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नवफ़ासीवाद और नवउदारवाद एक ही सिक्के के दो पहलू

जब तक सब ठीक चलता है, इसका श्रेय नवउदारवादी व्यवस्था को दिया जाता है। कहा जाता है कि इसी के कारण जीडीपी की वृद्धि दर बढ़ायी है। लेकिन, जब संकट आता है तो इसका दोष नव-फासीवाद पर डाल दिया जाता है, जिसके साथ नवउदारवादी निजाम जुड़ा हुआ है। इस तरह नवउदारवाद और नव-फासीवाद को एक दूसरे का समर्थन हासिल है।
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साम्राज्यवाद की धूर्तता की तो कोई सीमा ही नहीं है। इस समय दुनिया के अनेक देशों में ऐसी नव-फासीवादी सरकारें हैं, जिन्हें अपने-अपने देश के बड़े पूंजीपति वर्ग का सहारा मिला हुआ है, जो खुद वैश्वीकृत पूंजी के साथ जुड़ा हुआ है। ये अर्ध-फासीवादी सरकारें, अपनी पहचान कराने वाली निर्ममता के साथ, नवउदारवादी नीतियों को लागू करने में जुटी हुई हैं। और दूसरे अनेक देशों में नव-फासीवादी संगठन, अपने बड़े पूंजीपति संरक्षकों को, सत्ता में पहुंचने पर ऐसा ही करने का वचन देकर, सत्ता में पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं। संक्षेप में यह कि एक नवउदारवादी-नव-फासीवादी गठजोड़, आज के समय में सर्वव्यापी हो गया है।

नव-फासीवाद और नवउदारवाद का गठजोड़

इस तरह का नवउदारवादी-नव-फासीवादी गठजोड़ इसलिए आवश्यक हो गया है क्योंकि नवउदारवाद के संकट के चलते, इसकी ओर से सामान्यत: जो लंबे-चौड़े वादे किए जाते हैं, अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। याद रहे कि इस तरह की नीतियां काफी लंबे अर्से से इसी वादे के भरोसे पर चलती आ रही थीं कि, ‘नवउदारवादी नीतियों के चलते, अंतत: सभी फायदे में होंगे।’ लेकिन, अब जबकि अर्थव्यवस्था में ही गतिरोध पैदा हो गया है, खुशहाली के ‘रिसकर नीचे पहुंचने’ के वादों पर कौन विश्वास करने जा रहा है। ऐसे में, मेहनतकश जनता को दबाकर रखने के लिए, कहीं कठोर कदमों की जरूरत होती है और इन कदमों को ढांपने के लिए उन पर धार्मिक समुदायों के बीच झगड़े, इथनिक समूहों के बीच झगड़े तथा इसी प्रकार के अन्य आपसी झगड़ों को भड़काने के जरिए, पर्दे डाले रखने की जरूरत पड़ती है। ठीक यहीं नव-फासीवादी संगठनों की भूमिका आती है। ये संगठन तो इस तरह के झगड़ों को भड़काने से ही खाद-पानी लेते हैं।

फिर भी, नव-फासीवाद के साथ गठजोड़, नवउदारवाद के लिए सिर्फ उक्त कारण से ही उपयोगी नहीं होता है। यह एक गठजोड़ नवउदारवाद के लिए एक और कारण से भी उपयोगी होता है। नव-फासीवादी संगठनों का सत्ता में आना, नवउदारवाद के लिए उपयोगी तो होता है, लेकिन इससे नवउदारवाद के संकट पर काबू नहीं पाया जा सकता है। शासन के हस्तक्षेप के कदमों से फिर भी सकल मांग को उत्प्रेरित किया जा सकता है तथा इस तरह, सिकुड़ती मांग को देखते हुए, अधि-उत्पादन के उस संकट से उबरा जा सकता है, जो नवउदारवाद को ज्यादा से ज्यादा ढांपता जा रहा है। लेकिन, इन कदमों का विश्वीकृत पूंजी द्वारा अपरिहार्य रूप से विरोध किया जाता है। उसे न तो धनवानों पर करों का लगाया जाना मंजूर है और न ही राजकोषीय घाटों का बढ़ाया जाना मंजूर है। लेकिन, यही दो तरीके हैं जिनसे शासन द्वारा अपने खर्चों में बढ़ोतरी कर के, मांग में शुद्घ बढ़ोतरी पैदा की जा सकती है।

