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एनआरसी+सीएबी : संघ परिवार का एक और विभाजनकारी हथियार

एनआरसी का स्वांग गंभीर आर्थिक संकट से ध्यान हटाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, जिस संकट को मोदी सरकार ने देश में पैदा किया है।
NRC

जो मुद्दा हमेशा से धुर दक्षिणपंथी ताक़तों की बेबुनियाद और भ्रमित करने वाली शिकायत का सार रहा है वह आज़ मुख्यधारा का मुद्दा बनने की प्रक्रिया में है - एक देशव्यापी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी की मांग। गृह मंत्री अमित शाह खुद इस आरोप रूपी मांग का नेतृत्व कर रहे हैं और देशव्यापी एनआरसी की आवश्यकता के बारे में बखान करते हुए कह रहे हैं कि इसे लागू करने के लिए उनकी सरकार को साल के शुरू में हुए लोकसभा चुनाव में जनादेश मिला है। इससे पहले भी उन्होंने बार-बार कहा था कि एनआरसी प्रक्रिया के माध्यम से विदेशियों को पश्चिम बंगाल से बाहर निकाल दिया जाएगा।

लेकिन असम में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को इस प्रक्रिया में जो नाकामयाबी मिली है और जिसके तहत 19 लाख लोग विदेशी करार दिए गए हैं उस सूची में कथित रूप से कई लाख हिंदुओं के नाम भी शामिल हैं, उससे बचने के लिए शाह ने एनआरसी के साथ नागरिकता (संशोधन) विधेयक [Citizenship (Amendment) Bill- CAB] को भी जोड़ दिया है। सनद रहे कि नागरिकता (संशोधन) विधेयक (CAB) को पिछली मोदी सरकार द्वारा लाया गया था, लेकिन यह अपनी ही मौत मर गया था क्योंकि यह राज्यसभा में पारित नहीं हो सका था और लोकसभा का कार्यकाल समाप्त हो गया था। यह नागरिकता अधिनियम, 1955 के उस अधिनियम को संशोधित करने के लिए पेश किया जा रहा है जिसमें भारत के नागरिक होने के मायने या दिशानिर्देश हैं।

नागरिकता (संशोधन) विधेयक (CAB) को एनआरसी से लिंक क्यों करना है? क्योंकि यह सीएबी है जो निर्दिष्ट करता है कि तीन पड़ोसी देशों (अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान) से मुसलमानों को छोड़कर सभी धर्मों के अवैध प्रवासियों को छह साल रहने (पहले यह 11 वर्ष का प्रावधान था) के बाद भारत के नागरिक बनने की अनुमति दी जा सकती है। यह खुले तौर पर संविधान विरोधी कानून है, जो एक विशेष धार्मिक समुदाय के लोगों के साथ भेदभाव करता है और इस प्रकार अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है जो संविधान के तहत समानता के अधिकार की गारंटी देता है। गृह मंत्री इस बात पर जोर दे रहे हैं कि इसे पास करवाने का जनादेश उनके पास है।

शाह के लिए, और संघ परिवार के लिए, एनआरसी. और सीएबी के बीच यह संबंध आवश्यक है। यह इस हद तक चला जाएगा कि दूसरे देशों के प्रवासियों को केवल यह दिखाना होगा कि वे मुस्लिम नहीं हैं, और वे भारत में 6 से अधिक साल से रह रहे हैं, और वे भारत के नागरिक बन जाएंगे। दूसरी ओर, मुसलमानों को यह दिखाना होगा कि वे भारत में 11 वर्षों से निवास कर रहे हैं।

जब सीएबी की चर्चा होती है तो कुछ बातें लगभग भुला दी जाती है। पहली कि मोदी सरकार ने पहले ही इस भेदभाव को और मुखर करने के लिए अवैध आप्रवासियों से संबंधित अन्य कानूनों में संशोधन कर दिया है! जो  विदेशी अधिनियम, 1946 और पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920 भारत के भीतर विदेशियों के प्रवेश, आने और जाने को विनियमित करने के लिए केंद्र सरकार को सशक्त बनाता है। 2015 और 2016 में, केंद्र सरकार ने 1946 और 1920 अधिनियमों के प्रावधानों में अवैध प्रवासियों के कुछ समूहों को छूट देते हुए दो अधिसूचनाएँ जारी कीं थी। ये समूह अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में रह रहे हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों के हैं, जो 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले भारत आए हैं। इसका स्पष्ट मतलब यह है कि वैध दस्तावेजों के बिना भारत इन समूहों से संबंधित अवैध प्रवासियों को निर्वासित नहीं किया जाएगा और न ही जेल में रखा जाएगा।

सीएबी एक कदम और आगे बढ़ाते हुए इन तीनों देशों के अवैध प्रवासियों के छह धार्मिक समुदायों (मुस्लिमों को छोड़कर) से संबंधित लोगों को नागरिकता प्रदान करने के वादा करता है।

अग़र एक बार यह हो गया तो किसी भी एनआरसी में (जैसे कि असम में हुआ) हिंदुओं को अवैध प्रवासियों की सूची में शामिल नही किया जाएगा और इसलिए उन्हे निर्वासन का सामना भी नहीं करना पड़ेगा।

