर दी जाए। और इसको लगता है कि ख़र्चों में कटौती के लिए, सबसे पहले कुल्हाड़ी कृषि सब्सिडी पर ही चलायी जा सकती है। इस तरह की सब्सिडी में कटौती से एक साथ दो-दो निशाने सध जाएंगे। एक तो इस तरह राजकोषीय लक्ष्यों को पूरा करने के जरिए अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को खुश रखा सकता है और दूसरे इस तरह से खेती को बड़ी पूंजी और एग्री-बिजनस के अतिक्रमण के लिए कहीं ज्यादा वेध्य बनाया जा सकता है।

जनतंत्रविरोधी और खुल्लमखुल्ला शोषक वर्गपरस्त

वास्तव में यह समूचा प्रकरण बहुत ही स्पष्टता के साथ, नव-उदारवाद की दो बुनियादी विशेषताओं को उजागर करता है। पहली है, इसका जन-तंत्रविरोधी संवेग। नव-उदारवाद, जनता की संप्रभुता की जगह, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की संप्रभुता को स्थापित करता है। देश को, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की मुहंमांगी नीतियां अपनानी होती हैं, भले ही ये नीतियां जनता के हितों को चोट पहुंचाती हों। जाहिर है कि ऐसा तो जनता के पीठ पीछे फैसले लेने के जरिए ही किया जा सकता है। मुफ़्त की रेवड़ियों के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट को बीच में खींचने की यह पूरी की पूरी मेहनत जनता के पीठ पीछे फ़ैसले करने का रास्ता बनाने की कोशिश के सिवा और कुछ नहीं है। इसका मक़सद यही है कि जनता की रज़ामंदी हासिल करने की ज़रूरत से छुट्टी पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के रूप में लोगों के लिए विकल्पहीनता की स्थिति थोप दी जाए। सरकार को भी पता है कि मुफ़्त की रेवड़ियां बांटना बंद करने के नाम पर वह उसे भी छीन ले क्योंकि इसके लिए लोगों की रज़ामंदी तो वह हासिल कर नहीं सकती है कि जो भी थोड़ी बहुत मदद उन्हें मिल रही है उसे भी छीन लिया जाए। दूसरी विशेषता है, उसका अपने वर्गीय चरित्र का खुल्लमखुल्ला प्रदर्शन। नव-उदारवाद के हिसाब से चुनाव के लिए दो ही विकल्प हैं: जनता को मुफ़्त की रेवड़ियां बांटी जाएं यानी मेहनतकशों के पक्ष में हस्तांतरण किए जाएं या फिर ‘विकास’ हो, जो उसकी नज़र में बड़े पूंजीपतियों के हक़ में मुफ़्त की रेवड़ियां बांटे जाने यानी बड़े पूंजीपतियों के हक़ में हस्तांतरण करने का समानार्थी है। और नव-उदारवाद इनमें से बाद वाले विकल्प के लिए जोर लगाता है और इसके लिए शासन की एक-एक संस्था का इस्तेमाल करता है।

नरेंद्र मोदी को उनके भक्त एक हिम्मतवर नेता बताते हैं। लेकिन, हिम्मतीपन के उनके दिखावे के पीछे, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के फ़रमानों के आगे पूर्ण समर्पण की सच्चाई छुपी हुई है। लेकिन, तथाकथित मुफ़्त की रेवड़ियां यानी मेहनतकश जनता के पक्ष में हस्तांतरणों को बंद करने की दिशा में सरकार का हर एक क़दम उनके प्रतिरोध को ही सामने लाएगा। ऐसे में किसान आंदोलन जिसकी शानदार मिसाल है।

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