नव-फासीवाद पर ही हमला केंद्रित करने की मुश्किल

इसलिए, जैसे-जैसे संकट गहराता है, अपने विभाजनकारी एजेंडों के बावजूद, नव-फासीवादी सरकारें भी अपना जन-समर्थन खोने लगती हैं। लेकिन, जब ऐसा होता है तो नवउदारवाद के इस संकट के लिए अपरिहार्य रूप से सिर्फ इस नव-फासीवाद को ही दोषी ठहरा दिया जाता है और जनता को इसके लिए प्रोत्साहित किया जाता है कि इस नव-उदारवाद से ही अपना हिसाब चुकता करे, न कि नव-फासीवाद के साथ।

बे्रटन वुड्स व्यवस्था की संस्थाओं के लिए, जिनके हाथों आर्थिक विकास के मामलों में, तीसरी दुनिया के देशों में ज्यादातर बौद्घिक विमर्श का और वास्तव में आम विकास अर्थशास्त्र पर पूरे के पूरे विमर्श का ही नियंत्रण बना हुआ है, इस इशारे को बढ़ावा देना जरा भी मुश्किल नहीं है कि इस संकट के लिए सिर्फ नव-फासीवाद ही जिम्मेदार है। इस दावे को रैडीकल बुद्घिजीवियों के एक हिस्से द्वारा आसानी से भी हजम कर लिया जाता है, जो वैसे भी नव-फासीवाद के विरुद्घ होते हैं, जो कि पूरी तरह से उचित है।

वास्तव में, इस संकट के लिए सिर्फ नव-फासीवाद पर ही दोष डालना, स्वाभाविक रूप से वामपंथ के एक हिस्से के लिए भी आकर्षित करने वाला होता है क्योंकि नव-फासीवादियों द्वारा असहाय अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत का फैलाया जाना, उनका जनतंत्र का सिकोड़ा जाना और मेहनतकश जनता पर उनका हमला, इनके खिलाफ जनता के विक्षोभ को संगठित करने को सबसे पहली प्राथमिकता बना देता है। इतना ही नहीं, नव-फासीवाद को जनता की आर्थिक मुश्किलों के लिए एकमात्र निशाना नहीं बनाने में इसका भी जोखिम रहता है कि इसे नव-फासीवाद से लड़ने में हिचकिचाहट की और यहां तक कि ढुलमुलपने की निशानी भी करार दिया जा सकता है। नव-फासीवाद को ही इकलौता निशाना बनाने से कतराने वालों पर समाज में इन सबसे निंदनीय, सबसे भोंडे, सबसे मतांध, दक्षिणपंथी तत्वों को बचाने का, आरोप भी लगाया जा सकता है।

बहरहाल, चूंकि इस प्रक्रिया में नवउदारवाद नजरों से छुपा रहता है, इसका नतीजा यह होता है कि नव-फासीवादी तत्वों को अगर सत्ता से बाहर कर भी दिया जाता है तब भी, किसी ऐसी नयी नवउदारवादी, नव-फासीवादी, सरकार के सत्ता में आने का रास्ता खुला रहता है, जो नवउदारवादी आर्थिक नीतियों पर ही चलती रह सकती है। लेकिन, चंूकि यह सरकार भी संकट पर काबू पाने में असमर्थ ही होगी, जिसके कारणों की हम पहले ही चर्चा कर आए हैं, इसकी संभावना भी बनी रहती है कि जब लोग नव-फासीवादी सरकार को हटाकर उसकी जगह आयी उदारपंथी सरकार से निराश हो जाएं, तो नव-फासीवादी फिर से भी सत्ता में आ सकते हैं। इस तरह, ऐसे किसी भी देश की राजनीति को ऐसे हालात में धकेलने की कोशिश की जा रही होती है, जहां अदल-बदल कर नव-फासीवादी और उदारवादी राजनीतिक ताकतों के ही हाथ में सत्ता घूमती रहती है, जो दोनों ही नव-उदारवाद के प्रति वचनबद्घ होते हैं और इस तरह, मेहनतकश जनता को आर्थिक संकट की आफत झेलते रहना पड़ता है।