एनआरसी का गान

शाह द्वारा शह दिए जाने के बाद से कम से कम 10 राज्यों के भाजपा नेताओं (मुख्यमंत्रियों सहित) ने तुरंत अपने-अपने राज्यों में एनआरसी की मांग करना शुरू कर दिया है। इनमें दिल्ली के भाजपा अध्यक्ष, कर्नाटक के भाजपा गृह मंत्री बोम्मई, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (जहाँ अभी से ही भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने राज्य की पुलिस के माध्यम से 'बांग्लादेशी' घुसपैठियों की पहचान' शुरू कर दी है), हरियाणा, राजस्थान, ओडिशा, झारखंड के मुख्यमंत्री रघुबर दास, मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह, बिहार के नेता हैं, जबकि महाराष्ट्र और गोवा जहां दोनों में भाजपा का शासन है, में नज़रबंदी केंद्र स्थापित किए जा रहे हैं।

अमित शाह ने खुद ही घोषणा की है कि बीजेपी घुसपैठियों को बंगाल से भगाने के लिए एनआरसी को लागू करेगी। बेशक, उन्होंने इस बात को जोर देकर कहा कि ऐस सीएबी के संसद में पारित होने के बाद ही किया जाएगा ताकि इस सब से केवल मुस्लिम ही प्रभावित हों, ताकि उनकी सांप्रदायिक प्रक्रिया के लिए कोई रोड़ा न बने।

क्या इन राज्यों को बांग्लादेश से बहुत अधिक प्रवासियों का सामना करना पड़ रहा हैं? 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, अखिल भारतीय स्तर पर, देश में हर एक लाख की आबादी पर केवल 190 बांग्लादेशी अप्रवासी हैं। इन अप्रवासियों का लगभग 87 प्रतिशत हिस्सा पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में हैं। और ये अप्रवासी लंबे समय से भारत में रह रहे हैं, नागरिकता अधिनियम 1955 में निर्दिष्ट 11 वर्षों से भी अधिक समय से रह रहे है जो देशीकरण होने के नियत समय से भी ज्यादा समय है। इसके अलावा, वे वहां के सभी समुदायों से संबंधित हैं यानी मिश्रित आबादी है न कि किसी खास मज़हब से हैं।

इसलिए, बीजेपी नेताओं द्वारा अवैध अप्रवासियों की बाढ़ और मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धि के बारे में जो झूठ और डर बयां किया जाता रहा है उसका कोई आधार मौजूद नहीं है।

एनआरसी की मांग के पीछे का वास्तविक इरादा क्या है?

यदि अप्रवासियों की वास्तविक संख्या इतनी कम है, तो फिर एनआरसी और सीएबी के बारे में इतना हो-हल्ला क्यों किया जा रहा है? इस सवाल का ज़वाब एक अल्पकालिक उद्देश्य और एक दीर्घकालिक ख्वाब में निहित है। तात्कालिक उद्देश्य में कई आगामी विधानसभा चुनाव विशेष रूप से बंगाल में 2021 में चुनाव हैं, जहां धर्म के आधार राज्य में मतदाताओं का तेजी से ध्रुवीकरण करके उसे जीतना है। यह रणनीति इस साल के शुरू में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान हुए हिंसक प्रदर्शन में देखी गई थी। बीजेपी इसे ज्यादा मजबूती के साथ आगे बढ़ाना चाहती है। और, लगता है बंगाल में सत्तारूढ़ ममता के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस उनके हाथों में बिलकुल उन्ही के मुताबिक खेल रही है।
लेकिन एनआरसी पर दीर्घकालिक एजेंडा है जो सबसे अधिक चिंताजनक है। क्योंकि, "विदेशी घुसपैठियों" को बाहर फेंकने की मांग 'विदेशियों’ के प्रति घृणा को पैदा करना है जो केवल बांग्लादेशी मुसलमानों तक सीमित नहीं रहेगी। वास्तव में, सभी मुस्लिमों को विदेशियों के रूप में देखना आरएसएस की बडी परियोजना का मूल रूप है। मुस्लिम "घुसपैठियों" की पहचान और उनके निर्वासन की मांग को चौतरफा बढ़ाया जा सकता है और हिंदू कट्टरपंथी की लामबंदी का बड़ा कारण बन सकता है।

ध्यान भटकाने की भूमिका

इसके साथ ही, एनआरसी का स्वांग गंभीर आर्थिक संकट से ध्यान हटाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है जिस संकट को मोदी सरकार ने देश में पैदा किया है। वास्तव में, देशव्यापी एनआरसी की मांग करने वाले भाजपा के कई नेता खुले तौर पर कह रहे हैं कि विदेशियों द्वारा नौकरियों पर कब्ज़ा किया जा रहा है, या भूमि पर उनका कब्ज़ा है। वास्तव में एक यह भी अफवाह फैलायी जा रही है जो पूरी तरह से निराधार है कि प्याज के व्यापार पर मुसलमानों का कब्ज़ा है और इसीलिए प्याज के दाम बढ़ गए हैं!

बढ़ती बेरोजगारी, और मंदी के कारण नौकरियों के नुकसान के खिलाफ बढ़ते असंतोष और इस संकट से निपटने में मोदी सरकार की अक्षमता को छिपाने के लिए एनआरसी या अन्य (मंदिर, पाकिस्तान आदि) जैसी मांगें उठाई जाएंगी ताकि लोगों का ध्यान मुख्य मुद्दों पर न जाए। और ये मुद्दे मोदी सरकार की बैसाखी का काम करेंगे। क्या यह सब काम करेगा? आगर हां तो कितने समय तक? यह तो वक़्त ही बताएगा। लेकिन एक बात तो तय है कि ये एक विनाशकारी और ख़तरनाक नीति है जो संविधान, देश की अखंडता और लोगों की एकता को कमजोर करेगी।

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