मोदी सरकार ने उसी रास्ते चलकर संकट और बढ़ाया

भारत इस परिघटना का शास्त्रीय उदाहरण है। वर्तमान मोदी सरकार, 2014 में उस समय सत्ता में आयी थी, जब जनता को आर्थिक संकट की चोट महसूस होनी शुरू ही हुई थी। नवउदारवाद को पूरी तरह ओट करते हुए, संकट का पूरा का पूरा दोष मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चल रही, पिछली वाली उदारपंथी सरकार के ऊपर ही डाल दिया गया।

सत्ता में आने के बाद, मोदी सरकार ने नवउदारवादी नीतियों पर अंधाधुंध चलना जारी रखा, जबकि संकट बढ़ता गया, बेरोजगारी बढ़ती गयी और जनता की आमदनियां घटती रहीं। जनता की बढ़ती बदहाली का पता, अखबारों की रिपोर्टों के अनुसार राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) के जरिए सामने आए इस तथ्य से लग जाता है कि 2012-13 से 2017-18 के बीच, ग्रामीण भारत में प्रतिव्यक्ति वास्तविक उपभोग खर्च में 9 फीसद की गिरावट आयी थी। एनएसएस से सामने आयी यह सचाई इतनी हैरान करने वाली थी सरकार ने इस सर्वे के निष्कर्षों को प्रकाशित करने पर ही रोक लगा दी और एनएसएस के सर्वे के तब तक चले आते रूप को ही निलंबित कर दिया, जबकि आजादी के फौरन बाद से ही, महान सांख्यिकीविद पी सी महलनबीस के संरक्षण में, एनएसएस इसी रूप में यह सर्वे करता आ रहा था।

महामारी ने हालात को और बिगाड़ दिया। बहरहाल, महामारी का जोर कम होने के बाद भी आज बेरोजगारी, आजादी के बाद के अपने शिखर पर है। मुद्रास्फीति का प्रकोप इतना भयानक है, जितना हाल के वर्षों में कभी नहीं देखा गया। और डालर के सामने रुपए की विनिमय दर खिसक कर अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गयी है। इन आर्थिक मुश्किलों के खिलाफ जनता की विरोध कार्रवाइयां बढ़ गयी हैं। लेकिन, ज्यादातर विरोध प्रदर्शन करने वाले, अपनी इन मुश्किलों का दोष मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों को ही देती हैं और नवउदारवादी व्यवस्था का कोई जिक्र ही नहीं आता है। इसमें शक नहीं कि मोदी सरकार वर्तमान तीव्र तथा अभूतपूर्व आर्थिक संकट के दोषी है, लेकिन उसका दोष मुख्यत: यही है कि उसने बड़े जोरों से तथा निर्ममता से, नवउदारवादी नीतियों को लागू किया है।

नवउदारवादी नीतियों का ही है असली खोट

बेशक, इस सरकार ने खुद अपनी तरफ से कुछ सरासर बेतुके तथा विचारहीन कदम भी उठाए हैं, जैसे देश में संचरण में बनी हुई मुद्रा के कुल मूल्य के करीब 85 फीसद की अचानक नोटबंदी करना। इसने जनता पर भारी तकलीफें थोपीं और लघु उत्पादन क्षेत्र को पंगु बनाकर रख दिया, जबकि अर्थव्यवस्था को इससे रत्तीभर फायदा नहीं हुआ। लेकिन, वर्तमान आर्थिक संकट की विराटता को, इस कारण के ही सहारे किसी भी तरह से नहीं समझा जा सकता है। इसी प्रकार, इस सरकार ने गुड्स एंड सर्विसेज (जीएसटी) टैक्स को लागू किया है, जिसने भी लघु उत्पादन पर पंगु करने वाला आघात किया है। लेकिन, जीएसटी को विश्व बैंक ने प्रोत्साहित किया था और इस विचार को मनमोहन सिंह की सरकार ने ही आगे बढ़ाया था। मोदी सरकार ने तो इस मामले में यही किया है कि अपनी जानी-पहचानी निर्ममता के साथ, इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया है। बहरहाल, मौजूदा संकट को जीएसटी से और यहां तक कि  उसके साथ नोटबंदी को भी जोड़ दिया जाए तब भी इन दोनों से भी, नहीं समझा जा सकता है।

संक्षेप में यह कि नवउदारवादी खांचे को छोड़कर, इस सरकार ने जो भी कदम उठाए हैं, वे चाहे कितने ही नुकसानदेह क्यों न हों, उनके आधार पर मौजूदा संकट को नहीं समझा जा सकता है। यह बात स्वत:स्पष्ट है और इसे यह तथ्य और भी रेखांकित कर देता है कि भारत कोई अकेला देश नहीं है, जो इस तरह का आर्थिक संकट झेल रहा है। वास्तव में यह संकट सर्वव्यापी हो गया है और तीसरी दुनिया का विशाल क्षेत्र इसकी चपेट में है और यह संकट नवउदारवादी नीतियों के लागू किए जाने का ही नतीजा है। इसके बावजूद, अचरज की बात है जब अलग-अलग देशों के इस संकट की चर्चा की जाती है, नवउदारवाद का शायद ही कहीं जिक्र होता है। श्रीलंका में संकट है, तो उसके लिए राजपक्षे परिवार की मूर्खताएं जिम्मेदार हैं। भारत में संकट है, तो इसके लिए मोदी सरकार की गलतियां जिम्मेदार हैं। अफ्रीका में संकट है, तो उसके लिए यूक्रेन का संकट जिम्मेदार है, जिसने अनाज की आपूर्ति पर बुरा असर डाला है, आदि, आदि।

साम्राज्यवाद की धूर्त योजना

वर्तमान सामराजी व्यवस्था की असाधारण धूर्तता इसी में छुपी हुई है। साम्राज्यवाद के लिए तो यह ‘चित भी मेरी, पट भी मेरी’ वाली स्थिति है। जब तक सब ठीक चलता है, इसका श्रेय नवउदारवादी व्यवस्था को दिया जाता है। कहा जाता है उसने जीडीपी की वृद्धि दर बढ़ायी है। लेकिन, जब संकट आता है इसका दोष नव-फासीवाद पर डाल दिया जाता है, जिसके साथ नवउदारवादी निजाम जुड़ा हुआ है। इस तरह नवउदारवाद के नव-फासीवाद के साथ जुड़ जाने की दुहरी भूमिका है। एक तो इससे नवउदारवादी निजाम को बल मिलता है क्योंकि इसके जरिए, धर्म या एथनिक पहचान के आधार पर नफरत के शोले भड़काने के आधार पर, किसी असहाय अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ बहुसंख्यकों को खड़ा किया जा रहा होता है, ताकि इसके धुंध की ओट में, कारपोरेटों को और बड़ी रियायतें दी जा सकें। दूसरे, जनता जब बगावत पर उतर आए, इससे बच निकलने का एक आसान रास्ता मिल जाता है।

मराठी नाटककार, विजय तेंडुलकर के बहुचर्चित नाटक, ‘घासीराम कोतवाल’ में पुणे के शासक का धूर्त मंत्री, नाना फडनवीस अपने प्रशासन के सारे दमनकारी काम करने के लिए, एक बहुत ही निर्मम गुर्गे का इस्तेमाल करता है। लेकिन, आखिरकार जब जनता इन कदमों के खिलाफ बगावत कर देती है, वह अपने गुर्गे को निकाल कर बाहर कर देता है और लोगों से तारीफ बटोर लेता है। तीसरी दुनिया के नव-फासीवादियों की भूमिका, इस गुर्गे घासीराम की जैसी ही है। नवउदारवाद पर अमल करते हुए, वे जब सत्ता में रहते हैं तो अपने फासीवादी कदमों से समाज का भारी नुकसान करते हैं और जब जनता का विक्षोभ ज्यादा बढ़ जाए, उनसे छुट्टी पाकर नवउदारवाद को सुरक्षित रखा जा सकता है।

नव-फासीवाद को, उसके आर्थिक आधारों की ओर आंखें मूंदकर देखना, इस तथ्य को अनदेखा करना कि नव-फासीवादी सरकार वास्तव में नवउदारवादी-नव-फासीवादी गठजोड़ पर आधारित होती है। और आम तौर पर राजनीति को, अर्थव्यवस्था से काटकर एक स्वयंसंपूर्ण क्षेत्र की तरह देखना, एक उदारपंथी रुझान है और वामपंथ को इसकी नकल नहीं करना चाहिए।

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